भारतीय संस्कृति बौद्धिक है

⇐  पुरुषोत्तमदास टंडन  ⇒

     हमारे सामने आज दो रास्ते हैं, जो भयावह हैं, डर के रास्ते हैं. भारतीय संस्कृति को इन दो रास्तों से बचाना है.

    एक रास्ता वह है, जिस पर हमारे पश्चिम की नकल करनेवाले भाई चलते हैं. पश्चिमी ढंग की चीजों को, रीति-रिवाजों को, उनकी भाषा को अपनाकर पश्चिम की नकल करना या उसकी प्रतिलिपि बनाना- यह हमारे देश को शोभा नहीं देता है.

    यह मत समझिए कि मूढ़ग्राह-सुपस्िटशन-बेपढ़े-लिखे लोगों में ही होता है. अंग्रेजीदां लोगों में मुझे बड़ा गहरा सुपस्िटशन दिखाई देता है. वे मरे हुए हैं. मूढ़ग्राहयुक्त हैं. कपड़े पहनने का मूढ़ग्राह है कि ऐसे कपड़े पहनेंगे, तो हमारी ज्यादा इज्जत होगी. खाने-पीने में, रहन-सहन में मुझे सुपस्िटशन दिखाई देता है. उस मूढ़ग्राह से हमें देश को बचाना है. भारतीय संस्कृति की रक्षा हमें करनी है. पर इसका मतलब यह नहीं कि हम अच्छी बातों को भी विचारपूर्वक न लें.

    मेरी मान्यता है कि हमारा देश बौद्धिक रहा है. मैं इस पर बल देता हूं. बहुत-से अंग्रेज इतिहासकारों ने कहा है कि हमारे यहां परिपाटी को पूजने वाले बहुत हैं, ‘कंजर्वेटिज्म’ बहुत है. इसमें आंशिक सत्य है. पूरा सत्य नहीं है.

    हमारा देश अपने आतंरिक तल में बौद्धिक रहा है, बुद्ध का पुजारी रहा है. बुद्धि के ऊपर उसने किसी किताब को नहीं रखा है- ‘यो बुद्धेः परतस्तु सः.’ बुद्धि के ऊपर केवल ईश्वर को माना है. ईश्वर के बाद संसार में बुद्धि ही तत्त्व है. मैं बुद्धिवादी हूं. बुद्धि के ऊपर सब पुस्तकों को, ट्रेडिशंस को, नापने-तोलने के लिए तैयार हूं. यही हमारे यहां प्राचीनों का क्रम था.

    हां, दो-चार-पांच सौ वर्ष पहले एक अंधेरी रात आयी हमारे देश में, उसमें हमने इन मूढ़ग्राहों और परिपाटियों तथा ट्रेडिशन्स को पूरी तरह से पकड़ा. तुरंत हमारा देश अपने मार्गों को बदलने में, परिपाटियों को सुधारने में पीछे नहीं रहा है.

    हमारे देश का ही एक वाकया है- वैसा संसार में ओर कहीं मैंने नहीं सुना. कथा है, जब यास्क मुनि के शरीर छोड़ने का समय आया, तब उनके चेलों ने उनसे पूछा- ‘महाराज, आप जाते हैं, अब वेदों का अर्थ कौन करेगा?’ ध्यान रखिए वेदों का. यास्क मुनि निरुक्त के कर्ता हैं. निरुक्त वह शास्त्र है, जो वेदों के शब्दों को सामने रखता है और उनका अर्थ निकालता है. चेलों ने पूछा- ‘अब आप जा रहे हैं, तब वेदों का अर्थ कौन करेगा? हम लोग किस ऋषि के पास जायें?’ यास्क ने जवाब दिया- ‘तर्को वै ऋषिरुक्तः।’ इसका क्या अर्थ है? तर्कलाजिक, सिलोजिज्म- यही ऋषि है, वेदों का अर्थ करने के लिए. यह वाक्य था कि तर्क ही ऋषि है. तर्क का मतलब बुद्धि, क्योंकि तर्क का सहारा तो बुद्धि के बिना बढ़ता नहीं. बुद्धि को ही ऋषि बनाना- यह वाक्य हमारे देश की पुरानी परिपाटी को बताता है.

    हमारा देश बुद्धिवादी रहा है. परिपाटियों का दास नहीं. परिपाटियां अवश्य बनती हैं. किस देश में नहीं है? आज क्या अमरीका और इंग्लैंड परिपाटियों से बंधे नहीं हैं? बहुत जगह परिपाटियों की बहुत गुलामी रहती है. अगर बुद्धि भी साथ हो, तो वे ठीक होती रहती हैं. हमारे यहां परिपाटियां चलती हैं, लेकिन बौद्धिकता पुराने समय से समाज पर प्रभाव डालती रही है.

