अब वह ‘काला पानी’ नहीं है!  –  डॉ. उषा मंत्री

यात्रा-कथा

बचपन में शरारत करने पर अक्सर अम्मा मुझे काले पानी भेजने की धमकी दिया करती थी जिससे मैं  सहम जाती थी. मैंने अपने छोटे-से कस्बे के पोखरों और ताल-तलैयों के उजले पानी को देखा था. तब मेरे लिए काला पानी का मतलब नालियों का पानी हुआ करता था. बड़े होने पर जाना कि अंग्रेज़ों के शासन में किसी भी भीषण अपराध की सज़ा के तौर पर अंडमान की जेल में भेज दिये जाने को काला पानी की सज़ा कहा जाता था. कारण यह था कि अक्सर वहां की विषम परिस्थिति, जलवायु और जेल में होनेवाले अत्याचारों की वजह से कोई लौटकर नहीं आ पाता था. लेकिन जब इतिहास पढ़ा, और उसमें भी खासतौर पर जब आज़ादी के आंदोलनों के बारे में पढ़ा, तो पता चला कि आज़ादी के अनेक दीवानों को अंडमान की उसी जेल में भेज दिया जाता था ताकि वे लौटकर न आ सकें. सम्भवतः तभी से मेरे मन में अंडमान को देखने की दबी-ढकी इच्छा थी. बीच-बीच में यह इच्छा अपना सिर भी उठाती थी. इसलिए जैसे ही मौका मिला, मैं चल पड़ी अंडमान की ओर.

बंगाल की खाड़ी में स्थित अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भौगोलिक दृष्टि से दूर होने के बावजूद भारत के दिल के बहुत करीब है. नीले आसमान के तले और नीले समंदर के बीच हरीतिमा से भरपूर अंडमान ऐसा लगता है जैसे नीलम के साथ पन्ना जड़ दिया गया हो. चारों तरफ दूर-दूर तक समंदर ही नज़र आता है. और उसी में हैं छोटे-छोटे कई द्वीप. केंद्र शासित इस द्वीप समूह में कुल मिलाकर पांच सौ बहत्तर द्वीप हैं लेकिन महज चौंतीस द्वीपों पर ही लोग रहते हैं, और उनमें से कुछ पर केवल आदिवासियों की रिहाइश है. पर्यटन केवल अंडमान के कुछ द्वीपों तक ही सीमित है, निकोबार इसमें शामिल नहीं है. आदिवासी जीवन और संस्कृति की रक्षा के लिए इसे सैलानियों की नज़रों से बचा कर ही रखा गया है. अंडमान में एक द्वीप से दूसरे द्वीप तक बड़ी या छोटी मोटरबोट से ही पंहुचा जा सकता है. अच्छा ही है कि अभी तक वहां समुद्र पर पुल नहीं बने हैं. इसीलिए वहां समुद्र प्रदूषित नहीं हुआ है.

अपने घर यानी मुम्बई से लगभग दस घंटे लगे हमें अंडमान की मौजूदा राजधानी पोर्ट ब्लेयर तक पहुंचने में. थकान तो काफी थी पर उत्साह में कोई कमी नहीं थी. इसीलिए तो रोज़वैली रिसॉर्ट में थोड़ी देर आराम करने के बाद हम निकल पड़े पोर्ट ब्लेयर भ्रमण पर. उस दिन बरसात भी हमारे साथ-साथ चल रही थी, पर न हम रुके न बरसात. वहां के आदिवासियों के रहन-सहन को दर्शाने वाले म्युज़ियम को देखने के बाद हम पहुंचे अंडमान के काला पानी के नाम से प्रसिद्ध सेल्युलर जेल. आज़ादी के बाद इस जेल को राष्ट्रीय स्मारक बना दिया गया है. वहां की चित्र-वीथी में उस जेल में सज़ा काटनेवाले सभी क्रांतिकारियों के चित्र लगे हैं. यूं तो लगभग सभी सूबों के क्रांतिकारियों के चित्र वहां थे पर उनमें ज़्यादा संख्या बंगाल और पंजाब के सिक्ख क्रांतिकारियों की थी. सज़ा देने के बेहद क्रूर तरीके भी मूर्तियों के माध्यम से दर्शाये गये हैं. गर्व हो आया अपने उन देशप्रेमी क्रांतिकारियों पर, जो इतनी यातनाएं सहने के बावजूद झुके नहीं.

इसके साथ ही याद हो आया था इतिहास का वह पन्ना जो नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने 29 दिसम्बर 1943 को इस धरती पर लिखा था- उस दिन नेताजी ने देश की ‘स्वतंत्र ज़मीन’ पर तिरंगा फहराया था. द्वीप-समूह आज़ाद हिंद सरकार का मुख्यालय बना. अंडमान और निकोबार द्वीपों को तब नेताजी ने ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ द्वीप नाम दिये थे. इस तरह यह देश का पहला भूभाग था जो अंग्रेज़ी की गुलामी से मुक्त हुआ, जहां देश की अपनी सरकार बनी. नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने स्वयं देशवासियों को इस घटना की जानकारी दी थी. तब नेताजी ने रेडियो पर कहा था- ‘…एक खुशखबरी है आपके लिए… हमारी ज़िंदगी का अनोखा अनुभव था जब हम पहली बार स्वतंत्र भारत की धरती पर खड़े थे. …उस द्वीप पर ब्रिटिश चीफ कमिश्नर के महल पर हमारा तिरंगा फहरा रहा था. उस दृश्य को देखकर हम सब उस दिन की कल्पना में डूब गये जब हमारा तिरंगा दिल्ली में वायसराय भवन पर फहरायेगा.’ यह सब याद करते हुए तन-मन एक अजीब-सी सिहरन से घिर गया था. यह सोचकर मन कुछ उदास भी हो गया था कि अंग्रेज़ों ने 1857 की क्रांति के बाद यहां अलग-अलग जगहों को अपने जनरलों के जो नाम दिये थे, वे आज भी चल रहे हैं. हम तो ‘शहीद’ और ‘स्वराज’ नाम भी भूल गये हैं.

बहरहाल, मैं जल्दी ही अतीत से वर्तमान में लौट आयी. पोर्ट ब्लेयर से आड़े-टेढ़े रास्तों को पार करते हुए पहुंचे चिड़िया टापू. समंदर के किनारे उस घने जंगल में एक भी चिड़िया नहीं दिखी. शायद सुबह में दिखाई देती हों. उस वक्त धीरे-धीरे शाम उतर रही थी. गये भी तो सूर्यास्त देखने थे. अचानक बादल घिर आये और खासी बरसात हो गयी. इस तरह बरसात से सामना करना वहां कोई बड़ी बात नहीं है. हम मायूस हो गये थे कि एकदम मौसम खुला और ढलता सूरज हमारे सामने था. ढलते सूरज के साथ आसमान के रंग बदल रहे थे कि शाम एकदम रात में बदल गयी. अंडमान में रात बहुत जल्दी उतरती है. और कब उतर आती है, पता ही नहीं चलता.

पोर्ट ब्लेयर से हॅवलॉक द्वीप पहुंचने में लगे लगभग दो घंटे. वही समुद्र के रास्ते. फर्क स़िर्फ इतना था कि यह रास्ता तय किया क्रूज़ से. एक नया अनुभव था. यूं तो वहां सब कुछ नया ही था. थोड़ी घबराहट भी थी और थोड़ी उत्सुकता भी. हॅवलॉक अपने राधानगर बीच और जल-खेलों की वजह से जाना जाता है. राधानगर बीच अपनी स़फाई और सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है. और उस शाम उसे सचमुच वैसा ही पाया, एकदम स़ाफ-शफ्फाफ. समंदर का पानी भी इतना स़ाफ कि नीचे की रेत दिख जाए. अंडमान के हर बीच पर सुबह-शामें बहुत खूबसूरत होती हैं. राधानगर बीच भी इसका अपवाद नहीं है. वहां भी शाम के रंग आसमान और समंदर को रंगीन बना रहे थे. जल-खेलों का आनंद लेने पहुंचे ‘एलिफेंट बीच’. कई तरह के खेल थे. मेरी तो समंदर के पानी में उतरने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी, पर हमारे ग्रुप की सबसे बुजुर्ग और मेरी मित्र हेमलताजी और मेरी हमउम्र मित्र उषा तलवार को आनंद लेते देखकर मैं भी हिम्मत करके एक राइड कर ही आयी.

पोर्ट ब्लेयर के पास ही हैं जॉली बॉय और रेडस्किन टापू जो अपने कोरल-चट्टानों के लिए पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. ये दोनों टापू बारी-बारी से छह-छह महीने के लिए खुलते हैं. हमें रेडस्किन टापू जाने का मौका मिला. पूरा कोरल-जगत फैला था समंदर में. अद्भुत लग रहा था सब कुछ. इतनी तरह के कोरल थे, पर जिसे हम मूंगा कहते हैं वह वहां नहीं था. बताया गया कि अंडमान में मूंगा लगभग नहीं के बराबर है. वहीं पता चला कि कोरल अर्थात प्रवाल दस सालों में महज़ एक इंच बढ़ता है इसीलिए उनकी चट्टानों को क्षति न पहुंचे, इसका ध्यान रखा जाता है. अंडमान से कोरल बाहर ले जाने पर भी प्रतिबंध है. अपनी प्राकृतिक सम्पदा के प्रति यह मोह अच्छा लगा.

भारत के पूर्वी छोर पर सूर्योदय बहुत जल्दी होता है. जब भी मैं पूर्व या उत्तर-पूर्वी प्रदेशों में गयी, उगते सूरज को देखने की भरपूर कोशिश की. लेकिन कहीं भी सफल नहीं हो पायी थी, कहीं बरसात ने रोक दिया और कहीं नींद ने. इस बार भी मन में संशय था इसलिए कोशिश भी बस यूं ही सी थी. लेकिन एक सुबह मुंह अंधेरे ही पास वाले बीच पर पहुंच कर इंतज़ार करने लगे सूर्योदय का. हमारी इंतज़ार रंग लायी और सामने ही था सूर्योदय का मनमोहक नज़ारा. धीरे-धीरे ऊपर उठता सूरज सारे परिवेश को अपनी कोमल किरणों के स्पर्श से चैतन्य बना रहा था. एक पवित्र-सा उजाला धीरे-धीरे आकार ले रहा था. लगा जैसे हम उस उजाले में सिमटते जा रहे हैं.

खासा अनोखा अनुभव हुआ रॉस द्वीप पहुंच कर. रॉस द्वीप अंग्रेज़ों के समय में अंडमान की राजधानी रहा था. वहां उन्होंने अपने लिए हर तरह की सुविधा और सुरक्षा जुटा ली थी. जापान का हमला रॉस पर भी हुआ था. हालांकि आज रॉस द्वीप खंडहर में तब्दील हो चुका है. वहां सुनी अंडमान के पहले भारतीय व्यापारी फर्जनअली की कहानी. अच्छा खासा कारोबार चल रहा था उसका. अंग्रेज़ यह सहन नहीं कर पाये और उस पर बेजा दबाव डालने शुरू कर दिये. तरह-तरह से उसे यातनाएं दी गयीं. उसका व्यापार चौपट हो गया, परिवार तहस-नहस हो गया, पर वह नहीं झुका. आज भी वहां उसे सम्मान से याद किया जाता है. उसके घर के खंडहर आज भी उसकी याद दिलाते हैं. और यह अहसास भी कराते हैं कि अत्याचार के खिलाफ लड़ी लड़ाई में हार कर भी जीता जा सकता है. ऐसे में महत्त्वपूर्ण जीतना नहीं, लड़ना होता है. वैसे, इस द्वीप पर हमारे कितने शहीदों ने इस लड़ाई का उदाहरण प्रस्तुत किया है- यह बात ही रोमांचित कर जाती है.

अंडमान से आने के बाद कई बार अम्मा से कहने का मन करता है कि अब काला पानी जाने से मैं नहीं डरती, जब चाहें तब भेज दें. पर अब अम्मा कहां हैं जिनसे कहूं? चलिए, खुद से ही कह लेती हूं कि मौका मिला तो फिर चल पडूंगी ‘काला पानी’ अंडमान की तरफ. अब तुम्हारे काले पानी से मुझे डर नहीं लगता, अम्मा! उसका इतिहास भी मुझे रोमांचित करता है और उसका भूगोल भी. 

मार्च 2016

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *