सवाल सोचने की क्षमता और आज़ादी का – प्रदीप भार्गव

उच्च-शिक्षा

हम गांव-गांव फिरते हैं, किसी शोध की समस्या लेकर. फिर लिखते हैं. यही हमारी रोज़ी-रोटी है. उस दिन शाम होने को थी. लोटा उठा के पानी पी ही रहे थे, कि कागज़ों का एक बंडल विशाल पीपल से नीचे आ गिरा. ऊपर देखा तो कोई दिखाई न दिया पर आभास हुआ कि कोई साया-सा है. हिचकते, डरते वो बंडल खोला. उसमें अवधूत की लिखी आज के समय की कई कहानियां थीं. फिर ऊपर देखा तो साया गायब था, या शायद था. गांव में अवधूत को ढूंढ़ा, नहीं मिला. लोगों ने बताया एक पागल आवारा-सा आदमी शहर से आता था, लोगों से बतियाता था और कागज़ काले करता था. फिर एक दिन वह गायब हो गया. अवधूत की एक कहानी सुधी पाठकों को समर्पित. 

कलियुगे प्रथम चरणे, भू लोके जम्बू द्वीपे, भरत खण्डे, भारत वर्षे, आर्यावर्ते देशांतर गते, नवनीत क्षेत्रे विक्रम शते द्विसहस्र द्विसप्तति (2072) संवत्सरे कथा बांचता हूं.

राजा बहुत विचलित था. उसे लग रहा था कि कॉलेज और यूनिवर्सिटियों में काम ठीक नहीं हो रहा. बाज़ार को जैसे लोगों की ज़रूरत है, नहीं मिल रहे हैं. उसका विकास का रथ थम-सा गया है. विद्यार्थियों में संस्कृति और संस्कार का अभाव है. अविद्या का नाश हो और विद्या पर पकड़ हो, उसका ही विचार सबका विचार हो, उसके विचार का कोई विरोध न हो, तभी राष्ट्र आगे बढ़ सकता है. यही सोच वह कोई एक संकल्प वेदों में ढूंढ़ रहा था. बहुत ढूंढ़ने पर अथर्ववेद में काम का बाण सूत्र मिला (खण्ड 3, सूत्र 25). सातवलेकर और आर्यसमाजी क्षेमकरण त्रिवेदी ने इस सूत्र की अलग-अलग व्याख्या की थी. सातवलेकर इसे पति का पत्नी पर अधिकार बता रहे थे, त्रिवेदी इसे अविद्या से विद्या की यात्रा. राजा को दूसरे भाष्य में दिलचस्पी थी. पहले में नहीं.

अथर्ववेद का ये सूत्र पढ़ते हुए विचलित राजा में एक ज्वार उठा. राधाबल्लभ त्रिपाठी का काव्यानुवाद वो पढ़ रहा था- कामना का ज्वार/ जो उमड़ रहा है भीतर ही भीतर/ कोंच-कोंच कर तुझको/ जगा दे काम तेरे/ तेरे भीतर अकुलाहट/ तू शैया पर न टिक पाये/ काम के भयंकर बाण से तुझे छलनी कर दूं/ इसमें पीड़ा के पंख लगे हैं/ इसके आगे लोहा जड़ा है/ इसको संकल्प से साध/ तुझ पर ऐसा छोडूं/ तुझे भीतर तक छलनी कर दूं/ पढ़ते-पढ़ते राजा उत्तेजित हो गया था. हांफ रहा था. उसे लगा कि राष्ट्रवादी विचारों के विरोधियों को, उनकी अविद्या को, ऐसे ही काम बाण से क्षत-विक्षत कर देना होगा. शायद अभी उसके और सरसंघ के बाणों में इतना दम नहीं है. 

राजा आगे पढ़ रहा था. काम का ये बाण/ विशेष दाह करने वाला/ मुख सुखानेवाला है/ बिंधी हुई गहरे तक तू मेरे पास आ/ कोमल, क्रोधरहित, मधुर-भाषिणी/ तू केवल मेरी होगी/ मीठा बोलती, संग निभाती/ माता-पिता को छोड़/ मेरे वश में/ हे मित्र और वरुण/ उखाड़ फेंको इसके हृदय से उसका चित्त/ फिर छितरा दो इसे/ कर्महीन बनाकर इसको मेरे ही वश में करो.

राजा ने लम्बी सांस ली. वो बहुत आनंदित था. फिर सोचने लगा. ऐसे ही अगर कॉलेजों की शिक्षा उसके वश में आ जाये, तो विरोधी तो चित्त. वे हो जाएंगे मृदुभाषी, कर्महीन, शिथिल… पर इसके लिए ऐसे काम के बाण बनाने होंगे जो अन्य विचारों को बींध दे. तभी संस्कृति की रक्षा होगी. राजा ने संकल्प किया कि राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय संस्कृति को बचाने के लिए वह कुछ भी करेगा. सब वेद-पुराण पढ़ेगा.

