दद्दू मोरे, मैं नहीं पुरुस्कार ठुकरायो  –  लक्ष्मेंद्र चोपड़ा

व्यंग्य

अगड़ों की दौड़ में शामिल होने के लिए लालायित उस प्रदेश के पिछड़े कस्बे के आसमान पर सूरज चढ़े देर हो चुकी थी. कविता की भाषा में कहें तो ढेरों काली-भूरी चिड़ियां चहचहा कर थक चुकीं थीं. रही रामदुलारी गिलहरियां हरे-भरे बादामी वृक्षों की प्रशंसा में नये चारण गान रच चुकी थीं. और समय भी ऐसा ही कुछ करने के बारे में विचार गोष्ठियों में व्यस्त था.

लेकिन इतने सब पर भी देश की समकालीन कहानी के चर्चित दिग्गज कथाकार गहरी नींद ले रहे थे. दरअसल वे अब तक जीवन में इतना कुछ कर चुके थे; और अपने अच्छा किये का प्रतिदान ले चुके थे कि अब नींद लेना ही बाकी रह गया था. अपनी कहानियों के पात्रों की तरह वे नींद में भी भ्रमित थे. नींद में भ्रम के सपने भी थे और सपनों का तनाव भी.

-‘मारा कस के है पटवारी.’

पता नहीं कौन फुसफुसा रहा था उनके सपनों में. कथाकार को लगा वे नींद में भ्रांत हो रहे हैं, अपनी कहानियों के नायकों की तरह. भला आज़ादी के इतने दशकों के बाद, वो भी देश में छाये अच्छे दिनों के आसमान तले कोई किसी को कैसे मार सकता है? कथाकार करवट बदल कर फिर सो गये- ‘अरे मारा कस के है पटवारी!’ फुसफुसाहटें शोर में बदलती जा रही थीं.

कथाकार चौंक कर नींद से जाग गये. कमरे में कोई भी नहीं था. पर मानों उनके कानों में कोरस गूंज रहे हों- ‘बचाओ-बचाओ… मारा कस के है पटवारी.’

कथाकार चौंक कर नींद से बाहर आ गये. देखा सूरज उदित ही नहीं हो चुका है, दोपहर बाद के ढलान तक की यात्रा भी कर चुका है.

कथाकार ने भी दिन का आरम्भ मीडिया की इस दुपहरिया में आम इंसानों की तरह ही किया. रिमोट उठा कर टी.वी. ऑन कर दिया.

टेलीविज़न के समाचार चैनल बड़े-बड़े बैनर्स में ब्रेकिंग न्यूज़ दे रहे थे-

‘सुप्रसिद्ध कन्नड़ लेखक डॉ. मलेशप्पा आदिवलाप्पा कलबुर्गी की धारवाड़ में कट्टरवादी तत्त्वों द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गयी. अठहत्तर वर्षीय प्रो. कलबुर्गी को उनके विद्वतापूर्ण लेखन के लिए केंद्रीय साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया था. इसके पहले इसी प्रकार तर्कवादी विचारक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की पुणे में तथा कामरेड गोविंद पानसरे की अहमदनगर में हत्या कर
दी गयी थी. डॉ. दाभोलकर पद्मश्री से सम्मानित थे.’

कथाकार का मन दुखी हो गया. सोचने लगे क्रूर पटवारियों के बड़े-बड़े दल पूरे देश में चमरौधों के झंडे-डंडे लेकर घूम रहे हैं. उन्हें याद आया वर्ष 1991 में इसी तरह छत्तीसगढ़ में समाज-सुधारक मज़दूर नेता शंकरगुहा नियोगी की रात के अंधेरे में गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी.

कथाकार की कहानियों के पात्र एक-एक कर उनके मन में उतरने लगे. दीन-हीन-से, मानो याचना कर रहे हों, इस तरह की अन्यायपूर्ण घटनाओं का प्रतिकार होना चाहिए. जो मारे गये वे अपने समय का नहीं, इस समय के अंधकार का विरोध कर रहे थे, वह भी विचारों से अपनी कलम के द्वारा. वे सिर्फ अंध-विश्वासों के विरोधी थे, किसी धर्म या समुदाय के नहीं.

कथाकार ने खुद को बहुत विवश पाया. उनके पीछे न तो झंडे थे और न ही टोपियां. कथाकार ने अपना स्मार्ट मोबाइल उठाया. फेसबुक खोली. सोच-सोच कर संदेश टाइप किया और ‘सेंड’ का बटन दबा दिया. इतना सब करके कथाकार स्वयं को काफी हल्का महसूस करने लगे थे.

देश के सबसे धनी मीडिया समूह के चैनल के प्रमुख मिस्टर बुल महंगे सूट-बूट-टाई में अपने शानदार चेम्बर में बैठे बाल नोच रहे थे. वे अपने नम्बर वन के दावे वाले टाक-शो के लिए विषय की तलाश में थे- ‘आखिर आज रात इंडिया क्या जानना चाहता है?’

दरअसल मि. बुल खुद को ही इंडिया मानते थे. अंग्रेज़ी भाषा का भयंकर ज्ञान तथा डांट-फटकार की आक्रामक शैली के सामने अच्छे-अच्छे विद्वान और बड़े-बड़े राजनेता भी उनके सामने पानी भरते थे. वे पानी ही भरते रहें, इसलिए मि. बुल अपने शो में किसी को बोलने ही नहीं देते थे; अंत में गेस्ट अपने बाल नोचने लगता. खैर इस समय तो वे खुद अपने ही बाल नोच रहे थे, नये विषय की तलाश में. शो के सब्जेक्ट रिसर्चर भी कम्प्यूटर पर विषय खंगालने में लगे हुए थे.

अचानक कम्प्यूटर में डूबी एक रिसर्च-असिस्टेंट कविता के मुंह से निकला- ‘अरे ये क्या, अवार्ड ही लौटा दिया?’ मि. बुल ने जिज्ञासा से देखा. वे नहीं जानते थे कि इस लड़की की हिंदी-साहित्य में भी रुचि है. न ही उन्हें यह पता था कि इस लड़की का एक प्रेमी भी है- निबंध. निबंध एक हिंदी चैनल में काम करता था.

कविता ने उत्साह से मि. बुल को बताया- ‘सर कन्नड़ राइटर प्रो. कलबुर्गी के मर्डर पर जबरदस्त रिएक्शन हुआ है; एक बहुत बड़े राइटर ने अपना अवार्ड लौटा दिया है.’

मि. बुल उछल गये- ‘ग्रेट, यह तो नया टॉपिक है इंडिया की नालेज के लिए; क्या मार्लन जेम्स ने बुकर प्राइज़ लौटा दिया?’

कविता ने कुछ आश्चर्य से पूछा- ‘सर वो तो जमैका के नावलिस्ट हैं और उन्हें तो अभी प्राइज़ डिक्लेयर हुआ है, मिला तो नहीं है?’

मि. बुल ने पेंसिल फेंक दी, बोले- ‘ओह येस; तो क्या मि. मारग्रेट एटवुड ने लौटा दिया? गुड, एनवायरमेंट मिनिस्टर को काल लगाओ.’

कविता बोली- ‘नहीं सर, नाट एटवुड.’

‘ओ ग्रेट चेतु? माय फिलासफर राइटर फ्रेंड-’ मि. बुल ने अनुमान लगाया.

कविता ने बताया- ‘नो सर, ये हिंदी के बहुत बड़े स्टोरी राइटर हैं; अकादमी अवार्डी.’

मि. बुल ने तुरंत कविता को झिड़क दिया- ‘ओह गर्ल यू…! हिंदी? मेरा इतना टाइम वेस्ट कर दिया.’ कविता रुआंसी-सी होकर उनके चेम्बर से बाहर आ गयी.

चाणक्य के नीति साहित्य ने इतिहास को बहुत कुछ दिया है- गुप्तचरी भी. साहित्य की तरह मीडिया में भी जासूसी की परम्परा है. राजनीति में तो कुछ ऐसे भी दल आ गये हैं जो आपस में ही स्टिंग-स्टिंग खेलते रहते हैं. जब कोई न्यूज़ नहीं होती है अपना स्टिंग लेकर ही मीडिया में आ जाते हैं. टी.वी. मीडिया में जासूसी की परम्परा बड़ी व्यावसायिक पत्रिकाओं से आयी है. जहां सभी चैनल्स एक-दूसरे के शो के शेड्यूल और विषयों की जासूसी करते रहते हैं. निबंध ने कविता के मोबाइल पर कॉल किया. दो-चार रोमांटिक बातों के बाद निबंध ने अपनी प्रेयसी से पूछा- ‘और क्या चल रहा है?’

कविता तो भरी बैठी थी. बातों बातों में वह फेसबुक से जुटाई जानकारी निबंध से साझा कर बैठी. निबंध ने तुरंत फोन बंद किया और अपने प्रधान-सम्पादक के कमरे की ओर भागा.

‘सर, सर, ब्रेकिंग न्यूज़, ग्रेट इंडियन राइटर ने नोबेल पुरुस्कार लौटा दिया!’

अब दाढ़ी वाले प्रधान सम्पादक के चौंकने की बारी थी- ‘क्या गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने नोबेल पुरस्कार लौटा दिया? ऐसा कैसे हो सकता है?’

अब निबंध को समझ आया कि उससे इस ब्रेकिंग न्यूज़ प्रतिस्पर्धा के चलते कितनी बड़ी भूल होने जा रही थी.

प्रधान सम्पादक अनुभवी थे; सूत्रों का उपयोग करना जानते थे. उन्होंने फेसबुक खोली, और उछल गये-

‘वाह ग्रेट ब्रेकिंग न्यूज़; एक्सक्लूसिव ओनली ऑन माय चैनल.’

मिनटों में पूरे देश में फुल क्रीन पर बड़े-बड़े अक्षरों में ब्रेकिंग न्यूज़ छा गयी-

‘प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार और विचारक कथाकार ने अकादमी पुरस्कार लौटाया.’

दाढ़ीवाला प्रधान सम्पादक टेबल पर तबला बजा रहा था-

‘वौव ग्रेट ब्रेकिंग न्यूज़.’

उधर चश्मेवाले प्रधान-सम्पादक उबल रहे थे अपने स्टाफ पर- ‘इतनी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ हमारे चैनल पर क्यों नहीं? क्या करते रहते हो तुम लोग? अरे चार लोग लगा दो चौबीसी शिफ्ट पर फेसबुक और ट्विटर देखने के लिए; और अब इस न्यूज़ को ब्रेक करो हमारे चैनल पर फटाफट.’ सहायक दौड़ें स्टुडियो की ओर इससे पहले उन्होंने फटकार लगायी- ‘अरे उसे एक्सक्लूसिव तो बनाओ पहले; ऐनी यूनीक आइडिया?’

‘सर’- हिचकते हुए एक सब ने सुझाव दिया- ‘हम लगा देते हैं कथाकार के पुरुस्कार त्यागने का ओबामा ने स्वागत किया.’

‘ग्रेट’- चश्मेवाले प्रधान सम्पादक उछल गये. फिर बाकी लोगों के आश्चर्य से खुले मुंह देखकर बोले- ‘अरे नहीं, ओबामा थोड़ा ज़्यादा हो जायेगा, ऐसा करो किसी क्लासिक राइटर का नाम जोड़ दो; थोड़ा ऐसा हो जिसे हिंदी वाले भी जानते हों.’

‘जेम्स बांड का नाम जोड़ देते हैं?’- सुझाव आया.

प्रधान सम्पादक क्रुद्ध हुए- ‘अरे वो जेम्स बांड नहीं, रस्किन बांड हैं.’ सुझाव देनेवाला दुखी हो गया- ‘सॉरी सर मैं तो शेयर मार्केट एक्सपर्ट हूं आपने यहां लगा दिया.’

प्रधान सम्पादक सहृदय थे, पिघले- ‘चलो ठीक है, ऐसा करो बांड हटा दो सिर्फ रस्किन चलने दो; जल्दी ब्रेकिंग न्यूज़ शुरू करो.’

शीघ्र ही सारे हिंदी चैनल न्यूज़ की तोड़-फोड़ में शामिल हो गये.

पहली पंक्ति तो एक ही थी- ‘अवार्ड लौटाया-’ अगली पंक्ति हर चैनल की एक्सक्लूसिव थी. समाचार देखते-देखते देश भर में सोशल मीडिया पर वायरल हो गया.

ईश्वरी जी आराम कर रहे थे. लिखने-पढ़ने वाले विभाग से रिटायर हो गये थे. इधर लिखने-पढ़ने की आदतें बढ़ गयीं थीं; लेकिन सोशल मीडिया पर. उन्हें आनंद आ गया यह समाचार देखकर. दिन में पच्चीस-पचास मेल-फोटो इत्यादि पोस्ट कर ही देते थे फेसबुक पर. उन्होंने तुरंत इस नये मुद्दे को लपक लिया.

ईश्वरी जी को याद आया उनके नगरवासी तथा नयी कविता के वरिष्ठ कवि जी को भी राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला था. उनकी तो फोटो भी उपलब्ध है मेल-बॉक्स पर. फेस-बुक पर साज-सज्जा अच्छी होगी. उन्होंने झट उनका नंबर लगाया; पूछा- ‘मान्यवर क्या आप भी अपना  पुरुस्कार लौटा रहे हैं?’

बेचारे कवि महोदय अपनी नयी लम्बी कविता लिखने के लिए बेचैन हो रहे थे.  इस नयी घटना की ठीक-ठाक जानकारी भी नहीं थी उन्हें. उन्होंने कहा- ‘क्यों भाई, मैं क्यों लौटाऊं पुरुस्कार? आपने मेरी कविताओं में देखा होगा. मेरे प्रतीक चिड़िया हो या चीता; कभी भी पलायन नहीं करते सीन से.’

‘ग्रेट’- ईश्वरी जी को भरी दोपहरी में मज़ा आ गया. उन्होंने फेसबुक पर अपना और कवि जी का एक पुराना, किसी समारोह का चित्र ढूंढ़ा और एक धांसू मेल पोस्ट कर दिया फेसबुक पर-

‘पुरुस्कार वापसी का अर्थ पलायन है- यह कहते हुए हमारे नगरवासी वरिष्ठ कवि श्रेष्ठ ने कहा है कि वे पुरुस्कार वापिस नहीं करेंगे. हिंसा के लिए पुरुस्कार दर्शन हमारी काव्य संस्कृति में नहीं है, इत्यादि इत्यादि.’

धड़ाधड़-धड़ाधड़ इस तरह के मेल्स की फेसबुक पर भीड़ लग गयी. एक न्यूज़ चैनल की तो एक्सक्लूसिव रिपोर्ट थी कि साहित्यकारों की इन्हीं हरकतों के कारण फेसबुक के मालिक इतने घबरा गये हैं कि उन्होंने भारत का टूर बना
लिया है.

अब घबरा तो पुरुस्कृत साहित्यकार भी गये. देश की राजधानी से हजारों किलोमीटर दूर आदिवासी अंचल में बैठे साहित्यकार बंधु ने अचानक अपनी पत्नी से पूछा- ‘तुम्हें याद है हमें वो श्रीफल और शाल के साथ सम्मान मिला था? अरे वही जो हमें किसानों में साम्यवादी चेतना पर लिखी कविता- बंधु सदा वाम, लाल सलाम- के लिए अवार्ड देते समय उढ़ाया गया था.’ पत्नी ने सोचा, फिर बोली- ‘अच्छा वो’ वो तो मुन्ना जी जब पहली बार अमेरिका गये थे पढ़ने, उनको दे दिया था.’

‘ओह’- बंधु जी ने कहा.

बंधु जी ने पत्नी से श्रीफल के बारे में नहीं पूछा. वे अपने सिद्धांतों के प्रति पूर्ण ईमानदार थे. उन्होंने तय किया वे कल पोस्ट ऑफिस खुलते ही इनाम की राशि के डिमांड-ड्राफ्ट सहित स्पीड-पोस्ट से अपना अवार्ड लौटा देंगे. ये देश की समरसता के समर्थन में उनका एक प्रतीकात्मक त्याग होगा. अपने निश्चय की जानकारी उन्होंने अपने अमेरिकावासी पुत्र को भी दे दी. पुत्र ने भी पिता के निर्णय की प्रशंसा की और फेसबुक पर इसे अपडेट कर दिया.

अद्भुत वातावरण बन गया. जिसे देखो पुरुस्कार लौटा रहा है. कुछ मित्र तो इस आशा में पुरुस्कारों की जोड़-तोड़ भिड़ाने लगे कि उन्हें पुरुस्कार मिले ताकि वह लौटाने के आंदोलन में शामिल हो सकें. साहित्यिक घराने के नाना-दादा बन चुके बुजुर्गों को समझ नहीं आ रहा था कि अचानक हमारी बिरादरी में ये वैराग्य भाव कहां से आ गया?

