सीधी चढ़ान (तेरहवी क़िस्त)

इतिहासकार और उपन्यास-लेखक जिस प्रकार मनुष्य का पृथक्करण करते हैं, उसी

प्रकार इस समय मैं भी अपना पृथक्करण कर रहा हूं. वह वस्तु लोभ से हुई और यह देश-भक्ति से. वास्तव में जब यह कृत्य मनुष्य करता है, तब उसमें वही शक्ति-अशक्ति व्यक्त होती है, जिसका कि वह पुंज होता है. उसका आशय क्या है और वह एकरूप है या नहीं, यह भी उसकी समझ में नहीं आता. परंतु आज सत्ताईस वर्षों में मैं इतना कह सकता हूं कि जब से मैंने मुंजाल की कल्पना की, तब से मुझमें गुजरात की अस्मिता जागृत हुई.

1915 में गुजरातियों में- कुछ साहित्यकारों को छोड़कर- राष्ट्रीय या सांस्कृतिक अस्मिता नहीं थी. ‘जय-जय गरवी गुजरात’ एकमात्र प्रसिद्ध गीत था; सामुदायिक संज्ञा नहीं थी. अस्मिता की वह मूर्ति ‘साहित्य-परिषद’ भी थोड़े-थोड़े वर्षों बाद लगती और बिखर जाती थी. गुजराती साहित्यकार व्यक्तिगत काम करते थे. सामुदायिक प्रयत्न कदाचित ही किया जाता था. राजनीतिक क्षेत्र में गुजरात का स्थान था ही नहीं. कुछ गुजराती बंगाल से राष्ट्रीयता की भावना लाये थे. मैं चंद्रशंकर के मंडल के सिवा और किसी के संसर्ग में नहीं आया था. नर्मद की कृतियों से मैं परिचित नहीं था. मैं कुछ-कुछ यह मानता था कि राष्ट्रधर्म का पालन करने में प्रांतीय-भक्ति अंतराय-रूप बनेगी.

उस समय गुजरात का इतिहास नहीं था. मैं अभी रणजीतराम से नहीं मिला था. मैंने फार्बस रासमाला के सिवा और विशेष कुछ नहीं पढ़ा था. परंतु षड्रिपुमंडल और गुर्जर-सभा के सम्पर्क से मुझे गुजराती साहित्य के प्रति प्रेम हो गया. साहित्य के इस स्पर्श द्वारा मैंने गुजरात के महत्त्व की कल्पना की. 1916 में ‘पाटन का प्रभुत्व’ के उपोद्घात में मैंने लिखा- ‘गुजरात एक महावृक्ष है. उसकी जड़ में परमात्मा श्री कृष्ण का कर्मयोग छिपा हुआ है. उसकी डालियों पर दयानंद और गांधी की कोंपलें फूटी हैं.’

इस महत्त्व के विधायक की खोज में कल्पना ने मेरी प्रभाव-वृत्ति की सहायता से मुंजाल मेहता को जन्म दिया. इस प्रकार मुंजाल मेरी गुजरात की अस्मिता की संतान और पिता दोनों है.

‘पाटन का प्रभुत्व’ लिख जाने पर खुशालशाह ने गद्गद् हृदय से उसका स्वागत किया, और एक-दो परिवर्तन भी बताये. वे बैरिस्टर होकर आये और तुरंत ही ‘सेंट, जेवियर्स कॉलेज’ में लेक्चरर नियुक्त हो गये. उनके साथ मेरी मित्रता हो गयी. हम वाट्सन होटल में चाय पीने के लिए इकट्ठे होते और वहां से पैदल चलते हुए अनेक बार मेरे घर या उनके घर जाते थे. कभी-कभी एक-दूसरे के घर भी हम लोग मिलने के लिए जाया करते थे. त्योहार-पर्व के दिन वे, उनकी पत्नी, लक्ष्मी और मैं अक्सर साथ-साथ घूमने निकला करते थे. उनकी बुद्धि उसी प्रकार चमकती थी, जिस प्रकार हीरा कोने-कोने से चमकता है. उनका अगाध पठन विविध विषयों पर प्रकाश डालता था. हम अपने मंतव्यों और आकांक्षाओं का विनिमय किया करते, और इससे मुझे बड़ा प्रोत्साहन मिलता था. 1914 से 1922 तक के इस जीवन-खंड में शाह का स्नेह-पूर्ण और प्रोत्साहक सम्बंध कष्टसाध्य मंथनों को हल्का किया करता था.

जब ‘पाटन का प्रभुत्व’ पूरा लिखा जा चुका था, तभी स्वर्गीय रणजीतराम बाबाभाई, जिस मंजिल पर हम रहते थे, उसी पर, पास वाले कमरे में रहने के लिए आ गये. उनके साथ भी मेरी प्रगाढ़ मैत्री हुई. वे रोज रात को मेरे घर पहुंचते ही बालक अशोक को उठाकर, बगल में जानसन या द्वयाश्रय लिये हुए, काव्य और इतिहास की अनेक चर्चाओं के हेतु मुस्कराते हुए आ जाते थे.

