♦ आर.के.लक्ष्मण
दुनिया में हंसने-हंसाने को बहुत कुछ है- शीतयुद्ध, बड़े राष्ट्रों की तू-तू-मैं-मैं और विश्वविनाश के नाभिकीय षड्यंत्रों के बावजूद हंसने-हंसाने को बहुत कुछ है. और आम आदमी की दुनिया के शोरगुल के बीच तो ये खौफनाक खबरें कोरी शास्त्रीय बातें-सी लगने लगती हैं.
और आम आदमी को शिकायत है ऊबड़-खाबड़ सड़कों की, डाक की अव्यवस्था की, चढ़ती कीमतों की, हड़तालों व ट्रैफिक जैमों की और बाल-अपराधियों की. गुसलखाने का टूटा नल उसके लिए शीखर-सम्मेलन की विफलता से अधिक चिंता का विषय है. टूथपेस्ट और टमाटरों की कीमतें बढ़ना उसे विदेशी सहायता में कमी रह जाने से अधिक सताता है.
हमारी नज़रों में जीवन इतना अधिक गंभीर मामला हो गया है कि उसकी गंभीरता से राहत दिलाने के लिए किया गया कोई भी मज़ाक हमें वैसा ही बेतुका लगता है, जैसे आपरेशन-कक्ष में रखा ज्यूकबाक्स. फिर भी यह बड़ी अनोखी बात है कि इतिहास के पन्नों में भरे हुए तमाम युद्धों, दुर्भाग्यों और दुखड़ों के बावजूद दुनिया में हंसने की प्रवृत्ति अभी भी जिंदा बची हुई है.
और यह सहज हास्यवृत्ति इतनी अमूल्य समझी गयी है कि आदमी शायद यह तो कबूल कर लेगा कि उसे संगीत से प्रेम नहीं है, या कि साहित्य का सुकुमार सौंदर्य उसके हृदय को नहीं छूता है, मगर वह कभी यह स्वीकार नहीं करेगा कि उसमें विनोद-वृत्ति की कमी है. यहां तक कि अगर उसे इस बात को प्रमाणित करने को कहा जाये, तो उसे ठेस लगेगी, शायद वह भड़क भी उठे.
मेरी यह मान्यता है कि औसत बालिग आदमी अपने जागरण के घंटों का केवल चौथाई हिस्सा दुनिया के गंभीर काम-काज में खपाता है, और शेष सारा समय वह दूसरों पर हंसने में बिता देता है- दूसरों के मज़ाकों पर, उनकी शरारतों और कमजोरियों पर. अथवा वह अपनी ही वर्णन क्षमता या नकल उतारने की शक्ति द्वारा दूसरों को हंसाने में व्यस्त होता है.
हास्य हर जगह अपना नटखट सिर उठाता है- जहां उससे गुरु-गंभीर रहने की आशा की जाती है, वहां भी उदाहरण के लिए दफ्तरों की बात लीजिए, जहां आदमी को पेट की खातिर नीरस फाइलों, धोखेबाज हिसाब-किताब, नियम-कानून और चिड़चिड़े अफसरों से जूझना पड़ता है. वहां भी बॉस को लेकर, चचा-भतीचावाद और लालफीताशाही को लेकर भरपूर मजाक चलते हैं.
मगर मेरा खयाल है, जीवन के हलके-फुलके पहलू के आनंद का बोध तो हमें पहले-पहल क्लासरूम में होता है, जहां हमें ज्ञानार्जन की गम्भीर पीड़ा सहनी पड़ती है. अपनी विनोद-वृत्ति को अजमाने की दीक्षा हमें यहीं मिलती है. हममें से अधिकांश के लिए स्कूल-कालेज सूझपूर्ण मजाकों औरनितांत सृजनात्मक उपनामों के अड्डे थे.
हमें अपने शिक्षणालय की याद पाठ्यक्रम से बाहर के इन्हीं निषिद्ध कार्य-कलापों के कारण ज्यादा आती है, और वहां हमें जो ज्ञान-विवेक अर्जित करना था, उसके कारण उतनी नहीं आती. क्लासरूम के हंसी-मजाकों और खिलवाड़ों से ही तो हममे से धिकांश के लिए विद्योपार्जन का कठोर श्रम कुछ हल्का हो पाया और कई अध्यापकों की तानाशाही काबिले-बर्दाश्त हो गयी.