कल तक तो पुरुस्कारों की उखाड़-पछाड़ में लगे हुए थे. उनकी प्रदक्षिणा कर रहे थे. अब अगर उन्हें आशीर्वाद की ही अपेक्षा नहीं रहेगी तो बुजुर्गों की चरण-वंदना कोई क्यों करेगा? उन्हें आश्चर्य तो यह भी था कि इनमें से कई तो ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने जीवन भर प्रशासन-रथ की सवारी करते हुए इसी पुरुस्कार सुंदरी के साथ विश्व भर में अश्वमेध रच डाला है. वे यह भी जानते हैं कि इस तरह के शूरवीरों ने सत्ता के घोड़े पर बैठे-बैठे बिचारी पुरुस्कार सुंदरी का पृथ्वीराज चौहान बन अपहरण कर लिया था.

इक्कीसवीं सदी के साहित्य जगत में घटी इस घटना की देश की सांस्कृतिक पहचान की जड़ों को अपने-अपने रंगों के चश्मों से देखने वालों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई. उनकी मान्यता थी कि अगर देश में किसी पत्ते के गिरने की आवाज़ भी आती है तो वह राष्ट्र के विरुद्ध विदेशों से आयातित आवाज़ है. वे खुद को ही राष्ट्र मानकर चलते थे, देश को नहीं. तुरंत दल की बैठक बुलायी गयी. दल के सदस्य साहित्यकारों के इस दुस्साहस पर क्रोध में उबल रहे थे.

इस दल में हर राजनीतिक दल की तरह ही अनपढ़ों के साथ-साथ उच्च शिक्षित सज्जन भी शामिल थे. कई रिटायर्ड प्रशासक भी बैठक में उपस्थित थे. ये सभी संगठन में थे, सत्ता सुख न मिल पाने से दुखी भी. हर तरह के सुझाव देने के लिए स्वतंत्र. सो कई महत्त्वपूर्ण सुझाव आ गये सत्ता के नाम.

इस बात पर सभी सहमत थे कि इन सारी परिस्थितियों के लिए सोशल मीडिया सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है; इसलिए इस तरह के साहित्यकारों की इंटरनेट-सुविधा तत्काल प्रभाव से निरस्त कर देनी चाहिए. इसके साथ ही उन्हें पोस्ट ऑफिस में प्रवेश की अनुमति नहीं होनी चाहिए.

बहरहाल प्रशासन ने इस पूरी स्थिति को गम्भीरतापूर्वक लिया. नियमों की किताबें पलटी जाने लगीं. संविधान विशेषज्ञों ने चेताया हमारे लोकतंत्र में शांतिपूर्वक विरोध का अधिकार दिया गया है. उचित यही माना गया कि चूंकि यह समस्या अलग-अलग प्रांतीय भाषाओं से सम्बंधित है इसलिए इसका हल राज्यों के स्तर पर ही किया जाए.

राज्य प्रशासन में इस निर्णय से खलबली मच गयी. राज्य के महाप्रमुख सचिव के संज्ञान में पहली बार ऐसा नया लेकिन विचित्र विषय आया था. वे दूरदर्शी प्रशासक थे. समझ गये कि युवा अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए यह एक अच्छा विषय हो सकता है. उन्होंने तय किया कि साहित्य-संस्कृति, गृह तथा वित्त विभाग के साथ-साथ जिला प्रमुखों को भी समीक्षा बैठक में बुलाया जाए. आखिर ये पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार किसी न किसी ज़िले के निवासी हैं.

राज्य सचिवालय में आयोजित इस बैठक में महाप्रमुख ने बहुत नाराज़ी से पूछा- ‘ये क्या हो रहा है आप लोगों के ज़िले में? जिसे देखो वो पुरुस्कार वापिस कर रहा है! शासन बहुत नाराज़ है इससे; तुरंत रोकना होगा इसे.’

अब जिला-प्रमुखों को यह समझ नहीं आ रहा था वे इसे कैसे रोक सकते हैं?

