पुकारते है ‘साकुरा’ आओ! – रीतारानी पालीवाल

आवरण-कथा

 

काश मैं वसंत ऋतु के
दूसरे माह की पूर्णिमा की चांदनी में
फूल रहे साकुरा तरु के नीचे
अपनी अंतिम सांस लेता.

(‘शिन कोकिन वाका-शु’ में संकलित)

दिलचस्प बात यह है कि साकुरा के वृक्ष के नीचे अंतिम सांस लेने की साइग्योओ की यह इच्छा पूरी हुई. वे वसंत की बहार में ही इस दुनिया से विदा हुए. समकालीनों द्वारा यह साइग्योओ की सर्वोत्तम कविता मानी जाती है.

यों तो वसंत आगमन भांति-भांति के सुंदर फूलों से सजता है, लेकिन साकुरा जापानियों का अत्यंत प्रिय फूल है. खिलते ही एक विशिष्ट उल्लास की चहल-पहल सी दिखाई देती है- प्रकृति में भी और जीवन में भी. इसका कारण है कि पतझड़ के बाद नंगे खड़े वृक्षों में सबसे पहले साकुरा ही वसंत की सूचना देता है और फिर वसंत को चारों ओर बगरा देता है. अचानक ही हमें रीतिकाल के प्रसिद्ध कवि पद्माकर की पंक्ति याद आ जाती है- ‘बनन में, बागन में, बगर्यौ बसंत है’.

मार्च के आखिर और अप्रैल के आरम्भ में साकुरा के वृक्ष फूलों से लद जाते हैं. पहाड़ियों, घाटियों, झरनों, सरोवरों के तटों, उद्यानों, भवनों, सड़कों के किनारों और घरों के बगीचों में साकुरा की भूरी गुलाबी फूलों से लदी डालियां वसंती हवा के झोंकों से झूम उठती हैं और फूलों की नाजुक पंखुरियां झर उठती हैं. चारों ओर हल्की गुलाबी मोती की सी आबदार पंखुरियां हवा में तैरती दिखाई देती हैं. लहराती और पंखुरियां गिरातीं इन डालों पर फूल ही फूल होते हैं, पत्तियां नहीं. पतझड़ के बाद साकुरा में पहले फूल आते हैं, फिर पत्तियां. चारों ओर का वातावरण एकदम गुलाबी होता है. लेकिन वसंत की यह बहार जितने उत्साह से आती है, उतनी ही जल्दी बिखर कर तार-तार भी हो जाती है. तेज हवाएं, झोंकों की झड़ियों से डालों को लगातार झकझोरती हुई फूलों को झाड़ती रहती हैं और फिर प्रशांत महासागर से उठते बादलों की घिरती घटाएं तेज़ बौछारों की मार से साकुरा की नाजुक पंखुरियों को बेरहमी से उधेड़ डालती  हैं.

साकुरा खिलते देखकर जापानी मानस राग और उल्लास से भर जाता है. इसकी शांत नाजुक सुकुमारता को सराहते हुए वह अपने मन में समेट लेना चाहता है. लोग घरों से बाहर निकल पड़ते हैं, ‘हानामी’ के लिए. पर्वतों, उद्यानों, झीलों के किनारे जाकर साकुरा के वृक्षों के नीचे बैठते हैं, प्रियजनों के साथ बैठकर फुरसत के क्षणों का आनंद लेते हैं, छुट्टी मनाते हैं.

प्राचीन राजधानी नारा के निकट योशिनी पहाड़ियों पर उगने वाले बनैले साकुरा वृक्षों की सैकड़ों किस्में विकसित हुईं. इनमें से 19वीं शताब्दी में तोक्यो में उगायी गयी ‘सोमेई-योशिनी’ किस्म की प्रजाति आज जापान का क्लासिक साकुरा मानी जाती है. साकुरा पुष्प की सांस्कृतिक वंशावली पौराणिक राजकुमारी ‘कोनोहाना नो साकुरा’ से शुरू होती है. राजकुमारी साकुरा का विवाह सूर्य देवी आमातेरासु के पौत्र राजकुमार निनिगी से हुआ था. राजकुमार निनिगी जब विवाह के लिए जापान की भूमि पर उतरे तो अपने हाथ में आमातेरासु के बगीचे के धान के पौधों की एक गठरी भी लाये जिसे जापानी भूमि पर रोपा गया और देश-धन-धान्य से सम्पन्न हुआ.

यह भी माना जाता है कि राजकुमारी के नाम ‘साकुरा’ से ही इस वृक्ष को ‘साकुरा’ नाम मिला है और साकुरा वृक्ष में राजकुमारी की आत्मा निवास करती है. क्योतो में एक उत्सव मनाने की पुरानी परम्परा है जिसमें मंदिरों के भिक्षु साकुरा वृक्ष की आत्मा से यह प्रार्थना करते हैं कि साकुरा के फूल दीर्घजीवी हों- ज़्यादा से ज़्यादा दिन खिले रहें. यह माना जाता है कि यदि फूलों के खिलते ही तुरंत बादल-वर्षा से पंखुरियां झर जाएं तो यह भविष्य संकेत अथवा पूर्व-सूचना होती है कि धान की फसल अच्छी नहीं होगी.

साकुरा को प्राचीन हेइके राजवंश कालीन भव्य कलाओं का मूलभूत तत्त्व कहा जा सकता है. कवि साइग्योओ ने इसके अनिंद्य सौंदर्य के गीत गाये और चित्रकारों ने ‘यामाको-ए-चीरको’ (वस्त्र पर अंकित चित्र चीरक) और चिकों (बांस की सींकों से बने चीरकों) पर इसके कुसुमित पुष्प-पुंज को उकेरने में अपनी साधना की पूर्णता मानी. आगे चलकर समुराई युगों ने पारम्परिक दाय स्वरूप प्राप्त इस साकुरा आसक्ति को समुराई योद्धाओं ने अपने ढंग से संजोया- अपने अस्त्राsं और कवचों को साकुरा की फूल-पत्तियों के डिजाइनों से सज्जित करके.  इस प्रकार, थोड़े-से दिनों में खिलकर तार-तार हो झर जानेवाला साकुरा फूल प्राचीनकाल से ही लोगों का अत्यंत दुलारा और ‘मोनो नो आवारे’ (दया का पात्र) रहा है- जीवन की नश्वरता और क्षण-भंगुरता के सुमधुर-उदास सुख-दुखात्मक बोध के प्रतीक के रूप में. पुराने समय से ही चित्रकार उसे अपनी तूलिका से उकेरते रहे हैं और कवि अति-सुकुमार सौंदर्य का गान करते हुए उसकी लय को अपनी शब्द-लय में उतारने का प्रयास करते रहे हैं. साकुरा की क्षण-भंगुरता उन्हें सताती-सालती रही है, जैसे दसवीं शताब्दी के कविता संग्रह ‘कोकिंशु’(प्राचीन और नवीन कविताएं) में संकलित इन कविताओं में-

नरम धूप में नहाया हुआ
वसंत का यह शांत दिवस-
मेघ रहित स्वच्छ आकाश!
फिर क्यों साकुरा के फूल
इतने अधीर हो झरते जाते हैं?

(की नो तोमोनोरी)

साकुरा फूलों का खिलना सुखद लगता है और उनका झर जाना चित्त को सालता है. लगता है काश कुछ और समय के लिए खिले रहते. किंतु फिर जीवन की अनित्यता का बोध होता है और मान लेते हैं कि यही नियति है. नवीं शताब्दी के कवि फुजिवारा योशिफुसा (804-872) की जर्जर होती काया में वसंत की लय नया उत्साह पैदा करती है-

उम्र के ढलान पर आकर अब,
वाकई बूढ़ा हूं मैं
कोई दो राय नहीं इसमें
फिर भी
देखता हूं जब इन फूलते साकुरा वृक्षों को
कितना युवा हो उठता है मेरा मन!

वहीं अठारहवीं सदी के कवि ‘कामो वो माबुची’ (1697-1769) साकुरा को खिलते देख इतने आह्लादित और विस्मित हैं कि संसार-भर के लोगों को अनिर्वचनीय साकुरा का अनिंद्य सौंदर्य दिखा देना चाहते हैं. वे महसूस करते हैं कि कितना भी बताया-सुनाया-समझाया जाए, जब तक लोग अपनी आंखों से देख नहीं लेंगे वे नहीं समझ पायेंगे कि साकुरा से लदे पहाड़ कितने सुंदर होते हैं-

काश! धरती पर रहने वाले, सभी लोग
हमारी इस भूमि पर आते
इन योशिनो पहाड़ियों पर पहुंचते
और फूले हुए साकुरा को देख पाते.

उन्नीसवीं शताब्दी के दाते चिहिरो (1803-1877) साकुरा फूलों की सहन-शक्ति पर मुग्ध हैं जो आंधी-पानी के थपेड़ों की मार से अपना जीवन खोकर भी मन मैला नहीं करते-

खिले और बिखर गये
हवा और वर्षा की मर्जी पर
अपने को सौंप कर,
शेष नहीं रहे साकुरा के फूल अब!
पर चित्त उनका शांत है सदा.

जापानी साहित्य और पुरावृत्त साकुरा के बिम्बों और प्रतीकों से भरे पड़े हैं. ‘मान्योशु’ (प्राचीन दस हजार गीति कविताओं का संग्रह) की कविताओं में प्रेम के कोमल भावों को साकुरा पुष्प, पवन, चंद्रमा, पंछी आदि के प्रकृति बिम्बों द्वारा अभिव्यक्ति मिली है. कोमल और सुकुमार की अभिव्यक्ति के लिए अक्सर साकुरा की उपमा दी गयी है. सुप्रसिद्ध काबुकी नाटकों के शीर्षक- ‘योशित्सुने सेन बॉनजाकुरा’ (योशित्सुने और हजार साकुरा वृक्ष) है तथा ‘सुकेरोकु युकारी नो ऐदो जाकुरा’ (एदो का साकुरा पुष्प सुकेरोकु) क्रमशः दोनों नायकों-योशित्सुने और सुकेरोकु की सुकुमारता और लोकप्रियता के परिचायक हैं, सुकेरोकु अपने सुकुमार यौवन और अनूठे सौंदर्य के कारण एदो के गेइशा समाज में अतिप्रिय हैं. योशित्सुने अपने शौर्य-पराक्रम के बावजूद अत्यंत सुकुमार है, साथ ही मानवीयता से परिपूर्ण भी. अतः उसकी युद्ध कथाएं साकुरा से जुड़ी हैं. गेंजी-हेइकेई युद्ध गाथाओं में हेइके वंश के किशोर राजकुमार आत्सुमोरी की कथा में आत्सुमोरी को साकुरा की भांति सुंदर, सुकुमार और मनोहर योद्धा कहा गया है. इसी कथा पर आधारित ‘कुमागाई जिन्या’ (कुमागाई युद्ध शिविर) नाटक में योशित्सुने तब अपने सेनापति कुमागाई को आदेश का संदेश भेजता है कि हेइके वंश के एकमात्र उत्तराधिकारी के प्राण बचाये जायें तो प्रतीकात्मक भाषा में कहता है- ‘जो कोई भी साकुरा की एक डाल काटेगा उसे इसकी कीमत चुकानी होगी.’ सेनापति कुमागाई अपने स्वामी की इस भाषा को समझ लेता है और आत्सुमोरी के जीवन की रक्षा स्वयं अपने पुत्र का बलिदान करके करता है. स्वामी के समक्ष उसकी आज्ञापालन का प्रमाण प्रस्तुत करता है- शब्दों में नहीं साकुरा की डाल दिखाकर और फिर कठोर कर्त्तव्य-पालन की वेदना को झेलता हुआ समुराई बाना त्याग कर  बौद्ध भिक्षु हो जाता है.

लेकिन जापान का इतिहास क्षत्रिय योद्धाओं का इतिहास रहा है- शौर्य और वीरता का, बलिदान को आदर्श मानने के उत्साह और कर्मठता का इतिहास. साकुरा का झरना, कोमल सुंदर का जल्दी से बीत जाना, अक्सर मन में विराग का उद्रेक करता रहा है. जीवन की नश्वरता, अनित्यता के बोध को जगाकर सांसारिक वैभव को त्यागने का संदेश देता रहा है.

प्राचीन जापानियों को मनोहर लगने वाला साकुरा पथरीली चट्टानी भूमि पर पाया जाने वाला बनैला पहाड़ी साकुरा (यामा-जाकुरा) था. पतझड़ से नंगे हुए यामाजाकुरा वृक्ष (पहाड़ी साकुरा के वृक्ष) अप्रैल का महीना शुरू होते ही ललछौंही कोंपलों और हल्के गुलाबी चाहिए, ब्रह्म की तरह सर्वव्याप्त है- वह अपेक्षाकृत नयी किस्म का साकुरा है जो 1872 में तोक्यो की सोमेई नर्सरी में विकसित किया गया था. पूरा पेड़ हल्के गुलाबी फूलों से भरभरा कर लद जाता है हफ्ता-दस के लिए. एक-एक करके पंखुरियां झरती जाती हैं. ललछौंही पत्तियां अधिक दिखाई देती हैं और तीसरे-चौथे सप्ताह में वही वृक्ष पूरी तरह विकसित पत्तियों से भर कर बिल्कुल हरा दिखाई देता है. इसकी फूलों से लदी डालियां बरगद की शाखाओं की तरह नीचे लटकी रहती हैं और इसकी पंखुरियां वर्षा की टप-टप बूंदों की तरह लगातार नीचे झरती हैं. इसका रंग भी ओशिमा साकुरा से थोड़ा-सा ज़्यादा गुलाबी होता है. साक्यो जुनिचिरी तानाजाकि के उपन्यास ‘सासामेयुकी’ में क्योतो इलाके के हेइके राजवंश द्वारा निर्मित देवालय के विशिष्ट हिदारेजाकुरा को चित्रित किया गया है. इसकी पतली-पतली फूलों-भरी और नीचे की ओर झूलती हुई टहनियों से लगातार पंखुरियां झरते रहने के कारण इसे अंग्रेज़ी में वीपिंग चीरी ब्लोज़म कहा जाता है.

वसंत में साकुरा के खिले फूलों को देखना ‘हानामी’ कहलाता है. ‘हाना’ का अर्थ है फूल और ‘मी’ का अर्थ है- देखना, निरखना. ‘हानामी’ और ‘मोमिजी’ पतझड़ में रंग बदलते मेपल के पत्ते दोनों ही जापानियों को इतना रिझाते हैं कि वे हर शरद और वसंत के इस प्राकृतिक वैभव को अपने जीवन में उतारने का भरसक यत्न करते हैं. एक तरह से जापान का राष्ट्रीय-उत्सव सा हो जाता है जिसमें हर कोई शामिल होता है मानो प्रकृति से तादात्म्य और सामंजस्य का स्वर मिलाते हुए लोग निकट मित्रों, साथियों या परिवारों को लेकर, न्यौता देकर इकट्ठे हो रहे हों. पार्कों, झीलों, पहाड़ों पर बने देवालयों और मंदिरों के बगीचों में सैकड़ों-हजारों की तादाद में लोग पहुंचते हैं. बड़ी तादाद में लोग कैम कॉर्डर और डिजिटल कैमरा लिये दिखते हैं- हवा के झोंकों से झूमती कुसुमित डालियों की लय को, झरती हुई पंखुरियों की नाजुक नफासत को, धरती पर बिखरी हुई और पानी पर तैरती पंखुरियों की चादर को कैमरे में दर्ज करते हुए. अब ज़माना टेक्नोलॉजी का है, तेज़ रफ़्तार का है. कविता लिखने से ज़्यादा अब तेज़ आवाज़ में ‘कराओके’ गाने की ध्वनि रिझाती है. ताली बजाते, गाते ‘साके’ (जापानी धान से बनी शराब) के घूंट और सिगरेट का कश खींचते लोग बतियाते हुए धीरे-धीरे झरती पंखुरियों के बीच भोजन और गप-शप का आनंद उठाते हैं; झीलों, तालाबों, खाइयों में नौका-विहार करते हैं- गुलाबी वसंत से तदाकार होते हुए, उसके क्षणभंगुर, शृंगार की कथा कहती पंखुरियों की तैरती हिलती चादर को चप्पू से चीरते हुए. ‘हानामी’ में सभी शामिल होते हैं- बच्चे, बूढे, जवान, प्रेमी-युगल, स्कूली छात्र-छात्राएं, देशी-विदेशी सभी. अति-बुजुर्ग लोगों को उनके परिवारीजन अथवा परिजन व्हील चेयर पर ‘हानामी’ के लिए लाते हैं. जापानी लोगों की औसत आयु दुनिया में सबसे अधिक है. बड़ी तादाद में मौजूद इन बुजुर्गों का यह अपने पुराने परिचितों से मिलने, हवा खाने का अवसर होता है.

वसंत के आगमन की निश्चित तारीख नहीं होती. साकुरा की कलियां शांत-नीरव आकाश में धीरे-धीरे चिटकना शुरू होती हैं, पहले दक्षिणी जापान में क्यूशू क्षेत्र में. शनैः शनैः वसंत दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता है- क्यूशू से शुरू होकर उत्तर में होक्काइदो तक. मौसम विभाग बड़े उत्साह से टेलिविजन पर रिपोर्ट देता है- ‘क्यूशू में साकुरा दस प्रतिशत खिल उठा है. बुधवार तक यह 20 प्रतिशत खिला होगा और अगले सोमवार दोपहर तक यह ‘मांकाई’ होगा यानी पूरी तरह खिल उठेगा.’ और तब जापानी लोगों को लगता है कि ‘हानामी’ के बहाने कुछ देर प्रकृति के समीप पहुंचा जाए, उसके साथ जी लिया जाए.

विभिन्न स्थानों पर साकुरा उत्सव ‘हाना मात्सुरी’ आयोजित होते हैं. रंगारंग कार्यक्रमों के रूप में, मेलों के रूप में, दावतों के रूप में. बहुत से मंदिरों में भगवान बुद्ध का जन्मदिन ‘हाना मात्सुरी’ (पुष्पोत्सव) के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर बुद्ध की माता को ‘सफेद हाथी’ के दर्शन और बुद्ध अवतार की कथा का बच्चों द्वारा मंचन किया जाता है. काबुकी नाट्य-अभिनेता इस मौसम में साकुरा के वृक्षों के नीचे प्राकृतिक परिवेश में ‘साकुरा काबुकी’ का मंचन करते हैं. ‘उताहमोन सान’ द्वारा यह मंचन काफी प्रयोगशील और मनोहर होता है. क्योतो के निकट ओहारा संजेइन मंदिर के प्रांगण में मुक्ताकाश के नीचे वृक्षों के परिवेश में एक किनारे पर जलते अलाव के प्रकाश में काबुकी मंचन किया जाता है. यहां प्राकृतिक परिवेश के साथ मिल कर काबुकी में पहले से ही विद्यमान रम्याद्भूत तत्त्व और ज़्यादा आकर्षक हो जाता है.

शिजुओका कॉम्पिरा देवालय के निकट स्थित ‘कानामारुजा’ जापान की सबसे पुरानी रंगशाला है. 1835 में निर्मित इस रंगशाला में आज भी एदो युगीन परिवेश में ही मंचन होता है. मंचन वर्ष में तीन माह होता है जिसकी शुरुआत अप्रैल में साकुरा खिलने के दिनों में होती है. बाहर वृक्षों से लगातार झरती हुई साकुरा की पंखुरियां बिखराती बहार को रंगशाला के भीतर कागज़ और प्लास्टिक की साकुरा पंखुरियां बिखराते हुए पुनः सृजित किया जाता है.

फरवरी 2016

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