मार्च 2014

 

March 2014 Cover - 1-4 FNLजब हम कोई व्यंग्य पढ़ते हैं या सुनते हैं तो अनायास चेहरे पर मुस्कान आ जाती है. हो सकता है इसीलिए व्यंग्य को हास्य से जोड़ दिया गया हो, और इसीलिए यह मान लिया गया हो कि व्यंग्य हास्य का मुखौटा लगाकर ही प्रकट हो. लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यंग्य हास्य की उत्पत्ति करे ही. छोटे से केले के छिलके पर किसी मोटे व्यक्ति को फिसलता देखकर हंसी आना भले ही अशिष्टता हो, पर हंसी आ जाती है. इस हंसी के साथ व्यंग्य कहीं नहीं जुड़ा. लेकिन जब छोटे और बड़े के इस रिश्ते को फिसलन के उस दर्पण में देखा जाता है, जो किसी ने यह दिखाने के लिए सामने रखा है कि ‘बड़े’ की गर्वोक्ति वस्तुतः कितनी छोटी है, तब स्थिति भी बदल जाती है और उसका अर्थ भी. विसंगतियों को सामने लाने, उन्हें सही ‘ाoम’ में रखने और ऐसा करके किसी सुधार की ओर इशारा करने की प्रक्रिया की व्यंग्यकार की दृष्टि से स्थितियों को देखना कहा जा सकता है. यह देखकर भी चेहरे पर मुस्कान तो आ सकती है, पर भीतर मन में खुशी नहीं, एक पीड़ा जनमती है. हो वस्तुतः व्यंग्य विसंगतियों के खिलाफ़ एक संघर्ष है, पर इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इससे कटुता नहीं जनमती, एक प्रकार की करुणा का भाव जगता है. इस करुणा में आक्रोश भी है और विकृतियों से उबरने की एक सात्विक कोशिश भी.

कुलपति उवाच

ईश्वर का अस्तित्व
के. एम. मुनशी

शब्द-यात्रा

‘आराम’ किस भाषा के नसीब में?
आनंद गहलोत

पहली सीढ़ी

जीवन का अधिकार, कर्तव्य
पाल इल्यार

आवरण-कथा

सम्पादकीय
इसलिए व्यंग्य…
ज्ञान चतुर्वेदी
मनुष्य के बौद्धिक विकास का शंखनाद
प्रेम जनमेजय
उज्ज्वल भोर की आंखों का अश्रुपूरित कोर
गौतम सान्याल
साहित्य में साहित्य का विरोध
यज्ञ शर्मा
ताकि लेखन साहित्य न बन जाये
शरद जोशी

धारावाहिक आत्मकथा

सीधी चढ़ान (चौदहवीं किस्त)
कनैयालाल माणिकलाल मुनशी

व्यंग्य

कुत्तागीरी
विष्ण नागर
जंगल में रब्बर शेर
जवाहर चौधरी
स्नोबाल की खुराफातें
जॉर्ज ऑरवेल
मुर्गियां
शंकर पुणतांबेकर
आंगन में बैंगन
हरिशंकर परसाई
कुछ वर्गवाद
कुट्टिचातन
स्वागत एक परम श्रद्धेय आदरणीय का
लक्ष्मेंद्र चोपड़ा
अहिंसा की आग
प्रदीप पंत
हम क्यों त्योहार विमुख हैं
गोपाल चतुर्वेदी

आलेख

हास्य का मनोविज्ञान
जगन्नाथ प्रसाद मिश्र
मेरे साहित्य की आदि-प्रेरणा
गोपाल प्रसाद व्यास
फागुन की धूप सरीखे धर्मवीर इलाहाबादी
पुष्पा भारती
दुनिया का खेला
अनुपम मिश्र
लड़ाई तो पितृसत्तात्मक संरचना से है,
सुधा अरोड़ा
अंधेरे से पार आती स्त्री
मधु कांकरिया
महाराष्ट्र का राज्यवृक्ष- आम
डॉ. परशुराम शुक्ल
सप्तपर्ण उर्फ़ छतिवन
नारायण दत्त
समंदर पर पुल बांधने का वक्त
देवेंद्र इस्सर
पावनता धर्म का सार है
जे. कृष्णमूर्ति
किताबें

कहानी

धुंध के पार
संतोष श्रीवास्तव
विनम्रता का परिणाम
रश्मि शील

कविता      

सम्पादकों के गीत
अज्ञेय
दो कविताएं
सुधा अरोड़ा
उत्सव बना गुलाल
दिनेश शुक्ल
फागुन
रांगेय राघव

समाचार

भवन समाचार
संस्कृति समाचार

      

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *