शरणम् – नरेंद्र कोहली (धारावाहिक उपन्यास – 4)

धृतराष्ट्र को कुछ व्याकुल देख, संजय ने पूछा- ‘कुछ चाहिए महाराज?’

‘थोड़ा जल.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘और संजय, चलो, हम गंगा-तट वाली वाटिका में बैठें? उस दिशा में वातास का बड़ा सुख है.’

धृतराष्ट्र आशंकित था कि यदि कहीं गांधारी फिर इस ओर आ निकली और उसने उनकी चर्चा सुन ली तो वह उससे इस कारण से भी रुष्ट होगी कि वह कृष्ण और अर्जुन की कथा लिए बैठा है. अपने पुत्रों की उसे कोई चिंता ही नहीं है. युद्ध को दस दिन हो गये हैं; और उसे अब तक अपने पुत्रों की वीरता का कोई प्रमाण नहीं मिला है. उनकी कोई चर्चा भी नहीं हुई है. धृतराष्ट्र ने हस्तिनापुर से हरकारे भी नहीं भेजे हैं कि वे ही कोई समाचार ले आयें…

संजय चुपचाप देखते रहे. सेवकों ने गंगा-तट की वाटिका में उन दोनों के बैठने के लिए सारा प्रबंध कर दिया. वह गंगा-तट तो था; किंतु प्रतिबंधित क्षेत्र था. राजपरिवार से असम्बद्ध लोग वहां नहीं आ सकते थे. अंतःपुर की स्त्रियों का तो वह अत्यंत प्रिय स्थल था. संजय को हो तो हो, सम्राट को तो उन स्त्रियों का कोई भय नहीं था. सम्राट का ध्यान उस ओर नहीं था तो उन्हें स्मरण भी नहीं कराया जा सकता था.

संजय का अनुमान ठीक निकला. कुछ ही क्षणों में दुःशासन की पत्नी ज्योत्स्ना ही उधर आ निकली.

‘महाराज, अपनी पुत्रवधू ज्योत्स्ना का प्रणाम स्वीकार करें.’

‘सौभाग्यवती भव.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘किसी विशेष कार्य से आयी हो?’

‘कार्य तो कोई विशेष नहीं है; किंतु प्रातः से ही आपको खोज रही हूं.’ वह बोली- ‘कुछ निवेदन करना चाहती हूं.’

‘कहो पुत्री. ऐसी कौन-सी बात है जो तुम महारानी गांधारी से न कहकर मुझे कहने आयी हो.’

‘महारानी सुनतीं तो मैं उनसे ही कहती; किंतु आप भी जानते हैं कि वे गंधार की राजकुमारी हैं. वहां की मिट्टी से उनका शरीर बना है और वैसा ही कठोर उनका मन और स्वभाव है. जैसे शरीर जड़ तत्त्वों से बना है, वैसे ही मन भी तो जड़ ही है. मुझे तो यह समझ में नहीं आता कि वे अपने पुत्रों के साथ युद्ध में क्यों नहीं चली गयीं. वह उनकी प्रकृति के लिए अनुकूल स्थल है.’

‘यह तो तुम उनसे ही पूछना. मैं तो इतना ही जानता हूं कि गांधारी मधुर भी है और कठोर भी. मेरे प्रति उसका व्यवहार स्नेहपूर्ण और मृदुल है. उसमें गंधार की कठोरता मैंने कभी नहीं देखी.’

‘मुझे आप क्षमा करेंगे महाराज.’ ज्योत्स्ना ने कहा- ‘आपने आज तक ऐसी कोई अन्य स्त्राr भी देखी है, जिसने अपनी संतान का जीवन नष्ट करने के लिए, अपने हाथों आघात कर, अपना गर्भपात कर लिया हो.’

‘ठीक कहती हो पुत्री. किंतु वह पुरानी बात है. वह सामयिक आवेश था; एक प्रकार का पागलपन का दौरा पड़ा था उसे, अन्यथा वह अपने पुत्रों से इतना प्रेम न करती.’

‘उनसे कहें कि वे थोड़ा प्रेम अपनी पुत्रवधुओं के लिए भी बचा रखें.’

‘क्या हुआ?’

‘आज प्रातः जब मैं उनको प्रणाम करने गयी तो अपनी चिंताओं के कारण पूछ बैठी कि कुरुक्षेत्र से कोई समाचार आया है क्या? तो उन्होंने कहा- ‘तुम चटखारे लेकर भेड़ का भुना हुआ मांस खाओ. मेरे पुत्र युद्धक्षेत्र में अपना रक्त बहा रहे हैं; किंतु तुम्हें उससे क्या?’

‘बुढ़िया पगला गयी है. उसके पुत्र अपनी इच्छा से युद्धक्षेत्र में गये हैं. अपनी पत्नियों के धकेलने से नहीं.’ धृतराष्ट्र ने मुस्कराने का प्रयत्न किया- ‘शत्रुओं पर विजय पाने के लिये गये हैं. धन-दौलत, सम्पत्ति और सत्ता के लिए गये हैं.’

‘कैसे गये हैं और क्यों गये हैं, वह पृथक् विषय है; किंतु अपने पति के प्रति चिंतित होना पत्नी का स्वभाव है.’ ज्योत्स्ना बोली- ‘किंतु गंधारकुमारी क्या जानें. उनके पति तो कभी युद्ध में गये ही नहीं.’

‘कटाक्ष कर रही हो.’ धृतराष्ट्र ने अपनी ज्योतिहीन आंखें जैसे उसपर जमा दीं- ‘यह सत्य है कि मैं कभी युद्ध-क्षेत्र में नहीं गया, किंतु मैं आजीवन अपनी रक्षा के लिए, युद्ध ही तो करता रहा हूं. मैंने अपना रक्त बहाया नहीं किंतु अपना रक्त जितना मैंने पिया है, संसार के किसी योद्धा ने नहीं पिया होगा. तुम रुष्ट हो अपनी सास से किंतु अपना वाक्-बाण मेरे वक्ष में मार रही हो.’

‘भूल हो गयी महाराज.’ वह बोली- ‘किंतु आप महारानी को समझा दें कि वे मुझसे इस प्रकार का दुर्व्यवहार न किया करें. नहीं तो…’

‘नहीं तो?’

‘मैं स्वयं को मर्यादित नहीं रख पाऊंगी. विष मेरे भीतर ही बहुत है और मैं किसी भी समय उसे उगल सकती हूं. मुझे भय है कि मेरे हृदय के विष से बुझे बाण कोई अनर्थ न कर डालें. मैं अपने परिवार में रक्तपात नहीं चाहती; नहीं तो कुल-क्षय में समय ही कितना लगता है.’

‘नहीं. उस विष को तुम अपने पास ही संभाल कर रखो. बड़े काम की चीज़ है. और जहां तक कुल-क्षय की बात है, वह तो कुरुक्षेत्र में हो ही रहा है.’

धृतराष्ट्र की मुख-मुद्रा कह रही थी कि उसे अब इस विषय में और चर्चा नहीं करनी है, ज्योत्स्ना अब चली जाये, तो उसे सुविधा होगी.

वह चली गयी.

‘गयी?’ धृतराष्ट्र ने पूछा.

‘जी महाराज.’

‘इन स्त्रियों का पारस्परिक युद्ध कभी समाप्त होने को ही नहीं आता. हस्तिनापुर का राजप्रासाद इनके लिए कुरुक्षेत्र का युद्धक्षेत्र ही है. पता नहीं ईश्वर ने सास-बहू का कैसा सम्बंध बनाया है, उनमें कभी सौहार्द हो ही नहीं सकता. देवरानियों और जेठानियों में भी एक स्वर्ण-कंगन के लिए महायुद्ध हो सकता है, जबकि उन लोगों को यह भी पता नहीं है कि उनके पास कितना-कितना स्वर्ण संचित होकर उनकी पेटियों में व्यर्थ ही पड़ा है.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘अच्छा छोड़ो इन्हें. …यह बताओ कि अर्जुन अपना ज्ञान बघारता रहा और कृष्ण खड़ा सुनता रहा? आश्चर्य है. कितना अच्छा होता यदि कृष्ण अर्जुन के तर्क को मान जाता और उसका रथ लौटाकर, उसे युद्ध-क्षेत्र से कहीं दूर, बहुत दूर ले जाता. चाहे द्वारका ही ले जाता.’

‘श्रीकृष्ण कैसे मान जाते…?’ संजय ने कुछ कहना चाहा.

‘क्यों? क्यों न मानता? आखिर अर्जुन की सारी बातें आदर्श से आपूर्त थीं. सुनने में कितनी मधुर, अच्छी और भली लगती हैं. प्रत्येक भला आदमी ऐसी ही बातें करना चाहता है.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘लोग इसी प्रकार के सुंदर लगने वाले पुष्पित कथनों से सत्य को धूमिल कर देते हैं. युद्ध से पहले तुम भी तो गये थे पांडवों को समझाने-शांतिदूत बन कर. क्या समझाया था उन्हें? यही सब तो कहा होगा.’

‘मैं शांतिदूत नहीं, आपका दूत बनकर गया था महाराज. इसलिए सत्य की भाषा नहीं, आपकी भाषा बोलता रहा था.’ संजय ने कहा- ‘तब पांडव मोहग्रस्त नहीं थे, अतः उन्होंने मेरी बात नहीं मानी. युद्ध के पहले दिन, अर्जुन मोह में पड़कर यह सब कह रहा था, श्रीकृष्ण मोहग्रस्त नहीं थे, इसलिए उन्होंने अर्जुन की बात नहीं मानी. अर्जुन का सत्य श्रीकृष्ण के सत्य से बहुत भिन्न है; उनमें कोसों की दूरी है.’

‘तो फिर क्या कहा कृष्ण ने?’

श्रीकृष्ण ने करुणा और शोक से आविष्ट, अश्रुपूर्ण व्याकुल आंखों वाले अपने उस मित्र, अर्जुन को धैर्य से देखा- क्षणभर में क्या हो गया इस योद्धा को?

‘अर्जुन, ‘कुरुक्षेत्र’ नामक भौगोलिक स्थान से तो तुम्हारा परिचय है; किंतु ‘धर्मक्षेत्र’ का अर्थ क्या है- वह तुम नहीं समझ पा रहे हो. एक बार सांसारिक भूमिका को त्यागकर, यदि हम धर्म की भूमिका पर आरूढ़ होकर बात करें, तो धरातल बदल जाता है.’

‘कैसे बदल जाता है धरातल? धरा वही रहेगी तो धरातल कहां से बदल जायेगा? और धरातल बदल जाने से हत्या, हत्या नहीं रहेगी क्या?’

‘हां.’

‘विचित्र बात है.’

‘हां, है तो विचित्र किंतु सत्य है.’

‘वह कैसे?’

‘अर्जुन, तुम सामान्य सांसारिक मनुष्य की भूमिका में हो और इसीलिए साधारण भीरु मनुष्यों के समान सोच रहे हो. उसी प्रकार व्यवहार कर रहे हो. तुम्हारा चिंतन विकृत हो गया है.’ श्रीकृष्ण बोले- ‘किंतु मैं धर्म की भूमिका पर स्थित हूं. तुमने कहा था कि मैं तुम्हें दोनों सेनाओं के मध्य ले चलूं. मैंने तुम्हें केवल दोनों सेनाओं के ही मध्य नहीं, धर्म और अधर्म के मध्य लाकर खड़ा कर दिया है. तुम्हारे लिए ये कौरवों और पांडवों की सेनाएं हैं; और मैं बता रहा हूं कि ये धर्म और अधर्म की सेनाएं हैं. तुम्हारे लिए तुम्हारे सामने तुम्हारे सगे-सम्बंधी खड़े हैं और मेरे लिए यहां केवल अधर्म, सेना के रूप में खड़ा है. धर्म की भूमि पर खड़े होने वाले व्यक्ति के लिए, कोई अपना-पराया नहीं होता, कोई रक्त-सम्बंध नहीं होता, कोई सांसारिक सम्बंध नहीं होता. यहां या तो धर्म है या अधर्म.’

‘लौकिक धरातल ही सही. मेरा वही धरातल है. मेरे पैर धरा पर ही टिके हैं, न वायु में उड़ रहा हूं, न अधर में लटका हूं. मैं अब भी कह रहा हूं कि मैं अपने ही पूज्य पितामह और गुरु को युद्ध में बाणों से कैसे मारूंगा?’ अर्जुन की चिंता स्पष्ट थी.

‘युद्ध में किसी को मारने की और कोई विधि है ही नहीं.’ श्रीकृष्ण परिहास की मुद्रा में आ गये थे.

‘पितामह का आप भी इतना सम्मान करते हैं…’

‘किंतु सम्मानित व्यक्ति भी अधर्म का पक्ष लेकर सम्मानित नहीं रह जाता.’ श्रीकृष्ण बोले- ‘इस समय अधर्म की भूमिका पर खड़े भीष्म, न सम्मानित और पूज्य हैं, न पितामह हैं. वे अधर्म की सेना के महासेनापति हैं. वे अधर्म की रक्षा कर रहे हैं. और अधर्म की रक्षा करने के लिए वे धर्म का वध भी कर रहे हैं. इसलिए मैं किसी भी धरातल पर उनसे अपना कोई सम्बंध स्वीकार नहीं करता.’

