साहित्य की स्थाई सम्पत्ति हैं पत्र

 – पं. रामशंकर द्विवेदी

‘मेरी समझ में किसी व्यक्ति की भारी-भरकम साहित्यिक कृति आंधी के समान है, उसके साहित्यिक पत्र उन झोंकों के समान हैं, जो धीरे से आते-जाते रहते हैं और वायु की थोड़ी मात्रा साथ लाने पर भी सांस बनकर जीवन देते हैं.’ – डॉ. वा.श. अग्रवाल 

फ्रांसिस बेकन ने पत्रों का महत्त्व बताते हुए लिखा है कि ‘मेरे विचार से विद्वज्जनों के पत्र, मनुष्य के समस्त कथनों से श्रेष्ठ हैं.’ किसी भी भाषा के पत्र उसके साहित्य की बहुमूल्य थाती होते हैं. हम प्रसिद्ध चित्रकार वॉन गॉग के सम्बंध में जानते हैं कि उसका एकमात्र सहारा पत्र-लेखन था. अपने छोटे भाई को लिखे सहस्रों पत्रों में उसने अपने आत्मसंघर्ष, उत्पीड़न और आशा-आकांक्षाओं की कहानी को लिपिबद्ध कर दिया. उसके चित्रों में हम उसकी आत्मा के सौंदर्य को देखते हैं, लेकिन उसके पत्रों में उसके व्यक्तित्व को. प्रसिद्ध अमेरिकी संत एमर्सन के पत्रों का संकलन लगभग 32 हज़ार पृष्ठों और पांच खण्डों में मैंने टैगोर-लाइब्रेरी (लखनऊ-विश्वविद्यालय) में देखा. पढ़कर आत्मा खिल उठी.

पत्र-पत्रिकाओं की भरमार के साथ जैसे-जैसे साहित्यकारों में आत्मचेतना आयी, पत्र-लेखन और प्रकाशन प्रारम्भ हुआ. धीरे-धीरे दिवंगत साहित्यकारों के पत्र स्मृति-ग्रंथों में छपने लगे. लेकिन, इस विधा की ओर सर्वप्रथम ध्यान पं. बनारसीदास चतुर्वेदी का गया. उन्होंने तो पत्र-लेखन को एक व्यसन के रूप में ही स्वीकार कर लिया और कुछ लेखकों को लेकर पत्रलेखन-मण्डल की स्थापना की. उसके सक्रिय सदस्य आचार्य शिवपूजन सहाय भी थे. शिवजी ने इस बात की चर्चा अपने पत्रों में की है. चतुर्वेदीजी ने विभिन्न साहित्यकारों के पत्र प्राप्त करने के लिए उन्हें नियमित रूप से पत्र लिखना प्रारम्भ किया. उनके पत्रों को संभालकर रखा और जब अवसर मिला, उन्हें छपवाया भी.

इन पत्रों का हिंदी-साहित्य के इतिहास-लेखन की दृष्टि से क्या महत्त्व है? गद्य की पुष्ट भाषा-शैली का दर्शन कैसे इन पत्रों में होता है? पत्र किस प्रकार विभिन्न साहित्यकारों के आत्मसाक्ष्य होते हैं? इन दृष्टियों से हिंदी-पत्रों का मुझे किसी भी ग्रंथ में विवेचन नहीं मिला. हिंदी-पत्रों के जो कुछ इने-गिने संग्रह निकले हैं, उनकी भूमिकाओं में अवश्य कुछ महत्त्वपूर्ण संकेत मिले, अन्यथा हिंदी-साहित्य के इतिहास और समीक्षा-ग्रंथ इस विधा के विकास या महत्त्व के सम्बंध में प्रायः मौन हैं. इसका एक कारण है व्यवस्थित रूप से छपे हुए पत्र-संग्रहों की विरलता और दूसरा हमारा उपेक्षा-भाव.

