♦ विवेकानंद >
अपने सहयोगी स्वामी ब्रह्मानंद को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानंद ने उन्हें धर्म के वास्तविक रूप का सार समझाया था. उस पत्र के कुछ अंश.
अल्मोड़ा 9 जुलाई, 1897 बहरमपुर में जैसा काम हो रहा है वह बहुत ही अच्छा है. इसी प्रकार के कामों की विजय होगी- क्या मात्र मतवाद और सिद्धांत हृदय को स्पर्श कर सकते हैं? कर्म, कर्म-आदर्श जीवन-यापन करो-सिद्धांतों और मतों का क्या मूल्य? दर्शन, योग और तपस्या- पूजागृह- अक्षत चावल या शाक का भोग- यह सब व्यक्तिगत अथवा देशगत धर्म है. किंतु दूसरों की भलाई और सेवा करना एक महान सार्वलौकिक धर्म है. आबालवृद्धवनिता, चांडाल-यहां तक कि पशु भी इस धर्म को ग्रहण कर सकते हैं? क्या मात्र किसी निषेधात्मक धर्म से काम चल सकता है? पत्थर कभी अनैतिक कर्म नहीं करता, गाय कभी झूठ नहीं बोलती, वृक्ष कभी चोरी या डकैती नहीं करते, परंतु इससे होता क्या है? माना कि तुम चोरी नहीं करते, न झूठ बोलते हो, न अनैतिक जीवन व्यतीत करते हो, बल्कि चार घंटे प्रतिदिन ध्यान करते हो और उसके दुगुने घंटे तक भक्तिपूर्वक घंटी बजाते हो, परंतु अंत में इसका उपयोग क्या है? वह कार्य यद्यपि थोड़ा ही है, परंतु सदा के लिए बहरमपुर तुम्हारे चरणों पर नत हो गया है- अब जैसा तुम चाहते हो वैसा ही लोग करेंगे. अब तुम्हें लोगों से यह तर्क नहीं करना पड़ेगा कि ‘श्री रामकृष्ण भगवान हैं.’ काम के बिना केवल व्याख्यान क्या कर सकता है! क्या मीठे शब्दों से रोटी चुपड़ी जा सकती है? यदि तुम दस जिलों में ऐसा कर सको तो वे दसों तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएंगे. इसलिए समझदार लड़के की तरह इस समय अपने कर्मविभाग पर ही सबसे ज्यादा ज़ोर दो और उसकी उपयोगिता को बढ़ाने की प्राण-प्रण से चेष्टा करो. कुछ लड़कों को द्वार-द्वार जाने के लिए संगठित करो, और अलखिया साधुओं के समान उन्हें जो मिले वह लाने दो- धन, पुराने वत्र, चावल, खाद्य-पदार्थ या और जो कुछ भी मिले. फिर उसे बांट दो. वास्तव में यही सच्चा कार्य है. इसके बाद लोगों को श्रद्धा होगी और फिर तुम जो कहोगे वे करेंगे.
कलकत्ते की बैठक में खर्च को पूरा करने के बाद जो बचे उसे दुर्भिक्ष-पीड़ितों की सहायता के लिए भेज दो, या जो अगणित दरिद्र कलकत्ते की मैली-कुचैली गलियों में रहते हैं, उनकी सहायता में लगा दो- स्मारक भवन और इस प्रकार के कार्यों का विचार त्याग दो. प्रभु जो अच्छा समझेंगे वह करेंगे. इस समय मेरा स्वास्थ्य अति उत्तम है.
उपयोगी सामग्री तुम क्यों नहीं एकत्र कर रहे हो? मैं स्वयं वहां आकर पत्रिका आरम्भ करूंगा. प्रेम और सहानुभूति से सारा संसार खरीदा जा सकता है. व्याख्यान, पुस्तकें और दर्शन का स्थान इनसे नीचा है.
कृपया ‘शीश’ को लिखो कि गरीबों की सेवा के लिए इसी प्रकार का एक कर्म विभाग वह भी खोले.
…पूजा का खर्च घटाकर एक या दो रुपए महीने पर ले आओ. प्रभु की संतानें भूख से मर रही हैं… केवल जल और तुलसी-पत्र से पूजा करो और उसके भोग के निमित्त धन को उस जीवित प्रभु के भोजन में खर्च करो जो दरिद्रों में वास करता है. तभी प्रभु की सब पर कृपा होगी.
सस्नेह,
विवेकानंद
(फ़रवरी, 2014)