शरणम् – नरेंद्र कोहली

धारावाहिक उपन्यास – 1

(गीता एक धर्म-ग्रंथ है और जीवन-ग्रंथ भी. जीवन के न जाने कितने रहस्यों की परतें खोलने वाला ग्रंथ बताया गया है इसे. पर गीता का कथ्य किसी उपन्यास का कथ्य भी बन सकता है, यह कल्पना ही चौंकाती है. वरिष्ठ-चर्चित रचनाकार नरेंद्र कोहली ने इस कल्पना को साकार कर दिखाया है. वे इसे ‘शुद्ध उपन्यास’ मानते हैं, पर गीता के दर्शन को समझने-समझाने का यह सराहनीय प्रयास है.)

शरणम् का नेपथ्य

कोई नयी पुस्तक प्रकाशित होती है तो प्रायः लेखक से पूछा ही जाता है कि उसने वह पुस्तक क्यों लिखी. वही विषय क्यों चुना? मैं भी मानता हूं कि बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता. किंतु सृजन के क्षेत्र में यह मामला इतना स्थूल नहीं होता. इसलिए मुझे तो सोचना पड़ता है कि पुस्तक मैंने लिखी या पुस्तक मुझ से लिखी गयी. विषय मैंने चुना अथवा विषय ने मुझे चुना? मैं रहस्यवादी होने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूं किंतु सृजन का क्षेत्र मुझे कुछ ऐसा ही लगता है.

गीता को मैंने पहली बार शायद अपने विद्यालय के दिनों में कुछ न समझते हुए भी पढ़ने का प्रयत्न किया था. कारण? मेरा स्वभाव है कि मैं जानना चाहता हूं कि कोई पुस्तक महत्त्वपूर्ण क्यों मानी जाती है. तो गीता को भी पढ़ने का प्रयत्न किया, समझ में आये या न आये. उसके पश्चात् अनेक विद्वानों की टीकाएं और भाष्य पढ़ने का प्रयत्न किया. किंतु ‘महासमर’ लिखते हुए मन में आया कि मूल गीता को एक बार संस्कृत में भी अवश्य पढ़ना चाहिए. तब डॉ. कृष्णावतार से भेंट हो गयी. उनसे गीता पढ़ी. महासमर लिखा गया.

किंतु इधर मेरे अपने परिवार में यह प्रस्ताव रखा गया कि हम अपने बच्चों के साथ बैठकर गीता पढ़ें. हम सब जानते थे कि बच्चों की समझ में यह विषय नहीं आयेगा और वे सोते भी रह सकते हैं. फिर भी एक दिन में पांच श्लोकों की गति से हमने गीता पढ़ी. पढ़ाने वाला था मैं, जिसे स्वयं न संस्कृत भाषा का ज्ञान है, न गीता के दर्शन और चिंतन का. फिर भी हम पढ़ते रहे. मैंने पहली बार अनुभव किया कि पढ़ने से कोई ग्रंथ उतना समझ में नहीं आता, जितना कि पढ़ाने से आता है. पढ़ाते हुए व्यक्ति समझ जाता है कि उसे क्या समझ में नहीं आ रहा है. फिर श्रोता प्रश्न भी करते हैं. मेरा छोटा पोता जो केवल तेरह वर्षों का है, कुछ अधिक गम्भीर था. वह सुनता भी था और मन में उठे बीहड़ प्रश्न भी पूछता था.

प्रश्न उसके हों अथवा मेरे अपने मन के, वे मेरे मन में गड़ते चले गये. मेरा अनुभव है कि मन में जो प्रश्न उठते हैं, मन निरंतर उनके उत्तर खोजता रहता है. चेतन ढंग से भी और अचेतन ढंग से भी. और वे उत्तर ही मुझसे उपन्यास लिखवा लेते हैं. इस बार भी वही हुआ. वे प्रश्न मेरे मन में उमड़ते-घुमड़ते रहे. अपना उत्तर खोजते रहे. किंतु सबसे बड़ी समस्या थी कि मुझे उपन्यास लिखना था. मैं उपन्यास ही लिख सकता हूं और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है. मैं जानता था कि यह कार्य सरल नहीं था. गीता में न कथा है, न अधिक पात्र. घटना के नाम पर बस विराट रूप के दर्शन हैं. घटनाएं नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है. संवाद हैं, वह भी नहीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है. उसे कथा कैसे बनाया जाए?

किंतु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है, जैसे मानवी के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है. टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा. पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही; हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गयी, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गये. गांधारी और उसकी बहुएं भी आ गयीं. द्वारका में बैठे वसुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गये. उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली. किंतु गीता के मूल रूप से छेड़-छाड़ नहीं की. मैं गीता का विद्वान् नहीं हूं, पाठक हूं. उपन्यासकार के रूप में जो मेरी समझ में आया, वह मैंने अपने पाठकों के सामने परोस दिया.

तो इसे धर्म अथवा दर्शन का ग्रंथ न मानें. यह गीता की टीका अथवा उसका भाष्य भी नहीं है. यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के पाठक के सम्मुख उसके धरातल पर ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है.

‘महाराज.’ धृतराष्ट्र अच्छी तरह पहचानता था कि यह गांधारी का स्वर था. यदि एकांत न हो, तो वह उसे इसी प्रकार सम्बोधित करती थी.