‘और मैं आप से कह रहा हूं कि मैं पृथ्वी के राज्य के लिए तो क्या, स्वर्ग के राज्य के लिए भी अपने बंधु-बांधवों को नहीं मारूंगा. मैं अपने बंधुओं के रक्त से सने राज्य को प्राप्त करने के लिए युद्ध नहीं करूंगा. उससे तो कहीं अच्छा है कि मैं शिक्षा मांग कर जीवन-यापन कर लूं.’ अर्जुन बोला- ‘आप मेरा मानवीय तर्क नहीं समझ रहे. मानव के दृष्टिकोण से नहीं देख रहे. मैं एक आदर्श को प्रस्तुत कर रहा हूं.’

‘क्या आदर्श है तुम्हारा?’ श्रीकृष्ण का स्वर शूल के समान तीखा था- ‘अपने स्वधर्म से भाग जाना?’ युद्ध के क्षेत्र में आकर अपने भाइयों और सेना की अपेक्षाओं को ध्वस्त कर, उन्हें भ्रम में रख कर युद्ध में पीठ दिखाना?’

‘नहीं. राज्य के लिए, धन-सम्पत्ति के लिए, अपने सुख और भोग के लिए, किसी का वध तो नहीं ही करना चाहिए. राजाओं को इसलिए तो युद्ध नहीं करना चाहिए कि वे अपने लिए साम्राज्य स्थापित कर सकें. युद्ध में भयंकर नर-संहार होता है. यदि पांच पांडवों के कष्ट झेल लेने से लक्ष-लक्ष लोग मृत्यु का ग्रास बनने से बच जाते हैं तो उन पांच लोगों को कष्ट झेलने में क्या आपत्ति है? क्या वे मानवता के लिए इतना भी नहीं कर सकते?’

श्रीकृष्ण देख रहे थे कि भविष्य में गांधारी भी उनसे यही पूछने वाली थी. उसका भी यही प्रश्न होगा कि श्रीकृष्ण ने इस युद्ध को रोका क्यों नहीं? यदि वे चाहते तो महाभारत का युद्ध रुक सकता था. और श्रीकृष्ण ऐसा कुछ नहीं कहने वाले थे, जिसका अर्थ यह होता कि वे युद्ध को रोकने में असमर्थ थे. अर्जुन से भी वे यह नहीं कह सकते थे कि अर्जुन की मानवता वरेण्य है. श्रीकृष्ण चाहते तो कह सकते थे कि मानवता के लिए पांच पांडव और उनके परिवार, कष्ट सहें, इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है; किंतु वे पांच श्रेष्ठ मानव तथा उनके संगी-साथी, उनके बंधु-बांधव दानवों को सुख देने के लिए कष्ट क्यों सहें? अधर्म को फलने-फूलने का अवसर देने के लिए धर्म उसे अपना कंठ क्यों रेतने दे?

यदि अर्जुन का दृष्टिकोण मानवीय होता तो श्रीकृष्ण उसका स्वागत करते किंतु वह सारा चिंतन ही मोह और भ्रम पर आधृत था. वह मान रहा था कि युद्ध के मूल में राज्य की कामना है. कौरवों के प्रति शत्रुता का भाव है. …और धर्म की भूमि पर खड़े श्रीकृष्ण देख रहे थे कि दुर्योधन और उसके साथी चाहे राज्य और धन-सम्पत्ति के लिए मनुष्य का रक्त बहाने आये थे; किंतु श्रीकृष्ण, पांडवों को लेकर राज्य के लिए युद्ध करने नहीं आये थे. वे धर्म की स्थापना के लिए वहां, उस युद्धक्षेत्र में खड़े थे. श्रीकृष्ण का अवतार, राज्य की स्थापना के लिए नहीं, धर्म की स्थापना के लिए हुआ था.

‘ओह अर्जुन, युद्ध के इस कठिन समय में यह पापमय अज्ञानजनित मोह, तुम्हारे मन में कहां से उदित हो गया. यह तुम्हारे पूर्व-जन्मों के किन पापों का फल है?’ श्रीकृष्ण बोले- ‘अनार्य पुरुषों के योग्य, स्वर्ग और कीर्ति से पतित करने वाला यह भाव कहां से अंकुरित हो गया तुम्हारे मन में?’

‘मैं मानवता की रक्षा के लिए निवेदन कर रहा हूं.’ अर्जुन ने कहा- ‘प्राणियों की जीवन-रक्षा के लिए प्रयत्नशील हूं.’

श्रीकृष्ण का स्वर कुछ कठोर हो गया- ‘क्लीव मत बनो.’

‘क्लीव?’ अर्जुन का मुख आश्चर्य से खुल गया- ‘आप मुझे क्लीव कह रहे हैं.’

‘आत्मरक्षा और धर्मरक्षा के लिए न लड़ने वाले नपुंसक, यह कायरता वीर अर्जुन के योग्य नहीं है. शोभा नहीं देता तुम्हें, युद्ध से विमुख हो जाना. हृदय की इस तामसिक दुर्बलता को त्यागो. परंतप! उठकर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ.’

अर्जुन की आंखों में अश्रु थे- ‘युद्ध के लिए खड़ा हो जाऊं? अपने पूज्य पितामह और आचार्य को युद्ध में अपने तीखे बाणों से बींध दूं. सखा! ऐसा कठोर आदेश मत दो.’

‘इसमें कठोर क्या है? तुम्हें तुम्हारा धर्म स्मरण करा रहा हूं.’ श्रीकृष्ण के चेहरे पर मुस्कान थी- ‘पर यह भी सत्य है कि धर्म कभी कोमल नहीं होता. धर्म पर वीर ही टिक सकते हैं. वीर होकर भी तुम धर्म से च्युत हो रहे हो.’

‘कठोर नहीं, यह क्रूर कर्म है?’ अर्जुन जैसे भड़क उठा- ‘अपने गुरुओं की हत्या करूं? अपने सम्बंधियों की हत्या करूं? वह भी केवल राज्य के लिए? कोई अन्यायी, अधर्मी, पापी सामने होता तो मैं उसका अभी वध कर देता.’

‘एक ही बात को मत रटे जाओ. वेश को नहीं, उनके हृदय को पहचानो, अर्जुन! उनके ध्येय को देखो.’ श्रीकृष्ण बोले.

‘क्या कहना चाहते हैं आप?’

‘गुरु कौन है यहां? किस में गुरुत्व का भाव है? सभी ओर तुच्छता है, स्वार्थ है, ईर्ष्या है. महानता कहां है? अध्यापक हो जाने मात्र से कोई गुरु तो नहीं हो जाता.’ श्रीकृष्ण ने अर्जुन की ओर देखा- ‘और अर्जुन, क्या तुम पहले नहीं जानते थे कि पितामह और द्रोणाचार्य युद्ध में तुम्हारे विरुद्ध लड़ने के लिए सामने खड़े होंगे. आज नयी बात क्या हो गयी? युद्ध की योजना के समय से ही स्पष्ट था यह. और भीष्म दुर्योधन के महासेनापति हैं, इसकी घोषणा तो कब से हो चुकी. आज कुछ नया तो नहीं हुआ है, जो यहां आकर इस प्रकार बिदक
रहे हो.’

‘ठीक कह रहे हैं कृष्ण आप!’ अर्जुन ने जैसे कराह कर कहा- ‘किंतु धन की इच्छा मुझे कभी भी इतनी नहीं रही कि उसके लिए अपने गुरुओं की हत्या… वे सामने खड़े होंगे, यह तो ज्ञात था. वे विराटनगर के युद्ध में भी मेरे सामने थे; किंतु उनका वध नहीं किया था मैंने. अब भी उसकी कल्पना नहीं कर पा रहा हूं.’

श्रीकृष्ण कुछ सहज हुए ः तो अर्जुन यह सब सोच रहा है.

‘ठीक कह रहे हो अर्जुन!’ वे बोले- ‘सांसारिक भोगों के लिए गुरुओं की तो क्या, किसी की भी हत्या, हिंसा है, राक्षसी कृत्य है; और हिंसा पाप है.’

‘तो फिर हम क्या करने जा रहे हैं? क्यों खड़े हैं हम युद्धक्षेत्र में?’

‘हम पाप का वध करने आये हैं, धर्म की स्थापना के लिए.’ श्रीकृष्ण बोले- ‘दुर्ग को तोड़े बिना उसके भीतर छिपे दस्यु का वध तुम नहीं कर सकते. और पितामह दुर्ग की प्राचीर के समान, दुर्योधन की रक्षा कर रहे हैं. वे पाप की रक्षा कर रहे हैं. उनको मार्ग से हटाये बिना तुम पाप का वध नहीं कर सकते. तुम युद्ध नहीं करोगे तो पितामह और द्रोणाचार्य मिल कर सारे संसार पर दुर्योधन का, अर्थात पाप का, अधर्म का साम्राज्य स्थापित कर देंगे. तुम अपने गुरुजनों के रक्त से भीगा राज्य नहीं चाहते; और वे धर्म का वध कर उसके रक्त में भीगा राज्य दुर्योधन को प्रदान कर देंगे. तुम पांचों भाइयों और तुम्हारे पुत्रों के शवों को रौंद कर राजसिंहासन पर पाप विराजे, यह स्वीकार है तुम्हें?’ श्रीकृष्ण ने क्षणभर रुक कर अर्जुन की ओर देखा- ‘भिक्षा मांग कर जीवन निर्वाह करना श्रेयस्कर होता तो मैं भी तुम्हारे ही साथ चलता; किंतु सोचो, जिस राजसभा में पांडवों के सम्मुख पांचाली का चीरहरण हो सकता है, उस राजसभा में कौन-सी कुलवधू घसीट कर नहीं लायी जा सकती. तुम चाहते हो कि दस्यु सिंहासन पर बैठें और धर्मराज का शव हस्तिनापुर के सिंहद्वार पर लटकाया जाये? और वह लटकाया जाने वाला एकमात्र और अंतिम शव नहीं होगा…’ श्रीकृष्ण का स्वर ऊंचा उठा- ‘वह क्रम बन जायेगा. साम्राज्य की नीति बन जायेगी.’

अर्जुन का चेहरा सफेद पड़ गया, जैसे सारा रक्त सूख गया हो.

‘वह दुर्योधन की भूल थी.’ धृतराष्ट्र ने कहा- ‘वस्तुतः मैं तो देख ही नहीं पाया कि वे लोग क्या कर रहे हैं.’

‘आप देख नहीं रहे थे; किंतु जानते तो थे. कर्ण का आदेश नहीं सुना था आपने?’ संजय ने कहा- ‘पांचाली का चीत्कार नहीं सुन रहे थे आप. पर उस समय तो आप प्रसन्न थे. ऐसे घृणित कृत्य पर भी प्रसन्नता. उस नीचता को आप अपने पुत्रों की उपलब्धि मान रहे थे.’

‘पितामह तो देख भी रहे थे और सुन भी रहे थे. उन्होंने क्या कर लिया?’ धृतराष्ट्र के स्वर में लज्जा नहीं थी.

‘राजा आप थे. राजसभा आपकी थी.’ संजय ने बड़ी कठिनाई से अपने स्वर को ऊंचा उठने से रोका.

‘गांधारी ने आकर रोक तो दिया.’ धृतराष्ट्र ने कहा.

‘हां, पर देखा तो उन्होंने भी कुछ नहीं था. उनकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई थी.’

‘हां, पर कितना डांटा था, उसने दुर्योधन को.’

‘हां. नारीत्व का अपमान वे कैसे सहन कर लेतीं.’ संजय ने कहा- ‘आपने नहीं सोचा; किंतु माता गांधारी ने कल्पना की होगी कि यदि भविष्य में उस राजसिंहासन पर कोई और कौरवों का कोई विरोधी बैठ जाये. राजा बदल जाये. राजनीति बदल जाये. तो उनकी अपनी पुत्रवधुओं के साथ भी ऐस्व्ही व्यवहार हो सकता है. भानुमती, काशिका और ज्योत्स्ना को भी उसी प्रकार निर्वस्त्र किया जा सकता है.’

‘मौन हो जाओ संजय. तुम जानते भी हो कि तुम क्या कह रहे हो.’ धृतराष्ट्र का स्वर गर्जन जैसा था.

‘जानता हूं; किंतु आपको बताना चाहता हूं कि यह कोई अच्छा कृत्य अथवा अच्छी परम्परा तो नहीं है, जिससे आप प्रसन्न हो रहे थे.’

धृतराष्ट्र का चेहरा उतर गया. उसने सचमुच कभी ऐसी किसी सम्भावना की कल्पना नहीं की थी.

‘तुम यह बताओ कि अर्जुन ने क्या कहा. तुम बहकते बहुत हो.’ उसने अपना चेहरा दूसरी ओर फिरा लिया था.

संजय का इस प्रकार का सत्य-कथन उसे तनिक भी अच्छा नहीं लगता था. वह चरित्रवान था; किंतु उसका यह अर्थ तो नहीं था कि अपने स्वामी को ही सत्य की कृपाण से कोंचता रहे…

‘क्या करूं मैं? किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया हूं.’ अर्जुन की हताशा उसे निगले जा रही थी.

श्रीकृष्ण को लगा, अर्जुन अभी अपने ही हाथों से अपना माथा पीटना आरम्भ कर देगा.

‘युद्ध का परिणाम अनिश्चित होता है. मैं नहीं जानता कि युद्ध में हम जीतेंगे या वे. मैं न इनसे हारना चाहता हूं और न इनको जीतना चाहता हूं…’

‘जीतना क्यों नहीं चाहते?’

‘क्योंकि इन सब का वध किये बिना इनको जीता नहीं जा सकता; और इनका वध कर मुझे जीने की कोई लालसा नहीं है. फिर मैं उनकी हत्या कैसे कर दूं?’

‘अपने बाणों से.’ कृष्ण मुस्करा रहे थे- ‘या फिर कृपाण से, या शूल से. जैसे तुम चाहो.’

‘आपको परिहास सूझ रहा है और मैं दैन्य के रोग से विमूढ़ हो गया हूं.’ अर्जुन रुका और फिर जैसे एक आवेग में बोला- ‘मुझे बताइए कृष्ण कि मैं क्या करूं. पूजा के योग्य पितामह और आचार्य…’

‘कौन है आचार्य? द्रोण? कौन-सा आचरण शुद्ध है उनका? संसार में जब भी कोई धर्म और सत्य की रक्षा के लिए गांडीव उठाता है अर्जुन, सबसे पहले उसके अपने ही, उसके पूज्य ही, उसकी भुजा थाम लेते हैं. वही तुम्हारे साथ हो रहा है.’

‘द्रोण जैसे भी हैं, मैंने उनसे शिक्षा पायी है. उनका मैं युद्ध में बाणों से प्रतिरोध कैसे करूं. जिनके चरणों में पुष्प चढ़ाने चाहिए, उनके वक्ष पर बाणों से प्रहार करूं? धन की इच्छा से…’

‘मैं जानता हूं कि तुम्हें धन की इच्छा नहीं है, तुम्हें भिक्षा की इच्छा है.’ श्रीकृष्ण बोले- ‘संन्यासी ईश्वर-निर्भर होने के कारण भिक्षा पर निर्भर रहता है! वह मानता है कि भिक्षा का वह अन्न उसे ईश्वर की ओर से प्राप्त हो रहा है. इसीलिए वह तपस्या है; किंतु युद्ध से भागकर, अपने मोह को सर्वश्रेष्ठ निर्णय मानकर, भिक्षाटन करना तपस्या नहीं है. न ही वह ईश्वर-निर्भरता है.’ श्रीकृष्ण बोले- ‘और यदि तुम युद्ध से भागे तो तुम्हारे ये शत्रु तुम्हें भिक्षा मांगने के योग्य भी नहीं छोड़ेंगे. भागते हुए, मार्ग में कहां तुम्हारा शव गिरेगा, यह कौन जानता है.’

अर्जुन की कल्पना में अनेक दृश्य उभरे… कोई मरुभूमि थी, जहां वह चलता जा रहा था. वह क्षितिज को छू लेना चाहता था… किंतु तभी एक बाण आकर उसकी पीठ में धंस गया. जब तक वह पलट कर बाण मारने वाले को देखता, अनके अश्वारोही उसके सिर पर आ चढ़े. उनके धनुष खिंचे हुए थे और त्यौरियां चढ़ी हुई थीं- ‘छुपकर युद्ध से भाग रहा था कायर.’

‘मैं युद्ध से भागा नहीं, युद्ध त्याग आया था. युद्ध की इच्छा होती तो मैं पीठ पर नहीं, वक्ष पर बाण का प्रहार सहता.’ उसने उन्हें पहचानने का प्रयत्न किया- उनमें कोई भी महारथी नहीं था. सब साधारण सैनिक थे. वे उसकी पीठ पर प्रहार कर उसे भगोड़ा कह रहे थे. वह भिक्षाटन के लिए जा रहा था किंतु उसे भिक्षा कहां मिली?… मिला एक बाण, वक्ष पर नहीं, पीठ पर… किसी महारथी का नहीं, साधारण अनजाने सैनिकों का… और उपाधि मिली ‘भगोड़ा’.

अर्जुन अपने वर्तमान में लौटा.

‘तो युद्ध करूं?’ उसने श्रीकृष्ण की ओर देखा.

‘और कर भी क्या सकते हो? युद्ध तुमने नहीं चुना है. उन्होंने तुम्हें बाध्य किया है. उन्होंने तुम्हें घेरा है. वे कोई समझौता नहीं चाहते, युद्ध चाहते हैं. उन्हें युद्ध का दान दो.’

‘पता नहीं हम यह युद्ध जीतेंगे भी या नहीं; किंतु जिनको मारकर मेरी जीने की भी इच्छा नहीं है, वे ही धृतराष्ट्र पुत्र युद्ध में मेरे सम्मुख खड़े हैं.’

‘तुम उनको मारना नहीं चाहते और वे तुम्हें जीने नहीं देंगे.’

‘मैंने कहा न कि मैं दैन्य के दोष से मूढ़ हो गया हूं. आपकी शरण में आया हूं. आपका शिष्य हूं. आपसे पूछ रहा हूं. मुझे बताइए- कृष्ण! कि मेरे लिए श्रेयस्कर क्या है.’ अर्जुन बोला- ‘मुझे लगता है कि सम्पूर्ण पृथ्वी का निष्कंटक राज्य ही नहीं, देवताओं का आधिपत्य भी मेरे इस दुख का निवारण नहीं कर सकेगा, जो इस समय मेरी इंद्रियों को मथ रहा है.’

संजय चुप हो गये.

‘डर गया बेचारा.’ धृतराष्ट्र ने जैसे प्रसन्नता से ताली बजा दी- ‘मैं अर्जुन को इतना दुर्बल-हृदय नहीं समझता था. हम
व्यर्थ ही उसे महान योद्धा मानकर उससे भयभीत थे. वह लक्ष्यभेदी है, योद्धा नहीं है.’

‘आपको लगता है, वह डर गया.’ संजय ने धीरे से कहा- ‘और मुझे लगता है कि उसके हृदय में देवत्व जाग उठा. वह राज्य जैसे तुच्छ लक्ष्य के लिए असंख्य हत्याओं का जघन्य अपराध नहीं करना चाहता था. वैसे सत्य तो यह है कि युधिष्ठिर को भी कभी राज्य का लोभ नहीं रहा; नहीं तो अपने विरुद्ध रचे गये षड्यंत्र को जानते हुए भी वह आपके आदेश पर शकुनि के साथ द्यूत खेलने न बैठ जाते. ऐसी पितृभक्ति तो दुर्योधन के मन में भी नहीं है, जितनी युधिष्ठिर ने दिखायी है.’

‘पितृभक्ति. उहं.’ धृतराष्ट्र ने जैसे युधिष्ठिर को मुंह चिढ़ाया- ‘उसे कहां पता था कि उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचा जा रहा है. वह अपनी मूर्खता में ही द्यूत खेलने बैठ गया था. जाने अपने आपको क्या समझता है. वह शैशव से ही अपने पिता पांडु के समान मूर्ख है.’

‘आपके षड्यंत्र के विषय में उन्हें सब कुछ ज्ञात था.’

‘तुम कैसे जानते हो?’

‘विदुर जब उन्हें निमंत्रित करने इंद्रप्रस्थ गये थे तो उन्हें सचेत कर आये थे.’

‘क्यों? विदुर ने ऐसा क्यों किया?’

‘वे इस युद्ध को टालना चाहते थे.’

‘मूर्ख हो तुम.’ धृतराष्ट्र प्रसन्न दिखाई पड़ रहा था- ‘और वह विदुर जो स्वयं को इतना नीतिवान समझता है, वह भी राजनीति को नहीं समझता.’

‘मैंने तो कभी अपने बुद्धिमान होने का दावा नहीं किया.’ संजय ने कुछ कटु स्वर में कहा- ‘अब आप यह बताइए कि इस मूर्ख से आगे का विवरण सुनना है, या मैं घर जाऊं?’

धृतराष्ट्र ने कुछ भौचक होकर अपनी अंधी आंखें मिचमिचाई- ‘अर्जुन वहां से चला गया क्या?’

‘कैसे जाता?’

‘क्यों? युद्ध की इच्छा नहीं थी तो वहां खड़ा किसलिए था- गणिकाओं का नृत्य देखने?’

‘सारथ्य तो श्रीकृष्ण कर रहे थे.’ संजय ने कहा- ‘उन्होंने अश्वों को एक अंगुल भी हिलने नहीं दिया.’

‘तो?’

‘मैं युद्ध नहीं करूंगा.’ कहकर, अर्जुन चुप हो गया.                 

(क्रमशः)

(यह उपन्यास वाणी प्रकाशन, दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है.)

मई 2016

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