व्यवस्था के गटर में मारे जाने वाले  –   प्रियदर्शन

आवरण-कथा

क्या आपको अंदाज़ा है कि इस देश में हर साल नाले में उतर कर सफाई करने के दौरान कितने लोगों की मौत हो जाती है? 2007 में ‘तहलका’ पत्रिका ने अलग-अलग स्रोतों से जुटाई सूचनाओं के आधार पर अनुमान लगाया था कि 22,000 से ज़्यादा लोग यहां हर साल नालों और सीवर की सफाई करते हुए मारे जाते हैं.

एक साल में 22,000 लोग किस और हादसे में मारे जाते हैं? सालाना सड़क हादसों में कुछ हज़ार लोग मारे जाते हैं. हमारे यहां किसानों की आत्महत्या भी सालाना 10,000 पार करती है. सरकारें जिन्हें सबसे बड़ा खतरा बताती हैं, उन नक्सलवादी और आतंकवादी कार्रवाइयों में भी सालाना औसत हज़ार नहीं पहुंचता. फिर इन स़फाईकर्मियों की मौत पर कोई सवाल क्यों नहीं उठता? इनको लेकर कोई खबर क्यों नहीं बनती?

इस सवाल का जवाब इनकी जाति देती है. ये लगभग सौ फीसदी लोग दलित हैं. ये वे लोग हैं जो हमारे हिस्से का सबसे ज़रूरी काम करते हैं. जब ये नालों में उतरते हैं, तब भी हम उन्हें नहीं देखते. जब ये गंदगी से दो-चार हो रहे होते हैं तब भी हम नाक दबाए कहीं और देख रहे होते हैं. और जब ये मारे जाते हैं तो हमारी कोशिश सरकारी रेकार्ड से इनका नाम गायब करने की होती है. यह सदियों से चले आ रहे सामाजिक उत्पीड़न की आधुनिक लोकतंत्र तक चली आयी हमारी उस विरासत का हिस्सा हैं जिसमें दलितों के प्रति घृणा का भाव किसी अपराध बोध में कुछ घटा भले हो, परायापन कतई कम नहीं हुआ है. वे हेय हैं और दूसरे हैं इसलिए उनका मारा जाना अहमियत नहीं रखता. एक अर्थ में वे आदिवासियों से भी गये-बीते हैं, क्योंकि हमारी स्मृति में आदिवासी पराये ज़रूर हैं, मगर अछूत नहीं हैं. यह अस्पृश्यता इन दलितों का सबसे बड़ा अभिशाप है, जो उनकी मौत तक उनका पीछा करती है.

ऐसा नहीं कि इस अस्पृश्यता की ओर हमारा ध्यान पहले नहीं गया हो. आज़ादी के दौर में महात्मा गांधी बार-बार इस अस्पृश्यता से टकराते रहे. उन्होंने पहले इसे अछूतोद्धार की सामाजिक मुहिम बनाना चाहा और बाद में स्वीकार किया कि दरअसल उद्धार अछूतों का नहीं होना है, शुद्धीकरण की ज़रूरत उस भारतीय समाज को है जिसने इन लोगों को अब तक अछूत बनाये रखा है. उन्होंने अपने ढंग से इस व्याधि से लड़ने के लिए कई प्रविधियां विकसित करने की कोशिश की. स़फाई परियोजना चलायी और अपने शौचालय खुद स़ाफ करने के निर्देश पर पूरी सख्ती से अमल किया. इसके अलावा उन्होंने इन अछूतों को हरिजन की संज्ञा दे डाली- यानी ये ईश्वर के लोग हैं और मेहतर नहीं, बेहतर हैं. बिहार में आये भूकम्प को उन्होंने अस्पृश्यता के लिए ईश्वर का दिया दंड करार दिया और बहुत सारे तर्कवादियों की आलोचना भी झेली. लेकिन यह दिखाई नहीं पड़ता कि गांधी अपनी मुहिम में बहुत दूर तक कामयाब हो पाये.

गांधी के लिए जो सहज करुणा का मामला था, व्यापक मानवीय समानता का प्रश्न था, वह आम्बेडकर के लिए कहीं ज़्यादा कठोर यथार्थ से मुठभेड़ का सवाल था. वे गांधीजी के मुकाबले शायद इस बात को बेहतर ढंग से समझते थे कि सवर्ण भारतीय समाज इन जातियों को अपने भीतर समायोजित करने को किसी हाल में तैयार नहीं होगा. उन्हें यह भी समझ थी कि हिंदू धर्म की बुनावट में वर्ण-व्यवस्था की जो अपरिहार्यता है, वह हिंदू धर्म के भीतर उन्हें कभी समानता के अवसर नहीं देगी. इसके लिए बिल्कुल राजनीतिक लड़ाई लड़नी होगी- जीवन भर वे यह राजनीतिक लड़ाई लड़ते रहे, गांधी से भी उलझे और दूसरों से भी- और अंतत उन्होंने धर्म छोड़कर चल देना स्वीकार किया. दरअसल हरिजन से दलित होने की यह लड़ाई वह राजनीतिक लड़ाई ही है जिसे आम्बेडकर ने अपने समाज का एजेंडा बनाया. उन्होंने कहा कि उनका समाज पढ़-लिखकर आगे आयेगा तो खुद अपनी जगह बनायेगा.

लेकिन इस राजनीतिक मोर्चे पर आम्बेडकर से ज़्यादा व्यावहारिक कांशीराम निकले जिन्होंने सीधे सत्ता को सामाजिक परिवर्तन की मुहिम से जोड़ दिया. उनकी स्पष्ट राय थी कि दलित के हाथ में जब तक सत्ता नहीं आयेगी तब तक समाज में उसको बराबरी की हैसियत नहीं मिलेगी. हालांकि सत्ता दलित के हाथ में आयी, मायावती देश के सबसे बड़े सूबे की मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन यह सवाल बचा हुआ है कि क्या दलितों को फिर भी समाज में बराबरी की जगह मिली है?

पहला और प्रामाणिक जवाब तो यही दिखता है कि वह नहीं मिली है. क्योंकि जो सत्ता में आता है, वह समाज को भूल कर वर्चस्ववादी राजनीति का पुर्जा हो जाता है और मायावती इससे अलग नहीं निकलीं. लेकिन ज़्यादा बड़ी सच्चाई यह है कि मायावती के आने से पहले, और बाद भी, अंतत समाज में दलितों के एक छोटे से तबके की ऐसी हैसियत बनी है कि वे राजनीतिक या सार्वजनिक जीवन में अपने को अभिव्यक्त या प्रस्तुत कर सकते हैं. बिहार और उत्तर प्रदेश में दलित वोट की उपेक्षा अब सम्भव नहीं है. इसकी एक बौद्धिक गूंज हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के भीतर दलित लेखन के बढ़ते हुए हिस्से के तौर पर देखी जा सकती है. अंग्रेज़ी उपन्यासों में भी यह दलित उपस्थिति कई बार बेहद प्रबल है. अरुंधती राय के ‘गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ का अपना एक स्त्राr और दलित पाठ भी है जिसमें एक उच्च मध्यवर्गीय घर से आने वाली विधवा स्त्राr एक गरीब दलित से प्रेम करती दिखती है. अमिताव घोष के ‘सी ऑफ पॉपीज़’ और ‘सर्किल ऑफ रीजन’ जैसे उपन्यासों में भी एक दलित आयाम दिखता है.

बहरहाल, यह सच है कि इस राजनीतिक-बौद्धिक दलित प्रतिनिधित्व का व्यापक सामाजिक रूपांतरण अभी शेष है और उसे बिल्कुल सम्मानजनक स्थिति दिलाने की लड़ाई काफी पीछे है. सच तो यह है कि समाज-सुधार के बहुत सारे आंदोलन अब भी दलित की पीठ पर चाबुक की तरह पड़ते हैं. जब अण्णा हजारे अपने गांव में शराब पीने वालों की सार्वजनिक पिटाई का आह्वान करते हैं तो यह मार दलित को ही झेलनी पड़ती है. क्योंकि अण्णा को नहीं मालूम कि दलित जिन नारकीय हालात में काम करने को मजबूर हैं, वहां सस्ती शराब ही उनके लिए चीज़ों को सह्य बनाती है.

पिछले दिनों हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद यह सवाल फिर कुछ और वीभत्स होकर हमारे सामने खड़ा है कि हम अपने समाज के उन दलितों के साथ भी क्या सलूक करते हैं जो पढ़ाई-लिखाई कर हमारी बराबरी करना चाहते हैं. क्योंकि यह स्पष्ट है कि अंतत अपनी जातिगत पहचान की वजह से अस्पृश्यता का दंश झेल रहा और अपने राजनीतिक संगठनों को इस लड़ाई से दूर पा रहा रोहित वेमुला लगातार अकेला पड़ रहा था और वह कार्ल सागान बनने का सपना लिए हमसे दूर चला गया.

जाहिर है, रोहित वेमुला की लड़ाई सिर्फ कैंपस के भीतर फेलोशिप और जगह पाने की लड़ाई नहीं है, वह उस सामाजिक बराबरी की लड़ाई भी है जिसको हासिल करने की चुनौती का इशारा आम्बेडकर ने देश को संविधान सौंपते हुए किया था. वह उन 22,000 लोगों की लड़ाई भी है जो हर साल किसी गटर में मारे जाते हैं और जिनके मारे जाने की खबर कोई नहीं चलाता-दिखाता. सवाल है, यह लड़ाई कौन लड़ेगा? अब एक नया मोर्चा बनता दिख रहा है. हैदराबाद से जेएनयू-अलीगढ़ और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों तक यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस की जा रही है कि मार्क्स, आम्बेडकर और गांधी को साथ लाना होगा- उनके साथ नारीवादी आंदोलनों को भी जोड़ना होगा. जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया ने अपनी रिहाई के बाद जेएनयू के परिसर में जो भाषण दिया, वहां यह उल्लेख किया कि उन्हें जेल में दो कटोरे मिले थे- एक नीले रंग का और एक लाल रंग का. कन्हैया के मुताबिक यह उनके लिए लाल सलाम और आम्बेडकर को प्रतीकात्मक रूप से जोड़ने वाली चीज़ थी. बेशक, अभी यह प्रतीकात्मक है, लेकिन इसे वास्तविक जामा पहनायेंगे तो देश में हर तरह की गैरबराबरी के खिल़ाफ हम लड़ाई लड़ पायेंगे और तब भी इस बात का सबसे ज़्यादा खयाल रखना होगा कि इस गैरबराबरी की सबसे निचली पायदान पर वे दलित हैं जो इस व्यवस्था के गटर में मारे जा रहे हैं.

अप्रैल 2016

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *