दृष्टि और दिशाबोध

⇐  भद्रसेन  ⇒

     जब कभी मैं किसी धर्म के सम्बंध में पढ़ता या सुनता हूं, तो बेंजामिन फ्रैंकलिन की आत्मकथा का एक उद्धरण स्मरण हो आता है. यदि दुनिया के सब धर्मों वाले उसे हृदयंगम करें, तो परस्पर सौहार्द का विस्तार हो सकता है.     क्वेकर मत के एक प्रवर्तक माईकल वेलफेयर से मेरा परिचय हुआ. उन्होंने मुझे बताया कि दूसरे धर्मों के उत्साही अनुयायियों द्वारा उनके मत पर मिथ्या दोषा-रोपण किये जाते हैं और कहा जाता है कि उनके सिद्धांत और आचरण  अत्यधिक घृणित हैं, जब कि बात ऐसी बिलकुल नहीं है. मैंने उनसे कहा कि नये मतों के साथ हमेशा ऐसा ही होता है और सुझाया कि इस प्रकार की गलत धारणाओं को फैलने से रोकने का एक उपाय यह हो सकता है कि वे अपने विश्वासों और अनुशासन के विषय में विज्ञप्ति प्रकाशित करा दें. उन्होंने बताया कि यह चर्चा उनके बीच में भी उठी थी, लेकिन निम्न कारण से लोग एकमत नहीं हो सके-     ‘जब हम लोगों ने मिलकर इस मत को जन्म दिया, तो हमारे मस्तिष्कों में यह विचार ईश्वर ने उत्पन्न किया कि जिन सिद्धांतों को पहले हम सत्य समझते थे, वे गलत निकले और जिन्हें गलत समझते थे, वे गलत सत्य साबित हुए. समय-समय पर ईश्वर प्रसन्नतापूर्वक हमें मार्ग दिखाता ही जाता है और हमारे सिद्धांतों का बराबर विकास होता जा रहा है ओर हमारे दोष घटते जा रहे हैं.’     ‘हमें यह विश्वास नहीं है कि हम इस प्रगति की चरम सीमा पर आ पहुंचे हैं और हमारा धार्मिक ज्ञान पूर्णता को प्राप्त हो चुका है और हमें भय है कि यदि हम अपने विश्वासों और सिद्धांतों को प्रकाशित कर देंगे, तो आगे हम अपना सुधार करने के इच्छुक नहीं रह  जायेंगे. हमारे बाद आने वाली पीढ़ियों के लोग तो सुधार बिलकुल पसंद ही नहीं करेंगे, क्योंकि उनका विचार यह होगा कि उनके पूर्वज और संस्थापक जो लिख गये हैं, वह पवित्र है और उससे अलग नहीं हटना चाहिए.’     ‘किसी मत के अनुयायियों में ऐसी विनम्रता शायद मानवता के इतिहास में एक-मात्र उदाहरण है. क्योंकि प्रत्येक मत के अनुयायी अपने को सम्पूर्ण सत्य का अधिकारी समझते हैं और अन्य सभी मतों के लोगों को गलत मानते हैं. जैसे कोहरे से भरे वातावरण में कोई यात्री चला जा रहा हो, तो उसे कुछ दूरी पर अपने सामने, पीछे या दोनों ओर के खेतों में काम करते हुए आदमी कोहरे से ढंके हुए दिखाई देंगे, लेकिन अपने पास की चीजें उसे साफ-साफ दिखेंगी, यद्यपि सत्य यह है कि दूसरों के समान वह भी कोहरे से ढंका है.’

( फरवरी 1971 )

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