आवरण–कथा
आधुनिक भारतीय कला के इतिहास में सिर्फ दो बड़े कलाकार ऐसे हुए हैं, जिन्होंने भारत माता को अपने केनवास पर सजाया है. पहला चित्र बंगाली पुनर्जागरण काल के अवनींद्रनाथ ने बनाया था, जिसमें उन्होंने भारत राष्ट्र को मां के रूप में चित्रित किया था. दूसरा चित्र आधुनिक कलाकार एम.एफ. हुसेन का है जिनकी भारत माता की पेंटिंग को प्रतिबंधित और खारिज कर दिया गया. स्वयं हुसेन को जीवन के आखिरी दिन अपने देश से बाहर जाकर गुज़ारने पड़े.
ये दोनों कलाकृतियां उस दूरी को भी चित्रित करती हैं जो सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से इस दौरान भारत माता ने पार की है. आज जबकि संघ परिवार ‘भारत माता की जय’ के नारे को राष्ट्रभक्ति प्रमाणित करने का अनिवार्य प्रमाण घोषित कर रहा है, तो मां के लाक्षणिक रूप में राष्ट्र की पिछले लगभग 125 साल की यात्रा पर एक दृष्टि डालना उपयोगी होगा.
कलाकारों की कृतियों में यह कल्पना सबसे पहले बंगाल में चित्रित हुई. लेकिन इससे कहीं पहले भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन के संदर्भ में कहीं और भी यह कल्पना साकार हुई थी.
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 1882 में अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में मातृभूमि की आराधना के रूप में ‘वंदे मातरम्’ गीत का उपयोग किया था, जो देश की आज़ादी की लड़ाई का मंत्र बना और स्वतंत्रता–प्राप्ति के बाद राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया गया. उपन्यास में भारत माता के तीन स्वरूपों का चित्रण है– देवी जगधात्री, काली तथा दुर्गा.
दो दशक बाद, सन 1905 में, जब कर्जन ने बंगाल को दो टुकड़ों में बांटा, अवनींद्रनाथ ने अपना प्रतिष्ठित भारत माता का चित्र बनाया था– भगवे वस्त्राsं में शांत चेहरे और मस्तक के चारों ओर प्रभा मण्डल वाला चित्र. इस चित्र में भारत मां के हाथों में माला और धर्मग्रंथ थे. क्रांतिकारी अरविंद घोष ने उसी वर्ष अगस्त माह में अपनी मां मृणालिनी देवी को एक पत्र में लिखा था– ‘मैं अपने देश को मां के रूप में देखता हूं. यदि कोई राक्षस किसी मां की छाती पर बैठकर उसका रक्त चूसेगा तो बेटे को क्या करना चाहिए?’
कई इतिहासकारों ने लिखा है कि इन लोगों ने जिस भारत माता का चित्रण किया है वह ‘बंग माता’ अधिक थी. जिस देवी का उन्होंने आह्वान किया, वह काली या दुर्गा थी, जिनकी पूजा वे घरों में किया करते थे. वंदे मातरम में बंकिमचंद्र ने ‘सप्तकोटि’ का ही आह्वान किया है– बंगाल की सात करोड़ जनता.
इस प्रतीक के पहले आलोचक भी इसकी कल्पना करने वालों में से ही थे.
बंगाल के विभाजन के पंद्रह साल बाद, अगस्त 1920 में, महर्षि अरविंद ने नारे की सीमाएं रेखांकित करते हुए एक व्यापक मंत्र की आवश्यकता निरूपित की– ‘हमने पूरे मन से वंदे मातरम् मंत्र को अपनाया है… (लेकिन) इस मंत्र की आवाज़ धीमी पड़ रही है, इसकी ताकत कम होती जा रही है. ईश्वर ने ही इस ताकत को धीमा और अशक्त किया है क्योंकि इसका काम पूरा हो चुका. अब वंदे मातरम से बड़े मंत्र की आवश्यकता है. बंकिम भारतीय जागरण के सर्वोच्च मनीषी नहीं थे. उन्होंने प्रारम्भिक और सार्वजनिक पूजा के शब्द दिये थे, आंतरिक गुप्त उपासना का फार्मूला और संस्कार नहीं. महानतम मंत्र वे होते हैं जो भीतर उचारे जाते हैं.’
फिर भी राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ‘भारत माता’ की प्रतीकात्मक शक्ति बनी रही. यह बात दूसरी है कि अक्सर नारा लगाने वाले के साथ उपमा बदलती रही. 1940 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने जेल में लिखी अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ में ‘भारत माता की जय’ के नारे के साथ उनका अभिनंदन किये जाने के अनुभव के बारे में लिखा है–
‘यह भारत माता कौन थी जिसकी जय वे चाहते थे?… यही लाखों लोग भारत माता थे. भारत माता की जय का मतलब इन्हीं लोगों की जय है. मैंने उन्हें कहा कि वे इस भारत माता का हिस्सा हैं. एक तरह से आप ही भारत माता हैं. जैसे–जैसे यह बात उनकी समझ में आने लगती उनकी आंखें ऐसे चमकने लगतीं जैसे उन्होंने कोई महान खोज कर ली है.’
लगभग स्वतंत्रता–प्राप्ति तक इस नारे के धार्मिक स्वरूप की बात किसी ने नहीं की और यह एक गुलाम देश का आवश्यक मंत्र बना रहा, देश की जनता को एकजुट करने का मंत्र. 1947 तक अन्य समुदायों ने भी इसका विरोध नहीं किया. विभाजन के दंगों में ही भारत माता की जय और अल्लाह–ओ–अकबर प्रतिस्पर्धी, साप्रदायिक नारे बने.
संघ–परिवार द्वारा समाहित नायकों में से एक वीर सावरकर ने मातृभूमि की नहीं, पितृभूमि की बात की थी, जैसे प्राचीनकाल में यूनान–रोम में कहा जाता था और आधुनिक युग में जर्मन भाषी देशों में. उन्होंने कहा था ‘जो भी इस भारत भूमि को अपनी पितृभूमि और पवित्रभूमि मानता है, वह हिंदू है.’ भारत माता की अवधारणा को पहली बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने अपने लेखन में शब्द दिये. उन्होंने लिखा था– ‘हमारे राष्ट्रवाद का आधार भारत माता है. माता को हटा दें तो भारत ज़मीन का एक टुकड़ा भर रह जायेगा.’ बंकिम ने लगभग सदी पहले यही कहना चाहा था जब उन्होंने भारत माता की कल्पना एक सुजला, सुफला नारी के रूप में की थी.
‘वंदे मातरम’ के विरुद्ध कुछ आवाज़ों को छोड़कर ‘भारत माता’ एक निर्विवाद अवधारणा बनी रही. मीडिया और सिनेमा में भी यह चित्रित हुई– मदर इंडिया फिल्म में हल को कंधे पर रखे हुए नरगिस का चित्र एक सुपरिचित प्रतीक बन गया. यह एक सांस्कृतिक हस्तक्षेप था जो भूला नहीं जा सकता. महत्त्वपूर्ण है यह तथ्य कि इस ‘भारत माता’ की भूमिका एक मुस्लिम महिला ने निभायी थी और इसकी कल्पना भी एक मुस्लिम निर्देशक– महबूब खान की थी. बहुतों के लिए नरगिस का निभाया चरित्र भारत माता की परिभाषा बन गया– नेक, स्वतंत्र, पीड़ा भोगती महिला जो न्याय के लिए अपने बेटे की भी हत्या कर सकती है!
अस्सी के दशक के उत्तरार्ध वाले राम जन्मभूमि आंदोलन में भारतमाता की जय साप्रदायिक लामबंदी का नारा बन गया. अवनींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बनायी गयी शांत, सौम्य भारतमाता आक्रामक, क्षमा न करने वाली माता बन गयी. जिसके हाथों में तलवार और अन्य शस्त्र थे और जो कभी शेर पर आरूढ़ भी दिखायी गयी.
2011 के अन्ना हजारे के आंदोलन को हाल के दशकों का सबसे बड़ा अभियान कहा जा सकता है. इस आंदोलन में भी भ्रष्टाचार–विरोधी मुहिम के लिए देश को एकजुट करने के लिए भारत माता की छवि का उपयोग किया गया. पिछले कुछ अर्से में इस शताब्दी पुराने प्रतीक को लेकर देश में राजनीतिक तनाव बढ़ रहा है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय विवाद की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि नयी पीढ़ी को भारत माता की जय कहना सिखाना होगा. मुस्लिम नेता ओवेसी ने इसका विरोध करते हुए कहा– ‘मेरी गर्दन पर तलवार भी रख दी गयी तब भी मैं यह नहीं कहूंगा.’ इसके तत्काल बाद महाराष्ट्र विधान सभा में एक विधायक को इसी ‘अपराध’ के लिए सदन से निलम्बित कर दिया गया.
सवाल उठता है, अपराध भारत माता की जय न कहना है अथवा भारत माता की जय के अर्थ को न समझना? इस सवाल का उत्तर दोनों पक्षों को देना है.
(साभार, इंडियन एक्सप्रेस)
मई 2016