अच्छा लग रहा है

♦   तेज प्रकाश   >

और तभी सीताकांतजी ने कहा था, “ये जो अच्छा लगने वाली बात है विद्युतजी, यही तो बात है. और यह कोई छोटी नहीं, बहुत बड़ी बात है. अच्छा लगे, यह एक शुद्ध, निखालिस सुख की बात है. ऐसा नहीं कि हर रोज़ ही अच्छा लगता हो. कम, बहुत ही कम, ऐसा होता है कि अंदर यह ख्याल आता है या कि अंदर की गहराइयों से यह अहसास जागता है कि अच्छा लग रहा है. कभी इसका कारण होता है, जैसे कि किसी के लिए कुछ, परिमाण में छोटा ही सही, किया हो या कि कोई अच्छा काम किया हो या किसी ज़रूरतमंद की मदद की हो या ऐसा ही कुछ और. ऐसे में अच्छा लगने का अहसास होता है. मुझे यह अहसास अध्यात्म के क्षणों में भी होता है. मैं जब प्रयाग में माघ-मास में कल्पवास में अकेला होता हूं, तो भी मुझे कुछ ऐसा ही अनुभव होता है. जब मेरा मन अत्यंत लघु से उठकर उच्चतर अवस्था में प्रयाण कर रहा होता है, तो भी मुझे अच्छा प्रतीत होता है. जब मैं अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर रहा होता हूं, तो भी अच्छा लगने का भाव आता है.”

मैंने बीच में टोका था, “क्या कभी ऐसा भी होता है कि अकारण ही अच्छा लगे?”

“हां, क्यों नहीं,” उनकी बात में और उनके कहने के तरीके में वह उत्साह दिखा था जो तब प्रकट होता है जब कोई आपके मन की कोई बात कह दे. वह बोले थे, “बहुधा ऐसा भी होता है कि अच्छा लगने का कोई कारण विशेष नहीं दिखता. अकारण ही अच्छा लगता है या यूं कहूं कि कम से कम कोई प्रकट कारण तो समझ में नहीं आता. कहीं गये हैं– समुद्र के किनारे, पहाड़ पर या नदी के तीर पर– बस चुपचाप बैठे हैं, निहार रहे हैं सामने प्रकृति की छटा को अपने चारों तरफ़ के परिवेश का सहज आभास लिये और अच्छा लगता है. जी चाहता है, बैठे ही रहें. जब अच्छा लगता है, तो बस अच्छा लगता है. इस अच्छे लगने के समय की मानसिक स्थिति को, उस समय के ख्यालात और हृदय में उठते भावों को बयान करना आसान नहीं है. यह सिर्फ वर्तमान में या यूं कहूं कि उस क्षण मात्र में जीने की बात होती है. लगता है, इसे गुनते रहो, बस महसूसते रहो. वक्त थम जाता है. इच्छा होती है कि यह अनुभव कायम रहे या बार-बार हो. और तब मुझे मेरे भतीजे टिनटिन की बात याद आती है– ‘डैडी, अच्छा लग रहा है.’ उसके लिए भी कोई प्रकट कारण नहीं होता. उसने कुछ नहीं किया होता. वह कुछ करने भी नहीं जा रहा होता. वह तो बस अपने में मस्त उछल-कूद कर रहा होता है. यह बस मन की और मनःस्थिति की बात होती है.”

“तो आप ऐसे क्षणों में क्या करते हैं?” मैंने पूछा था.

“मैं तो अच्छा लगने के क्षणों को चखता हूं, रस ले-लेकर बार-बार चखता हूं. उन क्षणों को मुंह में ले जुगाली करता हूं. इस रससिक्त अहसास में डूबता-उतराता हूं कि अच्छा लग रहा है. तब लगता है कि दुनिया हसीन है, जीने का मकसद है, खुशियां हैं और मैं कुछ भी कर सकता हूं. पता नहीं कौन-से रसायन उस वक्त मेरे खून में बह रहे होते हैं…” वह उसी प्रवाह में बोलते रहे थे.

मैं और मेरे मित्र सीताकांतजी लंच ब्रेक में कुछ हल्का-फुल्का खाना खाने के बाद थोड़ा चहलकदमी करने के उद्देश्य से कार्यालय से बाहर निकल, इंडिया गेट की ओर मुखातिब हो, राजपथ पर खरामा-खरामा चले जा रहे थे. दिसम्बर का अंतिम सप्ताह था. सर्दी अपने भरपूर यौवन पर थी. हल्की बहती हवा भी चुभ रही थी. गनीमत थी कि गुनगुनी धूप पसरी हुई थी. गाड़ियों का शोर था. सड़क के दोनों किनारों पर लाल बजरी का फुटपाथ, उसके बाद लॉन और हरी घास पर बैठे, बतियाते, चलते लोग और दौड़ते-खेलते बच्चे. कुछ क्षण एकांत का आनंद लेते, एक दूसरे में लीन जवान त्री-पुरुषों और एक दूजे को निहारते, चुपके से क्षण भर के स्पर्श को लालायित, अनब्याहे कमसिन लड़के-लड़कियों के अनगिनत जोड़े. कुछ ऐसे भी त्री-पुरुष जो बैठे तो थे पास-पास पर लीन थे अपने में और निगाहें उस बालक या बालिका पर रखे हुए थे जो कुछ कदम दूर खेल में मग्न थी.

मैले कपड़ों में चाय-कॉफी, आटे और सूजी की फुल्की, भेलपूरी, पापड़, चिप्स और खिलौने बेचते खोंचे वाले. भिखमंगे भी. सड़क पर तमाम ब्रैंड्स की आईस्क्रीम के ठेले. पुलिस की पेट्रोल वैनें. एक नज़र में समझा जा सकता था कि कौन दिल्ली में रहने वाला था और कौन बाहर से आया हुआ था और दिल्ली के भ्रमण पर निकला इंडिया गेट देखने जा रहा था. कुल मिलाकर एक अजब समां था. एक ऐसा माहौल जो इंडिया गेट की तरफ़ जाते राजमार्ग पर ही मयस्सर हो सकता था. आज भी है.

काफी देर तक हम बस चुपचाप चलते रहे थे. अपने में मग्न, पर अपने चारों ओर के परिवेश से पूर्णतया अपरिचित भी नहीं. सीताकांतजी मन में क्या सोच रहे थे, मैं नहीं बता सकता था. पर मैं चूंकि थोड़ा परेशान था, अपनी उसी परेशानी पर मेरा ध्यान था. दरअसल मेरी छोटी बहन ब्याहने लायक हो गयी थी और मैं करीब एक साल से उसके लिए एक अच्छे वर की तलाश में था. जो जमा पूंजी मेरे पास थी, उसमें कोई ठीक-ठाक लड़का मिल नहीं रहा था. मैं चलते-चलते यही सोचता जा रहा था कि क्या किया जाए. कभी सोचता था कि अरे अभी समय ही क्या हुआ है या उसकी उम्र ही क्या हुई है, सब सम्भल जाएगा, और कभी ख्याल आता कि राह बड़ी कठिन है. और तभी मेरा ध्यान भंग हुआ था. सीताकांतजी ठोकर खाकर तकरीबन आगे की ओर गिर पड़े थे.

मैंने उन्हें उठाते हुए पूछा था, “चोट तो नहीं लगी?”

वे बोले थे, “नहीं.”

सीताकांतजी मेरे वरिष्ठ सहकर्मी भी थे. स्वस्थ, लम्बा, छरहरा डील-डौल, साफ़ गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी आंखें. एक आकर्षक व्यक्तित्व के धनी. थोड़ा धीमे चलते थे पर चाल में एक शान थी. वह एक काबिल अधिकारी तो थे ही, एक नेक आदमी भी थे. हो सकता है कि वह आपका कोई काम न कर सकें या आपका कोई भला न कर सकें, पर बुरा आपका कभी भी नहीं करेंगे. और आज की दुनिया में यही बहुत बड़ी बात है. वह कम बोलते थे या यूं कहूं कि बेकार नहीं बोलते थे. मतलब की बात बोलते थे. और बहुधा उनकी एक बात में बहुत-सी बातें छुपी रहती थीं. उनके चंद शब्दों से वह अर्थ निकलते थे जिसे दूसरा कोई सैकड़ों शब्दों का प्रयोग करके ही स्पष्ट कर सकता है. पर जब वह किसी विषय विशेष पर बोलते थे तो धाराप्रवाह बोलते थे. संवाद के दौरान अक्सर वही बोलते थे. दूसरा सुनता था. परनिंदा और पंचकड़ा उन्हें तनिक भी नहीं भाता था. जबकि ज्यादातर आदमी जब मुंह खोलता है तो यही करता है. उनकी साहित्य, संस्कृति, दर्शन और अध्यात्म में गहरी पैठ थी. यह बहुत कम लोग जानते थे कि वे एक सहृदय कवि भी थे, हालांकि स्वांतः सुखाय. मैंने जब भी उनसे कहा होगा कि आप अपनी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने को भेजिए, वह हमेशा गोस्वामी तुलसीदास की एक पंक्ति दोहरा देते थे– ‘स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा.’ उनसे बहुधा ही कुछ न कुछ सीखने को मिलता था और इसीलिए मैं उनका बहुत आदर करता था.

“और आजकल क्या हो रहा है?” मैंने चुप्पी तोड़ी थी.

वे बोले थे, “आजकल मेरे छोटे भाई रमाकांत, जो भुवनेश्वर उच्च न्यायालय में वकालत करते हैं, परिवार के साथ सर्दियों की छुट्टियां मनाने हमारे पास दिल्ली आये हुए हैं. सर्दी और गर्मी की छुट्टियों के बहाने हम दोनों भाई कुछ समय साथ रह लेते हैं. दिल्ली आने से पहले जब मैं भुवनेश्वर में प्रतिनियुक्ति पर था, हम साथ-साथ ही थे और हमारी रसोई एक थी.”

यह ज़ाहिर था कि उनकी अपने भाई से बहुत आत्मीयता थी. सीताकांतजी तीन भाई थे. वह सबसे बड़े थे. उनका यह एडवोकेट भाई तीसरे नम्बर पर था. वह उनसे सत्रह साल छोटा था. बीच में एक भाई और था. वह उनसे पांच साल छोटा था. सीताकांतजी के पिता का देहांत बहुत पहले हो गया था. तब वह मात्र सत्रह साल के थे. मां उनकी तब स्वर्ग सिधार गयीं थीं जब वह मात्र ढाई वर्ष के थे. उनकी दो बहनें थीं, एक सबसे बड़ी थी. सीताकांतजी से पांच साल बड़ी. उनके पिता उसकी शादी करने के पश्चात गुज़रे थे. एक सबसे छोटी थी. सीताकांतजी से सोलह साल छोटी. पिता की मृत्यु के समय वह गोद में एक साल से भी छोटी उम्र की थी. अभी-अभी पिछले साल ही उसकी शादी हुई थी. सीताकांतजी ने ही सब कुछ किया था. दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह सीताकांतजी ने ही किया था. अपने दोनों भाइयों में वह मंझले की बात बहुत कम करते थे. उसकी शादी के दस महीने बाद ही उन्होंने उसे अलग कर दिया था, ऐसा एक बार उन्होंने बताया था. ज़रूर कोई खास बात रही होगी. शायद उससे उनका मन खुश नहीं था. हालांकि ऐसा उन्होंने कभी दो टूक शब्दों में कहा
नहीं था.

“यह तो बड़ी अच्छी बात है,” मैंने यूं ही कहा था और पूछा था, “उसके बच्चे भी आये होंगे!”

“हां, हां! बाल-बच्चों के साथ आये हैं.” उन्होंने उत्तर दिया था. वह आगे बोले थे, “मेरे भाई के दो बेटे हैं. बड़े का नाम प्रमीत है, जिसकी उम्र साढ़े तीन साल है. छोटा अभी मात्र सात महीने का है. बड़े वाले को हम सब प्यार से टिनटिन कहते हैं. वह इसलिए कि शुरू-शुरू में सामने की ओर के उसके बाल मशहूर कैरेक्टर ‘टिनटिन’ के जैसे हुआ करते थे. छोटे वाले का अभी नाम नहीं रखा गया है, पर पहचान के लिए टिनटिन की तर्ज़ पर मैं उसे प्यार से ‘चिनचिन’ और उसके माता-पिता समेत बाकी लोग ‘निक्कू’ बुलाते हैं. दोनों ही बच्चे प्यारे हैं.”

“तब तो बहुत अच्छा लग रहा होगा!” यह भी मैंने ऐसे ही कह दिया था.

वह बोले थे, “हां, बच्चे तो वैसे भी आकर्षित करते हैं, पर टिनटिन की बातें आकर्षण का दोहरा कारण बनती हैं. कभी-कभी उसके मुख से ऐसी बात निकल जाती है जो कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है. एक दिन कुछ ऐसा ही हुआ. रात के ग्यारह बज रहे थे. रात का खाना हो चुका था और धीरज, मेरा बेटा, बाहर के कमरे में ज़मीन पर गद्दे और चादरें बिछा रहा था. टिनटिन गद्दे पर उछल-कूद कर रहा था.”

“तो ऐसा क्या कहा उसने?” मैंने अपनी उत्सुकता व्यक्त की थी.

वे बोले थे, “मैंने पूछा, टिनटिन, क्या हो रहा है? टिनटिन मेरे पास आकर कूदते हुए बोला था, डैडी, अच्छा लग रहा है” और फिर एक बार उछलकर बिस्तर पर लोट-पोट होने लगा था.”

“मेरे दोनों ही भाइयों के बच्चे मुझे ‘डैडी’ कहकर पुकारते हैं,” थोड़ा रुककर उन्होंने जोड़ा था.

“तो?” मेरे स्वर में सम्भवतः उकताहट थी.

“बताता हूं,” कहकर उन्होंने अपने दायें हाथ से रुकने का इशारा किया था.

कुछ क्षण रुककर, मानो सांस ले रहे हों, वे फिर बोले थे, “जब टिनटिन ऐसा कर रहा था, मुझे एकाएक ख्याल आया था कि वह किसी नये खिलौने से नहीं खेल रहा था, क्योंकि जब नया-नया खिलौना उसे मिला होता है तो वह बहुत ही मग्न हो जाता है उसमें. न ही वह टॉफी या चॉकलेट फ्लेवर्ड क्रीम सैंडविच बोरबॉन बिस्किट या बिना नट्स की, विशेष तौर पर वैनीला, आइसक्रीम या चॉकलेट कवर्ड चॉको कॉर्नफ्लेक्स सूखे ही या दूध से खा रहा था, जो उसके बहुत फेवरिट हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह अक्सर इन्हीं पर रहता है और अपने मां-बाप के द्वारा बार-बार ज़ोर देने के बावजूद तनिक-सा ही दाल-रोटी या दाल-चावल खाता है. न ही वह कहीं से घूमकर आया था या घूमने ही जा रहा था. तो आखिर इसे अच्छा क्या लग रहा था? फिर मैंने यह अनुभव किया था कि बात सिर्फ इतनी थी कि गद्दे और चादर बेड पर न होकर फर्श पर बिछे थे, वह उस पर दौड़-भाग और उछल-कूद कर रहा था और वह खुश था.”

मैं सीताकांतजी की आदतों और मूड से वाकिफ, यह समझ चुका था कि कुछ घुमड़ रहा था उनके मन में जिसे अभिव्यक्ति का जामा पहनाया ही जाने वाला था. हम दोनों जब साथ होते थे, चाहे एक दूसरे के घर में बैठे हों या फिर टहलने निकले हों, अक्सर ऐसा होता था. और तब मैं समझ जाता था, यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मुझे पूर्वानुमान होने लगता था कि आज सीताकांतजी मूड में हैं और कुछ खास कहने वाले हैं. और तब ऐसे समय में मैं बीच-बीच में सिर्फ ‘हूं’, ‘हां’ ही करता था. यदि लगातार वह दो सौ-तीन सौ शब्द भी बोल जाते थे तो भी उन्हें मैं टोकना पसंद नहीं करता था. वह अक्सर धाराप्रवाह बोलते रहते थे और मैं सुनता रहता था.

“विद्युतजी, जानते हैं अच्छा कब लगता है?” पहली बार सीताकांतजी मेरी ओर देखकर यह बात बोले थे. अभी तक उनका मोनोलॉग चल रहा था सामने देखकर. अपने से बात कर रहे थे. लेकिन मोनोलॉग के साथ जैसा अक्सर होता है, उसके विपरीत यह उबाऊ बिलकुल भी नहीं था. हां, यह अवश्य है कि शुरू-शुरू में तो मुझे यह समझ में नहीं आया था कि वह क्या बात कर रहे थे, पर जैसे-जैसे वह बोलते गये थे, रुचि बढ़ती गयी थी.

“आप बताइए.” मैंने कहा था.

वे बोले थे, “मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अच्छा तभी लगता है जब मन या चित्त, जो भी कहिए, शांत होता है. शांत मन आत्मा के करीब नहीं, तो कम से कम आत्मोन्मुख अवश्य होता है. आत्मा आनंद स्वरूप है. तो शांत हुआ मन आनंद की तरंगों का अनुभव करता है, प्रसन्नता की अनुभूति करता है. हमारे शात्रों में कहा गया है– जैसे मलीन जल स्थिर होने पर धीरे-धीरे स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही शांत हुआ चित्त धीरे-धीरे प्रसन्न हो जाता है. यही प्रसन्न हो जाना अच्छा लगने को जन्म देता है.” मुझे व्याख्या अच्छी लगी थी.

मुझसे रहा नहीं गया था. मैंने जोड़ा था, “एक बात है, कितना दम है हज़ारों वर्षों पूर्व कही हुई इस बात में! मन की ऐसी समझ, कमाल है!”

कुछ देर मौन के बाद वह फिर बोले थे, “अंग्रेज़ी भाषा में हम अच्छा लगने को ‘फीलिंग गुड’ जैसा कुछ कहते हैं. ‘फीलिंग गुड’, जानते हैं, 1965 की मशहूर म्यूजिकल ‘द रोड ऑफ़ दी ग्रीज़पेंट- द स्मेल ऑफ़ दी क्राउड’ का एक गाना भी है, जिसे गीतकार और गायक एन्थोनी न्यूले और लेस्ली ब्रिक्यूज ने लिखा और गाया था. यह गाना इतना चला कि बाद में इसे तमाम कलाकारों ने बार-बार रिकॉर्ड किया.”

मुझे लगा, अब वह कुछ हल्के मूड में आ गये थे. अंग्रेज़ी गानों में उनकी रुचि से मैं अनभिज्ञ नहीं था. लेकिन नहीं. उनके चेहरे पर गम्भीरता जल्दी ही वापस आ गयी थी और वह बोले थे, “ज़माना बदल गया है. आज हर चीज़ पर सलाह, और वह भी विशेषज्ञ की, सुलभ है. जानते हैं, इस ‘अच्छा लगने’ या ‘फीलिंग गुड’ पर भी बाकायदा पुस्तकें लिखी जा रही हैं. ‘फीलिंग गुड ः द न्यू मूड थ्योरी’ तथा ‘द फीलिंग गुड हैंडबुक’ ऐसी ही पुस्तकें हैं. दोनों डेविड डी. बर्न्स ने लिखी हैं. मुझे लगता है कि आज के इस भौतिकवादी युग में, इस तेज़ रफ्तार से भागती ज़िंदगी में, इस तनाव से भरे प्रतियोगी माहौल में ये चीज़ें ज़रूरी भी हैं.”

“कभी पढ़ा जाए…” मैंने बीच में टोका था.

वह उत्साह से बोले थे, “हां-हां, क्यों नहीं, मैं दूंगा आपको. पढ़िए, बहुत अच्छा लगेगा.”

और फिर एक लम्बा मौन पसर गया था. हम दोनों चलते रहे थे.

काफी देर बाद सीताकांतजी, इस टोन में मानो अपनी ज़िंदगी का कोई गहरा राज़ उजागर कर रहे हों, धीरे-से बोले थे, “विद्युतजी, ये पंक्तियां मैं अक्सर गुनगुनाता हूं–

Birds flying high you know how I feel.

Sun in the sky
you know how I feel.
Breeze driftin’ on by you know how I feel.
It’s a new dawn
It’s a new day
For me
And I’ m feeling good.

(“उड़ रहे परिंदे ऊंचे, तुम्हें मालूम है मुझे कैसा लग रहा है.
सूरज आकाश में, तुम्हें मालूम है मुझे कैसा लग रहा है.
बयार बहती हुई, तुम्हें मालूम है मुझे  कैसा लग रहा है.
यह एक नवल विहान है
एक नया दिन है यह
मेरे लिए
और मुझे अच्छा लग रहा है.”)

सीताकांतजी कहते रहे थे और मैं मंत्रमुग्ध सुनता रहा था. उनका बयां करने का अंदाज़ कुछ और ही था. तभी उन्होंने सुझाव दिया था कि थोड़ी देर बैठ जाते हैं. हम बायें तरफ़ के लॉन में घास पर बैठ गये थे.

“जानते हैं,” उनकी बात अभी खत्म नहीं हुई थी, “चेंग ज़ियांग सांग का कहना है कि सफल लोगों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात होती है अच्छा महसूस करना. सफलता का मतलब है– होने के हर क्षण में अच्छा लगने की मानसिक स्थिति में होना और उसका आनंद उठाना. कहते हैं कि जब अच्छा लग रहा होता है, तो मन समस्त ब्रह्मांड को शक्तिशाली संकेत भेजता है और ‘आकर्षण के नियम’ के तहत वे संकेत अपने जैसे लोगों, परिस्थितियों और घटनाओं को आकर्षित करते हैं. यदि अच्छा अनुभव किया जाए, तो आश्चर्यजनक चीज़ें घट सकती हैं. आकर्षण का नियम एक वैश्विक नियम है. लिन ग्रेभौर्न ने एक बहुत अच्छी पुस्तक लिखी है– ‘एक्सक्यूज मी, योर लाइफ इज़ वेटिंग.’ यह पुस्तक आकर्षण के नियम को समझने और उसे प्रयोग में लाने के आसान तरीके बताती है. आप इस पुस्तक को ज़रूर पढ़िए. इन्सीडेंटली, यह भी मेरे पास है, मैं आपको दूंगा.”