1917 की चौथी जून को वे जुहू के समुद्र में डूब गये.

उनके मन में गुजरात के भूतकाल का सम्पूर्ण इतिहास लिखने की अभिलाषा थी. और इसके लिए उन्होंने प्रबल परिश्रम करके साधन इकट्ठे किये थे… साहित्य से ही गुजरात गर्वित होगा, और उससे राष्ट्रीय अस्मिता प्रकट होगी, यह उनका निश्चल सिद्धांत था.

रणजीतराम के स्वर्गवास पर मैंने उन्हें जो स्मरणांजलि अर्पित की थी, उसमें मैंने उनका ऋण माना था.

‘मेरी लेखन प्रवृत्ति निर्जीव और अपूर्ण थी, फिर भी उनकी मीठी, अपरिचित वृत्ति ने उसे उत्तेजना दी, और उसे नवीन दिशा दिखलायी. थोड़े समय बाद मेरी आदत हो गयी कि मैं कुछ लिखता, तो उसके लिए उनकी सम्मति की प्रतीक्षा करता. मैं यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि यदि वे न होते, तो मेरी दूसरी ऐतिहासिक कहानी ‘गुजरात के नाथ’ (‘गुजरात नो नाथ’) प्रस्तुत रूप में लिखी जा सकती या नहीं. उस कहानी के लिए जब भी आवश्यकता होती, तभी वे अपनी विचारशील सम्मति से मुझे मार्ग दिखलाने को तत्पर रहते थे.’

मेरे मन में रमी हुई गुजरात की अस्मिता की भावना ने उनके साहचर्य से प्रकट स्वरूप प्राप्त किया, और उन्हें अंजलि देते हुए उनकी विशिष्टता को मैंने इस प्रकार प्रदर्शित किया-

‘रणजीतराम व्यक्ति नहीं थे- एक भावना थे, गुजरात की राष्ट्रीय अस्मिता के वे अवतार थे. उसी के लिए वे जीवित थे, उसी के लिए उन्होंने त्याग-वृत्ति धारण की, उसी के लिए वे नये-नये मनुष्यों के संसर्ग में आने के लिए अधीर रहते थे, उसी के लिए वे सब कुछ सह कर सबको उस भावना से प्रेरित करने के प्रयत्न करते थे. उनके हृदय में एक ही विचार था- हमारी संस्कृति कब विजय प्राप्त करेगी, और इन सबके परिणास्वरूप कब नवीन गुजरात अवतरित होगा? उनकी दृष्टि के आगे नवीन गुजरात केवल स्वप्न नहीं था, वरन एक सत्य था. वे सबको केवल एक ही लक्ष्य की ओर प्रेरित करते थे- गुजरात के गौरव, एकरूपता और अस्मिता की ओर.’

इस प्रकार गुजरात की अस्मिता मेरे जीवन में एक प्रचंड बल बनकर रही और आज जब मैं भूतकाल की ओर दृष्टि डालता हूं तब यह स्पष्ट रूप से देख सकता हूं कि वह बल मेरे साहित्य के और जीवन के अनेक प्रसंगों को एक रूप बनाने में समर्थ सिद्ध हुआ है.

चंद्रशंकर ने जब मेरा हाजी मुहम्मद अलारखिया शिवजी से परिचय कराया, तब वे ‘सदी’ निकालने के अनेक वर्षों के स्वप्न को सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे थे. कला के सम्पूर्ण प्रदेशों की उनकी जानकारी, योग्यायोग्य सजावट, निश्चित करने का विवेक और कला के विकास में उनका विश्वास- ये सब ऐसे थे कि मैं भी उनकी ओर आकर्षित हुआ. वे मुझे अपने एक खोजा मित्र के पास ले गये और उन्होंने मेरे भविष्य में लिखे जाने वाले पांच उपन्यासों के अधिकार खरीद लेने की इच्छा प्रकट की. मैंने केवल ‘बीसमी सदी’ के लिए ‘गुजरात के नाथ’ लिखकर देने का वचन दिया.

रविशंकर रावल उस समय उदीयमान कलाकार थे. उन्होंने उसके लिए चित्र तैयार करना स्वीकार किया.

