(मन्नू भण्डारी का पत्र सुधा अरोड़ा के नाम)
दिल्ली – 7
29-3-68
प्रिय सुधा,
बड़े आत्मीय और उन्मुक्त भाव से लिखा तुम्हारा पत्र मिला. बहुत ही खुशी हुई. मैं उत्तर जल्दी ही देना चाह रही थी. पर कुछ तो कॉलेज के अंतिम दिन बहुत व्यस्त बना देते हैं और कुछ दांत में तकलीफ होने, डॉक्टरों के चक्कर लगाने के कारण समय ही नहीं मिला. खैर फिर भी बहुत देरी नहीं हुई है.
सबसे पहले कहानी की बात. तुम तुरंत ही अपनी कहानी धर्मयुग में वापस भेज दो, ज्यों की त्यों. कौन नाराज़ हो जायेगा और कौन बदनामी करेगा इसकी चिंता छोड़ दो. इस क्षेत्र में आने के बाद इस संदर्भ में खाल क़ाफी मोटी बना लेनी चाहिए. सारी दुनिया को करने दो बदनामी, कहानी अच्छी होगी तो मैं करूंगी ताऱीफ. तुम इस मामले में कतई संकोच मत करो. यदि कुछ संशोधन अनिवार्य लगते हों तो अवश्य करो, पर केवल कहानी को नज़र में रखकर, बदनामी के डर से नहीं. तो तुम कहानी भेज रही हो.
अब रही उपन्यास की बात. यों इस दिशा में कुछ भी उपदेश पिलाने का अधिकार मुझे नहीं है. मैं खुद आज तक एक भी उपन्यास नहीं लिख पायी हूं. अपेक्षित तटस्थता के अभाव में सारे दुख जैसे हरे हो जाते हैं, और फिर बजाये लिखने के उन ताज़ा हो आये घावों को ही सहलाने लगते हैं. पर अब वह अलगाव आ पाया है कि सारी स्थितियों में पूरी तरह involved भी हो सकूं और साथ ही तटस्थ भी रहूं. अब कोई बात छूती नहीं… बड़ी विचित्र सी है यह मनःस्थिति, पर फिर भी अच्छी लगती है.
तुम एक काम करो. अभी भावावेश की स्थिति में ही notes तो लेती चलो. कागज़ पर उंडेल कर भी मुक्त हो जाता है मन, बाद में अपने आप वह तटस्थता आ जायेगी, जो उन अनुभूतियों को संयमित करके एक अच्छे उपन्यास का रूप दे सके. मैं नहीं, अपना उपन्यास तुम स्वयं ही लिखोगी, मैं लिखवाऊंगी, देखती हूं कैसे नहीं लिखा जाता है. पर हां सुनूंगी ज़रूर. जिन बातों को तरह-तरह के अपवादों के रूप में सुनती आयी हूं. उनकी सच्चाई भी जानना चाहूंगी, और वह तुमसे ही मालूम हो सकती है. लेखक-वर्ग को तुमने गालियां दी हैं, मेरे अपने मन में भी दुर्भावना ही है और जब मैंने सुना तो यही बात सबसे पहले मन में आयी. तू देर से ही सही, बच तो गयी. यह कष्ट दो चार साल का होगा, वरना शायद सारी ज़िंदगी का हो जाता. लेखक दूर से ही जानने की ‘वस्तु’ है… आदर, श्रद्धा बनी तो रहती है, पास से जान-देखकर तो ऐसा मोह-भंग होता है कि बता नहीं सकती. थोथे दम्भ, झूठे अहं और स्वार्थ में लिपटा यह व्यक्ति न स्वयं किसी को प्यार कर सकता है, न किसी के प्यार की कदर ही कर सकता है. खैर छोड़ो इस परनिंदा पुराण को.
तुम लिखना बिल्कुल बंद नहीं करोगी, यह पक्की बात है. ‘धर्मयुग’ वाली कहानी तो तुरंत ही भेज दो. गालियां आदि बिल्कुल नहीं काटना. पत्र देना. अब कॉलेज से तो करीब-करीब मुक्ति मिल गयी है, और पढ़ने-लिखने को समय मिल जाया करेगा. वहां सबको मेरा प्रणाम देना.
सस्नेह
मन्नू
आंसू नहीं, शब्द बहें
कभी-कभी लगता है कि क्यों नहीं हम लोग अपने सारे उन अनुभवों को- जो जीवन को झकझोर देते हैं- लेखन का रॉ मटीरियल नहीं बना पाते? हमारा दुख केवल हमें तोड़ता ही चलता है… इस जीवन में जितना सहा है और जितना सहना बाकी है, उससे केवल आंसू ही बहेंगे या कभी शब्द भी बह सकेंगे? मैं आज जिस एटीच्यूड को अपनाने की कोशिश कर रही हूं, तुम उसे अभी से अपना लो. इस उम्र में शायद यह सम्भव हो सके. अपने व्यक्तित्व को एक अंग के सारे अनुभवों का केवल मात्र दृष्टा रखो जो कभी आगे आकर बड़े तटस्थ भाव से तुम्हारे ‘भोक्ता-अंश’ की हर सहानुभूति, हर उतार-चढ़ाव और हर जेस्चर को आंक सके. अपने को यों विभाजित करके जीना बहुत कठिन होता है, पर असम्भव नहीं.
मन्नू
(सुधा अरोड़ा को लिखे एक पत्र से)
(जनवरी 2016)