अमृत का सहोदर ‘रस’ मिल गया

अंत में तय हुआ कि समुद्र मथकर अमृत निकाला जाए. पहले तो वासुकि नाग अड़ गया कि वह अपनी देह की दुर्गति नहीं कराएगा. पर शिष्टमंडल में जृम्भ और सुमाली जैसे क्रूर-कर्मा दैत्य भी थे. अतः कुछ इनके डर से और कुछ इंद्रियों के प्रभु इंद्र के फुसलाने से अंत में वह इच्छासर्प तैयार हो गया. सोचा कि चलो अमृत न सही अमृत का फेन चाटने का अवसर तो मिलेगा ही.

मेरु मंदर की चापलूसी नहीं करनी पड़ी. साक्षात स्थितिप्रज्ञ कर्मयोगी की तरह गरिमावान् उस मेरु मंदर को चापलूसी की क्या ज़रूरत? वह प्रस्ताव करते ही राजी हो गया. पर उसने सवाल पेश किया- “भाई, तुम्हारे काम के लिए मैं इस पतित अपावन इच्छासर्प को अपनी देह में लपेटने के लिए तैयार हूं. पर जैसे कर्मयोगी के लिए कोई स्थिर बिंदु चाहिए वैसे ही मुझे भी कोई आधार चाहिए. तभी अमृत के लिए सागर-मंथन हो सकता है. मुझे आधार कौन देगा, इस वरुणालय के अतल गर्भ में?”

लोगों की नज़रें मोटे-मोटे दैत्यों की ओर गयीं. पर शुक्राचार्य ने उपदेश दिया- “यह काम इन लोगों के स्वभाव के विपरीत है. मन में आएगा तो उसी क्षण मंदर-टंदर फेंक-फांक कर ये लोग अलग हो जाएंगे. इसके लिए कोई धीर, आस्थावान शांत पुरुष चाहिए. हमारे यजमान लोग घर फूंक सकते हैं, लाठी चला सकते हैं. यह काम उनसे नहीं होगा.”

अंत में सबने मिलकर आस्थारूपिणी सरस्वती की प्रार्थना की. आकाश में नीलोत्पल-श्याम एक तेजस्वी कमठ पैदा हुआ. सारा आकाश तेज़ नीली रोशनी से ढंक गया. अंत में तेज सिमटते-सिमटते एक तीक्ष्ण तीव्र प्रकाश का तीर बनकर समुद्र में प्रवेश कर गया. लहरें थम गयीं. आकाश से शब्द उत्पन्न हुएः “देवताओ और दानवो, स्वयं आस्थापुरुष ने कमठ बनकर अपनी वज्रोपम पीठ पर मंदर ले लिया है. शाश्वत का रंग नीला होता है. तुम नील वर्ण शांताकारम् प्रभु का स्मरण करके मंथन प्रारम्भ करो.”

मेरु मंदर ने अपने को धन्य माना! इच्छासर्प वासुकि खुद आकर उससे लिपट गया. इंद्रादि देवतागण वासुकि के मुंह की ओर चले कि उसी समय सुमाली ने इंद्र को ढकेल दिया और घुड़कते हुए कहा- “दैत्य-महाकुल कभी पूंछ पकड़नेवाला नहीं रहा है? उधर तुम लोग जाओ!” इस प्रकार मंथन का शुभारम्भ हुआ.

मंथन करते-करते दोपहर हो चली. देव दानव दोनों बदहवास हो चले. हवा थम गयी थी. सबका हाल बुरा था. मारे परिश्रम के एक-दूसरे से बोलने में भी कष्ट होता था. पर मंथन रुका नहीं. चलता रहा. लगता था कि सारी सृष्टि, हवा का बहना, शब्दों की गति, फूल का खिलना, पत्रों का बढ़ना, सभी कुछ रुक गया है. शांत मध्याह्न और परिपक्व वातावरण. लगता था कि किसी महान क्षण का प्रसव होनेवाला है.

अचानक बड़े ज़ोरों से फेन उठा. लगा कि कुछ समुद्र के भीतर से धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठ रहा है. दोनों पक्षों ने रस्सी छोड़ दी और अपनी आंखों को उसी दिशा में केंद्रित कर लिया. वासुकि लपक-लपककर फेन चाट रहा था. शीतल झुरझुर बयार बहने लगी. वातावरण सुगंध से भर उठा. मस्तिष्क एक नशे, एक सम्मोहन में बंधकर लाचार हो गया मंत्रविद्ध सर्प की तरह. कुछ क्षणों के बाद लहरों पर नृत्य करते हुए मयूर उठे. पुंज के पुंज कमल, अशोक, नवमल्लिका, नीलोत्पल और आम्रमंजरियां जलराशि पर तैरती-बहती आने लगीं. वरुणालय का समस्त विस्तार फूलों से पट गया. वरुण स्रोतों पर तैरते फूलों के पुंज और नाचते मयूर. लगता था कि समस्त सृष्टि एक अप्सरा है और गोपवेश विष्णु का रूप धारण करके दिशाओं के दस छिद्रों से काल की सम्मोहन वंशी बजा रही है.