हाजी मुहम्मद का घर साहित्य और कला-प्रेमियों के क्लब के समान था, और मैं जब भी वहां जाता, तभी किसी कलाकार या साहित्य-प्रेमी से मेरा नया परिचय होता था. हाजी मुहम्मद बातचीत में कम भाग लेते, परंतु उसकी अग्नि मंद होने पर उसे दो-चार बातों से प्रज्ज्वलित कर देते थे. जब उनका अवसान हुआ, तब मैंने ‘स्मरणांजलि’ में लिखा-

‘वह कला का भक्त था. संगीत, नाटक, अभिनय, नृत्य, कविता, कहानी, चित्र और शिल्प-कला- इन सब स्वरूपों का वह पूजन करता था.’ वह सदा भक्ति-भाव में ही लीन रहा, कभी समालोचक नहीं बना और न बनने की इच्छा ही प्रकट की. भारत में-गुजरात में कला का शौक बढ़े, कलाकारों का मूल्य आंका जाय, कलामयता प्रसारित हो, यही उसके जीवन का उद्देश्य था. प्रत्येक कोटि के कलाकार- कवि, नाटककार, कथाकार और हास्य-लेखक, चित्रकार तथा शिल्पी- सबके लिए उसे मोह था और सब को वह उत्साहित करता था. ग्रीक कला-विधायकों के सौंदर्य-आलेखन या भारतीय कला-विधायकों की आध्यात्मिकता के प्रति उसे पक्षपात नहीं था, न ही श्री नानालाल के मोहक शब्द जाल के प्रति या श्री नरसिंहराव की भावना-प्रधान सरलता के प्रति था. जहां भी कला के दर्शन होते, वहीं वह प्रणिपात करता था.

नरसिंहराव भाई ‘बिसमी सदी’ में बहुत दिलचस्पी लेते थे. इसलिए हम लोग बहुधा हाजी मुहम्मद के यहां इकट्ठे हुआ करते थे. कभी-कभी बांदरा के ब्ल्यू बंगले में भी मैं जाया-आया करता था. ‘पाटन का प्रभुत्व’ उन्हें बहुत पसंद आया था, और ‘गुजरात के नाथ’ की कहानी जैसे-जैसे छप रही थी, वैसे-वैसे उनकी ओर से सूचनाएं मिलती रहती थीं. उनकी विवेचन दृष्टि बड़ी ही तीव्र थी. शब्द, भाव, घटना और वार्तालाप सबको वे कठिन कसौटी पर कसा करते थे. परंतु पहले वे जितने भय-जनक मालूम होते थे, उतने अब नहीं मालूम होते थे.

जीवन-भर उन्होंने साहित्य की सेवा की थी, सुख और दुख में साहित्य ही उनका साथी था. तलवार की धार के समान विवेचन बुद्धि के कारण वे गुजराती साहित्य में सर्वमान्य न्यायाधीश के सिंहासन पर बैठे हुए थे. उनके सद्भाव से मुझे प्रेरणा मिलने लगी. 1918 में जब ‘गुजरात के नाथ’ ‘बीसमी सदी’ में समाप्त होने को आया, तब मैंने उनसे उसका उपोद्घात लिख देने की प्रार्थना की. उन्होंने उत्तर दिया-

ब्ल्यू बंगला, बांदरा,

बंबई, ता.14-3-1918

श्री भाई कन्हैयालाल,

सस्नेह नमस्कार.

श्री नेत्रमणिलाल ने थोड़ा-सा मांगने की अपेक्षा अधिक लम्बा कदम रखा है. पर कोई हर्ज नहीं. कहानियों की फाइलें भेजीं, इसके लिए कृतज्ञ हूं. Guillotione पर चढ़ने वाले अपराधी के विषय में तुम जो लिख रहे हो, उसे मैं Serious नहीं मानता. यदि वह Serious हो तो उससे तुम्हारे अपने प्रति और मेरे प्रति भी अन्याय होता है. ‘पाटन का प्रभुत्व’ और ‘गुजरात के नाथ’ इन दो कहानियों के विषय में मैंने तुम्हारे आगे जो सम्मति प्रकट की थी, वह यदि स्मरण हो, तो भय के लिए स्थान नहीं है. और भय किसका है? मैं भयानक हूं? मुझमें कोमल भाव का अंश बिलकुल नहीं है?

अत्र कुशलं, तत्रास्तु.

शुभचिंतक- नरसिंह राव

नरसिंहराव भाई ने जो उपोद्घात लिखा, उसमें गोवर्धनराम के साथ मेरी तुलना की. परिणाम स्वरूप मेरे प्रति अनेक मित्रों का प्रेम पहले से कम हो गया.

