आंगन में बैंगन

♦  हरिशंकर परसाई   > 

मेरे दोस्त के आंगन में इस साल बैंगन फल आये हैं. पिछले कई सालों से सपाट पड़े आंगन में जब बैंगन का फल उठा तो ऐसी खुशी हुई जैसे बांझ को ढलती उम्र में बच्चा हो गया हो. सारे परिवार की चेतना पर इन दिनों बैंगन सवार है. बच्चों को कहीं दूर पर बकरी भी दीख जाती है तो ये समझते हैं कि वह हमारे बैंगन के पौधों को खाने के बारे में गम्भीरता से विचार कर रही है. वे चिल्लाने लगते हैं. पिछले कुछ दिनों में परिवार में बैंगन की ही बात होती है. जब भी जाता हूं परिवार की त्रियां कहती हैं- खाना खा लीजिए. घर के बैंगन बने हैं. जब वे ‘भरे-भटे’ का अनुप्रास साधती हैं तब उन्हें काव्य-रचना का आनंद आ जाता है. मेरा मित्र भी बैठक से चिल्लाता है- ‘अरे भाई, बैंगन बने हैं कि नहीं?’ मुझे लगता है, आगे ये मुझसे ‘चाय पी लीजिए’ के बदले कहेंगी- ‘एक बैंगन खा लीजिए. घर के हैं.’ और तश्तरी में बैंगन काटकर सामने रख देगी. तब मैं क्या करूंगा? शायद खा जाऊं, क्योंकि बैंगन चाहे जैसा लगे, भावना स्वादिष्ट होगी और मैं भावना में लपेट कर बैंगन की फांक निगल जाऊंगा.

ये बैंगन घर के हैं और घर की चीज़ का गर्व-विशेष होता है. अगर वह चीज़ घर में ही बनायी गयी हो, तो निर्माण का गर्व उसमें और जुड़ जाता है. मैंने देखा है, इस घर के बैंगन का गर्व त्रियों को ज्यादा है. घर और आंगन में जो जो है वह त्री के गर्व के क्षेत्र में आता है. इधर बोलचाल में पत्नी को ‘मकान’ कहा जाता है. उस दिन मेरा दोस्त दूसरे दोस्त को सपत्नीक भोजन के लिए निमंत्रित कर रहा था. उसने पूछा- ‘हां’ यह तो बताइए आपका ‘मकान’ गोश्त खाता है या नहीं? पत्नी अगर ‘मकान’ कही जाती है तो पति को ‘चौराहा’ कहलाना चाहिए. दोनों की पत्नियां जब मिले तो एक का ‘मकान’ दूसरे के ‘मकान’ से पूछ सकता है- ‘बहन, तुम्हारा ‘चौराहा’ शराब पीता है या नहीं?’

लोग पान से लेकर बीवी तक घर की रखते हैं. इसमें बड़ा गर्व है और बड़ी सुविधा है. जी चाहा तब पान लगाकर खा लिया और जब मन हुआ तब पत्नी से लड़कर जीवन के कुछ क्षण सार्थक कर लिये. कुछ लोग मूर्ख भी घर के रखते हैं. और मेरे एक परिचित तो जुआड़ी भी घर के रखते हैं. दीपावली पर अपने बेटों के साथ बैठकर जुआ खेल लेते हैं. कहते हैं- “भगवान की दया से अपने चार बेटे हैं, सो घर में ही जुआ खेल लेते हैं.”

घर की चीज़ अपत्ति से भी परे होती है. आदमी स्वर्ग से इसलिए निकाला गया कि उसने दूसरे के बगीचे का सेब खा लिया था. माना कि वह बगीचा ईश्वर का था, पर फिर भी पराया था. अगर वह सेब उसके अपने बगीचे का होता, तो वह ऐतराज करनेवाले से कह देता- “हां-हां खाया तो अपने बगीचे का ही खाया. तुम्हारा क्या खा लिया?” विश्वामित्र का ‘वैसा’ मामला अगर घर की औरत से होता, तो तपस्या भंग न होती. वे कह देते- ‘हां जी, हुआ. मगर वह हमारी औरत है. तुम पूछने वाले कौन होते हो?” अगर कोई अपनी त्री की पीट रहा हो और पड़ोसी उसे रोके, तो वह कैसे विश्वास से कह देता है- “वह हमारी औरत है. हम चाहे उसे पीटें, चाहे मार डालें. तुम्हें बीच में बोलने का क्या हक है.” ठीक कहता है वह. जब वह कद्दू काटता है तब कोई एतराज नहीं करता, तो औरत को पीटने पर क्यों एतराज करते हैं? जैसा कद्दू वैसी औरत. दोनों उसके घर के हैं. घर की चीज़ में यही निश्चिंतता है. उसमें मज़ा भी विशेष है. ये बैंगन चाहे बाज़ार के बैंगन से घटिया हों, पर लगते अच्छे स्वादिष्ट हैं. घर के हैं न! मैंने लोगों को भयंकर कर्कशा को भी प्यार करते देखा है, क्योंकि वह घर की औरत है.

वैसे मुझे यह आशा नहीं कि यह मेरा दोस्त कभी आंगन में बैंगन का पौधा लगायेगा. कई सालों से आंगन सूना था. मगर मैं सोचता था कि चाहे देर से खिले, पर इस आंगन में गुलाब, चम्पा और चमेली के फूल ही खिलेंगे. बैंगन और भिंडी जैसे भोंड़े पौधे को वह आंगन में जमने नहीं देगा. पर इस साल जो नहीं होना था, वही हो गया. बैंगन लग गया और यह रुचि से खाया भी जाने लगा. मेरे विश्वास को यह दोस्त कैसे धोखा दे गया? उसने शायद घबराकर बैंगन लगा लिया. बहुत लोगों के साथ ऐसा हो जाता है. गुलाब लगाने के इंतज़ार में साल गुजरते रहते हैं और फिर घबरा कर आंगन में बैंगन या भिंडी लगा लेते हैं. मेरे परिचित ने इसी तरह अभी एक शादी की है- गुलाब के इंतज़ार से ऊबकर बैंगन लगा लिया है.

लेकिन इस मित्र की सौंदर्य-चेतना पर मुझे भरोसा था. न जाने कैसे उसके पेट से सौंदर्य-चेतना प्रकट हो गयी. आगे हो सकता है, वह बेकरी को स्थापत्य-कला का श्रेष्ठ नमूना मानने लगे और तंदूरी रोटी को भट्ठी में देखकर उसे अजंता के गुफा-चित्र नज़र आयें.

इसे मैं बर्दाश्त कर लेता. बर्दाश्त तब नहीं हुआ, जब परिवार की एक तरुणी ने भी कहा- ‘अच्छा तो है. बैंगन खाये भी जा सकते हैं.’ मैंने सोचा, हो गया सर्वनाश. सौंदर्य, कोमलता और भावना का दिवाला पिट गया. सुंदरी गुलाब से ज्यादा बैंगन को पसंद करने लगी. मैंने कहा- ‘देवी, तू क्या उसी फूल को सुंदर मानती है, जिसमें से आगे चलकर आधा किलो सब्जी निकल आये. तेरी जाति कदंब के नीचे खड़ी  होगी. पुष्पलता और कद्दू की लता में क्या तू कोई फर्क समझेगी? तू क्या वंशी से चूल्हा फूंकेगी? और क्या वीणा के भीतर नमक-मिर्च रखेगी?

तभी मुझे याद आया कि अपने आंगन में तो कुछ भी नहीं है, दूसरे पर क्या हंसूं? एक बार मैंने गेंदे का पौधा लगाया था. यह बड़ा गरीब सर्वहारा फूल होता है, कहीं भी जड़ें जमा लेता है. मैंने कहा- ‘हुजूर अगर आप जम जाएं और खिल उठें तो मैं गुलाब लगाने की सोचूं.’ मगर वह गेंदा भी मुरझाकर सूख गया. उसका डंठल बहुत दिनों तक जमीन में गड़ा हुआ मुझे चिढ़ाता रहा कि गेंदा तो आंगन में निभ नहीं सका, गुलाब रोपने की महत्त्वाकांक्षा रखते हो. और मैं उसे जवाब देता- ‘अभागे, मुझे ऐसा गेंदा नहीं चाहिए जो गुलाब का नाम लेने से ही मुरझा जाये.’ गुलाब को उखाड़कर वहां जम जाने की जिसमें ताकत हो, ऐसा ही गेंदा मैं अपने आंगन में लगने दूंगा. मेरे घर के सामने के बंगले में घनी मेंहदी की दीवार-सी उठी है. इसकी टहनी कहीं भी जड़ जमा लेती है. इसे ढोर भी नहीं खाते. यह सिर्फ सुंदरियों की हथेली की शोभा बढ़ाती है और इसीलिए इस पशु तक के लिए बेकार पौधे की रूमानी प्रतिष्ठा लोक-गीतों से लेकर नयी कविता तक में है. नेल-पालिश के कारखानों ने मेंहदी की इज्ज़त अलबत्ता कुछ कम कर दी है. तो मैंने मेंहदी की कुछ कलमें आंगन में गाड़ दीं. दो-तीन दिन बाद आवारा ढोरों ने उन्हें रौंद डाला. मैं दुखी था. तभी अखबार में पढ़ा कि किसी ‘हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्लांट’ का पैसा इंजीनियर और ठेकेदार खा गये और उसमें ऐसी घटिया सामग्री लगायी कि प्लांट फूट गया और करोड़ों बरबाद हो गये. जो हाल मेरे मेंहदी के प्लांट का हुआ, वही सरकार के उस बिजली के ‘प्लांट’ का हुआ- दोनों को उज्जड़ ढोरों ने रौंद डाला. मैंने इस एक ही अनुभव से सीख लिया कि प्लांट रोपना हो तो उसकी रखवाली का इंतजाम पहले करना. भारत सरकार से पूछता हूं कि मेरी सरकार आप कब सीखेंगी? मैं तो अब प्लांट लगाऊंगा, तो पहले रखवाली के लिए कुत्ते पालूंगा. सरकार की मुश्किल यह है कि उसके कुत्ते वफादार नहीं हैं. उनमें कुछ आवारा ढोरों पर लपकने के बदले, उनके आस-पास दुम हिलाने लगते हैं.

फिर भी भारत सरकार के प्लांट तो जम ही रहे हैं और आगे जम जायेंगे. उसके आंगन की ज़मीन अच्छी है और प्लांट सींचने को पैतालीस करोड़ लोग तैयार हैं. वे प्लांट भी उन्हीं के हैं. सरकार तो सिर्फ मालिन है.

मेरे आंगन का अभी कुछ निश्चित नहीं है. बगल के मकान के अहाते से गुलाब की एक टहनी, जिसपर बड़ा-सा फूल खिलता है, हवा के झोंके से दीवार पर से गर्दन निकालकर इधर झांकती है. मैं देखता रहता हूं. कहता हूं तू ताक चाहे झांक. मैं इस आंगन में अब पौधा नहीं रोपूंगा. यह अभागा है. इसमें बरसाती घास के सिवा कुछ नहीं उगेगा. सभी आंगन फूल खिलने लायक नहीं होते. ‘फूलों का क्या ठिकाना.’ वे गंवारों के आंगन में भी खिल जाते हैं. एक आदमी को जानता हूं, जिसे फूल सूंघने की तमीज नहीं है. पर उसके बगीचे में तरह-तरह के फूल खिले हैं. फूल भी कभी बड़ी बेशर्मी लाद लेते हैं और अच्छे खाद पर बिक जाते हैं.

मेरा एक मित्र कहता है कि ‘तुम्हारे आंगन में कोमल फूल नहीं लग सकते. फूलों के पौधे चाहे किसी घटिया तुकबंद के आंगन में जम जाएं; पर तुम्हारे आंगन में नहीं जम सकते. वे कोमल होते हैं, तुम्हारे व्यंग्य की लपट से जल जायेंगे. तुम तो अपने आंगन में बबूल, भटकटैया और धतूरा लगाओ. ये तुम्हारे बावजूद पनप जायेंगे. फिर देखना कौन किसे चुभता है- तुम बबूल को या बबूल तुम्हें? कौन किसे बेहोश करता हैं- धतूरा तुम्हें या तुम धतूरे को?

(मार्च 2014)

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