♦ हरिशंकर
दुरुस्त दिमाग के आदमी को विक्षिप्त, कहकर पागलखाने में बद कर दिये जाने की कथाएं हम सबने बहुधा पढ़ीं और फिल्मों में देखी हैं. आलोचकों का कहना है कि रूस में ऐसी वारदातें बहुत बड़े पैमाने पर घट रही हैं और रूसी सरकार उनकी सूत्रधार है.
अभी कुछ समय पूर्व बी.सी.सी. पर प्रसारित एक टेप-रिकार्ड में रूसी बुद्धिजीवी आंद्रेई अमालरिक ने कहा था-
‘इस (रूसी) शासन का सबसे जुगुप्सित कृत्य है, विरोधियों को पागलखाने में बंद कर देना. साथ ही यह मुझे शासन की सबसे बड़ी वैचारिक पराज्य भी प्रतीत होती है कि वह विरोधियों से पाला पड़ने पर उन्हें पागल करार देने के सिवा कुछ न कर सके.’
‘मैं ऐसे बहुत व्यक्तियों को अच्छी तरह जानता हूं, जिन्हें मानस-रोगों के अस्पतालों में मडाल दिया गया है और घोषित कर दिया गया है कि वे अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं.’
अमालरिक ने उदाहरणार्थ जनरल ग्रिग्रोरेन्को और इवान याकिमोविच का नाम लिया और कहा था- ‘मैं बताना चाहता हूं कि ये सब बिलकुल स्वस्थ और सही सोचने वाले व्यक्ति हैं और उन पर बड़ा-बड़ा कहर ढाया गया है. उन्हें वहां असली पागलों के बीच रहना जीना पड़ रहा है, सो भी अनिश्चित काल के लिए, क्योंकि अदालती फैसले में मियाद नहीं बतायी गयी है.’
इस अमानवी अनीति के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों में ‘क्या सोवियत रूस 1988 तक टिका रह सकेगा?’ के लेखक आंद्रेई अमालरिक अकेले नहीं है.
गत जून में, रूसी सरकार को विज्ञानी जोर्स मेड्वेडेव को पागलखाने से छोड़ना पड़ा, क्योंकि रूसी हाइड्रोजन बम के जनक आंद्रेई सखारोव इत्यादि कई प्रतिष्ठित बौद्धिक नेताओं ने मेड्वेडेव की गिरफ्तारी का सख्त विरोध किया था.
मेड्वेडेव मेडिकल रेडियोलाजी के एक संस्थान के विभागाध्यक्ष थे. उनकी एक पुस्तक चोरी से पश्चिम यूरोप पहुंची और वहां छपी. इसमें उन्होंने बताया था कि स्तालिन के समय जब लाइसेंनको की मान्यताएं अधिकृत वैज्ञानिक सिद्धांत के रूप में थोपी गयीं, तो रूस में जेनेटिक्स के अध्ययन पर क्या दुप्रभाव पड़ा.
निजी वितरण के लिए एक पुस्तक उन्होंने और लिखी. उसमें उन्होंने दिखाया कि रूसी विज्ञान-जगत में विचार-स्वातंत्र्य पर जो प्रतिबंध हैं, उनसे क्या नुक्सान हुआ है.
इस वैचारिक कुफ्र के कारण मेड्वेडेव को पदच्युत करके पागलखाने में बंद कर दिया गया. खुशकिस्मत हैं मेड्वेडेव कि सखारोव जैसे प्रभावशाली और साहसी लोग उनके खैरख्वाह हैं.
इन पागलखानों में क्या-क्या होता है इसका हाल सुनिए, व्लादीमीर व्यूकोव्स्की से. अभी पिछले ही वर्ष वे एक बंदी-शिविर से छूटकर आये हैं. पागलखानें के अंदर के हालात का यह विवरण उन्होंने बी.बी.सी. के लिए चोरी से टेप कराया था- ‘एक ऐसे कैदखाने की कल्पना कीजिए, जिसमें हज़ार के लगभग कैदी हैं. इनमें से आधे से ज्यादा तो हत्यारे हैं, जिन्होंने पागलपन के दौरे में भयंकर अपराध कर डाले, जो सचमुच रोगी हैं. बाकी वे हैं, जो भिन्न राजनीतिक विचार रखने के कारण वहां हैं, जिनके के लिए दंड-संहिता में कोई धारा नहीं है, और जिनके लिए कोई इलाज नहीं ढूँढ़ा जा सका है. इन्हें समाज में अलग करार दिया जाता है और दंड देने के लिए पागल करार दिया जाता है और इन जेल-पागलखानों में डाल दिया जाता है… सैंकड़ों, हजारों आदमी इनमें बंद हैं, खासकर कजान, लेनिनग्राड, चेर्निकोव्स्क, साइचेव्का इत्यादि स्थानों के विशेष पागलखानों में.’
‘इनमें पहुंचना आसान है, पर इनमें से निकलना बहुत कठिन है. उसके लिए आपको बाकायदा स्वीकार करना होगा कि आप पागल थे, आपको पता नहीं था कि आप क्या कह और कर रहे थे. दूसरे, आपको अपने कार्यों और कथनों का खंडन करना होगा. मैं ऐसे बहुतों को जानता हूं, जो यह मानने को तैयार नहीं थे कि उन्होंने गलत काम किया था, उन्हें वर्षों अस्पताल में रहना पड़ा. उदाहरण के लिए, लेनिनग्राड के भूभौतिक शास्त्री निकोलाई सैम्सोनोव को सिर्फ इसीलिए पागलखाने में रखा गया कि वे अपने को रोगी कबूल करने को तैयार नहीं थे.’
‘पागलखाने में बंद किया जाने वाला मेरा एक और मित्र फ्रांसीसी साम्यवादी था. वह साम्यवादी रूस देखने के लिए रूस आया था. वह मोल्डेविया की एक जूता-फैक्टरी में काम करने गया और काफी देर तक वहां रहा. यह देखकर उसे असंतोष हुआ कि श्रमिकों को बहुत कम वेतन मिलता है. उसने साथी श्रमिकों से कहा कि उन्हें अच्छे वेतन के लिए लड़ना चाहिए. मजदूरों ने हड़ताल कर दी. बस मेरे मित्र को गिरफ्तार करके पागल घोषित कर दिया गया.’
‘पागलखाने में वह बेचारा बिलकुल चकित था कि साम्यावादी ऐसा कैसे कर सकते है. अंत में वह कुछ पागल-सा होने लगा था, क्योंकि वह सबसे कहता फिरता था कि सोवियत सरकार पोप के प्रभाव में है.’
‘इन अस्पतालों की प्रबंध-व्यवस्था बिलकुल वैसी ही है, जैसी जेलों की. दिन में एक घंटा कसरत, बंद कोठरियां, महीने में एक बार बाहर वालों से मुलाकात. महिने में रिश्तेदारों को एक पत्र,महीने में एक पार्सल घर से- सब बिलकुल जेलों जैसा. डाक्टर स्वयं इस बात को समझते हैं कि यह अस्पताल नहीं, बल्कि जेल है, और कई बार खुले आम यह बात कह भी देते हैं. अगर कोई रोगी बदसलूक करे, तो उसे दंड दिया जाता है.
जरा-जरा-सी बात पर फजीहत हो जाती है और दंड बहुत कठोर होते हैं. तीन प्रकार की सजाएं अक्सर दी जाती हैं. आप लोगो नें ‘सल्फाजाइन’ नामक दवा के बारे में सुना होगा. यदि कोई रोगी बदसलूक करे यानी डाक्टर को अशिष्ट उत्तर दे, या कह दे कि तुम जल्लाद से कम नहीं हो, तो दंड के रूप में सल्फाजाइन दे दिया जाता है.’
इससे रोगी के शरीर का तापमान बढ़कर 40 डिग्री सेंटिग्रेड तक हो जाता है. उसे बुखार महसूस होने लगता है, वह बिस्तर से नहीं उठ सकता और एक-दो दिन तक यह हालत रहती है. अगर दवा दुबारा दी जाये, तो उसका प्रभाव हफ्ते-भर या दस दिन भी रह सकता है.
‘दूसरे दंड में एमिनोजाइन नामक दवा का उपयोग किया जाता है. यह मानस-चिकित्सा में काम में लायी जाती है. इससे रोगी को नींद आने लगती है. वह लगातार कई दिन तक सोता रहता है. अगर बार-बार दवा दी जाती रहे, तो रोगी को चाहे जितने दिन सुलाये रखना सम्भव है.’
‘तीसरे किस्म के दंड को हम ‘लपेटनां’ कहते थे. इसमें गीले कैन्वास की पट्टियों में रोगी को सिर से पांव तक इतना कसकर लपेट दिया जाता है कि सांस लेने में भी उसे कठिनाई होने लगती है. कैन्वास सूखन के साथ-साथ और तंग होता जाता है. तब रोगी की हालत बदतर हो जाती है.’
‘मगर यह दंड देते समय कुछ एहतियात बरता जाता है. इसके दौरान डाक्टर पास रहते हैं और वे इसका खयाल रखते हैं कि रोगी बेहोश न हो जाये. और अगर उसकी नब्ज धीमी पड़ने लगती है, तो कैन्वास ढीला कर दिया जाता है.’
‘कुल मिलाकर औषधीय दंडों का काफी बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है. अगर रोगी ज्यादा प्रसन्न दिखाई दे या ज्यादा उदास हो, अगर वह बहुत ज्यादा असंतुष्ट या सर्वथा शांत दिखाई दे, यानी डाक्टरों को तनिक भी संदेह हुआ कि ‘इलाज’ शूरू हो जाता है.’
और इन पागलखानों से निकलने का रास्ता? इसके लिए आपको दो शर्तें पूरी करनी होंगी. एक है डाक्टरों के सामने खुले आम और अधिकृत रूप से ऐलान करना कि आप अपने को रोगी कबूल करते हैं- ‘हां मैं बीमार था- अभी भी हूं. मैं नहीं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूं.’ दूसरी शर्त यह है कि आपको अपने पिछले कार्यों और कथनों का खंडन करना होगा.
यदि आपकी अंतरात्मा और आत्मसम्मान इसके लिए तैयार नहीं है, तो आपके बाहर निकल पाने की कोई आशा नहीं.
(मार्च 1971)