उन दिनों प्रो. बलवंतराय कल्याणराय ठाकुर भी मुझमें बड़ा रस लेने लगे थे. ज्योंही वे आते, त्यों ही अपने लाक्षणिक विनोद से कहते- ‘आ जाऊं क्या?’ यदि चाय बनवानी हो, तो तीन-चार प्याले बनवाना. इससे कम बनवाओगे, तो मेरा काम न चलेगा.’ बालूभाई मुझे सदा नारियल का स्मरण दिलाते थे. उनकी दिखावटी कर्कशता को भेदकर यदि उनमें बसे हुए सद्भाव और रसिकता के मीठे पानी को पीने का सौभाग्य आप को प्राप्त होता, तभी आप उनकी आंतरिक सरसता से परिचित हो सकते थे. परंतु इस प्रकार ऊपर का आवरण दूर करना बड़ा कठिन था. मेरे प्रति उन्हें पहले से ही ममता थी. ‘वेरनी वसूलात’ जब पुस्तक रूप में छपी, तब उसके साथ सादे कागज जोड़कर, उसमें उचित संशोधन करके मुझे देते हुए उन्होंने कहा-

‘जब फिर से छपेगी, तब काम आयेंगे.’

बालूभाई की साहित्यिक दृष्टि बड़ी ही सूक्ष्म थी. उनकी सरसता की भावना भी सूक्ष्म थी. उनकी विवेचन की पद्धति तीव्र थी. साथ ही युग के बहाव में भी अपनी पद्धति के साथ चिपके रहने की उनमें विचित्र शक्ति थी.

उन वर्षों में उन्होंने मुझे बड़ा मार्गदर्शन कराया. ‘पत्रकारिता और साहित्य में शत्रुता है. यदि पत्रकार बनोगे, तो साहित्य के झरने सूख जायेंगे.’ एक बार यह कह कर उन्होंने मुझे रोका था. उन्हें यह भी भय था कि व्यवसाय में पड़ कर मैं साहित्य को छोड़ दूंगा. यह बात वे दावे के साथ कहते थे. उनके एक अंग्रेज़ी पत्र को मैंने अमूल्य चेतावनी समझकर सम्भालकर रख छोड़ा है. उस चेतावनी के ऋण को मैं आज स्वीकार करता हूं, यद्यपि अपने ही स्वभाव से निथरती हुई भावनाओं का भक्त मैं उस शिक्षा से लाभ नहीं उठा सका.

वह पत्र इतना सुंदर है कि उसे यहां देने का लोभ मैं संवरण नहीं कर सकता-

पूना, 27-8-15

प्रिय भाई मुनशी,

हानि हम दोनों की हुई है, मुझे विशेष. कारण, कि मैंने आशा की थी कि यहां पूना की शांति में तुम्हारे साथ कुछ घंटे बिताये जा सकेंगे और हम एक दूसरे के विशेष परिचय में आ सकेंगे.

परंतु, तुम्हारा व्यवसाय तुम्हें निगलने लगा मालूम होता है. मैं तुम्हें एक चेतावनी देता हूं. यह तुम्हारी बुद्धि, प्रतिभा सभी को निगल जायेगा. मैं ऐसे केवल दो पुरुषों को जानता हूं, जिन्होंने व्यवसाय के प्रति पूर्णरूप से कर्तव्य-पालन करने पर भी अपने व्यक्तित्त्व की रक्षा की थी, वे दो- एक स्वर्गीय और दूसरे जीवित- एक गुजरात के सुप्रसिद्ध- दूसरे लगभग अदृश्य हुई पीढ़ी के भारतीय समाज-सेवकों में सबसे महान और कुशल- एक गोवर्धनराम त्रिपाठी और दूसरे मेरे गुरु राजकोट वाले सीताराम नारायण पंडित. परंतु वे दोनों असाधाराण बुद्धिशाली थे. पंडित इस समय इतने वृद्ध और अशक्त हैं कि उनका अब तक जीवित रहना एक आकस्मिक योग ही है. अतः उनके विषय में वर्तमान काल की अपेक्षा भूत काल का प्रयोग अधिक उचित है. ये ऐसे पुरुष थे कि जिनके लिए सम्पत्ति तुच्छ वस्तु थी. जीवन की सादगी ही उनके लिए जीवन का सच्चा रूप थी. और उनमें संकल्प बल- असली फौलाद-जैसा संकल्प-बल, हम मनुष्यों का सुपरिचित बड़े-से-बड़ा बल- जन्मसिद्ध या प्रयत्न-पूर्वक पोषित किया हुआ था.

तुममें प्रतिभा है, परंतु यदि तुम (1) सादे जीवन के प्रति सच्चे अनुराग और (2) फौलादी संकल्प-बल को पोषण नहीं दोगे, तो वकालत की यह राक्षसी तुम्हें सारा-का-सारा- पगड़ी के छोर से लेकर पैर के तलुए तक- तुम्हारी प्रतिभा और सब-कुछ निगल जायेगी. तुम युवक हो, और यह तुम्हारा असाधारण सौभाग्य है कि तुम्हें पहले से चेतावनी मिल रही है. तुम कुशल पूर्वक होगे, ऐसी आशा रखते हुए,

तुम्हारा शुभचिंतक

ब.क.ठाकुर.

लैटिन कवि वर्जिल ने कहा है कि स्वर्ग में कवि लोग एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले घूमते रहते हैं, वहां इस प्रकार का घूमना तो भाग्य में जुड़ा होता है, पर इस जगत में कवि एक दूसरे के साथ मिलकर नहीं रह सकते. यह लगभग विश्व-नियम हो गया है, और यह बात तो प्रसिद्ध ही थी कि नरसिंहराव भाई और बलूभाई में सच्चा प्रेम था.

इन प्रखर विद्वानों के इतने अधिक सद्भाव को सहन करना मेरे लिए कठिन हो गया. नरसिंहराव भाई मुझे मिलते, तो ‘तुम्हारे बलूभाई’ या ‘तुम्हारे ब.क.ठा.’ की खबर पूछते. बलूभाई मिलते, तो उन्हें ‘न.भो.दि.’ की चिंता होती. एक दूसरे के विरुद्ध बोले बिना उन्हें चैन नहीं पड़ती थी. मुझे कुछ-कुछ स्मरण है कि ‘गुजरात के नाथ’ का नरसिंहराव भाई द्वारा लिखा हुआ उपोद्घात पढ़कर बलूभाई अप्रसन्न हुए थे.

बलूभाई में एक बड़ा गुण था- जिसे वे अपनाते, उसमें पूरी-पूरी दिलचस्पी लेते थे, उसकी छोटी-से-छोटी दिनचर्या भी उनके ध्यान से बाहर नहीं रहती थी, और उसे सुधारने के लिए वे निरंतर जोर डालते रहते थे. उनकी सलाह को अमल में न लाने से वे बुरा मान लेते थे. वे नये हितैषी जब मिलते, तब उनके मन को दुखाये बिना अपने व्यक्तित्त्व की रक्षा करना मेरे लिए असिधाराव्रत के समान हो जाता था. मैंने उस व्रत को अंगीकार किया. कटु न्याय-वचनों को निगल जाने की स्वाभाविक शक्ति मुझमें थी ही.

इन वर्षों में जब मैं माथेरान जाता, तब ‘लक्ष्मी होटल’ में ठहरा करता था. वहां उसका मालिक मेरे लिए एक अच्छा कमरा रख छोड़ता था. एक बार जब माथेरान पहुंचा तब होटल का मालिक स्टेशन पर मिल गया. उसने कहा कि मेरा कमरा कवि नानालाल ने ले लिया है और वे कहते हैं कि मुनशी को मेरे लिए कोई आपत्ति नहीं होगी.

‘वसंतोत्सव’ मेरी प्रिय पुस्तक थी, और है भी. इसलिए उसके रचयिता के साथ रहने का सुअवसर मिलने से मुझे बड़ी खुशी हुई. मैं नानालाल से मिला और कुछ ही घंटों हमारी एक-दूसरे के साथ खूब बन गयी. मेरी खूब बन गयी यह तो निश्चित है. खुशी की तरंग में होने पर नानालाल के जैसे विनोदी साथी का मिलना कठिन था. हम साथ-साथ घूमते, विविध विषय पर बातें करते और रात को मैं उनके काव्य और गरबियां गाया करता.

कॉलेज की क्रिकेट-टीम की तरह नानालाल मित्रों पर शासन करते थे. वे बम्बई आये देवीदास सॉलिसिटर के यहां ठहरे. मित्रों के लिए आज्ञा-पत्र निकला- आज रात को नाटक में, कल एलिफेंटा और परसों खाने पर. मेरे समय और शक्ति के लिए इतना भार उठाना असम्भव था, इसलिए मैंने इन्कार कर दिया.

1920 में नानालाल कुछ महीनों के लिए बम्बई आये थे और सांताक्रुज में मित्रों के यहां रह रहे थे. तब मैं उनसे मिलने जाया करता था. कवि बड़ी कृपा-पूर्वक यह स्वीकार करते थे कि उनकी कृतियों में आने के बाद दो बड़ी घटनाएं घटित हुई- एक तो ‘सागर’ की ग़ज़लों की और दूसरी मेरे उपन्यासों की. जहां नानालाल जाते वहां फूट अवश्य पड़ जाती थी. सांताक्रुज में मास्टर और तारा बहन पर उनकी अपकृपा हो गयी. उनके आचार-विचार पर आक्षेप होने लगे. जो मेरे लिए भाई-बहन के समान थे और जिनका जीवन शुद्ध और आदर्शमय था, उनेक लिए कवि के कहने से मैं लज्जित होने या क्षमा-याचना करती हुई मनोदशा बनाने को तैयार नहीं था. चंद्रशंकर दोनों को खुश रखने का प्रयत्न करते, इससे मैं रोज उनके साथ लड़ा करता था.

