ताकि लेखन साहित्य न बन जाये!

♦  शरद जोशी   >

श्रे ष्ठ का विशेषण तो दूर, मुझे अपने लिखे पर व्यंग का विशेषण लगाते भी अच्छा नहीं लगता. यह एक खुशफहमी भी हो सकती है कि मेरी रचनाएं व्यंग हैं. दरअसल मेरी कोई पंद्रह बीस रचनाएं इधर-उधर प्रकाशित होने के बाद किसी ने मुझे बताया कि ये सब व्यंग है. (माफ करें, मैं ‘व्यंग’ लिखता हूं, ‘व्यंग्य’ नहीं. ‘व्यंग्य’ बोलने में मुझे कठिन लगता है.) सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा. मैं अपनी ओर से कहानियां या निबंध लिख रहा हूं, शैली के मामले में लापरवाह हूं और आप कह रहे हैं मैं व्यंग लिख रहा हूं. खैर, जब बात फैलने ही लगी तो मैं ने स्वीकार कर लिया. मैं व्यंगकार सही. मेरी ओर से आग्रह अभी भी नहीं है. आप मुझे कुछ भी न मानें तो अपुन को चलेंगा.

वास्तव में हमारा लेखन हमारे ही पैदा किये जुलमों और फतवों के मकड़जाल में फंसकर रह जाता है. हवा ऐसी बंधती है   कि जांचने परखने का न मौका मिलता है न ज़रूरत महसूस होती है. ऐसे ही लिपटे बंधे एक दिन घूरे पर फेंक दिये जाते हैं. तब तक ज़िद इस हद तक बढ़ चुकी होती है. कुछ समझ नहीं आता. इसलिए निरंतर अपनी जांच करते रहना लेखक की मजबूरी  हैं, रचनाकार के नाते हमारा न कोई अतीत होता है और न अनुभव-पुंज. सब मन बहलाने को है. हर रचना पहली रचना लिखने की कोशिश, उत्साह और भय के साथ लिखना पड़ती है. फिर वह जैसी बने. लिखना होता है और हर लिखनी श्रेष्ठ लिखने का प्रयत्न सिर्फ इसलिए है कि रचना का मकसद पूरा हो. यदि पिछले अनुभवों का लाभ मिलता तो साहित्य में प्रत्येक लेखक से श्रेष्ठतर और ‘तम’ रचनाएं लिखता. यह नहीं होता. हर कृति की शख्सियत अलग होती है. वह कितनी ऊंचाई तक जाती है, कितने दिनों ज़िंदा रहती है यह उसकी आंतरिक शक्ति, गठन और सौंदर्य पर निर्भर करता है, जो हम देते हैं या देने में अपने को समर्थ पाते है. मैं तो अक्सर ही अभी-अभी घटे किसी मसले पर लिखता हूं. कई बार स्थितियां फौरन रंग बदल लेती हैं. इसके पहले कि मेरी रचना छपे, हालत बदल जाती है और मेरा लिखा पुराना पड़ जाता है. मेरे लिए लेखन एक किस्म की दौड़-धूप है. ऐसे में यह सोचना भूल होगी कि कोई भी रचना महान श्रेष्ठतम या अमर होगी. क्यों होगी? उसे नहीं होना चाहिए.

