♦ वजाहत अली संदेलवी
मिर्ज़ा बोदम बेग सारे मुहल्ले में ‘चचा घूम-फिर’ के नाम से याद किये जाते थे. उनकी यह उपाधि उनकी इस विशेषता की ओर इशारा था कि वे हर बात को इतना घुमा-फिराकर कहते कि सुनने वालों का सिर चकरा जाता. व ज्यादा-से-ज्यादा शब्दों में कम-से-कम मतलब बयान करते, बल्कि अक्सर बयान ही न करते. सुनने वाला उनकी सूरत से बेज़ार होने के साथ-साथ अपने होश-हवास से भी निराश हो जाता. वैसे आदमी शिष्ट थे. बात तो सीधे मुंह करते, लेकिन कभी सीधी बात न करते. उदाहरणार्थ, अगर किसी शामत के मारे ने पूछ लिया कि आज कौन-सा दिन है, तो वे यों जवाब देते- ‘देखिये, परसों रविवार था. अब परसों से सात दिन बाद फिर रविवार आयेगा. इस हिसाब से दो दिन बाद बृहस्पति होगा. कल सोमवार था और कल जो आने वाला है, बुध होगा. इस वजह से आज कायदे से तो मंगल होना चाहिए, लेकिन बेहतर यही है कि आप कोई जंतरी देख लें.’
उसके बाद अगर सवाल पूछने वाला भाग न खड़ा होता, चकराकर गिर न पड़ता, तो वे यह भी बड़े विस्तार से बताने लगते कि जंतरी कहां मिल सकती है, कौन-सी जंतरी प्रामाणित समझी जाती है, वह कहां छपती है, छापाखाना किसने ईजाद किया था, किस किस्म के छापेखानों में किस प्रकार के कागज इस्तेमाल होते हैं, उनका बाज़ार में क्या भाव है, जाली नोट किस तरह छापे जाते हैं, इस जुर्म में सबसे पहला मुकद्मा किस पर चला था आदि-आदि.
‘चचा घूम-फिर’ की बातचीत के समय कुछ ऐसा महसूस होता, जैसे वे अपने शब्दों की लाठी बेतहाशा चलाते हुए अपने मतलब का पीछा कर रहे हों और वह किसी दुलत्तीr मारने वाले दुष्ट गधे की तरह इधर-उधर भाग रहा हो. संयोगवश कभी तो वह उसकी दुलत्ती से वे स्वयं चारों खाने चित हो जाते.
एक बार एक राहगीर उनसे लाला भोंपूमल के मकान का पता पूछ बैठा था. उन्होंने बड़े स्नेह से फौरन उत्तर दिया- ‘देखिये! आप अपनी नाक की सीध पर बहुत-से मकान देख रहे हैं. उन्हीं में से आठ-दस मकानों के बाद एक मकान लाल हवेली है. उसके पास से पश्चिम जो गली हैबतखां के पिछवाड़े से होती हुई नाले के बराबर से गयी है, उस पर कोई दो-तीन सौ कदम जाकर दक्षिण की ओर मुड़ जाइयेगा. आगे बढ़कर आपको भोंदू हलवाई की दुकान मिलेगी. उसके कुत्ते से होशियार रहियेगा. पर वह भूंकता ही है, काटता नहीं. इस नस्ल के सब कुत्तों का यही हाल है. जी हां, तो आप कहां थे? भोंदू हलवाई की दुकान के पास! लेकिन बेहतर यही हैं कि आप उससे चालीस-पचास कदम पीछे हट आइये. यहां आपको कई गलियां मिलेंगी. दूसरी या तीसरी गली पर उत्तर की ओर घूम जाइयेगा. फिर आंखें बंद करके भी चलते-चलते आप सब्जीमंडी पहुंच जायेंगे. वहां कोई-न-कोई जान-पहचान का आपको ज़रूर ही मिल जायेगा. वह फौरन बता देगा कि भोंपूमल का मकान लाल हवेली के पूर्व में है, या पश्चिम में.’
यह भाषण सुनने के पश्चात राहगीर ने पास ही लगे नल के नीचे कुछ देर अपने सिर पर पानी तरेरा और फिर आगे बढ़ने के बजाय उलटे पैरों लौट गया. फिर कभी उसकी सूरत मुहल्लें में किसी ने नहीं देखी.
लोग ‘चचा घूम-फिर’ से बात करते हुए घबराते, बल्कि कन्नी काटते. अंत में तो यह नौबत आ गयी थी कि दूर से ही उनकी सूरत देखते ही लोग लाहौल पढ़ते इधर-उधर हो आते या अपने घरों में घुसकर दरवाज़े बंद कर लेते, और ‘चचा घूम-फिर’ सुनसान सड़क पर किसी मरखने बैल की तरह झूमते हुए अकेले गुजर जाते और कोई शिकार उनके हाथ न आता.
प्रायः वे स्वयं किसी के घर पर पहुंच जाते और हांक लगाते- ‘अजी शंभूदयालजी! आप इंसान, मेरा मतलब है कि दो पांव पर खड़े होने वाले जानवर नहीं, बल्कि बिजली का खंभा हैं, यानी पंशाखा मालूम होते हैं. जी हां,मेरे बचपने में बिजली के खंभे नहीं, बल्कि पंशाखे हुआ करते थे. एक बार एक बारात के जुलूस में रमजानी बावर्ची की दुकान के सामने मेरा हाथ, बल्कि हाथ की पांच उंगलियों में बीच उंगली- जो दूसरी सब उंगलियों में बड़ी होती है- एक पंशाखे से जल गयी थी. जी हां, तो आप पंशाखा इस वजह से दिखाई पड़ते हैं कि इस समय नौ बजने में अठारह मिनट बाकी हैं. मैंने आज ही लोमा टाइम से जो रेडियो पर बजता है, अपनी जेबी घड़ी मिलाई थी और वह इस समय मेरे हाथ में है और आप अभी तक अपने बिस्तर यानी लिहाफ और गद्दे के बीच से नहीं निकल पाये हैं. मतलब यह है कि गाफिल होकर बिलकुल ही सो रहे हैं.’
शंभूदयालजी फौरन ही घर से प्रकट होकर ‘चचा घूम-फिर’ के सामने से यह कहते हुए तीर की तरह निकल जाते हैं- ‘आदाब-अर्ज है मिर्ज़ा साहब! माफ कीजियेगा. आज रविवार के दिन दफ्तर में सुपरिंटेंडेंट साहब ने आठ ही बजे बुलाया था. बड़ी देर हो गयी है, इसलिए रुक नहीं सकता.’ चचा उन्हें प्रलयंकारी नज़रों से ऐसे देखते रह जाते हैं, जैसे हाथ में आया हुआ शिकार छूट जाये और शंभूदयालजी यह जा, वह जा.
एक बार मुहल्ले के एक जिंदादिल बुजुर्ग ने ‘चचा घूम-फिर’ को बहुत घर के करीब एक दुकान के सामने खड़े अपने विशिष्ट अंदाज में दुकानदार को कुछ उलटी-सीधी नसीहतें कर रहे थे. उसी समय वे बुजुर्ग लपकते-झपकते आये यों बोले- ‘जनाब मिर्ज़ा बूदम बेग साहब! आदाब के बाद अर्ज यह है कि यहां सब कुशलता है और आपकी कुशलता खुदा से नेक चाहता हूं. अभी-अभी यानी ग्यारह बजकर साढ़े चालीस मिनट पर, यानी बारह बजने में साढ़े उन्नीस मिनट कम पर, जब मैं आपके दौलतखाने के सामने से, जो कि ऐन सड़क के सामने है कि उस सड़क पर प्रायः गुजरता रहता हूं, तो मैंने अपनी आंखों से स्वयं देखा, याद रहे कि चालीस साल का हो जाने पर भी मेरी नजर में आपकी दुआ से अभी तक कोई फर्क नहीं आया है, कि एक अदद मोटे स्याह कुत्ते ने कि जिसकी उम्र तीन साल से ज्यादा नहीं लगती थी, आपके बावर्ची-खाने के दरवाजे को धक्का दिया और उसके एक पट बंद रह जाने के बावजूद दूसरा पट खोलकर और सम्भवतः आपकी इजाजत के बिना उसमें दाखिल हो चुका है.’
‘चचा घूम-फिर’ ने शायद जीवन-भर में पहली सीधी बात की. वे बेइख्तियार होकर चीखे- ‘अजी! यह आपने पहले क्यों नहीं बताया? मेरे शाही टुकड़े और मलाई!’ चचा सिर पर पैर रखकर अपने मकान की ओर दौड़े- लेकिन कुत्ता पहले ही सब कुछ सफाचट भाग चुका था.
चचा आज कल एक नवोदित राजनीतिक पार्टी के विशेष वक्ता बनकर सारे सूबे का दौरा कर रहे हैं और वाकई ‘घूम-फिर’ बन गये हैं, और हमें पार्टी से ज्यादा उनके श्रोताओं से हमदर्दी है.
(मार्च 1971)