    आज हमें जहां एक ओर पश्चिमी नकल से बचना है, वहां अपने देश की परिपाटियों का भी, जो कि धर्म के नाम पर चलती हैं, विश्लेषण करना है. ‘माघ मेला,’ किसी ने कहा था, मैं उनका आदर करता हूं- ‘श्रद्धा और भक्ति का सूचक है.’ मैं प्रयाग का रहने वाला हूं. गंगा से मेरा गहरा प्रेम है. लेकिन मेरा गंगा से मूढ़ग्राह नहीं है. गंगा में बड़े-बड़े घड़ियाल रहते हैं. क्या वे वहां बुद्धि-श्रद्धा से रहते हैं? नहीं. मल्लाह भी दिन भर गंगा में रहता है.

    मेरे मन में गंगा की उपासना इसलिए है कि गंगा के किनारे  तपस्वियों ने तप किया था. गंगा का जल पवित्र है. किंतु इस भेड़ियाधसान को, एक छोटी-सी जगह में जहां संगम है, हजारों आदमी एक साथ स्नान करें, प्रोत्साहन देना उचित नहीं है. यह बुद्धि के विरुद्ध है. मैं इसे भारतीय संस्कृति का विरोधी समझता हूं. जो लोग इस प्रकार करते हैं, वे भारतीय संस्कति की रक्षा नहीं करते. वास्तविकता यह है कि हमें इन दोनों भयावह रास्तों से बचना चाहिए. एक ओर पश्चिमी नकल और दूसरी ओर अपने यहां की सबकी सब रीतियों को बिना समझे-बूझे प्रोत्साहन देना. हमारी संस्कृति प्राचीन है, लेकिन बौद्धिक है.

    जिस तरह का हमारा यह मेला है, इस तरह के मेले मुसलमानों में भी चलते हैं. हिंदुओं के जो मेले चलते हैं, उनमें श्रद्धावान बहुत थोड़े आते हैं. प्राचीन समय में ये इसलिए होते थे कि वहां अच्छे लोग इकठ्ठा होते थे, अच्छे विचार करते थे. आज भी विचार के लिए कुछ थोड़ी-सी सभाएं होती हैं. वे ठीक हैं, वहां लोग जायें.

    हमारी प्राचीन मर्यादा के अनुसार सत्य और तप भारतीय संस्कृति के मुख्य अंश हैं. जहां सत्य और तप नहीं है, वहां भारतीय संस्कृति नहीं है.

    धर्म का आधार मुक्ति है. भारतीय संस्कृति को बिना समझे-बूझे कीचड़ में नहीं घसीटना चाहिए. भारतीय संस्कृति मूढ़ग्राहों या सुपस्िटशंस का बंडल नहीं है. भारतीय संस्कृति बौद्धिक है. बुद्धि के ऊपर निर्भर है. जहां बुद्धि नहीं, वहा मुक्ति नहीं, वहां भारतीय संस्कृति नहीं, वहां धर्म नहीं. बृहस्पति स्मृति का एक वाक्य याद आ गया-

केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो विनिर्णयः।

केवल किताबों का, जिनको शास्त्र कहते हैं, सहारा लेकर धर्म तत्त्व का निर्णय नहीं हुआ करता. युक्तिहीन विचारे तु धर्महानिः प्रजायते। जहां बुद्धि नहीं है, युक्ति नहीं हैं, ऐसे विचार से धर्म की हानी होती है.

    चाहे वे हिंदू हों, चाहे मुसलमान हों, चाहे ईसाई हो, धर्म युक्ति पर आधारित नहीं है, वह धर्म कहलाने योग्य नहीं है. भारतीय धर्म बौद्धिक है और युक्ति पर निर्भर है.

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    सन 1899 में कलकत्ते में भयंकर प्लेग फैला हुआ था. शायद ही कोई ऐसा घर बचा था, जिसमें रोग का प्रवेश न हुआ हो. स्वामी विवेकानंद, उनके कई शिष्य तथा गुरुभाई स्वयं रोगियों की सेवा-शुश्रूषा करते रहे, स्वयं अपने हाथों से नगर की गलियां और बाजार साफ करते रहे. तभी कुछ पंडितों की मंडली स्वामीजी से मिली. पंडितों ने उनसे कहा- ‘स्वामीजी, आप यह कार्य ठीक नहीं कर रहे हैं. पाप बहुत बढ़ गया है, इसलिए इस महामारी के रूप में भगवान लोगों को दंड दे रहे हैं. आप लोगों को बचाने का प्रयत्न कर रहे हैं! ऐसा करके आप भगवान के कार्यों में बाधा डाल रहे हैं.’

    स्वामीजी ने उत्तर दिया- ‘पंडित-गण, मनुष्य तो अपने कर्मों के कारण कष्ट पाता ही है, लेकिन उसे कष्ट से मुक्त करने वाला अपने पुण्य को पुष्ट करता है. जिस प्रकार उनके भाग्य में दुख पाना, कष्ट पाना बदा है, उसी प्रकार इन कार्यकर्त्ताओं के भाग्य में रोगियों का कष्ट दूर करके पुण्य अर्जित करना बदा है.’

               

– कृष्णकांत चरला

 

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