वे दिन! वे खत! वे बातें!

– पुष्पा भारती

वेदिन! यानी अपना अतीत! और जब अतीत की बातें याद कीं तो मन नन्हीं ऐलिस जैसा बन गया!

नन्हें खरगोश के पीछे वह जिस वंडरलैंड में घुस गयी थी- जैसी अजीबोगरीब तरह-तरह की परिस्थितियों का उसने सामना किया था, उन सब बातों को दुनिया भर के लोग आज तक सुनते सुनाते थकते नहीं. मेरा जीवन भी सचमुच की परीकथाओं जैसा जीवन रहा है. कितने-कितने आकस्मिक मोड़… लेकिन सबकी कड़ियां जुड़ती गयीं एक निश्चित गंतव्य से. मैं तो केवल जीती चली गयी. उसकी अहमियत को न कभी जाना, न कभी समझा ही! अब सोचने बैठती हूं तो नन्हीं ऐलिस की तरह स्वयं चमत्कृत हो जाती हूं.

चमत्कृत मुझे टीन एज वाला चक्कर भी करता है. पिताजी से साहित्य और कलाओं की बारीकियों को समझते हुए एक अलग ही तरह के रस में डूबती-उतराती चल रही थी. मैंने जैसे ही स्वीट सिक्सटीन पूरा किया कि अगले हफ़्ते ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.ए. की पढ़ाई के लिए प्रवेश ले लिया. किताबों की भी रसिया और पता चला कि यहां का पुस्तकालय तो बहुत ही बढ़िया है. और सोने में सुहागा कि यहां तो एक से एक बड़े लेखक लोग अध्यापक हैं. हिंदी, अंग्रेज़ी और उर्दू-तीनों के साहित्य से मुझे प्यार! और हिंदी के अध्यापकों में से एक थे मेरी प्रिय पुस्तक ‘गुनाहों का देवता’ के लेखक डॉ. धर्मवीर भारती! मेरी निरे बालपने से ही परमप्रिय पुस्तक ‘मधुशाला’ के कवि डॉ. हरिवंशराय बच्चन थे अंग्रेज़ी के अध्यापक. उर्दू शेरो शायरी की शौकीन थी मैं और सुना कि अंग्रेज़ी विभाग में ]िफराक गोरखपुरी भी पढ़ाते हैं. मैं खुश! मेरी टीन एज उमरिया खुश! पर लो, तुषारापात हो गया जब सुना कि बी.ए. में तो लड़कियां ‘वीमेन्स विभाग’ में दीवार के इस पार पढ़ती हैं. उस विभाग में तो एम.ए. में पढ़ाई के वक्त ही इन सबसे पढ़ने का अवसर मिलेगा. ऊपर से दूसरा धक्का यह कि डॉ. भारती तो जूनियर लेक्चरर हैं, एम.ए. के विद्यार्थियों को सीनियर अध्यापक पढ़ायेंगे. मन को मसोस कर रह गये. पर अंग्रेज़ी में कहते हैं न कि बर्ड्स ऑफ सेम फेदर फ्लाइ टुगेदर. सो वहां तीन चार और लड़कियां सहेलियां बन गयी थीं जो ‘गुनाहों का देवता’ और ‘मधुशाला’ की दीवानी थीं. सबने मिलकर तय किया कि वीमेन्स विभाग की लड़कियों का उधर प्रवेश वर्जित थोड़े ही होगा- बीच के एक दरवाज़े का ही फ़र्क तो है. सो बस, आये दिन अपनी क्लास ‘बंक’ करके हम लोग उधर के चक्कर काटने लगे- पता लगा लिया वे लोग कहां बैठते हैं, कब आते कब जाते हैं. ]िफराक साहब के लिए सुन रखा था कि वे तो ज़्यादातर हिंदी विभाग के स्टाफ रूम में ही जमे रहते हैं और एक दिन सचमुच उधर की ओर छड़ी घुमाते थुलथुल से बदन वाले, पाजामा कमीज़ और सारे बटन खुले बंद गले का कोट पहने ]िफराक साहब खरामा खरामा चले आ रहे थे. जी भर कर देखा उन्हें और बड़ी देर तक आपस में सब उनके तमाम शेर सुनते-सुनाते रहे- बड़ा सुख मिला! फिर चार-पांच दिन उधर ही भटकने के बाद एक पुरानी-सी साइकिल पर लम्बे, दुबले पतले, काला चश्मा चढ़ाये सांवले से भारती जी चले आ रहे हैं. वे साइकल से उतरे, फिर स्टेण्ड पर साइकिल खड़ी की, ताला लगाया और स्ट़ाफ रूम में चले गये- हम तीनों-चारों सहेलियां अवाक से एक-दूसरे की तऱफ देखती रह गयीं- हम सब तो अपने आप में कभी सुधा को देखा करते थे, कभी गेसु को! पर यहां तो जो दिखाई दिये उनमें से तो चंदर का रचयिता जैसा कोई नज़र नहीं आया! हम लोग वहीं चुपचाप खड़े रहे क़ाफी देर तक- थोड़ी देर बाद देखा हाथ में एक फ़ाइल जैसा कुछ लिये और चेहरे पर सायास-सी एक विशेष गम्भीरता ओढ़े हुए वही व्यक्ति जिस विश्वास भरी चाल से विभाग की सीढ़ियां चढ़ रहा था- कि हमने जान लिया कि इस व्यक्ति में तो शायद कई व्यक्तित्त्व समाये हैं. अच्छा लगा! कुतूहल बढ़ा!

पर दसियों चक्कर लगाने पर भी हम चारों बच्चन जी की एक झलक भी नहीं पा सके क्योंकि वे तो कार से सर्र से आते थे और फर्र से स्ट़ाफ रूम में घुस जाते थे. खैर किसी तरह बच्चन जी के दर्शन भी हुए- लेकिन बड़ी मशक्कत के बाद- बड़े दिनों के बाद!

इलाहाबाद यूनीवर्सिटी का गज़ब का माहौल! शिक्षा का स्तर इतना ऊंचा! एक से बढ़कर एक लेखक और कवि वहां के अध्यापक! जैसे मानो वहां के आसमान से नीचे घूरते रहते थे मां सरस्वती के आशीर्वाद!  सचमुच बड़े करिश्माई थे वे दिन! शुरू में ऐलिस की बात कही थी मैंने, सचमुच वंडरलैंड ही साबित हुआ मेरे लिए अपना वह विश्वविद्यालय!

पर मुझे तब नहीं मालूम था कि ऐलिस को भी मात दे दूंगी मैं! मेरे जीवन का असली करिश्मा तो ईश्वर ने कुछ और ही तय कर रखा था. मेरिट लिस्ट में तीसरा स्थान पाकर एम.ए. करने के बाद शोध कार्य शुरू किया. विषय मिला- ‘सिद्ध और नाथ साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन’. मुंह पर हवाइयां उड़ने लगीं और विभागाध्यक्ष डॉ. धीरेंद्र वर्मा से कहा- ‘सर, यह तो बड़ा कठिन विषय है.’ वे बोले- ‘हां कठिन ही है तभी तो तुम्हें दिया है- मुझे मालूम है तुम कर लोगी- बस एक काम करना होगा कि तुम्हारे गाइड के रूप में डॉ. उदयनारायण तिवारी को नियुक्त किया गया है पर वह नियुक्ति केवल कागज़ी होगी. असली गाइडेंस तुम्हें उससे लेनी होगी जो जूनियर लेक्चरर होने के नाते कागज़ पर गाइड करने का अधिकार नहीं रखता- पर विषय का अधिकारी वही है.’ नाम बताया गया- ‘सिद्ध साहित्य’ पर अनूठा शोध-ग्रंथ लिखकर खूब प्रशंसा पाये व्यक्ति डॉ. धर्मवीर भारती. सुन रखा था कि पढ़ाते तो बहुत ही अच्छा हैं पर बड़े कड़क हैं. विद्यार्थी उन्हें बेइंतिहा प्यार भी करते हैं और उनसे डरते भी हैं. खैर, खासा डरते डराते शुरू हुआ प्रशिक्षण का दौर-नैकट्य मिला. कि अगले ही बरस कलकत्ता जाना पड़ा क्योंकि सम्बंधित विषय की पुस्तकें और पांडुलिपियां केवल वहां की नेशनल लाइब्रेरी में ही मिलेंगी. उसी सिलसिले में कलकत्ता जाने पर कुछ ऐसे बानक बन गये कि कलकत्ता यूनीवर्सिटी से संबद्ध ‘शिक्षायतन कॉलेज’ में लेक्चररशिप मिल गयी. जीवन भर अध्यापक रहे मेरे पिताजी बहुत खुश हुए कि उनकी बेटी महज इक्कीस बरस की उम्र में ही डिग्री कॉलेज में पढ़ायेगी.

बस, वहां जाने के बाद ही बचपन के वे दिन, टीन एज का वह वक़्फा, युवावस्था की तमाम तरह की शैक्षणिक उपलब्धियां बीत गयीं और… और फिर शुरू हो गया पत्रों का एक सिलसिला! जिसने मेरी दीन-दुनिया ही बदल दी!

‘वे दिन’ की बातें तो साझा कर लीं मैंने आपके साथ- अब आइए कुछ खतों के कुछ अंश भी दिखाती हूं आपको! खत तो हज़ारों हैं- चार साल तक लगातार बिना नागा हर दिन एक पत्र- कभी किसी दिन तो दो पत्र एक साथ! खत ऐसे कि उनमें मेरा निजी है ऐसा कुछ नहीं- वे खत तो साहित्य का अंश हैं- ऐसे कि किसी की भी ज़िंदगी संवार दें. सबसे पहला खत आधी सदी से भी पुराना- सन् 1956 का पत्र!

मेरी आधी पागल + आधी विद्वान

पुस्सी!

आखिरकार यह स्थिति पैदा करके कि तुम्हारी तबियत खराब है, तुमने मुझे चिंता में डालकर यह खत लिखवा ही लिया. वरना खत लिखना मुझे दुनिया की सबसे बड़ी ज़हमत लगती है. देखो पुष्पा, लापरवाही मत करना, जब तक तबीयत बिल्कुल सुधर न जाये तब तक नेशनल लाइब्रेरी भी मत जाना. समझीं!

स़िर्फ धूप में कुर्सी डालकर, शॉल ओढ़कर, जीजा, जिज्जी से बातें करना, बच्चों के लिए वैसी ऊन की गुड़ियां बनाना, दिवास्वप्न बुनना, नीमा झील की याद करना, ऑस्कर वाइल्ड की कहानियां पढ़ना, रूपर्ट ब्रुक की कविताएं दोहराना, और चोरी छिपे दो-चार कविताएं भी लिख डालना.

और क्यों पुस्सनजी, यह ‘सब्जेक्टिव’ बीमारी क्या होती है जिसका ज़िक्र तुमने अपने खत में किया है. देखो पुष्पा! जीवन के गहन से गहन संकट में मैंने कभी अपने माथे पर शिकन भी नहीं आने दी, बड़े से बड़े त़ूफानों को अंदर-ही-अंदर पीकर एक हल्की-सी मुस्कान में उसे टाल दिया, किसी कारण से जब बहुत बड़ी पीड़ा हुई तो अपने ऊपर जी खोलकर ठहाके लगा लिये- और फिर मुझे लगा कि मन अमृत में नहाकर ताज़ा हो आया है- और तुम हो कि छुई-मुई मन लिये बैठी हो कि बिना बात के कोई ‘सब्जेक्टिव’ बीमारी ओढ़ ली है. सुनो, गहन-से-गहन पीड़ा सहकर गहरी बनो. बीमार मत बनो. वरना जानती हो क्या होगा?- यह तो ज़िंदगी है न- मुझे बड़े ताने देगी, कहेगी, ‘कहिए भारतीजी, बड़ा अपने को लगाते थे, अपनी अंगुलियों के इशारों पर नचाते थे मुझे. मेरे बड़े से बड़े आघात को अपनी उन्मुक्त हंसी से टाल जाते थे, पर अपनी मित्र को ज़रा-सा ज़िंदगी जीना नहीं सिखा सके! लीजिए, आपका बदला हमने आपकी मित्र से निकाल लिया. तो मेरी दुलारी. मेरी अभिमान! अगर मेरी इज़्ज़त बचाने का ध्यान हो तो इस ‘सब्जेक्टिव’ बीमारी को तुरंत तिलांजलि
दे दो.’

आगे तो खत बहुत खूबसूरत है पर पूरा लिखूंगी तो आपको और पत्रों के छोटे-छोटे अंश भी कैसे दिखा पाऊंगी- देखिए 11 जून 57 का खत-

पुस्सी,

कितने दिन हो गये तुझे, न कोई कहानी भेजी न कविता! पर मेरा स्वास्थ्य और आजकल का भयावना मौसम कुछ भी काम नहीं करने दे रहा है. पर, विश्वास रख, ज़रा-सी ताकत आते ही मैं नयी कृतियों से लाद दूंगा तेरी डाक!

इधर कुछ पढ़ने का भी जी नहीं हो रहा, उस दिन गया अर्नेस्ट हेमिंग्वे की एक पुस्तक लाया- अ़फ्रीका के जंगलों पर लिखी हुई, दो घंटे में आधी पढ़कर रख दी. जी ऊब गया. फिर सोचा कुछ ऐसे उपन्यास पढ़े जायें जो पहले बहुत अच्छे लगे थे. ग्राहम ग्रीन का एक उपन्यास मुझे और फ़ादर ऐक्सरॉस को बहुत पसंद था. उसे पढ़ना शुरू किया, सारी कथा मालूम थी तो ध्यान उसकी शैली और शिल्प पर जाने लगा. दो एक अध्याय पढ़े, फिर वह भी नहीं चला. कल सुबह से एक किताब बहुत याद आ रही थी थॉमस हार्डी की ‘ए पेयर ऑफ ब्ल्यू आइज़’. वह मेरे पास थी नहीं. आठ बजे गाड़ी लेकर ‘दि बुक्स’ गया. वहां वह थी. खड़े-खड़े उलटा पलटा. पर जिन दृश्यों ने सात साल पहले रुला दिया था वे आज अत्यंत कृत्रिम और बनावटी लगने लगे. सोचा इसे फिर पढ़कर जो पिछला ज़ायका मन में बसा हुआ है- उसे क्यों बिगाड़ा जाय.

बेहद थकान, बेहद क्लांति और बेहद भारीपन महसूस हो रहा था- मैंने ‘दि लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ निकाली. मार्था और मेरी वाला अध्याय… और उससे अकस्मात वह चित्र याद आ गया जो तुझे भी फ़ादर ऐम्सट्रॉस ने दिखाया था. वह जहां ईसा को सूली से उतारकर लाया गया है और ‘थ्री मेरीज’- मेरी मेग्दालेन, वर्जिन मेरी और ईसा की मुहंबोली बहन मेरी- तीनों उनके शव के पास हैं.’

इसके बाद तो उस लम्बे खत में उपनिषद, ईसा, बुद्ध और वैष्णव साहित्य में मृत्यु के प्रति जिज्ञासा और व्याख्या का और स्वयं अपनी स्थापना का जो विशद वर्णन है- ब्राउनिंग की ‘प्रोसपाइस’ कविता का भावार्थ है. फिर याद की है उसी की एक दूसरी कविता ‘ए वूमेन्स लास्ट वर्ड’. अचानक याद आ गये निराला ‘स्नेह निर्झर बह गया है, रेत-सा तन रह गया है’. फिर खूब खूब और बहुत कुछ-बहुत गहरा लिख डाला. अंत में लिखा ‘लो, मैंने इतना कुछ लिख डाला. जाड़ों के दिनों में जब तुम और शोभा घर आ जाती थीं तो शाम को हम सब अपने नीले कमरे में बैठते थे- मैं इधर उधर की बातें करता रहता था या अंग्रेज़ी कविताएं सुनाता था. कमरे में एक नीली बत्ती जलती रहती थी… और धूपबत्ती की सुगंधित टेढ़ी-मेढ़ी लहरें… ठीक वैसा ही इस खत को समझना- बस एक शाम की हल्की फुल्की गपशप… अच्छा, अब जाओ और अपनी रिसर्च की पढ़ाई में डूब जाओ- बस!’

भारती

12 अक्तूबर 57 के एक खत का एक छोटा-सा अंश दिखाती हूं-

‘मेरे माथे पर असली टीका तो तुम्हारा स्वर्णिम दीप लौ-सा तेजस्वी व्यक्तित्व है- उसकी आभा कहीं से मंद न होने पावे. वह बड़े से बड़े झंझावात में भी कांपे नहीं, हिले-डुले नहीं, डगमगाये नहीं, अपना तेज बरकरार रखे- नहीं तो मैं अपना माथा ऊंचा नहीं रख सकूंगा. अभी तो मैं देवताओं के आगे भी माथा ऊंचा करके चल सकता हूं- है किसी के पास ऐसी पवित्र, इतनी प्रगाढ़, ममतामयी धरोहर? और फिर तेरी फूल-सी कंतो अपनी पुस्सी को ज़रा सा विचलित देखकर मुरझा जानेवाली और उसे ठीक देखकर तुरंत खिलखिला उठने वाली. तुझे याद है तुझे कंतो ने क्या शपथ दिलायी थी- उसी बात को याद दिलाने के लिए मैं और कुछ तुझे नहीं भेज रहा हूं- सिवाय इसी पृष्ठ पर ऊपर तीन फूल- एक डाल पर खिले हुए- दुनिया में है कहीं ऐसी दिव्यत्रयी! फिर किस निराशा, किस अंधकार, किस कलुष का साहस है, कि अब हम तीनों में से किसी को भी छू सके!

मैं भी तेरे लिए अब ऐसी कृतियां लिखूंगा जो मनुष्य में जो सर्वश्रेष्ठ है, उदात्त है, उसे उद्घाटित करेगी- जीवन में जो कुंठा है, घुटन है, उससे मुक्त होने का साहसपूर्ण संदेश मनुष्य को देंगी- झूठी और खोखली मर्यादाओं का खंडन कर यथार्थ पर आधारित नयी मर्यादा ये कायम करेंगी और मनुष्य का यह जीवन जो विकृत, विकलांग छायाओं में भटकता हुआ, पीड़ा की गहरी अंधी घाटियों में थक-थक कर चलता है- उसका वास्तविक अर्थ खोजेंगी.’

क्या और कितना लिखूं- उनके खतों की इस पुस्तक का तो आंख बंद करके जो भी पृष्ठ खोलती हूं उसमें कुछ न कुछ ऐसा निश्चित रूप से मिल जाता है कि उसे अपने पाठकों के साथ साझा करने का मन हो- पर अब लोभ संवरण करना पड़ेगा. पर बस कुछ पंक्तियां और…

6.12.52

…जब मैंने कहा था मेरे परम कि यह हमारा प्यार है, जो समस्त सृष्टि का अर्थ है- यह हमारा प्यार है जो मनुष्य के अस्तित्व का परम अर्थ है, यह हमारा प्यार है. जिसके लिए यह सारा इतिहास प्रवाहित हो रहा है. यह हमारा प्यार है जिसके लिए यह अखिल सृष्टि की लीला घटित हो रही है. जब मैंने यह कहा था मेरे सहज मित्र, तो मैंने केवल कल्पना की मिठास अपनी बातों में घोलने की कोशिश नहीं की थी- मैंने सच कहा था. आओ, धीरे से इस लजीली नीली बत्ती को बुझा दें, अब अंधेरा है- अभी-अभी सृष्टि बनी है, पहाड़, घाटियां, चांद, सूरज-जंगल नदियां, पशु-पौधे, और सूरज भी अभी कच्चा है और जंगल बहुत घने हैं और नदियों में बेहद सिवार है! और पहाड़ों में दरारें हैं, गुफाएं हैं… और नयी बनी सृष्टि पर घने कुहरे की पर्त छायी है- चतुर्दिक अंधेरा. और वह अंधेरा माफिक पड़ता है आदिम सिंहों, चीतों, भेड़ियों, वन-पशुओं को जो उस अंधेरे में अपनी आदिम भूख के सहारे भटकते हैं- एक-दूसरे को फाड़ खाते है. उनमें प्राण है, गति है, शारीरिक संवेदन भी है, आहार-निद्रा, भय मैथुन भी है, पर उनमें एक बात नहीं है- उनमें अपनी चेतना नहीं है. वे अपने को जानते नहीं. वे केवल अंध आवेग में शिकार करते हैं, हत्या करते हैं, भयभीत होकर भागते हैं… और तब उस आदिम सृष्टि से प्रथम बार मनुष्य की सृष्टि होती है, और मनुष्य की सृष्टि होना है कि सारा परिप्रेक्ष्य जीवन का बदल जाता है. मनुष्यों-पशुओं में प्रमुख अंतर यह है कि पशु सब करता है, पर यांत्रिक प्रवृत्तियों के वशीभूत करता है. मनुष्य जो करता है उसके अर्थ जानने की चेष्टा करता है. स्वयं अपना अर्थ जानने की चेष्टा करता है. मनुष्यता का, मनुष्य की संस्कृति का इतिहास का और क्या लक्ष्य रहा है और क्या दिशा रही है, सिवाय ‘अपने को जानना.’

…और अपने मन में उस विशाल विराट प्यार को जगाना, उसको खोजना, जिनके लिए तुम्हारा एक-एक संवेदन, एक-एक अंग बना है- उसके आलोक में ही तो अपने को और अपने समस्त जीवन को सही-सही जाना जा सकता है न, मेरे परम ज्ञान.’

अंत में आइए कुछ बातें करूं आपसे. आपको सुनाती हूं एक छोटी-सी कविता जो पहली बार उन्होंने मेरे लिए लिखी थी- शीर्षक है ‘एक छवि’

छिन में धूप
छांह छिन ओझल
पल-पल चंचल-
गोरी दुबली, बेला उजली, जैसे बदली क्वार की

सुबुक हठीली,

हरी पर्त में
हलकी नीली
आग लपेटे-एक कली कचनार की

दखिन पवन में
झोंके लेती डार की
लहर-बदन में

जिसने आकर
कर दी है
छवि और उजागर
मेरे छोटे-फूल बसे घर, धूप धुली छत, छांहलिपी दीवार की!’

सन् 1957 की है यह कविता और बस अंत में देख लीजिए 11 जून 1997 की एक कविता. पंचभूत से बना शरीर छोड़ने के महज़ दो महीने बाइस दिन पहले… उनके जीवन में लिखी अंतिम कविता! ‘स़फरनामा’

मैंने घर छोड़ा, ओढ़ा देश निकाला
जाने किसकी तलाश में अलख जगाया
वीराने छाने जंगल-जंगल भटका
पागलपन मुझ पर बीहड़ राहों का था
इस पागलपन के जाने क्या थे माने

सब समझे मैं हूं नये गगन का पाखी
सब समझे मैं कुछ नया ढूंढ़ कर लाया
सच तो यह है मैं आज बता दूं सबको
मैं पंख पसार उड़ा जितनी दूरी तक
वह सारा क्षितिज तुम्हारी बांहों का था
इन होठों से जितना जो कुछ रस पाया
उसको ही अपना गीत बनाकर गाया

अब शाम उतर आयी है पथ धुंधलाया
धीरे-धीरे उदास अंधियारा छाया
राहें पगडंडी सब होती जाती गुम
अब मेरे और करीब, और करीब चलो तुम
जिस मन की मधुराई, तन की उजराई
मुझको सम्हाल कर इस मुकाम तक लायी
वह कदम-कदम करती उजियार चलेगी
यह यात्रा जनम-जनम के पार चलेगी

मेरे जीवन के चालीस बरसों का यह अंतराल आज भी मेरी प्राणवायु है… मेरी शिराओं में रक्त बनकर बह रहा है- ढेर ढेर सारी ‘बातें’ हैं जो याद आती रहती हैं. याद आते हैं ‘वे दिन’ जब मैंने जान लिया था कि अब तो शीश उतारकर भूमि पर रखना होगा तभी इस घर में प्रवेश मिलेगा- बस अविलम्ब वही किया मैंने. इस घर के नज़ारे को अपना घर फूंक कर ही देख पायी थी मैं. और फिर जिगर साहब को भी पढ़ा-

ये इश्क नहीं आसां, इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है, और डूब के जाना है!

डूबी ही नहीं- ऐसी डूबी कि

तंत्री नाद कवित्त रस सरस राग रति रंग

अनबूड़े बूड़े तिरे जे बूड़े सब अंग!

‘हमन हैं इश्क मस्ताना- हमन को होशियारी क्या?’ सच, किसी होशियारी की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ी- मैं तो बस एक परीकथाओं जैसी ज़िंदगी जीती गयी… जीती गयी!-

‘मरने कहा हिराइये हाथ सिंघ्योरा लीन!’ अच्छी तरह जान गयी थी कि ‘अति सूधो है सनेह को मारग’. इस मार्ग पर चलने के लिए तो स़िर्फ कबीर की बात मान कर अपना आपा भेंट देना होगा- उसके नन्हें-नन्हें टुकड़े करके पीस डालिए और हौले से घुस जाइए स्नेह के मारग की संकरी गली में.’ पूर्णतः समर्पित हो जाओ, तुम्हारे जैसी बूंद भी समंदर बन जायेगी- बस इतना ही है कि खुद को दो माना तो तनहा रह जाओगे.

‘पूर्णस्य पूर्ण मादाय पूर्ण मेवावशिष्यते’. खुद को शून्य बना लिया और आज स्थिति यह है कि-

जो बिछुड़े हैं पियारे से,

भटकते दर-बदर फिरते,
हमारा यार है हम में,

हमन को इंतज़ारी क्या!
न पल बिछुड़े पिया हमसे,

न हम बिछुड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागा है,

हमन को बेकरारी क्या!

उन्होंने अपने जीवन की अंतिम कविता में लिखा था- ‘और करीब और करीब चलो तुम’ …और इतने करीब चली मैं कि रात में एकदम करीब मुझे सोता छोड़कर चुपचाप चले गये- जनम जनम की अपनी यात्रा के अगले पड़ाव पर. उस यात्रा में साथ दिये जाने के लिए अब तक जिये जा रही हूं… किसी दिन उनका हल्का-सा इशारा मिला कि चल दूंगी एक बार फिर जनम-जनम के पार वाली यात्रा के नये पड़ाव की ओर…

हम न मरैं मरि है संसारा
मोहि मिल्या जियावनुहारा         

(जनवरी 2016)

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