राजा बहुत प्रसन्न था. अथर्ववेद में तो प्रकृति का सुंदर और मनोहर यह दृष्टांत था- काम और काम से आधिपत्य का. राजा ने क्षेमकरण त्रिवेदी से विद्या की यात्रा की मीमांसा से प्रेरणा ले नयी व्याख्या कर दी थी- विचार और विचार से आधिपत्य का. नाना विश्वविद्यालयों में उसको चुन-चुन कर बौद्धिकों की नियुक्ति करनी थी. मां भारती के सभी सपूतों को इससे जोड़ना था. जो न जुड़े उसे नंगा कर, लोहे के कामबाण से क्षत-विक्षत करना होगा. जो असहमत हो तो सूली पर चढ़ जाये या फिर उसे चढ़ा दिया जाये. पर उसकी मां को दुःख होगा, ऐसा सोच राजा भावुक हो गया. पर मां भारती की संस्कृति की रक्षा के लिए एक नहीं अनेक कुर्बानियां देनी होंगी. हमारे विचार पर कोई सवाल न कर सके, ऐसा वातावरण बनाना होगा. राजा और तेजस्वी ब्रह्मास्त्र और कुर्बानियों की नीति की तैयारी कर रहा था कि बेताल उसके कंधों पर आ बैठा. 

बेताल बोला, हे राजन्, तू भावुक हो जाता है, मुझे बहुत अच्छा लगता है. सबको मोहित कर लेता है, पर तू हर किसी को सूली पर चढ़ा नहीं सकता. जैसे मैं. तू मुझे मार ही नहीं सकता क्योंकि मैं हूं भी और नहीं भी. न मेरा शरीर है, न मन, न आत्मा. मैं तो केवल बुद्धि हूं. ये बुद्धि अविनाशी है. ये सूली पर नहीं चढ़ती. तू न तो मुझे और न ही मेरे सवालों को सूली पर टांग सकता है. आज तू विकास, शिक्षा और शिक्षा संस्थानों के लिए सोच रहा है. बहुत अच्छा कर रहा है. आज विकास ज़रूरी है. पर उसके साथ लालच, लिप्सा और कामुकता भी आ जाती है. शिक्षा उससे कैसे निपटेगी यह सोचने की बात है. क्या विकास की दशा-दिशा बतायेगी शिक्षा कैसी हो? या शिक्षा बतायेगी कि विकास कैसा हो? देखें भारतीय इतिहास के गर्भ में क्या है? चल छोड़, मुझे उठाकर तक्षशिला या नालंदा ले चल. यह विश्वविद्यालय सवालों से ही बने थे. वहां सवालों को सूली पर नहीं लटकाते थे. देखते हैं, हमारी प्राचीन शिक्षा की संस्कृति. सुनते हैं और समझते है. बीच में बोला तो तेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे. 

बेताल एक क्षण में प्राचीन विश्वविद्यालय पहुंच गया. राजा समझ न पाया कि वह कहां पहुंचा है? गुरु उच्च आसन पर बैठे थे. शिष्य कुश पर. विद्वत गुरु बता रहे थे कि भारतीय दर्शन की अनेक शाखाएं हैं. उनमें मतभेद हैं, बहुत गहरे. एक दूसरे की बात सुनते हैं, समझते हैं, उनके विचारों की युक्तिपूर्वक समीक्षा करते हैं. विमर्श की यही प्रणाली है. पहले पूर्व पक्ष रखा जाता है, व्याख्या होती है, फिर उसका खंडन होता है. फिर उत्तर पक्ष आता है और दार्शनिक अपना सिद्धांत रखता है. इस प्रकार देश के विचारों और दर्शन की अनेकानेक शाखाएं निकलीं. उनमें सहमति भी है और विरोधाभास भी. 

फिर शिष्यों ने विद्वत गुरु से इस पद्धति पर शास्त्रार्थ किया. बेताल बोला, हे राजन् आज शिक्षा व्यवस्था में अपने विचारों से भिन्न दूसरे की बात सुनने, गुनने की और उस पर शास्त्रार्थ करने की परम्परा नहीं रही. जो शक्तिमान है, दूसरे के विचार सुनना ही नहीं चाहता. वो तो उसे व्यवस्था से ही निष्कासित कर देता है. हैदराबाद में रोहिथ वेमुला को सूली पर चढ़ना पड़ा पर उसकी बातों पर शास्त्रार्थ नहीं हुआ. अपने विचारों को ही आप्त वचन मान दूसरे को अपमानित करना हमारी शिक्षा व्यवस्था का अंग बन रहा है. इससे विकास ही रुकेगा. ये हमारी संस्कृति का भी अपमान है. राजा कसमसा रहा था. बड़बोले राजा के लिए न बोलना कितनी बड़ी सज़ा थी. वह बोलता तो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते.

बेताल राजा को तक्षशिला विश्वविद्यालय में चाणक्य के गुरु के कक्ष में ले आया. वे वहां पढ़ाये जाने वाले 68 विषयों में कुछ न कुछ दखल रखते थे. वे बहुत भव्य थे, ऊंचा मस्तक, तेज से ओत-प्रोत. राजा ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया. इतने में क्या देखते हैं कि एक मैली-फटी पैण्ट-शर्ट पहने, कृशकाय, बीड़ी पीता आदमी उन्हें खरी-खोटी सुना रहा है. वो उनसे पूछ रहा था कि क्यों धनिक वर्ग के विद्यार्थी जो फीस चुकाते हैं, उनकी और शास्त्रियों की सेवा गरीब वर्ग के विद्यार्थी करते हैं? शूद्र कार्यों की विवेचना तक्षशिला में क्यों नहीं होती? शिल्पी शूद्र हैं और कृषक भी. यह सब अंधकार में डूबे हैं. इनका व्यावसायिक ज्ञान क्या ज्ञान नहीं है, जो इन्होंने खेतों में काम कर, नाना अन्न उगा, शिल्प बना अपने अनुभव से प्राप्त किया है? कृशकाय बोला, किसान शूद्र नाना अन्न उगाता है, शिल्पी शूद्र किसानों की मदद करते हैं और धनिक वर्ग के लिए सुंदर से सुंदर वस्तुएं, मकान, तुम्हारे लिए विश्वविद्यालय बनाते हैं. वे निर्माण की प्रक्रिया जानते हैं. पर इस प्रक्रिया में समाये वैज्ञानिक सिद्धांतों का आविष्कार नहीं कर पाते. कोई और भी यह सिद्धांत नहीं खोज पाता क्योंकि उसने अनुभव ही नहीं किया. उच्च शिक्षा के अभाव में किसान और शिल्पी शूद्र के पास सूक्ष्म और अमूर्त चिंतन की शक्ति न रही. ऐसे बौद्धिक चिंतन की क्षमता रखने वाले मनीषी उत्पादन की प्रक्रिया और उत्पादन केंद्रों से दूर रहे. शिल्प कार्यों की विवेचना करने वाले ग्रंथ क्यों नहीं लिखे जा रहे? आप जैसे मस्तिष्क इसकी मीमांसा क्यों नहीं करते? क्या इनके ज्ञान में विज्ञान नहीं? क्या इनके पास विचार नहीं?  (मुक्तिबोध लिखित पाठ्य पुस्तक ‘भारत, इतिहास और संस्कृति’) 

आराम से उस कृशकाय ने एक और बीड़ी सुलगायी, लम्बा कश किया और धुंआ छोड़ बोला- विचार आते हैं/ लिखते समय नहीं/ बोझ ढोते पीठ पर/ सिर पर उठाते समय भार/ परिश्रम करते समय/ …विचार आते हैं/ लिखते समय नहीं/ पत्थर ढोते वक्त/ पीठ पर उठाते वक्त बोझ/ कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं…/ सफल जीवन बिताने में असमर्थ तुम!/ तरक्की के गोल-गोल/ घुमावदार चक्करदार/ ऊपर बढ़ते हुए जीने पर चढ़ने की/ चढ़ते ही जाने की/ उन्नति के बारे में/ तुम्हारी ही ज़हरीली/ उपेक्षा के कारण निरर्थक तुम, व्यर्थ तुम!!/

कृशकाय ने बीड़ी का अंतिम कश लिया और ढेर-सा धुंआ चाणक्य के गुरु पर छोड़ दिया. बेताल उसे जाते हुए देख रहा था और राजा चाणक्य के गुरु को, जो किंचित किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़े थे.  