ज़िला प्रमुखों के दल में से एक युवा प्रशिक्षु अधिकारी ने पूछ ही लिया- ‘सर हमारी जानकारी में तो ऐसा कोई नियम आया ही नहीं जिसे लागू कर इन साहित्यकारों के पुरस्कार लौटाने से रोका जाए?’ इस पर उन्हें कड़ी फटकार पड़ी. महाप्रमुख ने कड़क आवाज़ में कहा- ‘आप एफ.आर. एस.आर. रूल्स ठीक से पढ़ें; कम से कम स्वामी हेंड बुक हमेशा अपने पास रखें’ फिर उन्होंने सभी को जानकारी दी- ‘सैलरी नहीं लेना या उसे लौटाना कदाचरण की श्रेणी में आता है.’ अपने महाप्रमुख के राजभाषा ज्ञान पर सभी ने उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की. साथ ही उपमहाप्रमुख ने जो स्वयं हिदी के गीतकार थे सबको सूचना दी- ‘राजभाषा कोष में देखिए सैलरी का अर्थ मानदेय होता है, मान का अर्थ सम्मान, इस प्रकार यह आपको कानूनी कार्यवाही करने अधिकार देता है.’ महाप्रमुख प्रसन्न हो गये अपने उप की इस युक्ति पर.

इस सम्पूर्ण प्रकरण में कुछ नयी प्रशासनिक समस्याएं आ गयीं. जब साहित्यकार सम्मान राशि के चेक धड़ाधड़ वापिस करने लगे तो इसकी रपट फाइल पर प्रस्तुत करना अनिवार्य हो गया. जब वह फाइल वित्तीय सलाहकार के पास पहुंची तो वे प्रसन्न हो गये. उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए टिप्पणी की- ‘यह प्रसन्नता की बात है, इस प्रकार प्राप्त धनराशि से राजकोषीय घाटे में कमी आ सकेगी. वित्त शाखा का सुझाव है कि इस राशि को राजस्व माना जाए और इसकी प्राप्ति बढ़ाने के उपाय किये जायें.’

फाइल तैयार करने वाले कनिष्ठ अधिकारी की टिप्पणी भी काफी तीखी और लम्बी थी. उन्हें पता था कि राजभाषा मास में फाइल पर हिंदी शब्दों के लेखन पर पुरुस्कार की व्यवस्था है. सो उन्होंने बंधु जी के पत्र की कई पंक्तियां फाइल पर दर्ज की थीं- ‘भारतीय नागरिक समाज की विविधता, सहिष्णुता और बहुलता के बुनियादी मूल्यों को हर हालत में बनाये रखने की ज़रूरत है. ऐसी घटनाओं से बचना चाहिए, इससे देश की छवि खराब होती है.’

उच्चाधिकारी ने इसे गम्भीरतापूर्वक लिया तथा विभागीय परम्परानुसार इस फाइल को गृह विभाग को फारवर्ड कर दिया.

गृह विभाग को फाइल देखकर बहुत गुस्सा आया; अब ये डॉन की फाइलें छोड़कर कविता-कहानी की नौंटकी भी हम ही देखें. लेकिन फाइल पर- ‘अत्यंत महत्त्वपूर्ण’- ‘हाथों-हाथ’-‘तुरंत’- ‘अत्यंत गोपनीय’ जैसी पर्चियां लगी हुई थीं. इसलिए फाइल महीने भर में ही वापिस आ गयी.

फाइल पर गृहविभाग की टिप्पणी दर्ज थी-

‘इस सम्बंध में गृह विभाग के दक्ष गुप्तचरों ने पत्र प्रेषक से पूछताछ की. पूछताछ में जानकारी प्राप्त हुई है कि फाइल पर प्रस्तुत पत्र में दर्ज टिप्पणी देश के श्रीमान राष्ट्रपति महोदय के भाषण से ली गयी है. प्रमाण स्वरूप पत्र प्रेषक ने पत्र सूचना कार्यालय से सूचना के अधिकार के द्वारा संदर्भित भाषण की कॉपी प्राप्त कर उपलब्ध करायी है. जो इस फाइल पर प्रस्तुत है. फाइल यथोचित अग्रिम कार्यवाही हेतु अग्रेषित की जा रही है.’

गृह विभाग का यह उत्तर पढ़कर संस्कृति विभाग को चक्कर आ गया. सुना है अब इस सम्बंध में राज्य सरकार केंद्र से मार्गदर्शन लेने पर गम्भीर विचार-विमर्श कर रही है.  

मार्च 2016