जब भी नानालाल से मिलता, तब वही प्रश्न- ‘वहां गये थे क्या?’

एक बार उन्होंने मेरे मुंह पर ही कहा- ‘यह मुनशी मीठा ही बोला करता है. यहां, वहां और सब जगह.’

‘हां, सच बात है मैंने केवल कड़वा बोलने को ही जीवन का कर्तव्य नहीं माना है.’ मैं नानालाल की डंडेबाजी से त्रस्त जगत में रहने को तैयार नहीं था.

फिर भी मैंने यथाशक्ति प्रयत्न करके उनके साथ अपना सम्बंध बनाये रखा. 1922 के दिसम्बर में जब मैं अहमदाबाद में लीला के पूर्वाश्रम में, काम से उसके घर ठहरा, तब मित्रभाव से अंतिम बार नानालाल से मिलने गया था. प्राणलाल देसाई साथ थे. उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल पर कवि की अपकृपा हो गयी थी.

जब कवि राजकोट छोड़कर अहमदाबाद आये थे, तब उनके मन में आकांक्षा रही होगी कि वे गांधी जी के प्रेरक और साहित्य-निर्माता बनेंगे. परंतु गांधी जी के राज्य में तो जिसकी जितनी शक्ति और उपयोगिता थी, उतना ही उसका स्थान था! कवि का स्थान कवि रूप में रहा. अहमदाबाद में जब कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, तब वहां नानालाल का व्याख्यान होने वाला था. उनकी पत्नी सौ. माणिक बहन जब सभा-मंडप में आ रही थीं, तब उन्हें न पहचानने के कारण एक स्वयंसेविका ने रोक लिया. कवि गरम हो गये. स्वयंसेविका ने मांफी मांगी. नानालाल ने कहा कि वल्लभभाई को मांफी मांगनी चाहिए. बात का बतंगड़ बन गया. झगड़ा गांधी जी के पास पहुंचा. गांधीजी ने फैसला किया कि स्वयंसेविका को मांफी मांगनी चाहिए, वल्लभभाई को नहीं, उनका इसमें कोई दोष नहीं था.

गांधी जी की पचासवीं जन्म-तिथि पर जो कवि ‘पचास-पचास घंटे बजवाया करते थे,’ वे गांधी जी और उनके अनुयायियों के विरोधी बन गये. वल्लभभाई को उन्होंने संदेश भेजा-

‘आ जाओ, स्थान नियत करके द्वंद्व युद्ध करने के लिए.’ वल्लभभाई भी आखिर वल्लभभाई थे! उन्होंने जवाब में संदेश भेजा- ‘मुझे स्थान नियत करने की आवश्यकता नहीं. जब भी और जहां भी तुम मिलोगे, वहीं तुमसे निबट लूंगा.’

दिसम्बर में जब मैं उनके घर गया, तब उनका मन इसी बात से भरा हुआ था. बात करते हुए मेरे मुख से वल्लभभाई का नाम निकल गया और नानालाल उबल पड़े-

‘वल्लभ… वल्लभ…’ और एक घंटे तक यह पुराण मैं बड़े रसपूर्वक सुनता रहा.

मित्रभाव से इस प्रकार कवि मुझे अंतिम बार मिले, बाद में लीला पर उनकी जो अपकृपा थी, वह मुझ पर भी हो गयी. मैंने ‘अविभक्त आत्मा’ नामक नाटक लिखा, ‘जय-जयंत’ का यह दूसरा पार्श्व था. स्त्री और पुरुष- समतुल्य, प्रणयी और विवाह के योग्य हों, और फिर भी स्वेच्छा से विवाह न कर सकें, यह अस्वाभाविक, अमानुषिक मालूम हुआ. मेरी अपनी कला से लिखे हुए उस नाटक पर कवि को रोष उत्पन्न हुआ. और उसके बाद से कवि को मुझ पर रोष करने की मानसिक आवश्यकता पड़ गयी है, इसके बिना उन्हें चैन नहीं पड़ती.

दुर्वासा, परंतु आखिर थे तो ऋषि न!

‘गुजरात एंड लिटरेचर’ में गुजराती साहित्य में कवि के रूप में उनकी यश-गाथा मैंने मुक्त कंठ से वर्णित की है.

मैं कवि को प्रशंसात्मक भाव से स्मरण करता हूं और वे मुझे वैर भाव से स्मरण करते हैं.

1916 की पहली अगस्त को बिसेंट की कांग्रेस को दी हुई नौ मास की अवधि समाप्त हो गयी. लोकमान्य तिलक ने ‘इंडियन-होमरूल लीग’ स्थापित की. सितम्बर में बिसेंट ने मद्रास में ‘ऑल इंडिया होमरूल लीग’ की स्थापना की. थोड़े दिनों बाद जमनादास, पी.के. तैलंग और सेठ रतन सी ने हम लोगों को चायना बाग में एकत्र किया और ‘ऑल इंडिया होमरूल लीग’ की बम्बई की शाखा की स्थापना हुई. उसी वर्ष लोकमान्य ने हाईकोर्ट में की हुई अपील में जिन्ना को बैरिस्टर नियत किया और इस प्रसंग से उन दोनों का परिचय बढ़ा.