मुक्तिबोध धुंआ उड़ाते चलने को हुआ. तो चाणक्य के गुरु बोले- “तुम जो कह रहे हो उसमें कुछ सत्य है, कुछ नहीं. हमारे दर्शन में शिल्पी और किसान एक साधक है. शिल्पी भी साधक. कुम्भकार कुम्भ का निर्माता नहीं है. उसके सामने चाक है, और उसके मन में एक आकार है. वो आंख मूंद माटी को एक रूप देता है. अगर मन अनुसार न बना तो उसे फिर-फिर बनाता है. वो साधक है, द्रव्य को रूप देता है. तू ऐसे समय से आया है, जहां वस्तु को रूप देने वाला कोई है, और नापकर, काट-छांट कर आकार देने वाला दूसरा. जो ज्यामिती के विकट सिद्धांत लगाये वो मास्टर कहलाता है. सौंदर्य कुम्भकार के काम में अधिक है क्योंकि उसमें मन लगा है. तेरे ज़माने की वस्तुएं सुंदर हो सकती हैं, पर उनमें मन का सौंदर्य नहीं. इसी तरह किसान अपने खेत का विज्ञानी है. वह अपना शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा अन्न उगाने में लगाता है. जा के देख अपने समय में जहां विश्वविद्यालयों में किसानी पढ़ाई जाती है. किसान के मन का न बीज है, न अपनी बुद्धि से उसे काम करने की छूट. बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाओं में बुद्धियां लगती हैं और किसान के पास शरीर बचता है. अगर वह बहुत जतन से उनकी तकनीक से उत्पादकता बढ़ाता भी है तो उसके शरीर को कैंसर पकड़ लेता है. उसकी आत्मा अपना ही शरीर ढूंढ़ती रहती है. तू चार्वाक दिखाई देता है. तू आत्मा न भी माने, तो ये तो मानेगा कि बिना मन और बुद्धि के शरीर किस काम का. हमने शूद्रों को अपने ज्ञान से वंचित भी रखा है. आने वाली पीढ़ियों को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ा है और आगे भी पड़ेगा. हमें उन्हें अपनी यात्रा में साथ लेकर चलना ही चाहिए था. मैं भी इसका ज़िम्मेदार हूं.’’ 

मुक्तिबोध बीड़ी बुझा कर चला गया. 

बेताल बोला- हे राजन, हज़ारों साल बाद तो दोनों-ज्ञानियों और शूद्रों पर कहर पड़ना था. दास्तान अब तुझे सुनाता हूं. अंग्रेज़ों का राज आ गया. उसके बाद जो हुआ उसने हमारी आज की शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद रखी. इसका सूत्रधार इंग्लैण्ड का मैकाले था. 

18 फरवरी, 1835 को लॉर्ड थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने लॉर्ड विलियम बैंटिक को अपनी कमेटी जिसे हिंदुस्तान में शिक्षा का जिम्मा सौंपा गया था, अपनी रपट (मिनिट बाई द ऑनरेबल टी.बी.मैकाले, 2 फरवरी, 1835) पेश की. इस रपट से हिंदुस्तान की दिशा तय होनी थी. मैकाले ने अपनी रपट के मुख्य बिंदु बैंटिक को बताये. वे दोनों नशे में थे, पता नहीं नशा शराब का था या सत्ता का, पर नशा था. 

हिंदुस्तान में इतनी बोलियां बोली जाती हैं, पर इनमें न साहित्य है और न ही विज्ञान, मैकाले बोल रहे थे. ये बोलियां इतनी गरीब और उजड्ड हैं कि इनमें किसी अच्छे लेखन का अनुवाद भी नहीं हो सकता. इसके लिए इन्हें अंग्रेज़ी की ही ज़रूरत पड़ेगी. हिंदुस्तान और अरब का सारा साहित्य, यूरोप के किसी पुस्तकालय के एक रैक में उपलब्ध साहित्य का भी मुकाबला नहीं कर सकता. उपाय एक ही है- अंग्रेज़ी. इसी से इन्हें श्रेष्ठ साहित्य, फलस़फा, सही  इतिहास, विज्ञान पढ़ाया जा सकता है. 

मैकाले बोला- इनकी भाषाओं में फर्जी इतिहास, फर्जी खगोल विद्या, फर्जी मेडिसिन है. और क्या हम इसे इसलिए पढ़ायें कि ये फर्जी धर्म से जुड़ा है. 

हमें हिंदुस्तानियों का एक ऐसा वर्ग चाहिए जिसका खून और रंग हिंदुस्तानी हो पर टेस्ट, राय, नैतिक चरित्र और बुद्धि हमारी तरह कुशाग्र हो. 

मॉरल कैरेक्टर, मॉरल कैरेक्टर बोल कर मैकाले और बैंटिक ने जाम टकराये और ठहाके लगाये.

हिंदुस्तानी सोच को रूपांतरित करने की शुरुआत हो चुकी थी. कलकत्ता के हिंदू कॉलेज, फोर्ट विलियम की प्रेसीडेन्सी और आगरा के स्कूलों से शुरुआत होनी थी. संस्कृत काशी में और अरबी दिल्ली तक महदूद रहनी थी. राष्ट्रवादी राजा का खून खौल रहा था. 

बेताल बोला- हिंदुस्तान ने अपना दर्शन तब खो दिया. अब पूर्व पक्ष की मीमांसा भी न करनी थी. उत्तर पक्ष तो दूर. अब अंग्रेज़ी में कहा गया, उसी में प्रतिपादित सिद्धांत हमें स्वीकार करने थे. हमारे विश्वविद्यालय, अंग्रेज़ी में या उनका अनुवाद कर आज भी उन्हें ढो रहे हैं. जो अंग्रेज़ी जानता है वही विद्वान है, ऐसी धारणा घर कर गयी है.

तभी ‘अलख निरंजन-अलख निरंजन’ बोलता अवधूत प्रकट हुआ. राजा चौंका, इसे भी यहीं और अभी आना था. अवधूत ने चम्मल में लोबान डाल ढेर-सा धुंआ किया और राजा के चेहरे को देख पूछा- ‘तू इतना परेशान क्यों है’. तभी वह देखता क्या है कि उसके कंधे पर तो बेताल बैठा है. अवधूत द्रष्टा था. बोला- ओह! ज्ञान-विज्ञान-शिक्षा-विद्या-अविद्या को समझा जा रहा है. अरे, पहले बदलते लोक समाज के साथ ऊंची तालीम का रिश्ता समझ. अलख निरंजन! हे राजन, ये किसान और शिल्पी की ज़िंदगियां कुछ समय पहले तक अपने गांव और लोक के रिश्तों में समाहित थीं. वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कम और सामाजिक रिश्ते बनाये रखने के लिए ज़्यादा मेहनत से काम करता था. थोड़े में सुखी था. अवधूत बोला- मुझे भी आज भर का भोजन मिल जाए तो अलख निरंजन! राजा कुछ है, तेरे पास? राजा ने जेब से कैडबरी निकाल के दी. 

अवधूत चॉकलेट चबाते हुए बोला. वाह, जवाब नहीं. ये बाज़ार की देन है. करीब-करीब गुलामी में जी रहे देश कोको का उत्पादन करते हैं और सस्ते में बेचते हैं, जिनसे दुनियाभर में चॉकलेट बनती हैं. बाज़ार अपने सिस्टम खुद बनाता है. और ऐसी व्यवस्था देता है कि सिर्फ बाज़ार की कीमत (प्राइस) एकमात्र सत्य रह जाता है. इस बाज़ारी व्यवस्था में सब बिकाऊ हो जाते हैं- भूमि, मज़दूर और पैसा. बड़ी बात यह कि साथ ही साथ इल्म भी बिकाऊ हो जाता है. शिक्षित और हुनरमंद मजदूर की मांग ज़्यादा होती है. समाज से रिश्ते टूट जाते हैं. जैसे मैं लौ लगाये घूमता हूं, वहीं पढ़ा-लिखा अपना इल्म बेचता घूमता है. अलख निरंजन! 

पहले शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा समाज की भलाई में लगते थे. अब मन बाज़ार पर टिका है. बुद्धि भी बाज़ार से इल्म खरीद कर बनती है. और कहीं-कहीं काम करो तो आत्मा को बेचना पड़ता है. जो काम के साथ अपना शरीर भी बेचे, उसे ऊंचे दाम मिलते हैं. तो इस समय में शरीर, मन, बुद्धि, इल्म और आत्मा बाज़ार के हवाले है. 

समाज में इसका विरोध होता है, तो सरकारें इल्म का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लेती हैं. पर इल्म की कारपोरेटी दुकानों में बेहतर माल मिलने लगा है. ज़ाहिर है, जिसके पास सही वक्त पर सही भाषा में सही इल्म हो, वही पैसा कमायेगा, अपने लिए. दूसरे के लिए नहीं. समाज के लिए नहीं. देश के लिए भी नहीं. 

बाज़ार या सरकार या इल्मबरदार ही सिद्धांत देंगे. और दूसरे डेटा फीड करेंगे. और देखेंगे कि कौन सिद्धांत अपने वातावरण में कैसे फिट हो सकता है. आज के हमारे विश्वविद्यालय इसी दौर से गुज़र रहे हैं. चाहे विज्ञान हो या सामाजिक विज्ञान अधिकांश सभी की तकनीकें बाहर बनती हैं. और हमारे संस्थान अपने शोध-पत्र बाहर छपवाकर धन्य होते हैं. कोई गौरांग ‘वाह!’ कह दे तो अलख निरंजन. सिद्धांत से तर्क तो करते हैं, पर जूझते नहीं. उस पर शास्त्रार्थ (आजकल विमर्श कहते हैं) नहीं होता. कॉलोनियल या इंडोलॉजी से सामाजिक विज्ञान फलित हुआ, अब पोस्ट कॉलोनियल भी वहीं से आया. विदेश में जन्मी सोशल थियरी को हमारे समाज-शास्त्रियों ने भी आगे बढ़ाया. एक दौर सबआल्टर्न का आया. जिसमें किसानों और मज़दूरों का इतिहास उनकी दृष्टि से लिखा गया. पर वह भी अंग्रेज़ी में और ग्राम्शी के सिद्धांतों से पल्लवित. लिखने-लिखाने वाले प्रणेता अमरीकी छात्रों को पढ़ाने लगे. वॉशिंगटन कन्सेन्सस ने दुनिया के अर्थशास्त्र को बदला. विश्वविद्यालयों ने ग्लोबलाइजेशन पर सेमिनार कर ये बताया कि उसे कैसे अपनायें या जूझें. या उसकी कमियां गिनायीं. उनका ऑल्टरनेटिव रूस से आया- समाजवाद. हमारी अपनी अर्थव्यवस्था कैसी हो वो अब बाज़ार ही बतायेगा. उच्च शिक्षा संस्थान नहीं. चम्मल में लोबान डाल धुंआ किया और बैठ गया. अलख निरंजन न बोला. l

धुंआ छटा तो छोटा और बड़का विशाल बरगद के नीचे चारपाई डाले बतिया रहे थे. इधर-उधर की और खेती-पानी की बातें चल रही थीं. छोटे के लिए काला अक्षर भैंस बराबर. बड़के ने जैसे-तैसे बी.ए. विश्वविद्यालय से किया था. हमउम्र थे. छोटे के पास, बड़के से थोड़ी कम खेती थी. दो तरह की फसलें उगाते थे. एक अपने लिए और दूसरी पैसे के लिए.

छोटा : लल्लन आ गये पढ़ के?

बड़का : हां, आ तो गये. गुलाम बन कर आये हैं (बड़का अपने से ही बुदबुदाया). अरे तू क्यों नहीं पढ़ा छोटे?

छोटा : पढ़ा-पढ़ा, खूब पढ़ा, पंडित बना! ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होए. पढ़ने की सारी हदें तोड़ दीं.

हद से निकल बेहद गया, जहां निरंतर होय.

निरंतर के मैदान में, दास कबिरा सोये. 

दोनों कहीं खो गये थे. साफ आसमान में कबीर के सबद गूंज रहे थे. तभी लल्लन मटर की घुघरी और गन्ने का ताज़ा रस दे गया. कौड़ा जला कर आग तापने लगे. 

छोटे और बड़े मन से और दुलार से मटर उगाते थे. उनका अपना बीज था और खाद थी. पहले उनके गांव का मटर का दाना छोटा और मीठा होता था. सात कोस दूर मटर की चर्चा थी.

छोटा : याद है एजेंसी वाले आये थे. बीज, खाद, दवाई सब लाये थे. कहते थे यूनिवर्सिटी वालों ने बनाया है. 

बड़का : हां, कमीने छू कर चले गये. कहते थे, मोटा दाना होगा मटर का. बीघे में ज़्यादा होगा. पैसा भी ज़्यादा मिलेगा.

छोटा : खेत और खराब कर दिये हमारे. लगता है यूनिवर्सिटी का काम ज़्यादा पैदा करवाना है. शहरी बाबुओं के लिए. वो स्वाद तो जाने नहीं. देसी महकती है, वो बासती है. वो दाना तो चिड़िया भी नहीं खाती. उसे शहरी बबुआ खाता है. वो तो न्यूट्रीसन देखे हैं. बीज, दवाई कंपनी का फायदा. कर्जा ले दवाई खरीद. चढ़ा दे हमको सूली पर, भली करेंगे राम जी. 

छोटे और बड़के मन मार के पैसे के लिए हाइब्रिड उगाते थे. वे उससे नफा नुकसान भी समझते थे. कारपोरेट और सरकार और शहर और विकास की साठ-गांठ भी. पर उन्हें दवाई, पढ़ाई, कपड़े लत्ते के लिए जो पैसा चाहिए था, वह ऐसे ही आना था.

छोटा : लल्लन की सुना. बड़ी पढ़ाई कर आया बताया.

बड़का : पढ़ाई तो कर ली. काम ढूंढ़े है. खेत में नहीं करे. डांगर-पशु के हाथ नहीं लगावे. बाज़ार की लत लगा ली है.

कबीर पंखि उड़ाणीं गगन कौं, प्यंड रहा परदेस।

पांणीं पिया चंच बिन, भूलि गया यहु देस।।

छोटा : अच्छा, राम-राम

कबीर मन लागा उनमन सौं, गगन पहुंचा जाई।

देखा चंद बिहुंणां चंदिणां, अलख निरंजन राई।।

अवधूत समाधि से निकला. अलख निरंजन! इस समय अलख? सुना राजा, तेरा कारपोरेट बाज़ार और शिक्षा का हाल. दुनिया सब जानती, पहचानती है. सब साठ-गांठ समझती है. जो पढ़े-लिखे हैं वे भी, और जो आखर नहीं पहचानते वे भी, दोनों ही परेशान हैं, लाचार हैं. राजा मुस्कुराया, वो जानता था क्या कर रहा है, क्यों कर रहा है. अभी मौका मिलेगा तो बताऊंगा. गृह मंत्री को वॉट्सऍप किया और लिखा कि अवधूत के हाथ-पैर तुड़वा जेल में बंद करवा दें. ये तो माओवादियों से भी ज़्यादा खतरनाक है. पर अवधूत कहां हाथ आने वाला था. उसने लोबान चम्मल में डाला, और गायब हो गया. 

बेताल को मालूम था कि राजा ने वॉट्सऍप पर क्या लिखा है. पर कुछ कर नहीं सकता था. उसके एम.ओ.यू. में राजा के स़िर्फ बोलने पर पाबंदी थी. राजा चुप्पी तोड़ता तो उसके सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाते. बेताल बोला- हे राजन तू किस-किस से पीछा छुड़ायेगा? देश की समृद्ध शिक्षा परम्पराओं से भी? चाणक्य के गुरु ‘इल्मी’ जैसे विद्वानों से भी? सुन, ये एक कारपोरेट, एक वाइस चांसलर और चाणक्य के गुरु-इल्मी, के बीच संवाद-  

कारपोरेट : बाज़ार का काम मुनाफा कमाना है.

वाइस चांसलर : शिक्षा का काम अच्छी प्लेसमेंट से अच्छी नौकरी दिलवाना है. ऐसे छात्र तैयार करना जो नया निवेश करवा सकें.

इल्मी : शिक्षा का काम ज्ञान को समृद्ध करना और विस्तार देना है. मुनाफा बढ़ाना नहीं.

कारपोरेट ने मुंह बिचकाया.

कारपोरेट : हमारा काम चाहतों की पूर्ति करना है.

वाइस चांसलर : हमारा काम नयी चाहतें बनाना है.

इल्मी : हमारा काम ये समझ पैदा करना है कि कोई चाहत ज़रूरी है भी कि नहीं.

कारपोरेट : बाज़ार खरीदने-बेचने की जगह है.

इल्मी : शिक्षा लेने देने का काम नहीं. शिक्षा अपने इल्म से सीखी जाती है. उसका बोध होता है. वो वस्तु नहीं. 

वाइस चांसलर को गुस्सा आया. ये इल्मी क्या पढ़ा-लिखा है. मेरे 150 शोध इंटरनेशनल छपे हैं. 

कारपोरेट : हमारा काम नयी से नयी चीज़ बनाना है कि उसमें कोई खराबी न आये. इन्स्टंट यूज की.

वाइस चांसलर : हमें लोग तैयार करने हैं कि वे चीज़ें बेचें, ज़रूरत हो तब भी और न हो तब भी. नयी तकनीक बनायें.

इल्मी : शिक्षा कोई दूसरा नहीं बना सकता, वो रेडीमेड नहीं होती. वो परिश्रम से प्राप्त करनी होती है.

लो कर लो बात. तो हम क्या बिना परिश्रम के सीखे हैं? बाकी दोनों सोच रहे थे. 

कारपोरेट : आज़ादी का बाज़ार में अर्थ है श्रम को खरीदना या बेचने का मज़ा लेना.

वाइस चांसलर : हमारा काम है ये समझाना.

इल्मी : आज़ादी का शिक्षा में अर्थ है सवाल पूछने की और अपना सोचने की आज़ादी. 

बेताल बोला- हे राजन बता, तू तो वेदों का ज्ञाता है. क्या तेरे शिक्षा संस्थान सोचने की आज़ादी देंगे? अगर बाज़ार ने सोचने की आज़ादी छीन ली, विदेशी कारपोरेट मिलकर हमारे ज्ञान पर कब्ज़ा कर लें, हमें ऐसा छोड़ दें कि हम सोचने-समझने लायक न रहें, तो राष्ट्र का क्या होगा? अंग्रेज़ों वाला काम फिर हो रहा है. उन्होंने हमारे दर्शन को नकारा है. तर्क-वितर्क की सम्भावना कम हो रही है, जो भारतीय दर्शन का आधार हैं. हमारे अध्यात्म का क्या होगा? तू तो वेदों का ज्ञाता है. बता, तूने जान-बूझकर मेरे सवालों का जवाब न दिया तो तेरे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे. 

राजा बोला- हे बेताल सुन, इतनी बड़ी-बड़ी बातें करके तूने बाज़ार को पनपने न दिया. शिक्षा जड़ हो गयी. अब जैसे-जैसे पूंजी आ रही है, शिक्षा भी चल पड़ी है. मुझे अपना काम करने दे. मुझे गरीबी का उन्मूलन करना है. अच्छा है लोग अपना स्व भूल रहे हैं. उन्हें राष्ट्र निर्माण में लगना है. मैं चाहता हूं कि वो सोच भी न पायें कि क्या कारण हैं कि असमानताएं बढ़ रही हैं. अवधूत जैसे लोगों का इंतज़ाम हो रहा है. मेरा कामबाण उसे बींध देगा. लोग तो कभी सोच ही न पायें कि तकनीक और कारपोरेट की ‘हेजिमनी’ में जी रहे हैं. जब उनके पास जानने को, करने को नहीं होगा, कहीं जाने को नहीं होगा, तो वे हथियार डाल सरसंघ की शरण में आयेंगे. 

हां, तेरे से बात में एक बात सामने आयी. अथर्ववेद से मैंने सीखा मुझे तो काम के बने हुए बाण से भीतर तक छलनी करना है. वेदों और भारतीय दर्शन की नयी व्याख्या का काम अनुसांगिक ‘भारतीय शिक्षा नीति आयोग’ को सौंपना होगा. मातृभाषा में वेदों का नया भाष्य, नयी शिक्षा की ऐसी पुस्तकें छपवानी होंगी कि वे खूब बिकें और मुनाफा भी कमायें. इस नयी शिक्षा से नयी संस्कार और संस्कृति वाला मज़बूत राष्ट्र बनेगा, जिसकी नींव हमारा नया दर्शन होगा, जो हमारे और केवल हमारे विचारों से निर्मित होगा. सभी उच्च शिक्षा संस्थानों को इसके लिए हम तैयार कर रहे हैं. सब मिलकर एक महान राष्ट्र बनेगा. हम विश्वगुरु बनेंगे, तब वसुधैव कुटुंबकम होगा.

राजा का मौन भंग होते ही बेताल पेड़ पर जाकर लटक गया. 

तो हे पाठको, ये विद्या, अविद्या, आगे बढ़ने का मंत्र पैशाचिक तो नहीं? राजा के चांद की चांदनी तो ऐसी बिखर रही है कि सब उजला-उजला और रोमांस भरा लगता है. पर चांद का मुंह तो टेढ़ा है, नहीं? गुरुकुल के हर कोने में चांदनी पहुंच रही है. जो पोथी हम बांच रहे हैं, वो लिख रही है. घुग्घू की तरह हमको वह लिख रहे हैं, जो चांदनी हमसे लिखवा रही है. शरीर को शीतल करने वाली चांदनी मन, बुद्धि, आत्मा को बींध रही है, चुपचाप. हम इल्मबरदार हैं चांदनी के नवरत्न दरबारी, जिनकी निगरानी के लिए है चमकती आंखें, पैने दांत, तीखे पंजों वाली, काली बिल्ली. पर चांदनी से छिपा अभी मीठा मटर उगा लेता है कोई. अरण्य में कोई है मुक्ति का बोध कराता, धुंआ उड़ाता-

मैं पुकारकर कहता हूं/ ‘सुनो, सुननेवालो/ पशुओं के राज्य में जो बियाबान जंगल है/ उसमें खड़ा है घोर स्वार्थ का प्रभीमकाय/ बरगद एक विकराल./ उसके विद्रूप शत/ शाखा-व्यूहों निहित/ पत्तों के घनीभूत जाले हैं,/ तले में अंधेरा है, अंधेरा है घनघोर…/ वृक्ष के तने से चिपट/ बैठा है, खड़ा है कोई/ पिशाच एक ज़बर्दस्त मरी हुई आत्मा का,/ वह तो रखवाला है/ घुग्घू के, सियारों के, कुत्तों के स्वार्थों का./ और उस जंगल में, बरगद के महाभीम/ भयानक शरीर पर खिली हुई फैली है पूनो की चांदनी/ सफलता की, भद्रता की,/ श्रेय-प्रेय-सत्यं-शिवं-संस्कृति की/ खिलखिलाती चांदनी./ अगर कहीं सचमुच तुम/ पहुंच ही वहां गये/ तो घुग्घू बन जाओगे./ आदमी कभी भी फिर/  कहीं भी मिलेगा तुम्हें./ पशुओं के राज्य में/ जो पूनो की चांदनी है/ नहीं वह तुम्हारे लिए/ नहीं वह हमारे लिए. 

अथ कथा समाप्त.

मार्च 2016

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