♦ गोपालप्रसाद व्यास >
संसद भवन. प्रधानमंत्री का कक्ष. तब नेहरूजी प्रधानमंत्री थे. मैं मिलने गया. मिलने क्या गया, अपनी पुस्तकें भेंट करने गया. संसद चल रही थी. बीच में ही वहां से उठकर नेहरूजी आये. उनकी दाहिनी ओर तत्कालीन केंद्रीय मंत्री श्री राजबहादुर और बाईं ओर उनके सखा एवं संसद-सदस्य श्री महावीर त्यागी.
मैंने उठकर नमस्कार किया. जानते थे पंडितजी मुझे पहले से. मुस्कराती हुई मुद्रा में बोले- “कहिए हजरत, क्या माजरा है?” मैंने अपनी व्यंग्य-विनोद की दो पुस्तकें उन्हें भेंट कीं. नेहरूजी जब तक पुस्तक खोल भी न पाये थे कि राजबहादुरजी ने कहा- “आपके ये हजरत हास्यरस के धुरंधर कवि हैं और पत्नी पर कविताएं लिखते हैं.” नेहरूजी ने एक पुस्तक बीच में से खोली. कविता निकली गधे पर. शिक्षार्थी का एक कार्टून भी गधे पर बना हुआ था. पंडितजी ने पहले राजबहादुर और फिर मेरी ओर देखकर कहा- “पत्नी पर कहां, यह तो गधे पर कविता है.”
नहेरूजी से थोड़ी-सी बेतकल्लुफी थी. हाजिरजवाबी की कला काम आयी. मैंने संजीदगी से कहा- “पंडितजी, शादी के बाद आदमी यही हो जाता है.” और नेहरूजी सहित सब खिलखिलाकर हंस पड़े.
ऐसे माहौल में त्यागीजी भला चुप कैसे रह सकते थे. उन्होंने कहा- “यह महाशय वर्ष में एक दिन सबको मूर्ख बनाया करते हैं. होली की शाम रामलीला मैदान में जिस छतरी से आपका भाषाण होता है, वहां से ये आप से लेकर किसी को नहीं बख्शते.”
नेहरूजी ने कहा- “यह काम तो अच्छा करते हैं. कभी आपको इन्होंने बुलाया वहाँ?” त्यागीजी कहां चूकने वाले थे. तत्काल उत्तर दिया- “बुलाया तो था, पर मैं नहीं जा सका.” खिलखिलाते हुए पंडितजी ने कहा- “क्यों? तुम तो इसके सबसे उपयुक्त पात्र थे.”
त्यागीजी ने किंचित गम्भीर होकर कहा- “आपकी बिना इजाजत लिये कैसे जाता?” नेहरूजी ऐसे अवसरों पर चुप रहनेवाले नहीं थे. उन्होंने व्यंग्य के बादशाह पर इक्का जड़ दिया- “तो क्या तुम सारे मूर्खतापूर्ण कार्य मुझसे पूछकर ही करते हो?”
वातावरण मोद-विनोद से भर गया. आपस में चुहल होने लगीं. मैंने त्यागीजी से कहा- “इस बार मूर्ख महासम्मेलन में सभापति आप ही रहेंगे. अब तो पंडितजी की इजाज़त मिल गयी है.”
उत्तर मिला- “मंजूर! लेकिन एक शर्त पर, उद्घाटन जवाहर भाई करेंगे.”
(मार्च 2014)