1914 में कांग्रेस के स्वीकार किये हुए कानून प्रयोग में लाये गये थे, और सूरत के बाद जब लोकमान्य पहली बार लखनऊ-कांग्रेस में आये, तब उत्साह की सीमा नहीं थी. बिसेंट ने एक वर्ष में सारे हिंदुस्तान में घूमकर डंका बजवाया था, अतः सर्वानुमति से उन्हें प्रथम स्थान मिला. कांग्रेस ने उनकी लीग को अपने एक अंग के रूप में स्वीकार किया.

जिन्ना ने कांग्रेस के उसी अधिवेशन में हिंदू-मुस्लिम-समझौता कराया. मुसलमान स्वराज्य के लिए लड़ने में मदद दें और हिंदू उसके बदले में मुसलमानों को कौमी मताधिकारी संघ का अधिकार प्रदान करें, यह लखनऊ-संधि कांग्रेस और मुस्लिम-लीग दोनों ने मान्य की.

इस लखनऊ-संधि की प्रशंसा हुई, परंतु इससे हिंदू-मुस्लिम-एकता नहीं हुई. आज वह विष का बिंदु बन गयी है. हिंदू को स्वराज्य प्रिय है, मुसलमान को कौम. 1909 में मिण्टो ने कांग्रेस की राष्ट्रीय एकता तोड़ने के लिए मुसलमानों को कौमी मताधिकारी संघ का अधिकार देना स्वीकार किया. जिन्ना ने उसका विरोध किया था. और बाद में जिन्ना ने उसी को पुनः कांग्रेस से स्वीकार करवाया. ‘एक बार यह दे दो, तो मैं सात करोड़ मुसलमानों को साथ कर दूं’ -यह निमंत्रण कांग्रेस ने स्वीकार किया- यह मान कर कि अब हिंदू-मुस्लिम एकता हमेशा के लिए पक्की हो गयी. परंतु इस समझौते की नींव ही कच्ची थी. जब स्वराज्य की लड़ाई में मुस्लिम लीग की आवश्यकता होती, या कीमत देनी पड़ती, तब हिंदू-मुस्लिम एकता दिल्ली की तरह ‘दूर अस्तः’ हो जाती.

परंतु उस समय हमने तो जिन्ना को हिंदू-मुस्लिम एकता का पैगम्बर समझ कर उनकी कीर्ति फैलायी. हिंदुओं के भोलेपन की सीमा नहीं है. महायुद्ध प्रचंड रूप से चल रहा था. 1917 के मई मास में मेसोपोटेमिया में भारत-सरकार की पैदा की हुई उलझन की रिपोर्ट विलायत में प्रकट हुई. उसमें कर्नल वेजवुड ने आग्रह किया कि भारतीयों को भारत की राज्य-व्यवस्था में बड़ा हिस्सा मिलना चाहिए, और मांटेग्यू ने इस रिपोर्ट की चर्चा करते हुए पार्लियामेंट में भारत-सरकार को खूब फटकारा. 16 जून को यहां बिसेंट की और उनके दो साथियों की धर-पकड़ हुई और उन्हें नजरबंद कर दिया गया. देश में आंदोलन जाग पड़ा और बंबई की ‘होमरूल लीग’ की पुनर्घटना हुई. जिन्ना उसके अध्यक्ष- बहादुर जी, जयकर, भूलाभाई और जमनादास, उपाध्यक्ष- उमर सोमानी और शंकरलाल मंत्री, कानजी द्वारकादास कोषाध्यक्ष, चंद्रशंकर, विभाकर मास्टर और मैं कार्यकारिणी-समिति के सदस्य थे. हार्निमेन और सैयद हुसेन उस समय ‘बाम्बे क्रॉनिकल’ का संचालन करते थे, वे भी उसमें थे.

हमने तुरंत जोर-शोर से प्रचार करना आरम्भ किया. बम्बई में शांताराम की चालों को हम रोज गुंजाते थे. प्रति शनिवार और रविवार को दो-दो तीन-तीन आदमी जाकर गुजरात में प्रचार कर आते थे. महाराष्ट्र में लोकमान्य प्रचार कर ही रहे थे. हम पत्रिकाएं भी बांटते थे. मैंने ‘लोक-शासन’ पर लीग के लिए निबंध तैयार किया और लीग ने ही उसे पहले प्रकाशित करके बांटा.

जुलाई में मेसोपोटेमिया की गड़बड़ पर चर्चा चलने के बाद सर आस्टिन चेम्बरलेन ने भारत-मंत्री का पद त्याग दिया और वह मांटेग्यू को मिला. अगस्त में बिसेंट छूट गयीं. 20 अगस्त को मांटेग्यू ने भारत में ‘जिम्मेदार राजतंत्र की क्रमिक सिद्धि’ करने का वचन दिया. बिसेंट के प्रयत्न इस प्रकार सफल हुए. हमारा उत्साह बढ़ा और हमने सबल प्रचार जारी रखा. सितम्बर में सर नारायण चंदावरकर की अध्यक्षता में हुई सभा में ‘ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी’ का चुनाव हुआ. चुनाव में लोकमान्य की लीग और हमारी लीग ने मिल कर नरम दिल वालों को उड़ा दिया. बड़ी टीकाएं हुई. मत निरीक्षकों पर आक्षेप किये गये, नरम दल के नेताओं ने ‘टाइम्स’ में सार्वजनिक जीवन की शुद्धि पर चर्चाएं चलायी. होमरूल लीगियों ने कांग्रेस पर अधिकार कर लिया.

दिसम्बर में कलकत्ता में बिसेंट की अध्यक्षता में कांग्रेsस का अधिवेशन हुआ और तब से यह प्रथा चल पड़ी कि कांग्रेस का अध्यक्ष पूरे वर्ष के लिए राष्ट्रपति के रूप में काम करे. सी.पी. रामस्वामी कांग्रेस के मंत्री नियत हुए और जमनादास और उमर सोमानी उपमंत्री बने. अनेक लोगों को यह अच्छा नहीं लगा, परंतु बिसेंट को सारा वर्ष काम करना था और इससे उनका आग्रह था कि उन्हें विश्वासी मंत्री चाहिए.

1917 से मैं बिसेंट के कुछ अधिक परिचय में आया. अगाध व्यवस्था-शक्ति, अपूर्व वाक्पटुता, अदम्य उत्साह और भारत के प्रति निराली भक्ति- इन चार गुणों से उन्होंने भारत में अग्रस्थान प्राप्त किया था. मैंने बचपन में उन्हें भड़ौंच में देखा था. श्वेत रंग से मुग्ध हुए सैकड़ों भारतीयों ने उनके मुख से आर्यत्व के गुण-गान सुनकर खोयी हुई श्रद्धा फिर से प्राप्त की थी. शिक्षित लोगों में पहले-पहल गीता का प्रचार उन्होंने किया था. आर्य-संस्कृति को उन्होंने अपनाया था. भारत को माता समझा था. अब वे उसके स्वतंत्रता संग्राम की सेनानी भी बन गयीं. छोटे या बड़े मामलों ंमें वे व्यवस्थित रूप से काम करती थीं. वे फिजूल में कागज फाड़ती, तो उसके भी समान ही टुकड़े होते थे. उनकी नियमितता घड़ी के घंटों से भी अधिक अचल थी. उन्हें स्नेह प्राप्त करना और सुरक्षित रखना आता था. उनकी बुद्धि तीक्ष्ण थी और वे कूटनीतिज्ञ भी थीं. उनका व्यक्तित्त्व प्रभावित और प्रेरित करने वाला था. वे व्यवहार में कर्मयोगी थीं. योगि-पद प्राप्त किये बिना भी राग-द्वेष से जितनी दूर जाया का सकता है, उतनी दूर पहुंची हुई थीं.

आवश्यकता के समय उन्होंने भारत के स्वतंत्रता-संग्राम को नयी प्रेरणा दी. अपने जमाने में वे समस्त जगत की अग्रगण्य स्त्री नेता थीं. वे एक जगद्विख्यात नैतिक बल का रूप थीं. भावनाशीलता, स्वातंत्र्य, और आर्य संस्कृति का प्रचार करने में उन्होंने जीवन बिताया. वे जब तक जीवित रहीं, अंग्रेज़ों में अग्रगण्य स्थान प्राप्त किये रहीं. जिस भारत को उन्होंने जन्मभूमि माना था, उसकी वे एक विधायक थीं. आगे जाकर यदि वे भुला दी गयी थीं, तो यह उनके दोष से नहीं, वरन् श्वेत रंग से त्रस्त हुए भारत के उनका रंग न भूल सकने के दोष से, और उनके बाद ही तुरंत एक ऐसे भारतीय आगे आये कि जिनके चारित्र्य, कर्मयोग, त्याग, कार्यदक्षता, राजनीतिज्ञता और भावनाशीलता के आगे कोई भी नहीं टिक सकता था. भारत के विधान-मंदिर में बिसेण्ट के स्थान को अमर रखना कृतज्ञ भारतीयों का कर्त्तव्य है.

(क्रमशः)

नवंबर  2014 

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