पत्र-साहित्य वैयक्तिक विधा है. उत्तम पत्र न तो प्रकाशन के लिए लिखे जाते हैं, न उनमें सर्वजनीनता होती है. पत्र हमारी अपनी चीज़ है- अंतरंग गुप्त. जिसके लिए लिखा गया है, उसे छोड़ दूसरा पढ़ेगा भी नहीं, इस विश्वास के साथ हम हृदय खोलकर लिखते हैं. अगर हमें यह भान हो जाय कि एकांत में लिखा गया पत्र कई लोगों की निगाह से गुज़रेगा, तो हम उसे या तो लिखें ही नहीं या फिर उसमें कृत्रिमता आ जाएगी. इस वैयक्तिकता का प्रभाव यह पड़ता है कि पत्र जिसे सम्बोधित होता है, वह या तो उसे  सात ताले में बंद कर रखता है या उसकी ऐसी सुरक्षा करता है कि वह लुप्त ही हो जाता है! रवींद्र ने अपने ‘स्मरण’ नामक काव्य-संग्रह में विवाह के तुरंत बाद पत्नी को लिखी गयी पुरानी चिट्ठी को भरे हृदय से याद किया है. इस वैयक्तिकता के कारण हिंदी में बहुत-से लेखकों की निजी चिट्ठियां प्रकाशित ही नहीं हो पायीं.

उर्दू में अबतक अनेक पत्र-संग्रह निकले हैं. इसका उल्लेख श्रीअयोध्याप्रसाद गोयलीय ने इस प्रकार किया हैö यूं तो सबसे पहले पत्रों का संकलन रजब अली बेग ‘सरूर’ का मुद्रित हुआ, किंतु मिर्ज़ा गालिब के खतूत प्रकाशित होते ही उर्दू में पत्र-संकलनों का तांता-सा लग गया. अब तक तीन दर्जन से अधिक पत्रों के संकलन पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके हैं. कराची से प्रकाशित होनेवाले ‘नकूश’ का सन् 1957 ई. में मकतूब-नम्बर 1040 पृष्ठों का प्रकाशित हुआ, जिसमें 155 प्रसिद्ध व्यक्तियों के 3000 के करीब ऐसे अनुपलब्ध और कीमती पत्र मुद्रित हैं, जो तब तक अन्यत्र मुद्रित नहीं हुए थे.

पत्रों की सुरक्षा-समस्या, उनकी उपेक्षा और उनके प्रकाशन के प्रति लापरवाही के सम्बंध में प्रायः सबका एक-सा अनुभव है. वैसे धीरे-धीरे अब पत्रों का महत्त्व पहचाना जाने लगा है. अनेक स्मृति-ग्रंथों, स्मृति-अंकों, अभिनंदन-ग्रंथों और पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांकों में साहित्यकारों, लेखकों और नेताओं के पत्र छपने लगे हैं. साहित्यकारों के पत्रों का प्रकाशित न हेने का अर्थ हैö हिंदी साहित्य की प्रामाणिक सामग्री का समाप्त हो जाना.

पत्रों की उपेक्षा का एक कारण और है. हमारे यहां हीनवृत्ति की इतनी प्रबलता है कि जो पत्र लिखता है, वह न तो अपने पत्रों की प्रतिलिपि रखने की ओर सजग रहता है और न पानेवाला ही उसके पत्रों और व्यक्तित्व को महत्त्व देता है. फल यह होता है कि अपने को नाचीज़ समझने के कारण हम अपने पत्रों को कोई मान नहीं देते. फलतः पत्र आया, पढ़ा और फिर हवा में उड़कर इधर-उधर बिखर गया. प्रारम्भिक जीवन में लेखक इसलिए पत्र लिखता रहता है कि उस समय उसे दूसरों के पत्र पाने की लालसा होती है. उनके सम्बंध में हम तब सोचना प्रारम्भ करते हैं, जब वह अपनी कीर्त्ति की चरम सीमा पर पहुंच चुकता है. इसीलिए, प्रारम्भिक जीवन (20-30 वर्ष के बीच की अवधि) के पत्र हिंदी के किसी भी साहित्यकार के नहीं मिलते हैं. लापरवाही का दूसरा कारण है कि अभी हम पत्रों के महत्त्व को भली भांति अपने हृदय में अंकित नहीं कर सके हैं. जिस दिन हिंदी-साहित्य का बृहत् इतिहास तैयार होना शुरू हो जायगा, उस दिन साहित्यकारों के पत्रों को संजो-संजोकर रखना प्रारम्भ कर दिया जायगा. क्योंकि, पत्रों के साहाय्य के बिना साहित्य का प्रामाणिक विवरण तैयार ही नहीं किया जा सकता.

पत्रों के महत्त्व के सम्बंध में अमृतराय ने लिखा है – ‘हमलोगों’ से मेरा अभिप्राय विशेष रूप से हिंदी-भाषा के लोगों से है; क्योंकि पश्चिम के देशों को तो छोड़ ही दीजिए, जो इस विषय में बहुत ही सचेत हैं, हमारे यहां भी बांग्ला, उर्दू, मराठी आदि क्षेत्रों में पत्रों को संभालकर रखने की प्रवृत्ति पायी जाती है.’

पत्रों को दो रूपों में बांटा जा सकता है. एक तो वे पत्र, जो निजी होते हैं, प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखे जाते. इनमें व्यक्ति का अपना हृदय निश्छल रूप में व्यक्त होता है. इस तरह के पत्र अत्यंत सरस मार्मिक और पढ़ने में आनंददायक होते हैं. ऐसे पत्र ही उच्च कोटि के समझे जाते हैं. दूसरा प्रकार है लेख-रूप में लिखा जानेवाला पत्र. इस विधा का उपयोग कुछ उपन्यासकारों ने तो उपन्यास लिखने में भी किया है. रवींद्रनाथ ठाकुर ने जितने उत्तम पत्र लिखे हैं, उनमें कुछ पत्र-रूप लिखे गये निबंध और यात्रा-विवरण हैं; जैसे ‘रूस की चिट्ठी’, ‘जावायात्रीर पत्र’, ‘पारस्यदेश डायरी’ आदि. अरविंद के अधिकांश पत्र इसी श्रेणी में आते हैं. उन्होंने अपने शिष्यों को जितने पत्र लिखे, उनमें योग की गम्भीर समस्याओं का विश्लेषण किया गया है. उनका ग्रंथ भावी काव्य पत्र-रूप में ही लिखा गया है. उनके पत्र पांच खण्डों में निकले हैं. पत्र का विधा के रूप में उपयोग कई सम्पादकों और साहित्यकारों ने किया है. ‘हिंदी-पत्रिकाओं में प्रकाशित होनेवाले ऐसे जिस पत्र-साहित्य को ख्याति मिली, उसमें बालमुकुंद गुप्त के ‘भारत-मित्र’ में प्रकाशित ‘शिवशम्भु के चिट्ठे’ और विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’ द्वारा ‘चांद’ में प्रकाशित ‘दुबेजी की चिट्ठी’ प्रमुख हैं. तत्कालीन, वायसराय लार्ड कर्जन के नाम लिखे गये ‘शिवशम्भु के चिट्ठों’ ने उस समय के पाठकों में तहलका मचा दिया था. इन चिट्ठों में देश के सर्वोच्च शासक, वायसराय की बड़ी तीव्र आलोचना की गयी थी. हिंदी-पत्रकारिता की गोद में पलनेवाली यह परम्परा रुकी नहीं है. ‘सरस्वती’ और ‘कल्पना’ में (भ्रमरानंद के नाम से) प्रकाशित पं. विद्यानिवास मिश्र की चिट्ठियां भी हिंदी-जगत् में तहलका मचा चुकी हैं. इन चिट्ठियों में विद्वत्ता और सरसता के साथ व्यंग्य की चुटकी और हास्य की फुलझड़ी दोनों का उचित समाहार किया गया है. उन दिनों ‘सरस्वती’ और ‘कल्पना’ के पाठकों को ये चिट्ठियां इतनी अच्छी लगीं कि उन्होंने वास्तविक पत्र-लेखक का नाम जानने के लिए सम्पादकों को सैकड़ों
पत्र लिखे, पर सम्पादकों ने उसका वास्तविक रहस्य कभी नहीं खोला. कारण उसमें हमारे वर्तमान शासन की कड़ी निंदा थी. हमारी अहिंसा और पंचशीलता पर तीखा प्रहार था. अब ये चिट्ठियां ‘मैंने शिल पहुंचाई’ निबंध-संग्रह में प्रकाशित हो चुकी हैं.

सन 1963 ई. के नवम्बर-दिसम्बर में ‘ज्ञानोदय’ ने अपना पत्र-विशेषांक निकालकर इस विधा का अच्छा प्रयोग किया. इसमें हिंदी के अनेक साहित्यकारों ने पत्र-विधा में संस्मरण, रेखाचित्र, कहानी, रिपोर्ताज, निबंध आलोचना, आदि लिखे हैं. बीच-बीच में कुछ देशी-विदेशी साहित्यकारों-विचारकों के व्यक्तिगत पत्र भी संकलित हैं. इस विधा के अभिनवत्व की दृष्टि से ‘एक साहित्यिक विधा’ के रूप में इसकी बहुत अधिक सम्भावनाएं हैं. श्री हरिशंकर परसाई की, ‘और अंत में’ पुस्तक इसका प्रमाण बखूबी दे रही है. परसाईजी ने इस विधा में व्यंग्य के डंक की चुभन ऐसी मिसरी-सनी डली में दी है कि न हंसते बनता है, न आहें भरते बनता है

इस पत्र-विधा का उपयोग अज्ञेय ने अपने ‘नदी के द्वीप’ में खूब किया है. इनमें पात्रों के मन का द्वंद्व, उनका स्वभाव, उनकी चारित्रिक विशेषताएं सब प्रकट हुई हैं. विशेषता यह कि पात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार पत्रों की शैली भी बदली हुई है, जब कि ये सब एक ही लेखक द्वारा लिखी गयी हैं. हिंदी में, पत्र-विधा में एक समीक्षा-ग्रंथ भी निकला है- ‘महादेवी – विचार और व्यक्तित्व’. इसकी विशेषता यह है कि पत्रों की जो सहजता, सरलता और निश्छलता होती है, उसको आघात पहुंचाये बिना लेखक ने महादेवीजी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक दृष्टियों से प्रकाश डाला है. इस विधा में कुछ उपन्यास और कहानियां भी लिखी गयी हैं और लिखी जा रही हैं. वैसे विधा के रूप में इसकी कुछ सीमाएं हैं. उनका अतिक्रमण करते ही पत्र पत्र न रहकर निबंध या आलोचना का रूप धारण कर लेता है. इसीलिए, पत्र-विधा का उपयोग करते समय हल्कापन, सरलता, और रोचकता अनिवार्यतः आवश्यक हैं. लेकिन, जहां तत्त्व-चिंतन, विचार-विश्लेषण प्रधान हो जाते हैं, जैसे अरविंद के पत्रों में सर्वत्र और रवींद्र के कुछ पत्रों में, वहां पत्र में आदि से अंत तक एक गम्भीरता का वातावरण व्याप्त रहता है. ये पत्र जिसे लक्ष्य कर लिखे जाते हैं, उसके मानसिक स्तर के अनुकूल होते हैं, सब प्रकार के पाठक इनका आनंद नहीं ले सकते. ये सीमा से अधिक व्यक्तिगत होते हैं. लेकिन, स्वामी विवेकानंद के पत्रों में यह बात नहीं है. वे तत्त्व-चिंतन की दृष्टि से श्रेष्ठ होते हुए भी भाषा-शैली और अपने परिवेश में भी अत्यंत सरल, सरस और रोचक हैं. इनमें स्वामी विवेकानंद का करुणावत्सल हृदय अपनी निर्मलता और शील-सम्पदा के साथ स्पंदित हो रहा है. विशेषकर वे पत्र, जो भगिनी निवेदिता को लिखे गये हैं. मनीषी की लोककथा में भी उनके द्वारा लिखे गये इस तरह के तत्त्व-चिंतनपूर्ण अनेक पत्र संकलित हैं. इनमें साधना की विचित्र और रहस्यपूर्ण बातों को प्रकाशित किया गया है. स्वामी स्वरूपानंदजी की ‘पत्र-प्रबोध’ पुस्तक भी इसी तरह का एक सुंदर पत्र-संकलन है.

पत्रों के उपयोग से साहित्य के इतिहास की प्रामाणिकता बढ़ जाती है. कवियों के स्वभाव और उनकी प्रवृत्तियों की सही जानकारी मिल जाती है. एक बार पं. मुकुटधर पाण्डे ने प्रयाग में कल्पवास किया. छायावाद का प्रथम प्रवर्त्तक कौन है, छायावाद के विकास में, उसकी प्रारम्भिक पृष्ठभूमि के निर्माण में पं. मुकुटधर पाण्डे का क्या प्रदेय है, इन बातों की जानकारी के लिए द्विवेदी ने उन्हें पत्र लिखा. इसके उत्तर में पाण्डेजी ने जो कुछ लिखा, उससे छायावाद की प्रारम्भिक स्थिति, उसपर बांग्ला का प्रभाव आदि स्पष्ट हो जाते हैं. यह पत्राचार सरस्वती में निकल चुका है. संस्मरणों और जीवनियों में पत्रों के उपयोग से सुंदरता आ जाती है. बीच-बीच में उद्धृत पत्र इन विधाओं को प्रांजलता देते हैं. बनारसीदास चतुर्वेदी के संस्मरण ‘हमारे आराध्य’ तथा ‘रेखाचित्र’ ग्रंथ इसके प्रमाण में रखे जा सकते हैं.

बांग्ला के प्रसिद्ध साहित्यकार, सुरसाधक और संत श्री दिलीपकुमार राय ने अपने विभिन्न संस्मरणात्मक ग्रंथों में पत्रों का उपयोग कर इस विधा की उपयोगिता को रेखांकित कर दिया है. उनके ‘स्मृतिचारण’ के दो खण्ड शरतचंद्र, रवींद्र, प्रफुल्लचंद्र, सुभाषचंद्र आदि के पत्रों से भरे पड़े हैं.

महादेव भाई देसाई के सम्बंध में गांधीजी ने कहा था कि वह मेरे बोस्वेल बनना चाहते थे. बापू का यह कथन प्रसिद्ध जीवनीकार बोस्वेल की विशेषता पर तो प्रकाश डालता ही है, महादेव भाई के भी गुणों को स्पष्ट करता है. सचमुच, महादेव भाई बापू के जीवनीकार बनना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने बापू के हज़ारों पत्रों को अपने पास सुरक्षित रखा था.

जीवनी की दृष्टि से पत्रों का महत्त्व एक और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ से प्रकट होता है. प्रभातकुमार मुखोपाध्याय ने वर्षों तक प्रभूत परिश्रम करके रवींद्र-जीवनी लिखी. चार खण्डों में बड़े आकार के लगभग दो हज़ार पृष्ठों में यह पूरी हुई. इन खण्डों के अनुशीलन के बिना रवींद्र का अध्ययन कभी पूर्ण नहीं होता. इस जीवनी में प्रभातकुमारजी ने गुरुदेव और अन्य व्यक्तियों के पत्रों का खूब उपयोग किया है. बिना इन पत्रों के विरोधी गुणोंवाले गुरुदेव का व्यक्तित्व तो अबतक बंगाल देश की जादूभरी मनगढ़ंत, शरत् जैसी भ्रमात्मक किवदंतियों का शिकार बन जाता. और तो और, बर्ट्रेण्ड रसेल ने तीन खण्डों में अपनी जो आत्मकथा लिखी है, उसमें भी उसने अपने समकालीन मनीषियों, विचारकों, और साहित्यकारों के पत्रों से ही जीवनी पूरी की है. बिना पत्रों के जैसे जीवन अधूरा, फीका और नीरस है, उसी तरह साहित्य भी. वैसे प्रसिद्ध पत्रकार पराड़करजी की जीवनी में उनके समय के न जाने कितने साहित्यकारों के पत्रों की सरिता-धारा ने मिलकर उनकी कथा-भगीरथी को पूरा किया है.

जीवनी व्यक्ति की होती है और व्यक्ति जितना मुक्त, निश्छल और सही रूप में अपने पत्रों में व्यक्त होता है, उतना अपनी अन्य रचनाओं में नहीं. डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल मौन साधक थे. अपने जीवन के सम्बंध में उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन अपने जीवन के अंत के कुछ समय पहले उन्होंने जो दो पत्र बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे, वे उनके शैशव जीवन, उनके परिवारिक परिवेश और उनके हृदय को सही रूप में हमारे सामने रखते हैं. पत्र व्यक्ति के मन के दर्पण होते हैं.

‘प्रेमचंद की चिट्ठी-पत्री’ में उनके जीवन के तथ्य तो हैं ही, ‘वे कब क्या लिख रहे हैं, क्या सोच रहे हैं, घर में कब किसका क्या हाल है, कौन जिया, कौन मरा, किसकी शादी हुई… लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि ये चिट्ठयां उस आदमी के दिल-दिमाग का आईना हैं, इनमें वह सांस ले रहा है, उसकी खुशी, उसका गम, उसका गुस्सा, उसकी झुंझलाहट सब कुछ उस पिटारी में मौजूद है.

पत्र-साहित्य का महत्त्व इसलिए है कि उसमें ‘बने-ठने, सजे-सजाये’ मनुष्य का चित्र नहीं, वरन् एक चलते-फिरते मनुष्य का स्नैप शॉट मिल जाता है, लेखक के वैयक्तिक सम्बंध, उसके मानसिक और बाह्य संघर्ष तथा उसकी रुचि और उस पर पड़नेवाले प्रभावों का पता चल जाता है. जिन पत्रों के विषय और शैली दोनों ही महत्त्वपूर्ण हों, वे साहित्य की स्थायी सम्पत्ति बन जाते हैं और इस सम्पत्ति पर पाठक भी गर्व करते हैं!

(जनवरी 2016)

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