ताकि सोच के जाले स़ाफ हों  –  सुखदेव थोराट

आवरण-कथा

केंद्र सरकार नयी शैक्षणिक नीति बना रही है. यह अच्छी बात है, लेकिन ज़रूरी है कि इससे पहले शिक्षा को लेकर जो कदम उठाये गये थे, उनकी विवेचना हो. 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2006 से लेकर 2011 तक उच्च शिक्षा की समस्या का अध्ययन किया गया था. उनके उपाय पर भी अध्ययन हुआ और उसके आधार पर ‘ह्युमन प्लान’ की नीति बनायी गयी.

इसलिए पहले जो नीति तैयार हुई थी, उसमें से कुछ चीज़ों को आधार मानकर नयी नीति बनायी जानी चाहिए. मेरी समझ में उच्च शिक्षा की जो समस्याएं हैं, वे चार तरह की हैं- पहली समस्या है उच्च शिक्षा की दर यानी एनरॉलमेंट नंबर का कम होना जिसे बढ़ाया जाना चाहिए. दूसरी समस्या गुणवत्ता की है, जिसको बढ़ाया जाना चाहिए. तीसरी समस्या शिक्षा संधि की है. चौथी समस्या उपयोगी शिक्षा यानी सम्यक शिक्षा की है।

हमारी उच्च शिक्षा की दर अभी 25 तक है, जिसे 50-60 तक लाया जाना बेहद ज़रूरी है. इसके लिए मौजूदा विश्वविद्यालयों को क्षमता बढ़ानी पड़ेगी और जहां-जहां ज़रूरी हैं वहां विश्वविद्यालय और कॉलेजों की संख्या बढ़ायी जानी चाहिए. जहां तक गुणवत्ता का सवाल है, यह तीन बातों से तय होती है- एक शिक्षक, दूसरा इफ्रस्ट्रक्चर और तीसरा पाठ्यक्रम यानी शिक्षा क्रम और पढ़ाने की पद्धति. हमारे यहां शिक्षकों की काफी कमी है और इसको दूर करने के लिए हमें बड़ी संख्या में शिक्षकों की नियुक्ति करनी पड़ेगी. पिछली पंचवर्षीय योजना में शिक्षकों का वेतन बढ़ाया गया था. इससे अच्छे लोगों की इस पेशे में आने की सम्भावना बनी थी. लेकिन इसके लिए ज़्यादा से ज़्यादा पीएच.डी. छात्र-छात्राओं की ज़रूरत है और उनकी संख्या हमें बढ़ानी होगी. इसके लिए उनकी आर्थिक सुरक्षा बढ़ाने की ज़रूरत है- संख्या और राशि दोनों मामले में.

पाठ्यक्रम में शैक्षणिक सुधार शुरू किये जा चुके हैं. वर्तमान सरकार भी इस पर ज़ोर दे रही है. तीसरा मसला शिक्षा तक सबकी समान पहुंच का है. अभी उच्च शिक्षा में महिलाओं, दलितों, आदिवासियों और हिंदू और ईसाई के मुकाबले मुस्लिम छात्र-छात्राओं की संख्या काफी कम है. इसी तरह शहरों की तुलना में गांवों का प्रतिनिधित्व कम है. उच्च शिक्षा में दाखिले की इस विषमता को दूर करना होगा. इसके लिए एक नीति बनायी जानी चाहिए. शिक्षा सबको मिलनी चाहिए, सबको अपनी उत्पादकता बढ़ाने का अधिकार है. यह एक अहम मसला है. इसी तरह उपयोगी शिक्षा के मामले में स्किल एजुकेशन बढ़ायी जानी चाहिए.

प्रासंगिक शिक्षा का दूसरा पहलू यह है कि हमें ऐसी शिक्षा देने की ज़रूरत है जिससे विद्यार्थियों में नागरिक अधिकारों, कर्तव्यों की समझ बढ़ायी जा सके. हैदराबाद विश्वविद्यालय का मामला भी इसी से जुड़ा लग रहा है. विश्वविद्यालयों में विभिन्न जाति, समुदाय, और धर्म के बच्चे पढ़ने आते हैं. वे अपने पुराने विचारों के साथ आते हैं और उसकी वजह से उनके बीच अलगाव पैदा होता है. विवाद होते हैं. इसमें समानता, भेदभाव की बात भी आती है और आरक्षण की वजह से दलित-आदिवासी छात्र-छात्राओं के प्रति अन्य की सही भावना नहीं होती है. हमें उनमें समानता और न्याय की मूल भावनाएं, हर किसी के धर्म एवं संस्कृति का आदर करने की शिक्षा देनी होगी. हैदराबाद विश्वविद्यालय में हालिया विवाद की एक वजह छात्र-छात्राओं के बीच पैदा हुआ अलगाव है. यह अलगाव जाति, विचार आदि के आधार पर हुआ क्योंकि उन्हें हम वैसी शिक्षा दे ही नहीं पा रहे हैं, जिससे उनमें समान भाव पैदा हो. अमेरिका में तो बाकायदा कोर्स बनाकर विषमता, गरीबी, जाति, धर्म और जेंडर जैसी समस्याओं पर पढ़ाई होती है. इस तरह हम परिसरों में भेद और दीवारें खत्म करने की कोशिश कर सकते हैं. अभी हमारी उच्च शिक्षा में ऐसा कुछ नहीं है. कभी-कभी मानव अधिकार विषय पर ज़रूर बात होती रहती है पर यह सही तरीके से हम नहीं दे पा रहे हैं. एम्स में इसी तरह के जातिगत भेदभाव की जांच समिति का मैं अध्यक्ष था तो समिति ने भी वहां प्रशासनिक भेदभाव पाया और यह भेदभाव अधिकतर शैक्षणिक संस्थानों में होता है. इस तरह छात्र-छात्राओं के बीच अलगाव दूर करने वाली शिक्षा की ज़रूरत और बढ़ जाती है. इसी से उनके सोच के जाले स़ाफ होंगे. शिक्षा का उद्देश्य पूरा होगा.

मार्च 2016

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