लड़ाई तो पितृसत्तात्मक संरचना से है

♦  सुधा अरोड़ा   >

पिछले पचास सालों में हमारी जीवन शैली, तौर-तरीकों, मनोरंजन के साधनों, बोली-बानी और हमारे समाज में लक्ष्य करने लायक तब्दीली देखी जा सकती है. बहुत नहीं, सिर्फ पचास साल पहले की हम बात करें तो औरतें अपने नाम से नहीं, रिश्तों से जानी जाती थीं. हर औरत के लिए फलां की मां, फलां की बीवी, फलां की बहू होना ही उनके होने की पहचान थी. हममें से कितनों को मालूम है कि हमारी परदादी या परनानी का नाम क्या था ? पुरुषों के नाम होते थे और नामों के पहले सरदार, ठाकुर, लाला, रायसाहब, मुंशी का सम्मानजनक ओहदा भी लगा रहता था लेकिन औरतें अपने नामों से नहीं, रिश्तों से ही जानी जाती थीं. संयुक्त परिवारों में इन्हें बड़ी बहू, मंझली और छोटी बहू कहकर बुलाया जाता था या फिर बीकानेर वाली काकी, रतनगढ़ वाली अम्मा, सीकर वाली मौसी का सम्बोधन दिया जाता पर इन औरतों को उनके नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता था.

परिवारों में जो वंशवृक्ष बनाये जाते थे, उनमें बेशक बेटों को औरतें जन्म देती थीं पर उस वंशवृक्ष के पूरे दस्तावेज में औरतों के नाम नदारद थे. कुछ परिवार अपवाद ज़रूर रहे होंगे पर मुख्यतः तस्वीर यही थी. औरत ने पढ़ना लिखना शुरू किया. जैसे ही पढ़ लिखकर उसने एक नाम पाया और अपनी एक पहचान – आइडेंटिटी – तैयार की, उसकी पहली टकराहट रिश्तों से हुई. सबसे पहले मां-बाप से क्योंकि लड़की का भविष्य उसके अपने हाथ में नहीं था. मां-बाप तय करते थे कि वह शादी कहां करेगी. यहां तक कि उसका आगे पढ़ना या नौकरी करना भी शादी के बाद उसके ससुराल वाले तय करते थे.

जब लड़कियां पढ़ने लगीं तो उनसे नौकरी करवाना आम मध्यवर्गीय परिवारों के लिए भी सम्मानजनक नहीं समझा जाता था और ऐसे परिवारों को पास-पड़ोस के लोग हेय दृष्टि से देखते थे जिनकी लड़कियां नौकरी करती थीं. यानी कुल जमा नतीजा यह कि लड़कियां पढ़ लिख रही थीं पर इसके बावजूद हमारे मध्यवर्गीय समाज ने एक तयशुदा ढांचा बना रखा था- एक फिक्स्ड पैटर्न- जिसमें पढ़ी लिखी लड़की को भी ठेंक पीट कर फिट कर दिया जाता था. हमारे समाज ने सबकी भूमिकाएं भी तय कर रखी थीं. पुरुष की स्पेस बाहरी थी और औरत की घर की चारदीवारी के अंदर. औरत ने जैसे ही इस स्पेस को लांघा कि पहले सवाल उठ खड़े हुए, फिर लांछन लगने लगे. औरत को बाहरी स्पेस से हमेशा काटने की कोशिश की गयी.  यहीं से प्रतिरोध के स्वर उठने शुरू हुए. यहीं से लावा फूटा.

भारतीय समाज में त्री शोषण का इतिहास जितना पुराना है, उतना ही त्री के प्रतिरोध और क्रांतिकारी तेवर का भी. पर त्री की सामाजिक स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया.

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन यानी डब्ल्यू.एच.ओ. की जून 2013 की रिपोर्ट मेरे सामने है- विश्व की हर तीन में से एक स्त्री घरेलू हिंसा की शिकार है, इसमें एशिया और मिडल ईस्ट देशों में तादाद ज्यादा है. डब्ल्यू.एच.ओ. के स्त्री बाल स्वास्थ्य विभाग की प्रमुख फ्लेविया बुत्रेओ ने कहा- ये आंकड़े चौंकाने वाले हैं और इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात है कि यह किसी एक देश में नहीं, पूरे विश्व का फिनॉमिना है.

स्त्री की समस्या वैश्विक है. सदियों से उसे दोयम दर्ज़ा दिया गया. धर्म, रूढ़ियों, सामाजिक परम्पराओं में उसे निचली पायदान पर रखने के हर सम्भव प्रयास किये गये. उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में, पूरे विश्व में, व्यवस्था के खिलाफ़ त्रियों की एकजुट आवाज़ सुनाई दी. अरब देशों में सुन्नत की प्रथा के खिलाफ़, चीन में पैरों को बांधकर छोटा रखने की प्रथा के खिलाफ़, विकसित देशों में नारी अधिकारों को लेकर– विश्व भर में आंदोलन खड़े हुए. स्त्रीयों ने व्यवस्था के सामने अपने सवाल रखे. आज भारत में भी स्त्रीयां हर मोर्चे पर जागरूक हो रही हैं पर बदलाव के लिए हमारा समाज तैयार नहीं है.

एक ओर त्री पर हिंसा के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं, दूसरी ओर साहित्य के बाज़ार में पुरुष विमर्श का एक नया झुनझुना विमर्शकारों को लुभा रहा है. पुरुष विमर्श और स्त्री विमर्श- दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. त्री विमर्श भी दरअसल पुरुष की मानसिकता, व्यवहार और व्यवस्था का आकलन ही रहा है. हमारी सामाजिक संरचना पितृसत्तात्मक रही है जिसमें सारा अधिकार पुरुषों के हाथ में होता है. यह अधिकार- बोध उन्हें शोषण और प्रताड़ना का हक दे देता है. ज़ाहिर है, वे किसी भी रूप में हुक्मउदूली बर्दाश्त नहीं कर सकते– चाहे वह किसी स्त्री का इनकार और प्रतिरोध हो या मातहत का.

अगर हम कारणों की तह तक जायें तो सारा असामंजस्य और असंतुलन सामाजिक व्यवस्था में ही है जिसके कारण पुरुष अपनी वर्चस्ववादी भूमिका से बाहर आकर सोच ही नहीं पाता. बचपन से ही उसे सत्ता, ताकत और त्री से बेहतर होने की घुट्टी इस कदर पिला दी जाती है जिसका असर, बालिग होने के बाद भी, उसके ज़ेहन में बरकरार रहता है और अंततः अपने और अपने परिवार के लिए वह ऐसा त्रासद माहौल खड़ा कर देता है जो ध्वंस की ओर ही ले जाता है.

सिमोन की विख्यात पंक्ति है – ‘One is not born a woman, but becomes one.’  जिस तरह लड़की पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है, वैसे ही लड़का भी पैदा नहीं होता, उसे बचपन से ही ठोक पीट कर लड़का बनाया जाता है. वह रोये तो उसके आंसू छीन लिये जाते हैं – क्या लड़कियों की तरह रोता है ! (यानी रोना गले तक आये तो भी आंसू मत बहा, क्योंकि आंसुओं पर लड़कियों की बपौती है) उससे कोमल, नरम, भीगे रंग छीन लिये जाते हैं- तू क्या लड़की है जो पीला गुलाबी रंग पहनेगा? उसके लिए गाढ़े रंग हैं- काला, भूरा, गहरा नीला रंग ही उस पर फबेगा, आसमानी या गुलाबी में तो वह लड़की दिखेगा! उसे सॉफ्ट टॉयज़ नहीं दिये जाते – तू क्या लड़की है, जो गुड़िया से खेलेगा! उसके हाथ में पज़ल्स, ब्लॉक्स, बंदूक और मशीनी औजार थमा दिये जाते हैं. कुल जमा बात यह कि एक बच्चे को शुरू से ही कठोर, रुष्क-शुष्क, वर्चस्ववादी हिंसक होने का रोल थमा दिया जाता है.

माना कि प्रकृति ने स्त्री और पुरुष की जैविक संरचना में आधारभूत अंतर रखा है पर प्रकृति ने जिस अंतर को एक दूसरे के पूरक के रूप में गढ़ा है, हम उसे ठोक-पीट कर दो परस्पर प्रतिद्वंद्वी या विपरीत खेमे में बदल देते हैं. दोनों युद्धरत पक्ष ताउम्र सींग लड़ाते आपस में लहूलुहान होते रहते हैं या एक फुंफकारता है और दूसरा अपने बचाव में आड़ लेता उम्र गुज़ार देता है. दरअसल पुरुष स्वयं भी उसी सामाजिक व्यवस्था, परम्परागत सोच और रूढ़िग्रस्त संस्कारों का शिकार (विक्टिम) है !

एक ओर लड़के की बचपन से ही ऐसी कंडीशनिंग, दूसरी ओर सदियों से लड़कियों के लिए मनाहियों और हिदायतों की लम्बी फेहरिस्त. जब परिवार बना तभी से यह दोयम दर्जा तय हुआ. पुरुष ने त्री को घर के काम दिये. वह बाहर गया. जाने-आने के बीच उसके काम के घंटे निश्चित हुए, लेकिन स्त्री के काम के घंटे तय नहीं हुए क्योंकि वह बाहर गयी ही नहीं. इसीलिए एक स्त्री के काम के घंटे जागने से शुरू होते हैं और सोने तक चलते रहते हैं. चूंकि पुरुष के काम के घंटे तय थे इसलिए उसका परिश्रमिक तय था. पारिश्रमिक तय होने से उसका दर्जा भी तय था. लेकिन स्त्री का कुछ भी तय नहीं था बल्कि उसपर सब थोपा हुआ था इसलिए उसका दर्जा शुरू से ही कमतर हो गया, जो पारिवारिक रूप से आज भी वैसा ही चला आ रहा है.

शिक्षा से त्रियों का जागरूक होना स्वाभाविक था. लेकिन बाहरी स्पेस में उनका काम स्कूल में अध्यापन करने तक ही सीमित रहा. शिक्षा के बाद की दूसरी सीढ़ी आयी, उन्हें आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया गया और शिक्षण से आगे, बैंकों में, सरकारी दफ्तरों में, कॉरपोरेट जगत में और अन्य सभी क्षेत्रों में स्त्रीयों ने दखल देना  शुरू  किया. आर्थिक रूप से हर समय अपना भिक्षापात्र पति के आगे फैलाने वाली स्त्री ने घर को चलाने में अपना आर्थिक योगदान भी दिया. पर इससे उसके घरेलू श्रम में कोई कटौती नहीं हुई. इस दोहरी ज़िम्मेदारी को भी उसने बखूबी निभाया. माना कि भारतीय समाज में वैवाहिक सम्बंधों में बेहतरी के लिए समीकरण बदले हैं, पर वह स्त्रीयों के एक बहुत छोटे- से वर्ग के लिए ही है – जहां पुरुषों में कुछ सकारात्मक बदलाव आये हैं. मध्यवर्गीय त्री के एक बड़े वर्ग के लिए आज स्थितियां पहले से भी बहुत ज्यादा जटिल होती जा रही हैं. अगर ऐसा न होता तो  2011 में मुंबई महानगर में चार महीनों में चार सी.ए., एम.बी.ए., आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर, नौकरीपेशा लड़कियां इस तरह आत्महत्या नहीं करतीं. घरेलू हिंसा पर खूब बात की जाती रही है. हर देश में सालाना इस हिंसा के आंकड़े मौजूद हैं पर मार- पीट वाली हिंसा से कहीं ज्यादा, लगभग शत प्रतिशत त्रियां जिस भावात्मक हिंसा या अनचीन्ही मानसिक प्रताड़ना का शिकार होती हैं, इसके आंकड़े कहां मिलेंगे, जब पीड़ित खुद उसे पहचान नहीं पा रहा.

यौन या भावात्मक शोषण से निबटने के लिए पहले लैंगिक वर्चस्व (Gender Hierarchy) और लैंगिक शोषण (Gender Violence) की पहचान करनी होगी जिसकी नींव पर यह समाज बाहर से दिखती खुशहाली पर टिका हुआ है जबकि स्त्री सम्बंधी सारी समस्याओं की जड़ लैंगिक वर्चस्व है. इसकी पहचान के बगैर शोषण और हिंसा की दिशा में कदम बढ़ाना वैसा ही है जैसे खराब जड़ को नज़रअंदाज कर आप सूखती शाखों और मुरझाये पत्तों का इलाज करते रहें.

समय के बदलने के साथ जब औरतें काम के लिए घर की छोटी स्पेस से बाहर के बड़े कार्यक्षेत्र में दखल देने लगीं तो बिल्कुल उसी तरह जैसे पुरुषों ने स्त्री की भावनात्मक कमज़ोरी की नस पहचान ली थी, स्त्रीयों ने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते पुरुषों की कमज़ोर नस भांप ली – उसकी यौन कामनाएं. देह मुक्ति के नाम पर अपनी देह पर अपना हक और देह के आज़ाद होने के सारे फलसफ़े हमारे साहित्य के विचारकों ने उन्हें थमा दिये. अब स्त्रीयों की एक जमात नैतिकता को तिलांजलि देकर और मूल्यों को ताक पर रखकर वही करने लगी जो पुरुष आज तक करता आया था. भावना को देह से वनवास दिया और पूरी तरह देह बनकर रह गयीं. पुरुषों को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया और मंज़िल की ओर कदम बढ़ाये. कितनों को पीछे फेंका, देखने की न फुर्सत रही, न ज़रूरत. इस जमात के खिलाफ़ पुरुषों को खड़ा होना चाहिए था पर वे इसे सिर माथे बिठा रहे हैं. सम्बंध भावना-संवेदना विहीन होकर रह गये. सारा असंतुलन यहां से शुरू हुआ. तराजू का एक पलड़ा झुक जाये और दूसरा अपनी ही जगह अड़ा रहे तो संतुलन कैसे बनेगा? हमारी पूरी लड़ाई तो सामाजिक पितृसत्तात्मक संरचना से है, सिर्फ पुरुष से नहीं. और सिर्फ स्त्री के लिए नहीं.

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आज एक अलग किस्म की पुरुषवादी जमात भी खड़ी हो रही है, जिसका फलना-फूलना-पनपना पुरुषों के हक में कतई नहीं है क्योंकि पुरुष को अपना सामंजस्य बिठाने के लिए आखिर कोमलता और संवेदना की ही ज़रूरत होगी, स्त्री में जगते एक पुरुष की नहीं. पुरुष तो स्त्री कभी बन नहीं सकता पर स्त्री का पुरुष बन जाना और ज्यादा खतरनाक है. एक दूसरे का पूरक और सहयोगी बनकर ही गृहस्थी की गाड़ी चल सकती है- यह एक बहुत पुराना जुमला है जिसे आज की स्थितियों ने चलन से बाहर (ऑब्सोलीट) कर दिया है.

इसमें संदेह नहीं कि आज पूरे विश्व में एक भ्रम, असंतुलन और दिशाहीनता का माहौल पैदा हो गया है. त्रियां अपनी देह पर सिर्फ पोशाक ही नहीं, अपने त्रियोचित गुण त्याग कर, मर्दाना अंदाज़ में बेखौफ़ गाली-गलौज की भाषा इस्तेमाल कर, सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए अपने को पुरुषों के पेडेस्टल पर खड़ा करने में अपने जीवन की सार्थकता समझ रही हैं और उन्हें लगता है कि वे इसी तरह इस सामंती वर्ग को ‘सबक’ सिखा सकती हैं. स्त्रीयों के आक्रामक बयान स्त्री भाषा के मानक को धूल चटाते दिखाई देते हैं. स्त्री प्रेम और संवेदना को दरकिनार कर अगर पुरुष जैसी बर्बर और नृशंस बनती है तो उसकी आज़ादी या बहादुरी पर फख्र करने का कोई कारण नहीं है.

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भारत ही नहीं, पूरे विश्व में दाम्पत्य सबसे गज्यादा जटिल, संश्लिष्ट और कठिन ‘पज़ल’ है जिसे सुलझाना बड़े बड़े विमर्शकारों के बस का नहीं है. इस गुत्थी को जितना सुलझाने की कोशिश करो, यह उतना ही उलझती जाती है. दोनों पक्ष एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं जबकि दोषी तीसरा है और वह आकार में इतना बड़ा है कि सामान्य आंखों से हमेशा ओझल ही रहता है. जैसे भारतीय रसोई में दो बर्तन बिना टकराये नहीं रह सकते, यहां दो व्यक्ति टकराने में ही उम्र गुज़ार देते हैं. इन बर्तनों में से एक को अगर बदल भी दिया जाता है तो वह बदला हुआ बर्तन पहले से गज्यादा शोर पैदा करता है.

कहा जाता है कि दाम्पत्य में दोनों में से जो पक्ष सहृदय और सहनशील होगा, वही दबाया जाएगा- वह स्त्री हो या पुरुष. या जिसके पास अर्थसत्ता होगी, वह भिक्षापात्र बढ़ाने वाले पक्ष पर अपना रुआब जतायेगा. यानी हर हाल में एक पक्ष दूसरे पर हुकूमत करेगा ही. एक पीड़ित ही होगा और दूसरा उत्पीड़क. अधिकांश शादियां समझौते पर ही टिकी होती हैं, जिसमें एक पक्ष शासन और नियंत्रण करता है और दूसरा पक्ष उन दबावों के तले ज़िंदगी गुज़ार देता है. एक पक्ष की सहनशीलता पर ही यह गठबंधन टिका रहता है और 95 प्रतिशत (या इससे ज्यादा) यह पक्ष स्त्री का ही होता है.

गरज यह कि कुछ खुशकिस्मत कहे जाने वाले अपवादों को छोड़ दें तो औसत दाम्पत्य जीवन एक कसाईबाड़ा है, जहां एक कसाई है और दूसरा जिबह होने को तैयार खड़ा है. इस सच्चाई से भला कौन मुंह मोड़ सकता है !

दरअसल विवाह संस्था आज भी निष्ठा, समर्पण और साहचर्य की प्रतीक है. अमेरिका जैसे खुले समाज में जहां देह की वर्जना नहीं है, वहां भी दाम्पत्य के मूल में निष्ठा ही है. वहां भी विवाहेतर सम्बंध तलाक का बायस बनते हैं. वहां भी बच्चों के भविष्य और मानसिक स्वास्थ्य और विकास के मद्देनज़र कई-कई शादियां – टूटने की कगार पर पहुंचकर भी समझौते पर पहुंचती हैं और निस्संदेह विवाह संस्था का बचा रहना यह बच्चों के पक्ष में जाता है और उनके भविष्य को सुरक्षित होने का अहसास दिलाता है.

अफसोस इस बात का है कि त्रियों का भी पूरा फोकस इस पुरुष-व्यवस्था का हिस्सा बनने में है. साहित्य हमेशा शोषित के पक्ष में खड़ा होता है पर महिला रचनाकारों का ऐसा अवसरवादी साहित्य जो पुरुषों के इंगित पर चलता है, कितना स्त्री सशक्तीकरण में योगदान दे पाएगा, मालूम नहीं. आखिर बदलाव ज़मीनी तौर पर स्त्रीयों के लिए काम करनेवाले गैर महत्त्वाकांक्षी कार्यकर्ताओं से ही आएगा. साहित्य के जरिए हम कितना कर पाएंगे, कभी कभी यह सोच ही निराशा के गर्त में धकेल देती है. आज समाज में बदलाव लाने की इच्छा रखने वाली सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामने दोहरी लड़ाई है. इनकी पहली लड़ाई स्त्री देह में पुरुष सोच को पुष्पित पल्लवित करने वाली इन स्त्रीयों से ही है, पुरुषों का नम्बर तो दूसरा है. पुरुष चाहें तो इस वाक्य को पढ़कर खुश हो सकते हैं कि ‘डिवाइड एंड रूल’ के तहत चित भी उनकी रही और अब पट भी.

अफसोस इस बात का भी है कि आज ऐसी स्त्रीयों की एक ब्रीड पनप रही है जिसके लिए नैतिकता और एकनिष्ठता कोई मूल्य नहीं रही. इन मूल्यों के छूटते ही, संकोच और संवेदना दोनों तिरोहित हो जाते हैं. इस जमात के सामने कोई अवरोध और रुकावटें (इनहिबिशंस) नहीं हैं, इसलिए ये कोई हर्ट अपने साथ ले कर नहीं चलती. जैसे पुरुष अपनी एकनिष्ठ पत्नी की बेकद्री कर, उसे छोड़ने में और दूसरा सम्बंध बनाने में कोताही नहीं बरतते थे, ये स्त्रीयां भी न अपने पतियों की परवाह करती हैं, न छूट गये पेमियों की. संकोच और आचार संहिता को ताक पर रख कर इनके लिए जीना ज्यादा आसान हो गया. देह युक्त और भावना मुक्त होने के आज के प्रैक्टिकल या बाज़ार-प्रमुख समय में बड़े शुभ लाभ हैं. प्रेम अब अपने साथ आहत भावनाओं का पैकेज लेकर नहीं आता. वह ‘प्रेम’ की पुरानी परिभाषा से बाहर आ चुका है. अब वह प्रेम कम और अर्थशात्र का नफ़ा-नुकसान वाला बही-खाता ज्यादा बन गया है.

स्त्री विमर्श का हश्र हम देख ही रहे हैं. बोल्डनेस के नाम पर पत्रिकाओं के पन्नों पर देह विमर्श परोसा जा रहा है. जब स्त्री विमर्श शब्दकोष में सो रहा था, तब बग़ैर नारों और नगाड़ों के त्रियों के हक में ज्यादा महत्त्वपूर्ण रचनाएं लिखी गयीं. आज विमर्श का जिन बोतल से बाहर आ गया है और हड़कंप मचा रहा है. महिला रचनाकारों की एक बड़ी जमात बिना किसी सरोकार और प्रतिबद्धता के स्त्री विमर्श कर रही है और साहित्य के पन्नों पर कहानी और कविता के नाम पर रसरंजक साहित्य परोस रही है. यह एक अलग किस्म का एंटी क्लाइमेक्स है. एक ओर सदियों से चली आ रही दासता झेलने को अभिशप्त स्त्री, दूसरी ओर अपनी देह को दांव पर लगाते हुए पुरुष की ही शतरंजी बिसात पर उसके ही मोहरों और उसकी ही चालों से उसे नेस्तनाबूद करती जमात. एक गुलामी को तोड़ने के लिए सिर्फ जगह बदल लेना और गुलाम का शोषक की भूमिका में उतर आना कोई समाधान नहीं हो सकता. स्त्री विमर्श को तो पुरुषों ने ही अपनी मनमर्ज़ी से संचालित किया और यह तो खालिस पुरुषों का तमाशा है ही, जिसे कंधा देने के लिये ऐसी औरतें मौजूद हैं.   

दरअसल पुरुषों के समानांतर, पुरुषनुमा त्रियों की एक व्यावहारिक जमात पनप रही है. इस व्यावहारिक जमात से पुरुषों को परहेज़ होना चाहिए था. ऐसा नहीं हुआ. इसके विपरीत आततायी और निरंकुश पुरुषों से इन पुरुषनुमा स्त्रीयों का गठबंधन बहुत मजबूत होता जा रहा है. आज के धकमपेल वाले उपभोक्तावादी समय में महत्वाकांक्षाओं और लिप्सा की मारी जमात है यह. नैतिक मूल्यों को थाती की तरह बचाकर रखने वाली कुछेक ‘सिरफिरी’ स्त्रीयों को शुद्धतावादी ठहराकर, उनपर ‘मॉरल पोलिसिंग’ का लेबल लगाकर, उनके जनाज़े को कंधा देने के लिए, ये पुरुष और त्रियां एक साथ ताल से ताल मिलाकर चल रहे हैं. साहित्य के संसार में धकमपेल से अपनी जगह बनाती यह नियो रिच क्लास, जिसके रचनात्मक साहित्य का कोई सामाजिक सरोकार नहीं है, जो ‘खाओ पियो मौज करो’ वाले फलसफे में यकीन करती है और जिसका देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और समाज की विसंगतियों से, कोई वास्ता नहीं है, जो आज की नयी लड़की के हाथ में गला फाड़ चिल्लाने वाला भोंपू थमाकर बगावत का बेसुरा बिगुल बजाना चाहती है, जिसका एकमात्र सरोकार त्री में नयी किस्म की पनपती यौनिक आज़ादी है, अगर एक-दूसरे का हाथ थामे, आज आपके सामने बढ़ती चली जा रही है तो इन्हें आप कैसे ध्वस्त करेंगे! इनके पास तो खोने के लिए भी कुछ नहीं है!

(मार्च 2014)

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