किंतु अफसोस है! बालिगों की दुनिया अधिक दबावों और तनावों से भरी होती है. बच्चों पर जो आचार-संहिता लागू होती है, उससे भिन्न नियम बालिक आदमी पर लागू होते हैं और वह कष्टदायक सांसारिक स्थितियों पर बच्चे या किशोर-जैसी प्रतिक्रिया नहीं कर सकता. बालिक आदमी झकझक करने वाली पत्नी से शरारत नहीं कर सकता, न वह टैक्स-विभाग वालों को मुंह चिढ़ाकर राहत पा सकता है.
इज्जत समाज के दुरुस्त-दिमाग सदस्यों के रूप में उसे कुछ शिष्टाचार निभाने ही पड़ते हैं और ये नियम आपको इस बात की छूट नहीं देते कि आप अपनी श्रीमतीजी की कुर्सी पर खजोहरा छोड़ दें, चाहे वे कितनी ही सिरखाऊ क्यों न हों. इसी तरह सम्भ्रांत समाज का कोई भद्र पुरुष अत्याचारी बॉस को ठेंगा दिखाकर चिढ़ाये, तो यह चौंका देने वाली बात होगी.
मनुष्य अपनी परिस्थियों का बेबस शिकार है और कुचलने वाले तनावों और दबावों से बच भागने के तमाम दरवाजे बंद हैं. वह मूक प्रतिवाद के साथ इस नीरस जीवन को और जैसे-तैसे सह भर लेता है, अपने अवचेतन मन में, मरस्मत के नाम पर सदा खुदी रहनेवाली सड़कों, कोलाहल-प्रिय पड़ोसियों और भीड़भरी ट्रेनों वाली समाज-व्यवस्था के विरुद्ध बगावत करता रहता है.
उसके लिए अगर दूसरा कोई मार्ग है तो यही कि जीवन के प्रति विनोदी दृष्टिकोण अपनाये. और कार्टूनिस्ट का लक्ष्य भी ठीक यही है. वह जीवन के विनोदी पहलू को देखने में आम आदमी की मदद करता है. यह उसी किस्म की सहायता है, जैसी कि संगीतकार संगीतप्रेमी श्रोताओं की करता है. श्रोताओं को संगीत सुनना तो रुचता है, मगर वे गा नहीं पाते.
लोगों में भरी हुई हंसी को कार्टूनिस्ट उन्मुक्त कर देता है, जिसे वे स्वयं उन्मुक्त करना नहीं जानते हैं. कार्टूनिस्ट अपने चित्रों में किसी भी राजनीतिक घटना या सामाजिक मामले को चिंता करने लायक नहीं, हंसने लायक चीज के रूप में पेश करता है.
उदाहरण के लिए, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि हमारे बच्चों के स्कूल बहुत भीड़-भरे हैं. मगर कार्टूनिस्ट इसी बात को यों चित्रित करेगा कि एक अध्यापक भीड़-भरी कक्षा के बाहर खड़ा है और मायूस चेहरा बनाकर आम आदमी से कह रहा है- ‘हां, मैं इस कक्षा का अध्यापक हूं, मगर अंदर नहीं घुस पा रहा हूं, भयंकर भीड़ है अंदर.’
यह चीज़ अभिभावकों को तो एक उग्र सामाजिक समस्या पर क्षण-भर हंसने का अवसर देती ही है, मगर सत्ताधारियों को उसे सुलझाने से रोकती भी नहीं.
कार्टून-कला अनिवार्यतः असहमति और शिकायत की कला है. समस्त व्यक्तियों और विषयों को वह एक प्रकार की स्वस्थ अगौरव भावना और सद्भावपूर्ण खिल्ली की नजर से देखती है, द्वेषभावना से कभी नहीं.
कार्टून सहज हंसी दृष्टि के माध्यम से समाज में विवेक और संतुलित दृष्टि को बनाये रखने का प्रयत्न करता है. संक्षेप में, यह प्रकृति की ओर से हम सबको इस बात की सूचना है कि चीजों को हल्के मन से लो, दुनिया में कुछ भी बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है.
(मार्च 1971)