“ठीक है” मैं बोला था.

“विद्युतजी,” वे बोलते रहे, “मेरे साथ अक्सर ऐसा हुआ है कि न सिर्फ अच्छा महसूस करने के दौरान बल्कि उसके बाद भी मैंने कार्यालय में कहीं ज्यादा काम निपटाया है या कि खूब पढ़ाई की है या तमाम अच्छे विचार मेरे मन में आये हैं या भूतकाल की कड़वी यादों को भुलाकर भविष्य की अच्छी योजनाएं मैंने बनायी हैं. अच्छा लग रहा हो, तो वह सब कुछ करने को मन करता है जो ज़िंदगी को बेहतर बनाता है और खुशी देता है. मेरा अनुभव है कि यदि अच्छा लग रहा हो, तो मन कहता है, चलो सैर कर आयें. अच्छा लग रहा हो, तो प्रिय विषय पर पुस्तक पढ़ने का मन करता है. ऐसी मनःस्थिति में मैंने कविताएं भी लिखी हैं.” अंतिम वाक्य उन्होंने मेरी आंखों में देखते हुए कहा था. उनकी आंखों में चमक मैं देख सकता था.

तभी अंगीठी पर केतली लिये एक चाय वाला उधर से गुज़रा था. उसे कॉफी वाला भी कहा जा सकता था.

मैंने पूछा था, “कॉफी ली जाए?”

असल में हॉकर केतली में दूध मिला पानी रखता था. चाय मांगो तो डिप-डिप वाली टी बैग कप में डालकर दे देगा और यदि कॉफी चाहिए तो एक चम्मच कॉफी मिला, हिलाकर दे देगा.

“हूं.” वह थोड़ी देर बाद बोले थे, मानो कुछ सोच रहे थे या मन कहीं और खो गया था.

कॉफी तकरीबन आधी खत्म करने के बाद वह गहरी आवाज़ में बोले थे, “मन और शरीर के सम्बंधों पर शोध ने यह सिद्ध किया है कि आप वह हैं जैसा कि आप अनुभव करते हैं. अच्छा अनुभव करना सुंदर व्यक्तित्त्व, अच्छे स्वास्थ्य और बेहतर ज़िंदगी की ओर जाने वाला सबसे छोटा रास्ता है. मैं अक्सर सोचता हूं कि ऐसा क्यों नहीं होता कि ‘अच्छा लग रहा है’ का अहसास लगातार बना रहे!”

वे फिर मौन हो गये थे. उनके चेहरे को मैंने ध्यान से देखा था. लगा था मानो बिल्कुल इसी वक्त उन्हें अच्छा लग रहा था और इस आंतरिक आनंद में वह पूर्णतया डूबे हुए थे.

कुछ देर और हम चलते रहे थे. और तभी उन्होंने अपना मौन तोड़ा था, “एक बात और मैं कहना चाहता हूं,” वे बोले थे, “मात्र इतना ही काफी नहीं है कि स्वयं को अच्छा लगे या यूं कहूं कि मात्र खुद ही अच्छा महसूस किया जाए. यह भी ज़रूरी है कि अच्छा लगने का यह अहसास बंटे, दूसरों को छुए, जिससे कि दूसरे भी अच्छा महसूस कर सकें.”

मुझे लगातार, जब सीताकांतजी बोल रहे थे, यह लगता रहा था कि यह सीताकांतजी नहीं, मैं स्वयं बोल रहा था. वह जो कह रहे थे, मैं खुद अपने अंदर शिद्दत से महसूस करता था. अंतर बस इतना था कि उन्होंने दार्शनिक तरीके से और फिर भी इतने सहज रूप से इतना कुछ कह डाला था और एक मैं था कि शब्दों की मुफलिसी मेरी ज़बान पर ताला लगाये हुए थी. काश, मैं भी अपने अहसास को उन्हीं की तरह बयां कर सकता!

(फ़रवरी, 2014)

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