तीर्थयात्रा

– अकेला सशस्त्र

    ‘अकेला सशस्त्र व्यक्ति एक समूह के खिलाफ प्रतिकार नहीं कर सकता और न अकेली एक सेना असंख्य फौजों का मुकाबला कर सकती है. लेकिन दुनिया-भर के तमाम साम्राज्यों की समस्त सेनाएं एक सत्यनिष्ठ व्यक्ति की आत्मा का दमन नहीं कर सकती, और अंत में उसी की विजय होती है.’

    ये सशक्त शब्द किसके हैं? महात्मा गांधी के? नहीं. आयरलैंड के तेजस्वी देशभक्त अमर शहीद टेरेंस मैक्स्विनी के, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते-लड़ते 75 दिन के उपवास के बाद अपनी मतृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण समर्पित कर दिये. लेकिन आत्मिक शक्ति के सार्वभौमत्व में अटूट आस्था रखने वाले गांधी के विचारों के साथ इनकी कितनी समानता है!

    गांधी-जन्मशताब्दी के पावन अवसर पर 2 अक्टूबर 1969 की पूर्व संध्या को आयरलैंड के प्रधानमंत्री श्री लिंच महोदय ने रेडियो पर अपने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा थाः

    ‘एक महान तत्त्वदर्शी एवं नैतिक मूल्यों के उपासक के रूप में गांधी की गणना उन इनेगिने लोगों में होती है, जिनका प्रभाव और चिंतन अपने देश और युग की सीमाओं को लांघकर सारी मानवता में व्याप्त हो गया है एवं शाश्वतता अर्जित कर चुका है.’

    ‘कुशल राजनीतिज्ञ और देशभक्त के नाते उन्होंने विश्व के इतिहास में आमूल परिवर्तन ही कर दिया. उनके जीवन और उपलब्धियों की जड़े मजबूत होकर दूर-दूर तक फैला गयीं.’

          इसी प्रकार के प्रशंसोद्गारों से भरे हुए उस भाषण के अंत में आयरिश प्रधानमंत्री ने कहा था-

    ‘आज गांधीजी की जन्मशताब्दी की पुण्य-बेला में मेरी ही तरह आप लोगों को भी एक महान आयरिश देशभक्त का स्मरण हो रहा होगा, जिसकी ब्रिक्स्टन जेल में घटित शहादत की 60वीं वर्षगांठ हम अगले वर्ष मनाने वाले हैं- टेरेंस मैक्स्विनी.’

    फिर उन्होंने मैक्स्विनी के महान प्रेरणा-दायक ग्रंथ ‘स्वाधीनता के सिद्धांत’ का वह अंश उद्धृत किया, जिससे इस लेख का आरंभ होता है, और कहा- ‘गांधीजी के जीवन और कृतित्व का तथा उनसे हमें मिले संदेश के महत्त्व का, मैक्स्विनी के इन स्फूर्तिदायक शब्दों से अधिक समर्पक बखान भला मैं क्या कर सकता हूं?’

    2 अक्टूबर 1969 की पिछली शाम को जब यह रेडियो-प्रसारण हुआ, तब मैं डब्लिन में ही था. मैंने स्वयं अनुभव किया कि वहां की जनता गांधीजी के जीवन और संदेश से किस कदर प्रभावित थी और गांधी जन्मशताब्दी के कार्यक्रम में आयलैंड की सरकार और नागरिकों ने कितना भावभीना और उत्साहपूर्ण सहयोग प्रदान किया था.

    टेरेंस मैक्स्विनी. मुझे पूरी तरह स्मरण है कि भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के जमाने में अपने देश के युवकों पर इस अमर शहीद देशभक्त का कितना गहरा प्रभाव था. घर-घर में उसका नाम फैला हुआ था. आयरलैंड और भारत दोनों ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे थे, इसलिए दोनों में स्वाभाविकतया गहरी सहानुभूति और सौहार्द की भावना थी. उस पृष्ठभूमि में, जब भारत के एक देशभक्त जतीन दास ने भी अंग्रजों के खिलाफ अनशन करके जेल में अपने प्राण त्याग दिये, तो उसे ‘भारत के मैक्स्विनी’ की संज्ञा दी गयी थी.

    टेरेंस मैक्स्विनी एक बुद्धिमान, तेजस्वी युवक था- पत्रकार, कवि, लेखक, प्रभावशाली वक्ता और निर्भीक राष्ट्र-सैनिक. उसने अनेक ग्रंथ लिखे, जिनमें ‘स्वतंत्रता का संगीत,’ ‘विद्रोह की नैतिकता’ तथा ‘स्वाधीनता के सिद्धांत’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. वह अपने नगर कार्क का महापौर (लार्ड मेयर) निर्वाचित हुआ था. डब्लिन के बाद कार्क आयरलैंड का सबसे बड़ा शहर है.

    राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने के जुर्म में अंग्रेज शासन ने मैक्स्विनी को गिरफ्तार कर लिया. मैक्स्विनी का दावा था कि कार्क की सीमा में महापौर के अधिकार और कानून चलते हैं, इसलिए उसकी गिरफ्तारी अवैध है. और उसने बंदी होने के क्षण से ही अन्न-त्याग कर दिया. आयरलैंड से उसका तबादला लंदन की ब्रिक्स्टन जेल में कर दिया गया.

    उसके आमरण उपवास के समाचार ने सारे आयरलैंड में ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड और अमेरिका में भी तहलका मचा दिया. उसकी रिहाई के लिए आंदोलन भी हुआ. लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी जिद नहीं छोड़ी और न मैक्स्विनी अपने दृढ़ निश्चय से डिगा. तिल-तिल घुल-घुलकर उसकी जीवन-ज्योति क्षीण होती गयी और उपवास के पचहत्तरवें दिन बुझ गयी.

    लेकिन उसका आत्महत्या अकारथ नहीं गया. ब्रिटिश साम्राज्य को आयरलैंड पर अपनी पकड़ छोड़ देनी पड़ी. मगर हां, वहां से अपने पैर हटाने के पहले उसने भारत की तरह आयरलैंड के भी दो खंड कर दिये.

    आश्चर्य नहीं जो इतने समान कटु अनुभवों के कारण आयरलैंड और भारत के बीच सदा ही गहरी मैत्री की भावना चली आयी हो.

    कार्क नगर में गांधी-जन्मशताब्दी के उपलक्ष्य में मेरा एक भाषण आयोजित था. लेकिन नगर में पहुंचते ही सबसे पहले मैंने जो काम किया, वह था सिटी हाल में जाकर कार्क के वर्तमान महापौर श्री टी.पी. लेही को अपनी आदरांजलि समर्पित करना.

    ‘आपके नगर के महापौरों  की अत्यंत उज्जवल परम्परा रही है. उसी आसन का उत्तरदायित्व आज आप सम्भाल रहे हैं. अतएव आपको आदरपूर्वक नमस्कार करने के लिए मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूं.’ मैंने लार्ड मेयर से मिलते ही कहा.

    ‘जी, टेरेंस मैक्स्विनी इस पद को इतिहास-प्रसिद्ध और अमर कर गये हैं. इस नगर की तरफ से मैं आपका हार्दिक स्वागत करता हूं. आपके आगमन से हम लोग विशेष रूप से सम्मानित हुए हैं, क्योंकि आप गांधी के देश भारत से आये हैं, जिसके साथ आयरलैंड की मित्रता बहुत गहरी है.’

    उस अवसर पर अन्य सज्जनों के अलावा लार्ड मेयर की पत्नी तथा कन्या एवं डेप्युटी लार्ड मेयर आल्डरमैन जी. वाइ. गोल्डबर्ग भी उपस्थित थे.

    श्रीमती लेही मुझे उस मेज के पास ले गयीं, जिस पर बैठकर मैक्स्विनी काम किया करते थे. लकड़ी की एक सादी, छोटी-सी मेज थी, जो आज दर्शकों के लिए श्रद्धा-स्थल बन गयी है.

    ‘क्या मैं लार्ड मेयर टेरेंस मैक्स्विनी की समाधि पर अपनी श्रद्धा के फूल चढ़ाने जा सकता हूं?’ मैंने निवेदन किया.

    ‘जरूर-जरूर!’ लार्ड मेयर बोले और उन्होंने गोल्डबर्ग साहब से मेरे साथ जाने की प्रार्थना की.

    जब मैं कार्क की दफन-भूमि में गया, तब संध्या हो रही थी. उसे ‘रिपब्लिकन प्लाट’ के नाम से पुकारा जाता है. यहां केवल उन्हीं की कब्रें थीं, जिन्होंने प्रजातंत्र की सेवा में, स्वतंत्रता के हेतु बलिदान किया था. मैंने देखा कि यहां से वहां तक सफेद क्रासों का उपवन-सा उगा हुआ है. आजादी के लिए इस राष्ट्र ने कितनी भारी कीमत चुकायी थी!

    मैं मैक्स्विनी की कब्र के सामने हाथ जोड़े मस्तक झुकाये खड़ा रहा. आंखें मूंदकर उस महान तेजस्वी देशभक्त को अपनी श्रद्धांजलि समर्पित की. साथ ही आयरलैंड के अन्य शहीदों का, और उनके साथ केवल भारत के ही नहीं, वरन समस्त विश्व केवल क्रांतिकारियों का पुण्यस्मरण किया, जिन्होंने मानव की स्वाधीनता के लिए अपने जीवन का अर्घ्य चढ़ाया था.

    आंखें खोली तो देखा, काफी अंधेरा हो चला था. पर मेरे अंतर में संतोष का एक सौम्य प्रकाश जल रहा था. लगा, जैसे मेरी तीर्थयात्रा सफल हो गयी. मन-ही-मन मैं धन्यता अनुभव कर रहा था और मुझे रह-रहकर ये अमर पंक्तियां याद आ रही थीं.

  •     शहीदों की चिताओं पर
  •     जुड़ेंगे हर बरस मेले।
  •     वतन पर मरने वालों का
  •     यही बाकी निशां होगा।

    हमारी मोटर सभास्थल-इंपीरियल होटल की तरफ भागी जा रही थी और मेरा मन विश्व के इन सब बलिपंथियों के प्रति कृतज्ञता से झुका जा रहा था.

( फरवरी 1971 )

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *