रोशनियां और रात

♦   सुखबीर     

 यह सातवां या आठवां स्केच है, जो मैं अभी-अभी बनाकर हटा हूं. पर वह बात, जो मैं कहना चाहता हूं, इसमें कही नहीं जा सकी है. रेखाएं हैं, कोण हैं, गोलाइयां हैं, और प्रभाववादी ढंग से बात कहने की तकनीक, पर वह जो मेरे अंदर है, बाहर नहीं आ सका है. बाहर आ गया होता, तो मैं हल्का न हो जाता? अभी भी मेरे अंदर वही दर्द है, वही उदासी और अंधकार.  यह एक अंधी भिखारिन का स्केच है. आम भिखारिनों जैसी भिखारिन. पास सोये हुए उसके दो बच्चे. इस भिखारिन को मैं हमेशा स्टेशन के बाहर बैठे हुए  देखता हूं. सुबह, दोपहर, शाम और रात हर समय. छोटा-सा कद. सूखी लकड़ी-सा शरीर. स्याह रंग. एक आदिकालीन भूख. एक ममता, जिसके बेआवाज ओंठ बच्चों का वास्ता दे रहे हैं. और दो अंधेरी आंखें, जो लोगों के कदमों की आहटों में उनके चेहरे पहचान रही हैं…

    पता नहीं, आज मेरे हाथ को क्या हो गया है. वह मेरे दिल की बात क्यों नहीं कह पा रहा है? मेरा विश्वास है कि जहां शब्द बात करने में असमर्थ हो जाता हैं, वहां रेखाएं बात कह जाती है. एक प्रभाव ही तो पैदा करना होता है… प्रभाव, जो बिना बोले ही दूसरों के दिल में उदासी, गमी, या खुशी का भाव पैदा कर दे. यदि आज रेखाओं की चुप बोली भी बात न कह सकी, तो फिर वह बात कैसे कही जायेगी, जो मेरे अंदर बर्फ की तरह जमी हुई है? 

    आखिर मैं यह अंतिम स्केच भी फाड़ डालता हूं और अलसायी हुई आंखों से खिड़की में से बाहर देखने लगता हूं.

    सामने छोटे-छोटे घरों की बस्ती है. रात का अंधेरा फैलना शुरू हो गया है. घरों में बत्तियां जल उठी हैं. किसी घर में दिया, किसी में लैम्प, किसी में बिजली का बल्ब. रात के अंधकार में रोशनी से भरे हुए ये घर मेरे मन को आकर्षित करते हैं. रोशनी भी एक रंग है, जो मेरी आंखों को मंत्रमुग्ध करती है. रोशनी को मैं सबसे सुंदर रंग मानता हूं. रात के अंधकार में मंद-मंद रोशनी से जगमगाते हुए घरों को मैंने कई बार चित्रित किया है. अंधकार में कोई जगमगाती हुई खिड़की, कोई जगमगाता हुआ दरवाज़ा,कोई जगमगाता हुआ रोशनदान.

    आज किसी-किसी घर में ज़रा ज़्यादा रोशनी है. किसी दरवाज़े के सामने दो दिये जल रहे हैं. किसी मकान के ऊपर बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों की कतार है. आज छब्बीस जनवरी है… हिंदुस्तान के पूर्ण स्वतंत्र गणराज्य बनने की सालगिरह. लोग खुशियां मना रहे हैं. मैं इन खुशियों को देखता हूं. खुशियां भी रंग-बिरंगी रोशनियां हैं. फीके और शोख रंग.

    मैं देशपांडे की राह देख रहा हूं. उसे दफ्तर से आना है. वह एक दैनिक समाचारपत्र में काम करता है, सम्पादकीय विभाग में. यह उसी का कमरा है. मैं कुछ दिनों के लिए उसके यहां आया हुआ हूं. उसने कहा था कि वह आज जल्दी ही आ जायेगा और मुझे साथ लेकर छब्बीस जनवरी की रौनक दिखाने शहर ले चलेगा. छब्बीस जनवरी के दिन इस शहर की रौनक देश-भर में मशहूर है. इतनी रोशनी और कहीं नहीं की जाती. इतनी खुशियां और कहीं नहीं मनायी जातीं. सुना है, सारा शहर रोशनियों से जगमगा उठता है. इस शहर में तो आम दिनों में भी काफी रौनक होती है. एक मेला-सा लगा रहता है. रोशनियों से रास्ते और बाज़ार धुले रहते हैं. ऐसे शहर में छब्बीस जनवरी की रात की तो बात ही अलग होगी.

    मैं एक-दो बार दरवाजे की ओर देखता हूं. पता नहीं, देशपांडे कब आये. मैं फिर खिड़की में से सामने की बस्ति को देखने लगता हूं. दो साल पहले भी मैं यहां आया था. अपने शहर के आर्ट-स्कूल के चित्रों की एक प्रदर्शनी के सिलसिले में. वे दीवाली के दिन थे. इस बस्ती में सैकड़ों दिये जलाये गये थे. दियों की कतारें-ही-कतारें. घरों की छतों पर दिये. घरों के अंदर भी दिये. घरों की नित्यप्रति की धुंध और उदासी दूर हो गयी थी. रोशनी ने हर घर की रूप-रेखा को उजागर कर दिया था.

    वनवास काटकर श्रीरामचंद्र के अयोध्या लौटने की घटना को आज हज़ारों सालों के बाद भी लोग उसी चाव से खुशियां मना रहे थे. पर आज़ादी की खुशियों को तो अभी कुछ ही साल हुए हैं. फिर भी आज इस बस्ती में क्यों किसी-किसी घर में ही रोशनी है?

    दरवाज़ा खुलते ही मेरा ध्यान टूटता है. देशपांडे जल्दी-जल्दी आता है. आते ही सम्पादक को गाली देते हुए कहता है- ‘जितनी जल्दी की सोचता था, उतनी ही देर हो गयी. खैर, कोई बात नहीं. रात-भर रौनक रहेगी. अब सारी रात अपनी ही है.’

    उसकी नज़र मेरे फाड़े हुए स्केचों की ओर जाती है, जो नीचे बिखरे हुए हैं. उन्हें देखकर वह बस मुस्कराता है. कुछ नहीं कहता.

    हम तैयार होकर शहर चल पड़ते हैं. स्टेशन पहुंचने पर एक क्षण के लिए मेरी नजर उस भिखारिन पर पड़ती है, जिसका स्केच मैं बना रहा था. मुझे लगता है, जैसे मैं उसका कर्जदार हूं. कर्ज उतारे बिना मैं हल्का नहीं हो सकूंगा. मैं वहा रुकता नहीं देशपांडे के साथ जल्दी-जल्दी आगे बढ़ जाता हूं.

    स्टेशन रोशनियों से जगमगा रहा है. लोकल गाड़ियां जैसे रोशनियों का सिंगार किये हुए आ-जा रही हैं. उन पर बिजली के बल्बों से बनाये गये तिरंगे झंडे हैं. परी-कहानियों में ही ऐसी गाड़ियों की कल्पना की जा सकती है. हम गाड़ी में चढ़ते हैं. लोगों से खचाखच भरी हुई गाड़ियां दो-दो, तीन-तीन मिनिट के बाद स्टेशनों पर रुकती हुई शहर की ओर जा रही हैं. लोगों की भीड़ है, शोर है, खुशियां है. सड़के भी लोगों, कारों, बसों, ट्रकों से भरी हुई हैं. लोगों की घुटन  से भरी हुई जिंदगियों को आज खुलकर हंसने, गाने, शोर मचाने का मौका मिला है.

    हम शहर के अलग-अलग इलाकों में घूम रहे हैं. ज्यादातर रोशनी सरकारी इमारतों पर है. जी खोलकर खर्च किया गया है. उनके सामने आम इमारतें झेंपती हुई-सी लगती हैं. बहुत कम रोशनी है उन पर. बस रंग-बिरंगे पंद्रह-बीस बल्बों की कतार, या बल्बों से निर्मित तिरंगा झंडा या अशोक चक्र. जैसे कोई स्त्राr बस नाम के लिए एक-दो गहने पहन ले. मेरी आंखें उन रोशनियों को लगातार पी रही हैं. रोशनी ही जिंदगी है अंधेरा तो अज्ञात है. रोशनी ही एक ऐसा रंग है, जिसमें कई रंग है. हम घूम रहे हैं. काश, हर रात ही ऐसी रात हो. सारी जिंदगी ही ऐसी जिंदगी हो. रोशनी से धुली हुई रात. रोशनी से चमकती हुई जिंदगी.

    देशपांडे कहता है- ‘अगर थके नहीं हो, तो खास तौर पर एक जगह तुम्हें दिखाना चाहता हूं. आज की रात उसे देखना बहुत ज़रूरी है.तुम पसंद करोगे?’

    मैं कहता हूं- ‘आज की रात जहां चाहे ले चलो. मैं सारी रात घूम सकता हूं. कई राते घूम सकता हूं.’

    वहां जाने के लिए हम एक बस में बैठते हैं. आज की रात बस का सफर भी परीलोक का सफर है.

    कुछ देर के बाद हम वहां पहुंच जाते हैं. इस बस्ती का देशपांडे ने पहले भी जिक्र किया था. यह इस शहर की बहुत ही घनी बस्ती है. बड़ी-बड़ी मिलें हैं, जो रोशनियों से जगमगा रही हैं. छोटे-छोटे, तंग घरों में भी मद्धिम-सी रोशनी  है. किसी-किसी घर के सामने खास तौर पर रोशनी की गयी है. किसी दरवाज़े के सामने चार-पांच बल्बों की कतार. किसी दरवाज़े के सामने लाल या हरे रंग का गुब्बारा…

    देशपांडे एक जगह रुकता है. ‘इसी जगह मैं पकड़ा गया था, ’ वह कहता है- ‘इसी दिन. सन 1950 में जब हिंदुस्तान में यह दिन मनाया जा रहा था, वामपक्षी पार्टियों ने प्रदर्शन किये थे कि यह आज़ादी अधुरी है. हमें पूरी आज़ादी चाहिए…’

    वे भी कैसे दिन थे! पर अब वे दिन बहुत दूर चले गये हैं.

    मैं उस स्थान को देखता हूं और फिर चारों ओर नज़र घुमाता हूं. शहर के जिस इलाके से हम आये थे, उसके मुकाबले यह इलाका बिलकुल अलग-सा है. छोटे-छोटे घरों की बहुत घनी बस्ती है यह मिलें उसमें सिर निकाले हुए बहुत ऊंची लगती हैं. रोशनियों से जगमगाती हुई होने के कारण और भी ऊंची.

    हम काफी देर तक वहां की सड़कों पर घूमते रहते हैं. छोटी-छोटी तंग गलियों में घूमते रहते हैं.

    आखिर देशपांडे पूछता है- ‘अब कहां चलें? फिर वहीं चलें, जहां से आये हैं… या कहीं और चलें?’

    मैं कहता हूं- ‘नहीं, अब घर चलो. काफी थकावट महसूस हो रही है. रात के दो बज रहे हैं.’

    वहां से हम पास के एक लोकल स्टेशन पर जाते हैं. गाड़ी में बैठते हैं. रोशनियों के सिंगार में किसी परी-लोक से आयी गाड़ी.

    आखिर हमारा स्टेशन आता है. स्टेशन से बाहर निलते हैं, तो अनायास ही मेरी दृष्टि बायें हाथ जाती है, जहां भिखारिन बैठा करती है. मुझे यह देखकर हैरानी होती है कि वह अभी तक वहीं बैठी हुई है. उसके दोनों बच्चे पास में सोये हुए हैं. और वह हाथ पसारे अपनी चुप आवाज़ में आ-जा रहे लोगों से पैसे मांग रही है. एक ममता, जिसके बेजबान ओंठ बच्चों का वास्ता दे रहे हैं. और दो अंधेरी आंखें, दो अंधेरी आंखें, दो अंधेरी आंखें….

    मुझे लगता है, मेरे चारों ओर अंधेरा-ही -अंधेरा है. एक लहराता हुआ अंधेरा एक जमा हुआ अंधेरा.

    वहां से घर पहुंचने तक मैं चुप रहता हूं. देशपांडे एक बार कोई बात करता है, पर मेरी चुप्पी नहीं टूटती.

    हम घर पहुंचते हैं. खिड़की में से सामने की बस्ती की ओर देखता हूं, जो अब अंधकार में सोयी हुई है. फटे कपड़े पहने किसी थकी हुई स्त्राr की तरह.

    आखिर मैं उधर से नज़र हटा लेता हूं. फिर कागज-पेंसिल लेकर उस भिखारिन का स्केच बनाने लगता हूं. बस, देखते-देखते मेरे अंदर का गम जैसे पिघलकर बाहर आ जाता है. और वह स्केच बन जाता है, जिसे मैं इस बार किसी कीमत पर फाड़ने के लिए तैयार नहीं हूं. मेरा विश्वास फिर से दृढ़ हो जाता है कि मेरे हाथ मेरे दिल की बात कहने में असमर्थ हैं.

    मैं देशपांडे को स्केच दिखाता हूं. स्केच को बड़े ध्यान से देखते हुए उसके ओठों पर हल्की-सी मुस्कराहट है और आंखों में अंधी भिखारिन की आंखों का अंधेरा. वह कुछ नहीं बोलता. बस, देखे जा रहा है. फिर उसके ओठों की मुस्कराहट गायब हो जाती है और आंखों का अंधेरा और गहरा हो जाता है.

( फरवरी  1971 )

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