बिल्ली के बच्चे

बचपन गाथा

♦   शैलेश मटियानी  >  

 प्रीति और बंटी स्कूल से साथ-साथ, लगभग दौड़ते घर लौट रहे थे, क्योंकि दोनों को बड़ी तेज़ भूख लगी थी. पी. टी. के घंटे के तुरंत बाद बंटी ने कहा था कि भूख उसके पेट में चूहों की तरह दौड़ लगा रही है और तब प्रीति ने उसका मखौल उड़ाते हुए कहा था- ‘घर चलकर अपना पेट मौसमी के आगे कर देना!’

मौसमी के, यानी पूसी के आगे! दोनों भाई-बहन खूब जानते हैं. कि मौसमी के घर में पलने से पहले घर में चूहे कैसी खेल-कूद मचाया करते थे. खुद मां एक दिन माथे पर हाथ रखे कह रही थी पड़ोसी की सीमा आंटी से कि ‘मुल्क में भले राज सरकार का हो, हमारे घर में तो चूहों का राज चल रहा है. कहीं कोई चीज़ साबित बचना मुश्किल! खाने-पीने की चीज़ों की कौन कहे, कपड़े-लत्ते किताबें तक कब कुतर दें, कुछ ठिकाना नहीं.’

सीमा आंटी ने हंसते हुए क्या कहा था कि ‘मुल्क में भी ऐसा ही चल रहा है!’- लेकिन यह भी तो कि ‘बंटी की मां, एक ठो बिल्ली पाल लो, तो चूहों का राज-पाट अंग्रेज़ों के राज की तरह ही समाप्त हो जायेगा.’

तब कहीं से ढूंढ़-खोजकर मंगायी गयी थी, एक छोटी-सी पूसी. अब तो कैसी झब्बर, गोलमगोल हो गयी है, लेकिन तब तो यह इतनी छोटी थी कि खुद ही चुहिया मालूम पड़ती थी. फिर भी उसके घर में होने का ही प्रभाव भी कुछ ऐसा पड़ा कि चूहों में कुछ खलबली-सी मच गयी थी. फिर जो पूसी धीरे-धीरे पहले छोटे-छोटे, बाद में बड़े चूहों पर भी धावा बोलना शुरू किया, तो घर में चूहों का दिखाई पड़ना तक बंद हो गया. कभी-कभार कोई रसोईघर के डिब्बे-कनस्तरों के बीच खट-खुट करता सुनाई दे जाता, तो पूसी वहीं जैसे अनशन पर बैठ जाती. आखिर मां के खदेड़ने पर जैसे ही चूहा अपने किले से बाहर निकलता, एक ही झपट्टे में दबोचकर, उसी का भोग लगाकर अनशन तोड़ती.

दोनों घर पर पहुंचे, तो पूसी दिख गयी.

इस समय पूसी जिस तरह तेज़ी से सीढ़ियों पर कूदती-फांदती भाग रही थी, दोनों भाई-बहन समझ गये थे कि ज़रूर अम्माजी ने भगाया होगा! प्रीति छह साल की है, बंटी आठ का. दोनों ही अब इतने छोटे तो रहे नहीं कि दुनियादारी की बातें समझ न सकें. पूसी के विरुद्ध जो सुन-गुन घर में पिछले करीब पंद्रह-बीस दिनों से चल रही है, उन्होंने इससे दो बातें पूरी तौर पर जान ली हैं- एक, पूसी के बच्चे होने वाले हैं. दो, मां  उसे घर से भगा देना चाहती है. क्यों भगा देना चाहती है, इस रहस्य को भी दोनों बच्चे जान गये हैं, क्योंकि अभी कल ही तो मां बाबूजी से कह रही थीं कि- ‘तुम क्यों न कहोगे, रहने दो बेचारी को, बच्चों से बहुत हिलमिल गयी है? न तुम्हें गू-मूत पोंछना, न गंदे कर दिये गये कपड़े धोना. चार-पांच बच्चे इकट्ठे देगी, पूरा घर बिल्लियों की सराय बन जायेगा. आदमियों के बच्चों को तो दूध दुर्लभ है- बिल्ली के बच्चों के लिए कहां से लाओगे!’

इस रहस्य को भी दोनों समझ चुके हैं कि बच्चों के सामने तो मां उतना नहीं, मगर अनुपस्थिति में बाबूजी से पूसी को अब दूर भगा देने की बातें अक्सर करती हैं. और तब दोनों को ही मां कुछ बुरी मालूम पड़ने लगती हैं, नहीं तो कितनी प्यारी हैं मां!

ये सब लोग पहली मंजिल में रहते हैं. प्रीति को कुछ उदास पड़ता देख, बंटी सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर बस्ता रखकर, वहीं बैठ गया. धीरे-से प्रीति भी वहीं बैठ गयी. थोड़ी देर दोनों भाई-बहन चुपचाप यों ही उदास बैठे रहे, जैसे दोनों ही किसी खतरे के विरुद्ध योजना बना रहे हों. आखिर प्रीति ही बोली- ‘हमको बड़ी ज़ोर की भूख लगी है, मगर हम खाना नहीं खायेंगे.’

‘खग जाने खगही की भाषा!’…बंटी तुरंत समझ गया कि प्रीति मां पर यह मानसिक दबाव डालना चाहती है कि जब वो बिल्ली को घर से न भगाने का वादा करें, तब खाना खाया जाय!… बोला ‘ए प्रीति, आज नहीं. परसों लक्ष्मी पूजा है न? हम लोग उस दिन खाना नहीं खायेंगे- दोनों. समझी?’

बात समाप्त करते-करते बंटी का गोल-मटोल चेहरा शरारत में चमक उठा. प्रीति कुछ क्षण तो बंटी की ओर देखती रही और फिर हंस पड़ी. हाथ पकड़ती बोली- ‘चलो!’

इस वक्त बाबूजी दफ्तर गये रहते हैं. मां दोनों को खिलाने बैठीं, तो धीरे से प्रीति ने ही प्रसंग छेड़ा- ‘आज मौसमी नहीं आयी?’

दोनों जानते हैं कि कभी-कभी पूसी न जाने कहां गुम हो जाती है लेकिन फिर चली आती है. और तब दोनों भाई-बहन को बहुत गगज्यादा प्यार करती है. बारी-बारी से हरेक के चारों ओर गुर्र-गुर्र करती घूमती, पूंछ का लपेटा मारती बदन घिसती जाती है, जैसे अपनी यात्रा के रोचक वृत्तांत सुनाना चाहती हो. प्रीति प्यार करने को अपना मुंह झुकाती, तो उचककर, धीमे से उठी ठुड्डी में अगले दांत गड़ा देती और कुछ देर गड़ाये रहती. बंटी चाहता कि उसके साथ भी ऐसी ही करे, तो सिर्फ मुंह से टक्कर मार देती, दांत न गड़ाती, जैसे कि कहती हो कि तुम तो अब सयाने हो गये. वे क्षण प्रीति के लिए एक अपूर्व विजय के क्षण होते, जब बंटी बेचारा न सिर्फ यह कि बार-बार पूसी को पुचकारता, बल्कि घूस में मलाई तक अपनी ठुड्डी पर लगा लेता, लेकिन पूसी मलाई-मलाई चाट लेती, दांत बिलकुल न गड़ाती. फुर्सत में होती, तो कैसे निश्चिंत लेटी बड़ी देर तक अपने को जीभ से चाटती और जीभ से पंजा भिगो-भिगोकर मुंह साफ़ करती और फिर अचानक शरारत में उछलती रहती थी! बंटी ने तभी तो नाम रखा था- मौसमी! प्रीति को अच्छी तरह याद है कि बंटी ने एक दिन कहा था, ‘अगर हमारे पापा फिल्म कम्पनी में काम करते होते, तो हम इस मौसमी को भी फिल्म में ज़रूर दिखलाते!’

यह भी याद आया कि सर्दियों में जब पूसी उन लोगों के साथ सोती है, तो एक कैसी नरम-नरम-सी गरमी अनुभव होती है. अक्सर तो वह प्रीति की उंगली मुंह में भर लेती थी और कुछ देर यों ही सोये रहती थी. पूसी की याद आती गयी, तो जाने भांति-भांति के कितने रोमांचक चित्र उभरते गये और प्रीति खाते-खाते रुक गयी. मां समझ गयीं बोलीं- ‘आयी तो थी. तुम लोगों को स्कूल से वापस लौटा न पाकर, चली गयी होगी.’

दोनों भाई-बहन ने एक-दूसरे की तरफ रहस्य-भरी दृष्टि से देखा. इतना तो दोनों खूब अच्छी तरह जानते हैं कि जब पूसी अपनी मर्जी से जाती होती है, तब उसकी चाल अलग रहती है और जब मां डंडा या चिमटा ज़ोर-ज़ोर से ठकठकाकर भगाती हैं, तब बिलकुल अलग.

‘अम्मा, तुमने कहीं उसे डंडा तो नहीं
मारा था?’

कुछ क्षण तो मां देखती ही रह गयीं. फिर बोलीं- ‘अच्छा, तुम लोगों का झूठ पकड़ा गया. अभी पूछ रहे थे कि आयी या नहीं आयी? सीढ़ियों पर जाते देखा होगा तुम
लोगों ने?’

स्पष्ट था कि मां सहज भाव से सारा प्रसंग टालने की कोशिश में थीं, लेकिन बंटी शरारत से बाज नहीं आया. बोला-‘मां, जाते हुए नहीं, गिरते-पड़ते, भागते-दौड़ते
देखा था!’

अब तो प्रीति भी हंस पड़ी, और उसके मुंह से थोड़ा भात छिटककर मां के ऊपर गिर गया. पहले तो मां भी हंस पड़ी, लेकिन तुरंत गम्भीर होती बोली- ‘भई, ये बिल्ली क्या हो गयी, बवाल. न पढ़ने में सुर, न लिखने में. हर समय बिल्ली-बिल्ली-बिल्ली! सुनो, तुम दोनों अब बिल्ली-विल्ली का गगज्यादा चक्कर छोड़ो, थोड़ा पढ़ने में जी लगाओ. इम्तिहान पास आ रहे हैं. कल-परसों-नरसों तो फिर त्यौहार ही है.’

दोनों समझ गये कि मां रणनीति लड़ा रही हैं. उनकी शिकायत को टालने के लिए, अपना बहाना चला रही हैं. दोनों ने खाते-खाते ही एक-दूसरे की तरफ देखा और फिर एक-दूसरे की भाषा को समझते हुए चुप
लगा गये.

अब दुबारा प्रीति ने प्रसंग छेड़ा तब जब मां सारे कामों से फुर्सत पाकर आंगन में आ गयीं. पूरा आंगन धूप से भरा थाल हुआ पड़ा है, लेकिन नवम्बर में इसमें जलन नहीं, सिर्फ ऊष्मा है. प्रीति पहले धीमे-धीमे पीठ के पीछे गयी और फिर अपने दोनों हाथ धीरे-से मां के गले की ओर लटका दिये- ‘अच्छा, मां, ये बताओ- बिल्ली के चार-पांच बच्चे क्यों होंगे? बंटी भइया और तो एक-एक करके पैदा हुए ना?’

मां स्वेटर बुनने में व्यस्त थीं, लेकिन प्रीति के इस तरह पीठ की तरफ से आकर, गले में बांहे डालने का मर्म समझती हों, ऐसा तो नहीं. उसकी निहायत अटपटी और शरारत-भरी बात सुनकर मां से हंसे बिना न रहा गया. कुछ ‘मूड’ भी अच्छा था, क्योंकि अभी कुछ ही देर पहले डाकिया नागपुर से मामाजी के द्वारा दीवाली के लिए भेजे गये सौ रुपयों का मनीआर्डर दे गया था. ऐसे में, जवाब में बहाना न बनाकर, कहानी सुनाने लगीं कि- ‘एक समय की बात है कि पृथ्वी पर चूहे बहुत बढ़ गये. खेत, खलिहान, गोदाम, घर-जहां देखो, तहां चूहों का राज!’

‘जैसे बंटी भइया की किताब में ‘बांसुरीवाला.’ कहानी है, अम्मा?’

‘हां, हां, कुछ-कुछ वैसे ही समझो. तो एक दिन सारे लोगों ने ब्रह्माजी से अपना दुखड़ा रोया. ब्रह्माजी ने बिल्लियों की रानी की बुलाकर डांटा कि ‘भई, तुम्हारी सृष्टि किसलिए की थी हमने?’ बिल्लियों की रानी बोली- ‘क्या करें, महाराज, जब तक हमारे एक बच्चा होता है- चूहों के दर्जनों बच्चे हो जाते हैं. अब एक-एक बिल्ली कितने चूहे मारे?’ ब्रह्माजी ने कहा, ‘एवमस्तु!’ …तब से बिल्लियों के चार-पांच बच्चे एक साथ होने लगे और पृथ्वी पर से चूहों का भार घट गया.’

‘मां, ब्रह्माजी ने बिल्ली को एक दर्जन बच्चों के एक साथ होने का वरदान क्यों नहीं दिया? तब तो एक चूहा भी न बचता कहीं पृथ्वी पर और तुम्हें बिल्ली भी न पालनी पड़ती.’ अब तक चुप बंटी ने सवाल किया, तो प्रीति ने भी पत्ता लगा दिया कि- ‘इस पूसी को भगा देने के बाद तो फिर हमारे घर में चूहों का राज…’

‘अरे, रहने दो. इस बार हम बांसुरी- वाले को बुला लायेंगे कि बजा भइया बांसुरी और ले जा हमारे घर के चूहे. बंटी सयानों की सी लापरवाही दिखाता बोला, तो मां फिर हंस पड़ी- ‘अब फिर बिल्ली पुराण ले के बैठ गये तुम लोग.’

अब प्रीति शरारत करती बोली- ‘बंटी भइया, अब पूसी की कहानी बंद. जाने दो, जहां जाती है.’

‘हां, कोई मुहल्ले में एक हम लोग तो रहते नहीं.’ सयानों का सा मुह बनाकर
बंटी बोला.

‘झूठी भी बहुत थी.’ प्रीति बोली- ‘तुमका याद है, भइया, एक बार जब हम बिलकुल छोटी थीं, हमारी उंगली काट ली थी इसने और ऊपर से गुर्रा-गुर्रा कर हमें डरा रही थी नानी! हम यों कहते भीतर आये कि ‘बाप की बेटी हो, तो भागना नहीं! हमारे डंडा लाने तक यहीं रहना.’ …मगर हम डंडा लेकर बाहर आये, तो चोरों की नानी गायब! …बहुत रोये थे हम.’

‘तुम्हारे तो भाग में ही रोना लिखा है.’ कहता, बंटी बुज़ुर्गों की-सी मुद्रा बनाता, बाहर कहीं खेलने-कूदने निकल गया.

अब मां ने पूछा कि ‘आखिर इतना लाड़ क्यों लड़ा रही थीं, रानी, क्या चाहिए तुम्हें? मामाजी ने तो तुम लोगों के लिए ढेर सारे पैसे भेज दिये हैं.’

किंतु धीरे-से ‘कुछ नहीं’ कहती, प्रीति पीछे हटी और आकर, चुपचाप कम्बल से मुंह ढांपकर, कमरे में सो गयी. लेकिन बीच-बीच में उसे ‘म्याऊं-म्याऊं’ की सी कुछ आवाज़ सुनायी पड़ती और वह चौंक उठती. दिन में नींद उसे आयी नहीं.

हां, कल रात जब मां पेट पर हाथ फिरा रही थीं, तब एक बात उसने ज़रूर कही थी दूध पीने के बाद कि ‘क्यों, मां जितना दूध आदमी का एक बच्चा पी जाता होगा, बिल्ली के चार-पांच बच्चे भी न पीते होंगे?’

तब दोनों भाई-बहन को फिर याद आया था कि कल रात-भर गायब रहने के बाद, आज एकदम सुबह पूसी फिर आयी थी और ऊपर औसारे पर जाकर कुछ टोह रही थी कि मां ने मच्छरदानी के डंडे से खड़बड़ा कर भगा दिया था. बाबूजी से कह रही थीं- ‘बच्चे देने को जगह ढूंढ़ती मालूम पड़ती है. मारकर भगा दो इसे. यहां बच्चे दे दिये, तो मुश्किल हो जायेगी.’ …जबकि बिस्तर में दुबके दोनों भाई-बहन उस समय भी आपस में यही चर्चा चलाये हुए थे कि पूसी के बच्चों के नाम क्या रखे जायेंगे? मान लो जैसा कि मां बता रही थीं, और इधर-उधर सुना भी है, चार हुए-दो लड़के दो लड़कियां! तो क्या लड़का बच्चों को ‘पूसा’ करके पुकारा जायेगा? खैर, इस समस्या का हल प्रीति ने यों कर दिया था कि काले हुए तो ‘कल्लू’ और लाल हुए, तो ‘लल्लू’, और भूरे या सफेद हूए, तो  ‘बल्लू’ नाम रख देंगे. और दोनों लक्ष्मी पूजा की योजना बनाते-बनाते सो गये थे.

असली दृश्य उपस्थित हुआ तीसरे यानी लक्ष्मी पूजा के दिन. बढ़िया आलू-गोभी की हरे धनियावाली सूखी सब्जी, आम का अचार, इलायची यानी खीर और गरम-गरम पूड़ियां-लेकिन मां का इतनी मेहनत करके सब चीज़ें तैयार करने का उत्साह समाप्त. बंटी तो सुबह का दूध पीते ही, अब तक पांच-छह बार बाथरूम हो आया है. उसके लिए तो खुद मां को ही कहना पड़ा कि इसे मिठाई, पूड़ी-बूड़ी देना ठीक नहीं. दस्त में गरिष्ट खाना और नुकसान देता है. प्रीति के जो कल रात से ही सिर और पेट में हलका-सा दर्द शुरू हुआ था,  वह दोपहर आते-आते बढ़ गया और आज तो वह बिस्तर पर से यह देखने भी नहीं आयी कि खीर में इलायची के दाने और किशमिश कितने पड़े हैं, गिनकर बतायेगी.

बाबूजी उदास होकर, बोले- ‘भई, ये त्यौहार तो जाता रहा. सारा आनंद समाप्त हो गया.’

इधर दोनों भाई-बहन कमरे के एकांत में उदास पड़े हुए थे. उधर रसोई घर में मां-बाबूजी में ले-देके यही बात कि ऐन त्यौहार पर ही इन बेचारे बच्चों की तबीयत बिगड़नी थी.

तभी एकाएक ही जाने कहां से पूसी धम्म से बरामदे में कूदी कि दोनों बच्चे भी खिड़की से छिपे-छिपे झांकने लगे. यह देखकर दोनों को आश्चर्य हुआ कि मां ने एकाएक डंडा या चिमटा उठाकर नहीं ठकठकाया है, बल्कि कुछ सोच में पड़ी-सी बिल्ली की तरफ चुप-चाप देखे जा रही हैं और पूसी भी जैसे कुछ दूध-रोटी पा जाने की उम्मीद में पूंछ हिलाती खड़ी है, लेकिन पूरी तरह चौकन्नी. उसकी आंखें चमक रही थीं, जैसे उन दोनों की टोह में हो कि कहां हैं! बाबूजी अनमने मन से खाना खा रहे थे. उन्होंने पूरी का एक टुकड़ा खीर में डुबोकर पूसी की तरफ फेंका तो उसने झट से पंजों से दबोच लिया और लेकर, कुछ दूर निकल गयी.

अब दोनों भाई-बहन के चौंकने की बारी थी. दोनों चकित भाव से देखते ही रह गये कि मां ने एक कटोरे में दूध डाला है और धीरे-धीरे बिल्ली की तरफ बढ़ रही हैं.

पूसी पहले तो तुरंत भाग निकलने को हुई, लेकिन मां ने कटोरा उसे दिखाकर, ज़मीन पर खटखटाया, तो पूरी सावधानी बरतती हुई-सी कुछ पास आयी और फिर जैसे कोई खतरा न देखकर, चुपचाप दूध पीने लग गयी.

ये दोनों अभी हैरत में ही थे कि मां बाबूजी से यों कहती सुनायी पड़ गयी हैं- ‘अब मैं समझ गयी हूं कि मुनिया के सिर और पेट में दर्द क्यों उठा है और बंटी महाराज को दस्त-पर-दस्त क्यों लगे हैं… सारा नाटक इस बिल्ली का है. आज से कसम खायी, भइया, कि इस झगड़े की पुड़िया को न छेड़ूंगी. त्योहार के दिन बच्चों की हंसी-खुशी ही जाती रही, तो घर में रह क्या गया!’

दोनों ने देखा कि मां ने धीमे-से पल्लू से अपनी आंखें पोंछी हैं. …लेकिन जब तक दोनों ने आपस में हाथ मिलाया और वापस बिस्तर में दुबकने को हुए, मां की प्यार-भरी डांट सुनायी दे गयी- ‘ए प्रीति और बंटी! चलो, निकलो बिस्तर में से और नाटक खत्म! खाना शुरू करो.’

दोनों भाई-बहन अब बिस्तर में से निकले, किंतु बहुत ज़ोरों की भूख और तरह-तरह के पकवानों के लालच के बावजूद, खाना शुरू करने से पहले, मां के गले से लग गये और शरारत में चिल्लाये- ‘हम सब हैं मां के बच्चे!’

धीमे-से किसी ने कहा कि ‘हम भी!’ तो दोनों चौंककर, बाबूजी की तरफ देखते रह गये.

(जनवरी 2014)

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