उच्च शिक्षा का बीहड़  –  कृष्ण कुमार

आवरण-कथा

हमारे देश के कई विश्वविद्यालय अपनी जन्मशती मना चुके हैं और तीन विश्वविद्यालयों की उम्र डेढ़ सौ वर्ष से अधिक हो चुकी है. आयु बढ़ने के साथ संस्थाएं मज़बूत होंगी, यह मान्यता इन विश्वविद्यालयों के उदाहरण से पुष्ट नहीं होती. इन्हें देखकर लगता है कि वे एक सामान्य मनुष्य की तरह बुढ़ापे से जर्जर हो रहे हैं. पर जो विश्वविद्यालय अभी जवान हैं, उनकी सेहत भी अच्छी नहीं दिखती. हैदराबाद का केंद्रीय विश्वविद्यालय चालीस बरस का है. क्या नहीं है उसके पास- पैसा, ज़मीन, अच्छे भवन, प्राकृतिक शोभा, एकांत. यह सब होते हुए भी वह एक निष्ठुर संस्था है, वरना रोहित वेमुला जैसे संवेदनशील विद्यार्थी को आत्महत्या न करनी पड़ती.

नये हों या पुराने, लगता है कि सभी विश्वविद्यालय नौकरशाही की संस्कृति में डूबे हैं. इस संस्कृति में रोज़ाना का जीवन चलाने के लिए नियम, आदेश और दंड की व्यवस्था होती है, पर रचनाशक्ति नहीं होती, या फिर इतनी कम मात्रा में होती है कि वह किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ज़रूरी ऊर्जा और इच्छाशक्ति को जन्म नहीं दे पाती. इक्का-दुक्का शिक्षक इस तरह पढ़ा पाते हैं कि छात्र प्रेरित या संवेदित महसूस करे, शेष का पढ़ाना अखबार जैसा रोज़ाना पत्र लिये रहता है. विश्वविद्यालय का प्रशासन स्वयं इतना  कमज़ोर और नेताओं की कृपा पर निर्भर होता है कि उसे शिक्षण की नीरसता में कोई हर्ज़ नहीं नज़र आता.

यह स्थिति दो-चार नहीं, कम से कम तीस वर्षों से उत्तरोत्तर बढ़ती चली आ रही कोताही का परिणाम है. समस्याएं इसके पहले भी थीं, पर 1980 के दशक का उत्तरार्ध कई गहनतर समस्याएं और उन्हें समय पर सुलझा लेने की इच्छाशक्ति पोंछकर आया. कहने को यह समय नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण का था और वह बनी भी, पर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नीतिहीनता की शुरुआत भी इसी समय हुई और अगले अर्थात 1990 के दशक में वह महामारी का रूप लेकर बढ़ती चली गयी. उनके प्रांतीय विश्वविद्यालय इस दशक में तबाह हो गये. बेहतर माने जाने वाले केंद्रीय विश्वविद्यालय नीतिगत उदासीनता के शिकार हुए. उधर छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही थी और उन्हें शिक्षा के नाम पर कोई सार्थक अनुभव दे पाने की सामर्थ्य विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में घट रही थी.

इस कहानी को लिखते हुए और आज अपने सामने फैले उजाड़ को देखकर मन चाहता है कि कुछ कारण भी ढूंढ़ा जाए और बताया जाए. कारणों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है. एक में वे कारण शामिल हैं जो विश्वविद्यालय और समाज के सम्बंधों में निहित हैं. दूसरी श्रेणी में हमें उन कारणों को रखना चाहिए जिनका सरोकार विश्वविद्यालय और सरकार के सम्बंधों से है. मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि विश्वविद्यालय को समाज के करीब और सरकार से कुछ दूर रहना चाहिए. हमारे देश में इसका ठीक उल्टा हुआ है. विश्वविद्यालय समाज से दूर होते चले गये हैं और सरकार के इतना निकट आ गये हैं कि वे स्वयं सत्ता कि उठा-पटक में शामिल हैं.

ये प्रवृत्तियां आज इतनी उजागर हो चुकी हैं कि उनका प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं है. फिर भी पढ़ाई की भाषा, पाठ्यक्रम की विषयवस्तु और अनुसंधान के विषयों से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उच्च शिक्षा और समाज के बीच कितनी दूरी और परस्पर उदासीनता है. दूसरी तरफ कुलपतियों की नियुक्ति के लिए सामान्य हो चुकी जोड़-तोड़ और लेन-देन तथा छोटी से छोटी निर्णय-प्रक्रिया में प्रांतीय अथवा केंद्रीय नेताओं की दखलंदाजी से अनुमान लगाया जा सकता है कि विश्वविद्यालयों और सरकारों के रिश्ते कितने प्रगाढ़ हो चुके हैं! समाज से दूरी और सरकार से निकटता की विकृति का निदान और उपचार इस समय नीति की प्राथमिकताओं के दायरे में नहीं है. इसलिए हम इस विकृत दशा के और अधिक बिगड़ने को उच्च शिक्षा का प्रारब्ध मान सकते हैं.

शायद आप पूछना चाहेंगे कि क्या इस समय नीति की कोई प्राथमिकताएं हैं भी? उच्च शिक्षा का निजीकरण और उसे व्यापार बना देना एक बड़ी प्राथमिकता नज़र आती है. पिछले दस-पंद्रह वर्षों में अनेक निजी विश्वविद्यालय प्रांतीय विधान सभाओं में पारित कानून के रास्ते स्थापित हो चुके हैं. ये नयी तर्ज के विश्वविद्यालय हैं जहां पढ़ने के लिए छात्र को भारी कीमत देकर शिक्षा का अवसर खरीदना पड़ता है. ये विश्वविद्यालय अखबारों और टीवी के ज़रिये अपना विज्ञापन देकर छात्रों को उसी तरह लुभाने की कोशिश करते हैं जिस तरह जूता, कार या मोबाइल फोन बेचने वाली कोई कम्पनी करती है. क्या ऐसे विश्वविद्यालय भारत में उच्च शिक्षा की तस्वीर को बेहतर बना पायेंगे? ऐसा ही प्रश्न और संशय दूरस्थ शिक्षा पैदा करती है. करोड़ों विद्यार्थियों को घर बैठे ज्ञान देने और डिग्री मुहैया कराने वाली सुदूर शिक्षा प्रणाली स्वयं व्यापारिक कम्पनियों की बनायी मशीनरी और भूमण्डलीकृत बाज़ार में बिक रही विषय-सामग्री पर आश्रित हो गयी है. घर बैठे पढ़ाने और डिग्री देने का सपना सच्चा है, पर जिस ज्ञान का प्रसार उसमें निहित है, वह शिक्षा कम, प्रवंचना अधिक है. शिक्षक की हिस्सेदारी सुदूर शिक्षा में नाम मात्र की है. पर अब तो नियमित शिक्षा में भी शिक्षक की भागीदारी घटती जा रही है. पूरे देश के विश्व-विद्यालयों के आंकड़े बताते हैं कि शिक्षकों के लगभग एक तिहाई पद कई वर्षों से खाली पड़े हैं. अच्छे कहे जाने वाले विभाग भी आधे शिक्षकों से काम चला रहे हैं. एक तरफ हमारे विश्वविद्यालय विदेशी संस्थाओं से नाता जोड़ने का मुहावरा दोहरा रहे हैं, दूसरी ओर शिक्षण की गरिमा को मटियामेट कर ठेके पर अध्यापकों की नियुक्ति कर रहे हैं. इंजीनियरी और डॉक्टरी की संस्थाएं इन प्रवृत्तियों का शिकार पहले ही हो चुकी थीं.

फिलहाल उस बीहड़ से निकलने की कोई राह या उम्मीद नज़र नहीं आती जिसे सरकारों और समाज ने मिलकर बनाया है. उच्च शिक्षा में सुधार के नाम पर विकार बढ़ रहे हैं. स्कूली शिक्षा में जो सुधार कुछेक राज्यों में हुए हैं, उच्च शिक्षा उन्हें आगे बढ़ाने में असमर्थ सिद्ध हुई है. विश्वविद्यालय अभी बीमार ही रहेंगे. सम्भव है, उनकी मुश्किलें कुछ और बढ़ें, तब वे सीखें.

मार्च 2016

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