विज्ञान और आनंद

♦   नीत्शे    

    वैज्ञानिक कार्य और अनुसंधान करनेवाले व्यक्तियों को तो विज्ञान भरपूर आनंद देता है, परंतु जो केवल उसके परिणामों का अध्ययन करता है, उसे विज्ञान बहुत थोड़ा आनंद देता है. और चूंकि धीरे-धीरे विज्ञान के सभी बड़े सत्य एक दिन घिसी-पिटी चीज बन जाते हैं, इसलिए वह बचा-खुचा आनंद भी समाप्त हो जाता है, जैसे कि हम लोग पहाड़े के कमाल पर खुश होना कभी का बंद कर चुके हैं. परंतु यदि विज्ञान अपने आपमें अल्प-अल्पतर आनंद दे पाये और आश्वासनदायक अध्यात्म, धर्म और कला आदि पर संदेह बरसाने में अधिकाधिक आनंद पाने लगे, तो आनंद का वह सबसे बड़ा स्रोत सूखकर रह जायेगा, जिस पर मनुष्य को दोहरा मस्तिष्क मुहैया करना होगा, दो कक्षों वाला मस्तिष्क देना होगा-एक विज्ञान के अनुशीलन के लिए, दूसरा विज्ञानेतर बातों के लिए-दोनों पास-पास, परंतु पृथक. स्वास्थ्य के लिए यह नितांत आवश्यक है. एक कक्ष में शक्ति का स्रोत, और दूरे में नियंत्रक यंत्र (रेग्युलेटर) रहेगा. भ्रांतियां, एकांगिता, भावावेश- ये हमें गर्मी मुहैया करें. विवेकी विज्ञान अत्यधिक गर्म हो उठने के द्वेषपूर्ण खतरनाक परिणामों से बचाये. यदि उच्चतर सभ्यता की इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं की गयी, तो मानव-जाति का सारा ही भविष्य सुनिश्चित रूप से बता दिया जा सकता है. तब सत्य में किसी की दिलचस्पी नहीं रह जायेगी, क्योंकि सत्य कम आनंददायक होगा, भ्रांतियां, गलतियां और कोरी कल्पनाएं पहले जैसा वर्चस्व स्थापित कर लेंगी. क्योंकि वे आनंद से संबंधित हैं. अगला परिणाम होगा, विज्ञान की तबाही, और जंगली अवस्था में लौट जाना. तब मानव-जाति को फिर से अपना जाल बुनना आरंभ करना पड़ेगा. मगर यह आश्वासन कौन दे सकता है कि मानव-जाति में इसकी शक्ति रहेगी ही!

( फरवरी  1971 )

                    

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