‘हुं.’ धृतराष्ट्र ने न सिर उठाया, न उसकी ओर देखने का अभिनय किया. वस्तुतः इस समय गांधारी का आना उसे तनिक भी नहीं सुहाया था. यदि कोई दासी यह संदेश लेकर आयी होती कि महारानी उससे मिलने के लिए आना चाहती हैं तो शायद उसने मना ही कर दिया होता. किंतु अब क्या हो सकता था, बुढ़िया तो स्वयं ही आकर सिर पर सवार हो गयी थी.

‘दुर्योधन अब तो कुरुक्षेत्र चला गया है… पर यहां था, तो ही भानुमती को कहां कुछ कहता था. बहू के आ जाने पर बेटा पराया हो जाता है. आप भी उसे कुछ नहीं कहते. वह जानती है कि उसे रोकने वाला कोई नहीं है. इसलिए सिंहनी बनी घूमती है. आज इसका फैसला हो ही जाना चाहिए. वह इस प्रकार मेरी अवज्ञा नहीं कर सकती. सास हूं उसकी, कोई दासी नहीं.’

धृतराष्ट्र के मन में आया कि पूछे कि गांधारी ने कब अपनी सास की अवज्ञा नहीं की? किंतु इस प्रकार का हस्तक्षेप उसके लिए ही कहीं कोई समस्या न बन जाए…

‘हां हो जाएगा इसका भी फैसला. उसके लिए राजसभा का विशेष अधिवेशन बुलाया जाएगा.’ धृतराष्ट्र ने बुरा-सा मुंह बना कर कहा, ‘कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध से भी बड़ा युद्ध हो रहा है न तुम्हारे यहां. उससे अधिक महत्त्वपूर्ण. उससे बड़े अधिकार का युद्ध. संसार का भविष्य भी इसी पर टिका है शायद. सास-बहू का युद्ध.’ वह रुका, ‘तुम दोनों अपना-अपना पक्ष चुनकर कुरुक्षेत्र जाकर वहीं अपना निर्णय क्यों नहीं कर लेतीं.’

गांधारी का कलेजा जल उठा. बुढ़ापे ने महाराज की बुद्धि ही भ्रष्ट कर दी है. उसके मन में जैसे गिद्धों का कोई बड़ा झुंड उतर आया था. मन हो रहा था कि धृतराष्ट्र की बोटी-बोटी नोच ले. युवावस्था में यही व्यक्ति उसका ऐसा लोभी प्रेमी था कि उसका संग छोड़ना ही नहीं चाहता था और अब वह अपनी ही पुत्रवधू के विरुद्ध उसका पक्ष लेने को भी तैयार नहीं है. इस परिवार में सब ही डरते हैं उस भानुमती से…

इससे पहले कि गांधारी की जिह्वा प्रातः नींद से जागे कौओं के झुंड के समान कांव-कांव कर उठती, द्वारपाल उपस्थित हो गया, ‘महाराज, दासियां समाचार लायी हैं कि संजय कुरुक्षेत्र से लौट आये हैं.’

धृतराष्ट्र ने चौंक कर अपना चेहरा उसकी ओर घुमाया, ‘इस प्रकार अकस्मात्?’

‘और क्या पहले हरकारा भेजता.’ गांधारी चुप नहीं रह सकी. उसे तो धृतराष्ट्र को डपटना ही था. भानुमती के बहाने न सही, संजय के बहाने ही सही, ‘सूत है आपका. कोई सम्राट नहीं है. उसे तो ऐसे अकस्मात् असूचित, अघोषित ही आना था.’

‘द्वारपाल, तुम जाओ.’ धृतराष्ट्र ने कहा. वह नहीं चाहता था कि द्वारपाल के सामने गांधारी उसे खरी-खोटी सुनाये और द्वारपाल बाहर जाकर अन्य सारे द्वारपालों को अपने महाराज की दीन स्थिति के विषय में सूचना दे.

सहसा उसने अपना चेहरा पीछे की ओर मोड़ा, ‘अरे वे दासियां तुमको सूचना देकर ही चली गयीं क्या? यहां नहीं आयीं? राजा को दी जाने वाली सूचना राजा को दी जानी चाहिए या द्वारपाल को?’

द्वारपाल की ओर से कोई उत्तर नहीं आया. वह सूचना देकर राजा को प्रणाम कर वापस जा चुका था.

‘चला गया क्या?’ धृतराष्ट्र ने जैसे अपने आप से कहा, ‘हवा के घोड़े पर सवार होकर आते हैं. मिनट भर रुकने में इनके प्राण निकलते हैं. अब सेवक भी स्वामियों के समान व्यवहार करने लगे हैं.’

‘सूचना देने आया था; सूचना देकर चला गया. आपका मित्र तो था नहीं कि चौसर बिछाकर बैठ जाता.’ गांधारी ने कुछ और विष उगला, ‘वैसे अब आपको क्या करना है दासियों का. आपके पहले ही एक सौ एक पुत्र हैं.’

‘मैं राजकीय शिष्टाचार की बात कर रहा था और तुम बच्चे पैदा करने तक जा पहुंचीं.’

‘राजकीय शिष्टाचार में दासियां कक्ष के बाहर से ही सूचनाएं देती हैं और वहीं से आदेश लेती हैं. वे राजाओं की गोद में नहीं बैठतीं.’

‘तुम्हारी भाषा बहुत अशिष्ट हो चुकी है. यह महारानियों की भाषा तो नहीं है. ऐसे में राजपरिवार के शिष्टाचार का निर्वाह कैसे होगा.’

धृतराष्ट्र के मन में स्पष्ट था कि यह गांधारी नहीं, उसकी वृद्धावस्था चिड़चिड़ा रही थी. आजकल उसके बोलने की यही शैली थी. तनिक-सा विरोध भी सहन नहीं कर सकती थी. कुछ कहो तो उसका स्वर तत्काल ऊंचा उठ जाता था. जब लड़ने लगती थी तो यह भी भूल जाती थी कि आस-पास कितनी दासियां हैं और कितने सेवक-चाकर हैं. हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र को भी ऐसा धो डालती थी जैसे किसी अति साधारण कर्मचारी को फटकार रही हो. और धृतराष्ट्र का साहस नहीं होता था कि वह उसे कुछ कह सके. जरा-सा टोक दो, तो मर्यादाहीन प्रलाप तो होता ही था, वह आत्महत्या की धमकी तक दे डालती थी. शायद अधैर्य का ही दूसरा नाम वृद्धावस्था है. और अब दासियां… उनसे भी उसे ईर्ष्या होने लगी है. धृतराष्ट्र के पास बैठी अथवा उसके आस-पास मंडराती दासियां उसे अच्छी नहीं लगतीं. उसका वश चले तो वह उन सबको धृतराष्ट्र से कम से कम कोस भर दूर रखे.

उसने गांधारी की दिशा में मुख घुमा कर कहा, ‘ठीक कह रही हो तुम. वह सूत है तो सूत के समान ही व्यवहार करेगा न.’

‘तो आप भानुमती की ताड़ना करेंगे या मैं न्याय मांगने धर्मराज अथवा कृष्ण के पास जाऊं?’ गांधारी ने उसे अपने उसी बिगड़े कंठ से धमकाया. वह पुनः अपने मूल विषय पर लौट आयी थी.

मन हुआ कि चुप रह जाये. इस समय विवाद को बढ़ाने से क्या लाभ; किंतु कहे बिना रहा भी नहीं गया, ‘मैं तो केवल यह सोच रहा था कि आज युद्ध को आरम्भ हुए दस दिन हो चुके हैं. दस दिनों से समाचारों की टोह में संजय कुरुक्षेत्र में डेरा डाले बैठा था. तो आज ऐसा क्या हो गया कि सेनाओं की कोई हलचल हुई नहीं; राजा, मंत्री और सेनापति वहीं बैठे हैं; और यह इस प्रकार औचक ही हस्तिनापुर लौट आया?’

‘यह तो वही बताएगा. पूछ लेना उसी से.’ गांधारी ने कहा, ‘किंतु मेरे प्रश्न का क्या उत्तर है?’

धृतराष्ट्र देख तो नहीं सकता था किंतु अपनी कल्पना में वह देख रहा था कि इस समय गांधारी के चेहरे पर अत्यंत कटु भाव जमे बैठे होंगे, जैसे सैकड़ों बिच्छू डंक फैलाये घूम रहे हों. धृतराष्ट्र ने कभी बिच्छू देखा नहीं था; किंतु उसके मन में उसकी एक भयंकर कल्पना थी. वही कल्पना उसने गांधारी के चेहरे पर चिपका दी थी. जाने क्यों गांधारी को संजय का धृतराष्ट्र के पास आकर बैठना तनिक भी अच्छा नहीं लगता था. ये पत्नियां भी पति को अपनी सम्पति मान लेती हैं. धृतराष्ट्र का जो कुछ था, उस सब पर उसका अधिकार था. इतना अधिकार कि उसके लिए उसे धृतराष्ट्र से कुछ पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी. धृतराष्ट्र के आस-पास वही रहे, वही बैठे, जो गांधारी को अच्छा लगता हो. सत्य तो यह था कि उसे किसी का भी धृतराष्ट्र के पास बैठना, उसके पास आना, उससे मिलना-जुलना अच्छा नहीं लगता था. कोई दो क्षण बैठ जाए तो तत्काल गांधारी का उपालम्भ चील के समान झपट पड़ता था, ‘हर समय दरबार लगाये बैठना आवश्यक है क्या? दरबारों से सम्राट नहीं होते, सम्राटों से दरबार होते हैं.’ क्या चाहती थी वह? बस वह बैठी अपनी बहुओं की निंदा करती रहे और उसकी दासियां उसे घेरे रहें. उसके आदेश उसकी बहुओं तक पहुंचाती रहें. बहुएं आदेश न मानें तो राजा, गांधारी के सम्मान की रक्षा के लिए बहुओं की डांट-फटकार करे, जैसे वे कहीं की अपराधिन हों. गांधारी को इस बात का अनुमान ही नहीं है कि बहुओं को तनिक-सा भी आभास हो जाए कि सास को सम्राट का सुरक्षा-कवच प्राप्त नहीं है, तो वे गिद्धों और सियारों के समान उसे जीवित ही नोच खायें… शायद वह आजकल की पुत्र-वधुओं के स्वभाव से परिचित नहीं थी.

‘दुर्योधन को भी देखो, न कोई संदेश, न संदेशवाहक; दस दिनों में एक भी संदेशवाहक नहीं भेजा.’ धृतराष्ट्र ने विषय बदला, ‘जैसे हमें अपने पुत्रों की कोई चिंता ही न हो.’

‘आप क्या सोचते हैं,’ गांधारी उखड़े हुए स्वर में बोली, ‘वह युद्ध-क्षेत्र में आपको ही स्मरण करता रहता होगा. महाराज को समाचार पहुंचाना ही उसका एकमात्र काम होगा. और कोई काम नहीं है, उसे. युद्धक्षेत्र में योद्धाओं को संदेश भेजने के लिए ही संदेशवाहक कम पड़ जाते होंगे. अब आपके पास भेजता रहे वह संदेशवाहक. कहां से कहां तक फैला हुआ यह युद्धक्षेत्र. कुछ पता भी है.’

‘ठीक है. ठीक है.’ इस बार धृतराष्ट्र कुछ चिड़चिड़ा गया. मन में तो आया कि कहे, कि वह तो नहीं जानता किंतु गांधारी तो युद्धक्षेत्र का क्षेत्रफल जानती है न. नाप कर जो आयी है. अपनी आंखों की पट्टी खोलकर कुरुक्षेत्र का चक्कर लगा कर आयी है क्या? या प्रतिदिन प्रातः वह वहां टहलने जाती है. बड़ी विदुषी बनी फिरती है. गंधार के ये सारे लोग एक जैसे ही होते हैं. पाखंडी… उसने अपनी चिड़चिड़ाहट को पीकर कहा, ‘अब प्रश्न यह है कि संजय के आने की प्रतीक्षा करूं या किसी को भेजकर उसे तत्काल आने का आदेश दूं?’

‘धैर्य रख सकें तो प्रतीक्षा करें. न रख सकें तो बुला भेजें. इसमें द्वंद्व की क्या बात है?’ गांधारी बोली, ‘किंतु जिसने अपना सारा जीवन द्वंद्व में ही बिताया हो और जो कभी किसी स्पष्ट निर्णय पर पहुंच ही न पाया हो, वह और कर ही क्या सकता है. आप तो शायद यह भी नहीं जानते कि परिवार की स्थिति देखकर, परिवार के मुखिया को इन अनसुलझे द्वंद्वों में उलझा और कर्म-पंगु देखकर ही तो मेरी बहुएं मेरी छाती पर मूंग दल रही हैं.’

‘अच्छा, उनसे कह दूंगा कि सास की छाती छोड़कर कहीं और जाकर मूंग दल लें.’ वह बोला, ‘किंतु वे मूंग दल ही क्यों रही हैं. पकौड़ियां तलेंगी क्या?’

‘मेरी पीड़ा पर मसखरी सूझ रही है आपको?’ गांधारी कुछ उग्र हो उठी, ‘मैं अपनी पर आयी तो…’ वह रुकी, ‘इससे तो अच्छा है कि संजय को बुला लीजिए और दोनों मिलकर शब्दों की जलेबियां तलिए.’

गांधारी जानती थी कि धैर्य धृतराष्ट्र के स्वभाव में नहीं है. अतः वह संजय को आने का आदेश भेजेगा ही… और धृतराष्ट्र का मन, गांधारी के वाक्य-खंड ‘मैं अपनी पर आयी तो’ पर अटक गया था. वह अपनी पर आयी तो क्या कर लेगी? वह धमका रही थी, अपने पति को, परिवार के मुखिया को, देश के सम्राट को.

वह संजय को बुलाने का निश्चय कर ही चुका था; किंतु उसे आदेश देने अथवा किसी को भेजने की आवश्यकता नहीं पड़ी. संजय स्वयं ही उसे प्रणाम करने आ पहुंचा था.

‘प्रणाम राजन्! प्रणाम महारानी!’

धृतराष्ट्र ने अपना चेहरा संजय की ओर मोड़ा. अपनी प्रकाशहीन पुतलियों को घुमाया और बोला, ‘अकस्मात् ही हस्तिनापुर कैसे आ गये संजय? क्या युद्ध समाप्त हो गया? मेरे पुत्रों को विजय मिल गयी?’

‘तो मैं चलूं.’ गांधारी ने अपने हाथ से दासी को सहारा देने के लिए निकट आने का संकेत किया, ‘आप लोग धर्म-चर्चा करें.’

धृतराष्ट्र ने कुछ नहीं कहा. वह गांधारी के जाने की प्रतीक्षा करता रहा. जब उसे पूरा विश्वास हो गया कि गांधारी उस कक्ष से जा चुकी है, तो उसने संजय की ओर मुख उठाया.

‘युद्ध तो समाप्त नहीं हुआ है राजन्!’ संजय के स्वर की व्यथा धृतराष्ट्र के कानों में धमक रही थी, ‘किंतु…’

‘किंतु क्या?’ संजय की व्यथा धृतराष्ट्र को अटका नहीं सकी. संजय का क्या है, वह तो पांडवों के लिए भी दुखी होकर रोता है.

‘युद्ध के परिणाम का कुछ-कुछ आभास होने लगा है.’

‘क्या हुआ? अर्जुन मारा गया क्या या भीम नहीं रहा?’ धृतराष्ट्र का आह्लाद उसके स्वर में भी था और उसके चेहरे पर भी.

‘नहीं. अर्जुन अथवा भीम नहीं.’ संजय का कंठ अवरुद्ध हो रहा था.

‘तो क्या कृष्ण नहीं रहा? तुम उसके बहुत भक्त थे न. धर्म का प्रतिरूप मानते थे उसे. उसे विजय का ध्वज समझते थे.’

‘नहीं महाराज, नहीं.’

‘तो?’

‘शिखंडी ने पितामह को धराशायी कर दिया है.’

‘पितामह का देहांत हो गया?’ धृतराष्ट्र के स्वर में पहली बार किंचित चिंता झलकी.

‘देहांत तो अभी नहीं हुआ. श्वास चल रहे हैं.’

‘आहत हैं? क्षत-विक्षत हैं? वैद्यों ने हाथ खड़े कर दिये हैं?’

‘शर-शैया पर पड़े हैं. प्राण अभी निकले नहीं हैं; किंतु पितामह अब उठ नहीं सकेंगे.’

‘वे उठेंगे नहीं, तो पांडवों से युद्ध कौन करेगा?’ धृतराष्ट्र ने सामने पड़ी चौकी पर अपनी मुट्ठी ठोक दी.

संजय उस एक वाक्य में बहुत कुछ सुन रहा था. स्पष्ट था कि धृतराष्ट्र पितामह को अपना वेतनभोगी सैनिक मानता था और उसने उन्हें पांडवों से युद्ध करने का दायित्व सौंपा था. वे धराशायी हो गये तो धृतराष्ट्र के अनुसार वे अपना कर्तव्य पालन करने से चूक गये थे. वे धराशायी हो कैसे सकते थे. उन्हें तो पांडव सेना से लड़कर उसे पराजित करना था.

धृतराष्ट्र ने स्वयं को तत्काल ही संभाल लिया, ‘पर शिखंडी ने उन्हें इतना आहत कैसे कर दिया? शिखंडी तो कोई ऐसा महान योद्धा भी नहीं है. पितामह के सामने वह चीज़ ही क्या है? कैसे कर सका वह यह दुस्साहस? हमारे योद्धा सो रहे थे क्या?’

‘नहीं. आपके योद्धा सो नहीं रहे थे.’ संजय ने कहा, ‘किंतु शिखंडी की रक्षा अर्जुन कर रहा था. शिखंडी को अर्जुन के बाणों का रक्षा-कवच प्राप्त था.’

‘अर्जुन.’ धृतराष्ट्र अपने स्थान से उठ खड़ा हो गया. वह अपनी व्याकुलता को संभाल नहीं पा रहा था. यह तो अच्छा ही हुआ कि गांधारी वहां से चली गयी थी. नहीं तो उसे अपनी सहज प्रतिक्रियाओं को भी बाधित करना पड़ता.

वह आकर अपने स्थान पर पुनः बैठा तो कुछ संयत लग रहा था, ‘किंतु यह हुआ कैसे? इन दस दिनों में पितामह और आचार्य मिलकर भी इस एक अर्जुन का वध नहीं कर सके?’

‘पितामह ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वे पांडवों का वध नहीं करेंगे.’

‘यही तो मूर्खता है.’ धृतराष्ट्र की उद्विग्नता पुनः ज्वार पर थी, ‘युद्ध भी करेंगे और शत्रु से प्रेम भी करेंगे. उसको मारेंगे नहीं. यह कौन-सी नीति है? बड़े नीतिवान बने फिरते हैं.’

‘राजन्! पहली बात तो यह है कि वे पांडवों को अपना शत्रु नहीं मानते और दूसरी बात है कि इसी मूर्खता के कारण ही पितामह दस दिनों तक जीवित रहे, युद्ध करते रहे और पांचालों का निर्बाध वध करते रहे. नहीं तो…’

‘नहीं तो?’

‘यदि वे पांडवों का वध करने का प्रयत्न करते तो बहुत सम्भव था कि अर्जुन पहले ही दिन उनको धराशायी कर देता.’

‘तुम कहना चाहते हो कि अर्जुन उनका वध कर सकता था; किंतु उसने नहीं किया?’

‘न केवल अर्जुन ने उनका वध नहीं किया, वरन् कृष्ण और युधिष्ठिर के निरंतर आग्रह करते रहने पर भी शिखंडी को अपने बाणों का सुरक्षा-कवच प्रदान नहीं किया, ताकि वह पितामह पर घातक प्रहार कर पाता.’ संजय ने कहा, ‘शिखंडी बार-बार पितामह की ओर बढ़ता था और हर बार अपने पक्ष से सुरक्षा और समर्थन की कमी के कारण, या कहिए अर्जुन के असहयोग के कारण उसे लौट जाना पड़ता था. और अंततः…’

धृतराष्ट्र मौन अवश्य बैठा था; किंतु उसका कठोर चेहरा तथा ज्योतिहीन आंखें संवादों के भंडार बने हुए थे.

अंततः उसने अपनी चुप्पी तोड़ी, ‘मुझे आरम्भ से बताओ संजय! धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित होकर मेरे और
पांडु के पुत्रों ने क्या किया?’ और सहसा उसने जोड़ा, ‘उससे पहले यह बताओ कि मेरे सारे पुत्र जीवित तो हैं? दुर्योधन सकुशल है?’

‘हां, अभी तक तो वे सब सकुशल हैं.’ संजय ने कहा, ‘मेरे वहां से चलने तक वे सब ही जीवित थे.’

‘तुम्हारा तात्पर्य है कि तुम्हारे कुरुक्षेत्र से यहां आने तक में…’

‘युद्ध में तो कुछ भी सम्भव है महाराज. वहां एक सिरे से दूसरे सिरे तक हवा में बाण उड़ते ही रहते हैं; और किसी के प्राण लेने के लिए एक बाण ही पर्याप्त होता है.’ संजय ने कहा, ‘यदि शिखंडी पितामह के प्राण ले सकता है, तो कोई भी कुछ भी कर सकता है.’

‘मुझे डरा रहे हो?’ धृतराष्ट्र के चेहरे पर सैकड़ों झंझावात एक साथ खेल रहे थे. वह संजय को धमका भी रहा था और उससे आश्वस्ति भी चाह रहा था.

‘नहीं महाराज. मैंने तो युद्ध सम्बंधी एक छोटा-सा सत्य कहा है.’ संजय ने सधे हुए स्वर में कहा.

‘तो फिर आरम्भ से बताओ.’

धृतराष्ट्र की उद्विग्नता देख संजय भी कुछ विचलित हो उठा. कभी-कभी धृतराष्ट्र पर दया भी आने लगती थी. इस वृद्ध के एक सौ पुत्र हैं; किंतु वे सब युद्ध में मृत्यु से जूझ रहे हैं. जाने कोई एक भी घर लौटेगा या नहीं… पर धृतराष्ट्र पर दया करने का अर्थ था, असंख्य निर्दोष लोगों के प्रति क्रूर होना… अधर्म से प्रेम करना…

‘कुरुक्षेत्र तो वह है; किंतु धर्मक्षेत्र क्यों कह रहे हैं उसे? वहां न यज्ञ है, न दान है, न तपस्या है.’ संजय ने अपनी ओर से प्रश्न कर दिया, ‘कोई यज्ञ करने के लिए तो वहां सेनाएं एकत्रित हुई नहीं हैं; न कोई यज्ञशाला बनवा रहे हैं वे लोग. एक-दूसरे का रक्त बहाने गये हैं; मिट्टी को रक्त से लाल करने.’

‘रक्त बहाने.’ धृतराष्ट्र अधरों ही अधरों में बुदबुदाया. फिर जैसे कांप कर बोला, ‘सत्य कह रहे हो. पर मेरा मन कहता है कि यदि यह कृष्ण चाहता तो इस युद्ध को रोक सकता था. चाहे तो अब भी रोक सकता है. पांडव पूर्णतः उसके कहने में हैं; किंतु नहीं रोका उसने. मुझे तो लगता है कि एक वही चाहता है कि यह युद्ध हो. उसकी हार्दिक इच्छा है कि क्षत्रिय लोग कटें, मरें. गिद्धों को भोजन मिले; सियार वीर योद्धाओं के शवों को घसीटें, उनकी दुर्दशा करें; और सारे क्षत्रिय समाज के परिवारों में विधवा स्त्रियां और अनाथ बच्चे ही रह जाएं- रोने-चिल्लाने के लिए, हाहाकार करने के लिए और कष्ट पाने के लिए.’

‘और दुर्योधन क्या चाहता है? आप क्या चाहते हैं?’

‘हम तो एक ही बात चाहते हैं कि पांडव युद्ध न करें.’

‘पांडव युद्ध न करें चाहे दुर्योधन उनका सर्वस्व छीन ले. उनके साथ घृणित दुर्व्यवहार करे, उनकी पत्नी का अपमान करे.’

‘वह तो राजनीति का अंग है.’ धृतराष्ट्र बोला, ‘किंतु यह कृष्ण.’ धृतराष्ट्र की इच्छा हुई कि अपना सिर धुन ले, ‘न युद्धक्षेत्र से हटता है, न शस्त्र धारण करता है. वह युद्ध का अंग माना जायेगा या नहीं.’

‘युद्ध तो महाकाल का अस्त्र है.’ संजय ने कहा, ‘कृष्ण के हाथ में कोई शस्त्र हो या न हो.’

धृतराष्ट्र ने कुछ कहने के लिए मुख खोला किंतु कुछ कहा नहीं. सोचता ही रह गया.

‘दुर्योधन शांति की बात नहीं करता.’ संजय ने पुनः कहा, ‘उसे तो अपनी विजय का इतना विश्वास है कि वह शांति का श भी सुनना नहीं चाहता. वह मानता है कि यदि वह शक्तिशाली है, तो वह न्याय की चिंता नहीं करेगा. आपके मन में एक बार भी नहीं आया कि यह युद्ध दुर्योधन के कारण हो रहा है. दुर्योधन के अन्याय के कारण हो रहा है. उसके अधर्म के कारण हो रहा है. आप युद्ध का दोष कृष्ण पर क्यों मढ़ रहे हैं?’

‘क्योंकि कृष्ण शांतिप्रिय नहीं है.’

‘रक्त-पिपासु हैं वे? हिंस्र हैं? बर्बर हैं? करुणा और प्रेम नहीं है उनके मन में?’ संजय कुछ-कुछ असंयत हो चला था.

‘नहीं. वह सब नहीं है. वह धर्मप्रिय है.’ धृतराष्ट्र का स्वर अवसाद में डूब गया, ‘कृष्ण धर्म की स्थापना का कोई भी मूल्य दे सकता है. निर्मम है वह- हृदयहीन. धर्मप्रिय लोग प्रायः स्वजन-निष्ठुर होते हैं. यदि युद्ध और शांति का निर्णय युधिष्ठिर पर छोड़ दिया जाता…’

‘तो क्या होता?’

‘युद्ध की स्थिति ही नहीं आती… मैं दुर्योधन से कह किसी न किसी प्रकार उसे पांच गांव दिलवा देता. किंतु यह कृष्ण… उसे धर्म चाहिए, प्रत्येक स्थिति में, प्रत्येक मूल्य पर. रक्त बहा कर धर्म. शवों के पर्वत पर खड़ा धर्म का प्रासाद. धर्म… पता नहीं, उसका अहिंसा में विश्वास क्यों नहीं है. ऋषियों की सेवा करता है तो फिर ‘अहिंसा परमोधर्मः’ में क्यों उसका विश्वास नहीं है?’

‘क्योंकि वे हिंसा और अहिंसा का तात्त्विक भेद जानते हैं.’ और सहसा संजय ने बात को दूसरी ओर मोड़ दिया, ‘आप कहते हैं कि कृष्ण चाहते हैं कि यह युद्ध हो.’ उसका स्वर तीखा होता जा रहा था, ‘और दुर्योधन के विषय में क्यों नहीं सोचते? वह चाहता है कि युद्ध न हो? पांडवों और कृष्ण की ओर से तो फिर भी शांति प्रस्ताव आया; किंतु दुर्योधन… दुर्योधन ने एक बार भी शांति की बात की? दूत के रूप में भेजा भी तो उस उलूक को, जो अपने अपशब्दों से पांडवों को और भी भड़का आया. युद्ध चाहता है दुर्योधन, क्योंकि वह समझता है कि अधर्म का पक्ष भी विजयी हो सकता है.’

‘आज तक तो वह विजयी होता ही आया है.’ धृतराष्ट्र तड़प कर बोला, ‘अब ऐसा क्या हो गया है कि वह विजयी नहीं हो सकता?’

‘अब तक वह विजयी होता रहा, क्योंकि धर्म ने अधर्म का प्रतिरोध नहीं किया. पुण्य ने पाप से युद्ध नहीं किया.’ संजय की वाणी में प्रखरता थी, ‘अधर्म तभी तक विजयी होता है, जब तक धर्म उसके विरुद्ध शस्त्र नहीं उठाता.’ संजय रुके. उन्हें लगा कि उन्होंने शायद धृतराष्ट्र को बहुत डरा दिया था.

‘तो भी क्या हुआ.’ संजय ने उसे सांत्वना देने का प्रयत्न किया, ‘आप क्यों चिंतित हैं. सेना तो दुर्योधन के पास ही अधिक है. एक से एक बढ़कर योद्धा भी हैं. पितामह अब शर-शैया पर हैं तो क्या हुआ. उन्होंने आपकी ओर से युद्ध कर दस दिनों तक शत्रुओं के शवों से युद्ध-क्षेत्र को पाट दिया है. द्रोणाचार्य आपके पक्ष से लड़ ही रहे हैं. अश्वत्थामा है, कृपाचार्य हैं, कृतवर्मा है. और भी अनेक हैं. इन सबको युधिष्ठिर पराजित कर पायेंगे क्या? कृष्ण का धर्म इन सबका क्या बिगाड़ लेगा?’

संजय को लगा कि यदि धृतराष्ट्र की आंखें देख सकतीं, तो संजय की मुस्कान किसी भी प्रकार छुप नहीं पाती.

धृतराष्ट्र की समझ में नहीं आया कि संजय उसको सांत्वना दे रहा है या उसका उपहास कर रहा है.

‘बात युधिष्ठिर की नहीं, कृष्ण की है. उस निर्मोही ने पितामह का भी सम्मान नहीं किया, चिंता भी नहीं की. बींध कर रख दिया शरों से. पांडवों के राजसूय यज्ञ में पितामह ने उसकी अग्रपूजा करवायी थी. उसी झंझट में बेचारा शिशुपाल कट मरा था. मेरा भय सत्य ही सिद्ध हुआ. कृष्ण ने इस युद्ध में पितामह की अग्रबलि दे दी है. यह अग्रपूजा का प्रतिदान है क्या?…’

‘क्षत्रिय तो बाण से ही प्रणाम करते हैं और बाण से ही पूजा भी करते हैं…’ संजय बोला.

‘कृष्ण को तो कोई संकोच नहीं हुआ. तुम्हें भी उसका पक्ष लेते हुए लज्जा नहीं आ रही. यह पूजा की है, उन्होंने अपने पितामह की?’ धृतराष्ट्र की अंधी आंखों से क्रोध की चिंगारियां बरस रही थीं, ‘ये धर्म के पक्षधर और सिद्धांतों के उन्नायक ही मानवता के लिए सबसे बड़े संकट बनते जा रहे हैं. इनका सिद्धांत जीवित रहना चाहिए, चाहे सारी मानवता का नाश हो जाए.’

संजय ने कुछ नहीं कहा; किंतु उसका मन कह रहा था, ‘पितामह क्षत्रिय हैं, उनके पौत्र भी क्षत्रिय हैं. जैसे बाणों से दादा स्नेह बरसा रहे थे, वैसे ही बाणों से पौत्रों ने उनकी पूजा कर दी.’

‘पितामह के जीवित रहते हमें कोई भय नहीं था; किंतु पहली सूचना उन्हीं की वीरगति की…’ अंततः धृतराष्ट्र ने ही बात आरम्भ की, ‘उन्हें उनका धर्म भी नहीं बचा पाया.’

‘यदि बात धर्म की ही है तो पितामह को क्या भय. वे आजीवन धर्म पर टिके रहे हैं. धर्म का आचरण करते रहे हैं. वे भी धर्म का मर्म जानते हैं. वे धर्म को समझकर ही तो दुर्योधन के प्रधान सेनापति बनकर युद्धक्षेत्र में खड़े थे.’ संजय ने स्वयं को पूरी तरह समेट कर कहा, ‘धर्म दो-चार तो हो नहीं सकते. पितामह और श्रीकृष्ण के धर्म भिन्न कैसे हो
सकते हैं?’

‘बहुत सीमित था पितामह का धर्म. वे इतना ही जानते थे कि धर्म की गति अत्यंत सूक्ष्म है.’ धृतराष्ट्र जैसे अपने-आप से ही बोला, ‘भ्रम की साक्षात् मूर्ति हैं पितामह! और कृष्ण भ्रमों को जड़ से उखाड़ फेंकता है.’

‘कैसे?’

‘पितामह का धर्म अपने कुल की रक्षा तक है. वे कौरवों को मरने नहीं देना चाहते थे. वंश की रक्षा ही धर्म है उनका. आत्मरक्षा धर्म है पितामह का किंतु कृष्ण का धर्म…’

‘श्रीकृष्ण का धर्म भिन्न है उससे?’

‘कृष्ण का धर्म भी आत्मरक्षा है; किंतु वहां ‘आत्म’ बहुत व्यापक है. वह ऋत् की रक्षा करेगा, किसी कुल की नहीं. वह पांडवों की भी बलि दे देगा; किंतु धर्म को पराजित होने नहीं देगा.’

‘पर ऐसा क्यों है?’ संजय चकित था, ‘श्रीकृष्ण तो पांडवों को उनका अधिकार दिलाने के लिए युद्ध कर रहे हैं.’

‘तुम छोड़ो वह सब.’ धृतराष्ट्र का अधैर्य उसके चेहरे पर ही नहीं, उसकी वाणी में भी प्रकट हो गया, ‘तुमको तो महर्षि व्यास ने दिव्य दृष्टि दी थी, फिर तुम कुरुक्षेत्र क्या करने चल दिये? दस दिन धक्के खाते रहे वहां. कोई सूचना नहीं भेजी, कोई समाचार नहीं. अब आये भी तो ऐसा अशुभ समाचार लेकर.’

‘आपके पास चर्मचक्षु नहीं हैं; और महर्षि आपको दिव्य दृष्टि दे रहे थे, तो आपने मना क्यों कर दिया?’ संजय ने धृतराष्ट्र के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया.

‘तुम चाहते हो कि मैं अपनी आंखों से अपने पुत्रों को कटते-मरते देखूं. कोई और चर्म चक्षुओं से युक्त पिता भी होता तो ऐसे समय में अपनी इच्छा से अंधा हो जाना पसंद करता. सारा जीवन अंधकार में बिताया तो अब क्या करना था मुझे दिव्य दृष्टि लेकर.’ धृतराष्ट्र किसी बिगड़ैल पशु के समान भड़क उठा था, ‘इतने ही कृपालु थे ऋषि, तो मेरे जन्म के समय ही दे देते मुझे चर्म-चक्षु. दे दिये होते तो मुझे हस्तिनापुर के राजसिंहासन से च्युत तो न किया जाता. तब न पांडु का कोई अधिकार था राज्य पर और न पांडवों का. उस समय, मेरे जन्म के समय तो चुपचाप लौट गये. जा बैठे अपने आश्रम में. और अब दिव्य दृष्टि देने चले हैं. पर तुम्हारे पास तो थी दिव्य दृष्टि… तुम क्या करने गये थे, कुरुक्षेत्र.’

‘यहां बैठा मैं केवल देख सकता हूं; या फिर सुन भी सकता हूं. किसी चित्रपट के चित्रों के समान.’ संजय, धृतराष्ट्र के प्रश्न पर लौट आया, ‘न उन्हें छू सकता हूं, न उनसे चर्चा कर सकता हूं; क्योंकि न वे मुझे सुन सकते हैं, न मैं उनको सुन सकता हूं. मैं गया था कुरुक्षेत्र. उन सबका मन टटोलने.’

‘क्या पाया, बोलो.’

‘वहां विशेष क्या था देखने को.’ संजय ने कहा, ‘दोनों ओर की सेनाएं सज गयी थीं. व्यूह बन गये थे. युद्ध आरम्भ करने की ही देर थी कि युधिष्ठिर का भय अपने भाइयों के सम्मुख मुखर हो उठा. वे बोले, ‘दुर्योधन की इस विशाल सेना से हम कैसे लड़ेंगे? कैसे जीतेंगे?’ अर्जुन ने उन्हें आश्वस्त किया, ‘विजय तो धर्म की ही होती है; और धर्म वहां है, जहां श्रीकृष्ण हैं. हमने आजीवन श्रीकृष्ण में धर्म देखा है; इसलिए उन्हें कभी छोड़ा नहीं है. श्रीकृष्ण के अपने सारे परिजन उन्हें छोड़ गये हैं; किंतु न कभी हमने उन्हें छोड़ा, न उन्होंने हमें छोड़ा.’

‘छोड़ो कृष्ण और अर्जुन को.’ धृतराष्ट्र पूर्णतः झल्लाया हुआ था, ‘मुझे बताओ, दुर्योधन ने क्या किया.’

(क्रमशः)

(यह उपन्यास वाणी प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है.)

फरवरी 2016

 

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