निस्संदेह विकास के ढेर सारे टापू विकसित किये हैं हमने, लेकिन हमारे गांव कुल मिलाकर अभी इस विकास की परिधि पर ही हैं. दुर्भाग्य तो यह भी है कि हमारी ग्राम-सभ्यता और ग्राम-संस्कृति भी इस दौरान लगातार क्षरित हुई है, क्षत-विक्षत भी. परम्परा और कथित आधुनिकता के एक द्वंद्व ने हमारे ग्रामीण जीवन, ग्रामीण सोच और ग्रामीण संस्कृति को ऊहापोह के एक ऐसे जंजाल में फंसा दिया है, जिसमें से निकलना कठिन होता जा रहा है. आज विकास के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह ऊपरी तहों तक ही सीमित है. सवाल यह भी है कि यह सारा कथित विकास जीवन को किस दिशा में ले जा रहा है? इस अंक में हमारे विचारकों ने इस प्रश्न का उत्तर खोजने का एक प्रयास किया है. कोशिश की गयी है यह जानने की कि गांव गांव से बेदखल क्यों होता जा रहा है? क्या नया यथार्थ है हमारे ग्रामीण भारत का, और उसे क्या सार्थक दिशा और अर्थ दिया जा सकता है? आवश्यकता खंडहरों के पुनर्निर्माण की ही नहीं, खंडहरों के अतीत को समझने की भी है.
कुलपति उवाच
आर्य संस्कृति की नींव
कनैयालाल माणिकलाल मुनशी
शब्द-यात्रा
ग्राम और नगर
आनंद गहलोत
पहली सीढ़ी
निवेदन
रवींद्रनाथ ठाकुर
आवरण-कथा
सम्पादकीय
गांव से बेदखल होता गांव
रामचंद्र मिश्र
चरमरा रहा है हमारा बुनियादी सामाजिक ढांचा
विजय कुमार
भारत का दर्पण
महाश्वेता देवी
हम गांव भी उजाड़ रहे हैं और शहर भी
अनुपम मिश्र
दो गांवों की कहानी
कहां खो गया मेरा गांव
कृष्णबिहारी मिश्र
पूरे थे अपने आप में आधे-अधूरे लोग
विवेकी राय
60 साल पहले
प्रतिभा में पंख लगाइए
मेरी पहली कहानी
देवकली का व्याह
आर. के. पालीवाल
आलेख
भारतीय चित्रकला को रवींद्रनाथ ठाकुर ने नयी ज़मीन दी थी
अशोक भौमिक
फ़ैज तो खुदा हाफिज कहकर चले गये
एलिस फ़ैज़
‘राग दरबारी’ का गांव
श्रीलाल शुक्ल
गांव वाला बेटा
बालेश्वर राय
नंगे सेनापति का प्रायश्चित
रॉयन लोबो
मेरे अंदर की औरत
अमृता प्रीतम
गोदान की रचना का रहस्य
डॉ. कमल किशोर गोयनका
किताबें
व्यंग्य
आम्ही जातो आमुच्या गांवा
यज्ञ शर्मा
स्वर्गलोक में नेताजी
नरेश शर्मा
धारावाहिक उपन्यास
कंथा (तेइसवीं किस्त)
श्याम बिहारी श्यामल
कविताएं
ग्राम काव्य
त्रिलोचन
भवानीप्रसाद मिश्र
कैलाश गौतम
केदारनाथ सिंह
सुमित्रानंदन पंत
रेमिका थापा
सुनीता जैन
कहानियां
अंतहीन
जसविंदर शर्मा
अहंकार का फल
ज्ञानदेव मुकेश
समाचार
संस्कृति समाचार
भवन समाचार