बृहस्पति ने बताया- “चंद्रमा मनसो जातः. मन को मथने से चंद्रमा पैदा होता है. यही रस और प्राण का सहचर है. इस समुद्र को मथने से आज हमें रसों में श्रेष्ठ शृंगार रस मिला है.”

सबने अनुभव किया, उनके मन में चंद्रमा जैसे चेहरे देखे या अनदेखे डूब-उतरा रहे हैं, वे लोग स्वप्नों के शिखर पर आरोहण कर रहे हैं, उन्हें नींद जैसी आ रही है.

धीरे-धीरे मोहिनी माया कटी. शृंगार रस अंतर्धान हो गया. फिर मंथन प्रारम्भ हुआ. इस बार वीर रस निकला. विशाल पर्वताकार तीन संयुक्त शिरों की त्रिमूर्ति धीरे-धीरे जल से ऊपर उठी और सामने स्थिर हो गयी- केवल शीर्ष भाग ही, शेष जलमग्न रहा. भयानक चेहरे वाला वाम शिर अघोर भैरव का था. दक्षिण शिर नील वर्ण रुद्र का था जिसके नयन-पल्लवों से क्रोध चू रहा था. मध्य शिर सौम्यशांत गौरवर्ण था. भौंहों के मध्य अमरता और मृत्यु परस्पर खेल रहे थे. तेजस्वी त्रिपुंड, बंधे हुए दृढ़ होठ और निश्चय-दीप्त भालवाले वीर रस के शिवमुख को देखकर सबने प्रणाम किया. धीरे-धीरे त्रिमूर्ति अंतर्धान हो गयी. ‘भयानक’ और ‘रौद्र’ के साथ ‘वीर’ का दर्शन करके इस नये रस-बोध से लोगों को लगा कि उनकी छाती और चौड़ी हो रही है, उनकी आत्मा विस्तार पा रही है, वे हिमालय पहाड़ का आलिंगन कर सकते हैं. ‘रस’ क्या था साक्षात प्रतिज्ञा मूर्ति शिव ही थे. पर इसी रसावेश में कुछ के मन में हो रहा था कि यदि दुश्मन दिखाई पड़ जाय तो अभी गाली-गलौज शुरू कर दें. फिर हाथापाई.

फिर मंथन. इस बार उदास कपोतवर्ण करुण रस का जन्म हुआ. वातावरण मेघाच्छन्न उदास हो गया. धूसरवर्णी अकेला कपोत, उसकी कोमल गरदन, उसकी नरम पांखें, उसके करुण दयनीय नेत्र आदि के दर्शन से घोर विषाद का अनुभव होता था. जन्म ही करुण है, प्रेम ही करुण है, विश्व का मूल ही करुण विषाद है ऐसे भावों से अचानक मन भर गया. भीतर कोई अनचीन्ही व्यथा मरोड़ने लगी. भीतर जो कुछ ठूंठ था, या शिला की तरह अभिमानी था, वह विगलित होकर बहने लगा. सारा वन सूखे पत्तों से भर गया. वे पत्ते करुण रव से रो रहे थे. सबके मन में विषाद की वंशी बज उठीः ‘ओह धरती तूने जन्म क्यों दिया!’ ‘करुणानिधि जनार्दन, तुम कहां हो?’ ‘हवाओ, तुम जाकर चकितनयना मृगशावक-सी मेरी वधू से कहना…’ ‘मां, मां तू हमें छोड़कर…’ विषाद के स्वरों से सारी सृष्टि शोकमग्न हो गयी.

करुण रस की माया धीरे-धीरे कटी. अब दैत्यों को सब बेकार लग रहा था. दो-चार तो हटकर खड़े हो गये. “यार, सब बेकार है! दिन भर मथते रहे अमृत के नाम पर और ये सब फिजूल-फालतू चीज़ें निकल रही हैं.” ऐसी आवाज़ें उठने लगीं. पर दैत्यराज सुमाली ने सबको डांटा- “चलो, अपने काम पर! अमृत इस बार आ रहा है. तीन उड़ान के बाद तीतर पकड़ाई देता है, ऐसा नियम है. यह सब गूढ़ रहस्य तुम लोग क्या जानोगे? गुरु शुक्राचार्य की पाठशाला में मैंने ही तीन बार फेल होकर इस नियम के मुताबित चौथी बार दर्जा चार पास किया था.”

अपनी तर्कयुक्त युक्तिपूर्ण डांट के ज़रिये उसने सबको ठेल-ठालकर मोरचे पर खड़ा किया. फिर मंथन शुरू हुआ. घनघोर मंथन हुआ. सांझ हो आयी तो अद्भुत, हास और वीभत्स रस प्रकट हुए. वीभत्स के निकलते ही सबका जी मिचलाने लगा! लगा कि पैरों के नीचे और चारों तरफ लिजलिजे दीन निरीह, पर घृणित, केंचुए रेंग रहे हैं. दुर्गंध और अरुचि से मन भर गया. उबकाई-सी आने लगी. राजाधिराज अभिजात वरुण वासुकि की पूंछ छोड़कर अलग हो गये- “हमें नहीं चाहिए अमृत!” और हाथ झाड़कर चल दिये. दैत्य पहले ही अलग हो चुके थे. इच्छा-सर्प वासुकि भी अलग हो गया. “मैं ऐसे अमृत को पीकर अपने कलात्मक संस्कार नष्ट नहीं करूंगा! उफ् क्या दुर्गंध है!” कहकर चलता बना.

इधर दैत्यगण अपने बूढ़े पुरोहित शुक्राचार्य को बुरा-भला कह रहे थे.

“छिः इसीलिए मेहनत करवाये! बूढ़े हो गये, अक्ल नहीं आयी!”

“हम सबको पशुओं की तरह नाथकर घोर परिश्रम करवाया और अपने किनारे बैठकर बृहस्पति के साथ सुरती खाते रहे.”

“पता चलता तब, जब दिन भर यह रस्सा खींचना पड़ता!”

“अरे ये पुरोहित हैं, कि हम लोगों का सिर्फ अन्न खराब करने के लिए हैं.” -बेचारे शुक्राचार्य अपने उद्दंड शिष्यो को अपनी सफाई देने का अवसर ही नहीं पा रहे थे.

इसी समय मेरु मंदर ने गम्भीर स्वर में कहा- “मैं जानता था अमृत नहीं मिलेगा. पर पहले कहता तो तुम कहते कि कतरा रहा हूं…! देवताओ और दानवो, मंथन कर्म है. कर्म से ‘रस’ मिलता है ‘अमृत’ नहीं. अमृत के पाने का माध्यम आशीर्वाद है, कर्म नहीं. अमृत नहीं मिला, न मिले. अमृत का सहोदर ‘रस’ मिल गया. शृंगार, वीर, भयानक, रौद्र, करुण, अद्भुत, हास और बीभत्स. ‘रस’ अमृत का ही सहोदर है. अतः संतोष करो! कम नहीं मिला.”

मेरु ने गुरु गम्भीर स्वर में फिर कहा- “अमृत तो आशीर्वाद है. उसे अपने हृदय में पाओगे. यदि चाहो तो धीरे-धीरे उत्पल की तरह तुम्हारे अंदर वह विकसित होगा. इसकी पवित्र गंध से तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन भर जाएगा. यह तुम्हारे जन्म-जन्मांतर के ज़हर को धीरे-धीरे खींचते हुए स्वतः श्याम वर्ण का हो जाएगा. तुम्हारे अंदर तुम्हारे अनेक रिपु हैं. वे रिपु तुम्हारे क्रुद्ध मर्महीन कठोर अभिशप्त अनजिये व्यक्तित्व के ही चेहरे हैं, जिन्हें तुम गढ़ते हो और भूल जाते हो. पर वे रिपु बना कर तुम्हारे भीतर बैठे हैं, घात लगाये हैं. तुम उन रिपुओं को मार नहीं सकते, पर अमृत की गंध से उन्हें सुला सकते हो, उन्हें शिशुओं जैसा कोमल सुकुमार बना सकते हो,” कहकर मेरु मंदर चुप हो गया.

सभी अपने-अपने घर चले गये. …और इधर पाताललोक में-

दो सम्भ्रांत सज्जन बात कर रहे थे. “अरे भाई शेष, कहां चले? मैं तुम्हारे ही पास आ रहा था.” अपनी वीणा पर हाथ फेरते एक ने दूसरे से कहा.

“जा रहा हूं जरा वासुकि के पास. अमृत-मंथन का क्या समाचार है जानने के लिए!”

“तो मुझी से सुन लो. अमृत नहीं मिला-सब बकवास था!” वीणाधारी ने कहा.

“ऐसी!”

“हां, पर एक बात सुनो, कोई जाने न. गुह्यातिगुह्यं इदम्. पिता ने देवलोक में सिर्फ मुझे ही बताया है! …अमृत का जन्म हो रहा है, सगुण रूप में, भाव-बोध बनकर, द्वापर के अंत में.” कहते समय वीणाधारी की आंखें बड़ी और बड़ी होती गयीं.

“द्वापर के अंत में? कहां पर?” शेषनाग ने चकित होकर पूछा.

“वृंदावन में… और आश्चर्य, देवों नहीं मनुष्यों के माध्यम से यह व्यक्त होगा!”

– कुबेरनाथ राय

(‘रस-आखेटक’ की भूमिका के अंश)

(जनवरी 2013)

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