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गुलज़ार
मैं कुछ कुछ भूलता जाता हूं अब तुमको,
तेरा चेहरा भी धुंधलाने लगा है अब तखय्युल में
बदलने लग गया है अब वह सुब-हो-शाम का मामूल, जिसमें
तुमसे मिलने का भी इक मामूल शामिल था!
तेरे खत आते रहते थे तो मुझको याद रहते थे तेरी आवाज़ के सुर भी!
तेरी आवाज़ को कागज़ पे रख के
मैंने चाहा था कि ‘पिन’ कर लूं,
वो जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी अलबम में
तेरा ‘बे’ को दबा कर बात करना,
‘वाव’ पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गये देखा नहीं ना खत मिला कोई
बहुत दिन हो गये सच्ची!
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूं मैं!
(जनवरी 2016)