घरघराहट
इस बंद घर की
सारी खिड़कियां खुली हैं
पर खिड़कियों में
न चिड़ियां हैं, न हवा
न चांद की कंदील,
न सूखे पत्तों का दिठौना
इतिहास तो है
हर आले और चौखट में घर की
लेकिन कमरों का कोई आगत नहीं
एक बदरंग पत्थर पर
उत्कीर्ण एक नम्बर भी है
और नाम मेरा
एक आईना है इसके आंगन में
चुपचाप बिसूरता
एक आंसू-सा है कुछ खारा
धुंधला रहा और चीरता
एक शब्द है इस घर की निस्तब्धता में
धीरे-धीरे भरे गले से घरघराता
शायद, विदा
शायद, अम्मी
शायद, कहां
धुआं
वह होगी अब पंद्रह सोलह बरसों की
जाने कितने सपनों में जगी
किसी सड़क पर जल्दी जल्दी चलती
या बैठी कोई पुस्तक पढ़ती
कितनी मेधावी थी जब वह मेरी मां थी
भले आठ जमात पढ़ी थी!
इसीलिए उसको अब
मैं याद नहीं करती.
कितने दुःख थे उसके
कितने अपनों ने उसे दिये
फिर भी वह नाराज़ नहीं थी,
बस दिये की बुझती बाती-सी
राख भरी थी
मेरी मां मरी नहीं थी!