अगर कोई रचना लम्बे वक्त तक जीवित रहती है तो श्रेष्ठता के अतिरिक्त यह वजह भी हो सकती है कि हमारे देश में वक्त की चाल धीमी है. जवाब में आप शेक्सपिअर के नाटकों का जिक्र करेंगे. मैं नौटंकियों का जिक्र करूंगा. बात वहीं रहेगी. समस्या यह नहीं है, न होनी चाहिए कि श्रेष्ठ क्या है और वो लिखा नहीं अब तक? समस्या है लेखन की इस दौड़-धूप में संगत-असंगत, न्याय-अन्याय, सही गलत को लगातार हर लमहा समझना और लिखते वक्त अपनी निजी विशिष्ट धारणा को कटु यथार्थ भोगने वाले सामान्य जन की भावना की ऊंचाई तक पहुंचाने की कोशिश. साहित्य द्वारा प्रदत्त सारी शब्दावली और संस्कारों का वजन ढोने की मजबूरी से ग्रस्त रहने के बावजूद ऐसे लिखना कि रचना कहीं साहित्य भर होकर न रह जाए. उसे साहित्य बन जाने से बचाना है. व्यंग्य की ओर पिछले सालों कुछ ताज्जुब से इसीलिए देखा जा रहा है. व्यंगकारों ने अपनी रचनाओं को हिंदी साहित्य के अर्थ में साहित्य होने से बचाया है ताकि वह अधिक सार्थक, प्रभावकारी और व्यापक हो सके. व्यंगकारों को यह कहते हुए शर्म महसूस नहीं होती कि वे एक बड़े पाठक वर्ग द्वारा पढ़े और सराहे गये हैं. यही हमारी कोशिश थी जिसमें हम सफल रहे. पता नहीं क्यों हिंदी में लोकप्रियता अपराध मानी जाती है. लेखन को एक लुकाछिपी के अंदाज़ से चलाया जाता है. यश ऐसे प्राप्त करते हैं जैसे किसी की जेब काट रहे हों. प्रतिष्ठित होने पर शक्ल ऐसी मनहूस हो जाती है जैसे चार-पांच का मर्डर करके आये हो. यारो, यह अपना देश है, ये अपने लोग हैं, इनसे उठकर कहां उठोगे, इनसे बचकर कहां छुपोगे? अगर हम-तुम उल्लू हैं तो बोसकी के कुर्ते में भी उल्लू ही लगेंगे. शब्द कब तक मदद करेंगे. खेद है हिंदी साहित्य ने अपनी शुरूआत के फौरन बाद जबर्दस्त नकलीपन ओढ़ लिया. इसे तोड़ने की कोशिश करने वालों को सदा हिकारत से देखा जाता रहा है. व्यंगकार भी हिकारत से देखे गये हैं. यह सौभाग्य है.

इस बंदे को यह समझ नहीं आया कि व्यंग में ताज्जुब की क्या बात है और वह अजूबा क्यों है? जिस देश के लोग हज़ारों वर्षों से आक्रमण, अत्याचार, अन्याय, भूख, गरीबी, बीमारी, निराशा सहन करते हुए अपने कतिपय मूल्यों, विश्वासों और आस्थाओं से जुड़े रहे हैं, उनमें ज़िंदा रहने के लिए कोई ‘सेंस आफ ह्यूमर’, कोई मस्ती ज़रूर होगी. स्तर जो भी हो पर उसके बिना इन बरसों तक ज़िंदगी का यह संघर्ष सम्भव ही नहीं था. अब यदि उन मूल्यों, विश्वासों और आस्थाओं से जुड़ा साहित्य सामान्य ज़िंदगी से भी जुड़ा है तो वह ‘सेंस आफ ह्यूमर’ साहित्य में आयेगा ही जो अन्याय, अत्याचार और निराशा के विरुद्ध होने से व्यंग में अभिव्यक्त होगा. इस तरह व्यंग पहचान है कि साहित्य कष्ट सहती सामान्य ज़िंदगी के करीब है या जुड़ा हुआ है. नहीं हो सका तो कहीं गड़बड़ है. जो ऊपरी तौर से व्यंग से बचने-कतराने का पोज लेते हैं, उनकी रचनाएं भी कई बार जाने-अनजाने सशक्त व्यंग रचना बन जाती हैं. यह सहज है, सच है. यही होना चाहिए. हिंदी जब सामान्य जन के भाषाई रंग और मस्ती में रहेगी, व्यंग अधिक लिखा जाएगा. जब प्रयोगवाद और नयी कविता के शीर्षक के अंतर्गत कविता अपनी रूढ़ अभिव्यंजना, शब्द और दृश्य के परम्परागत दायरों को तोड़ने की कोशिश करती है तब समीक्षकों की समझ आ जाता है कि क्या हो रहा है. पर जब वे ऐसी ही, मगर जीवन व समाज से गगज्यादा गहरे अर्थ में जुड़ी सार्थक और सहज कोशिश गद्य में देखते हैं तो उसी समीक्षक को लगता है यह छिछला है, हास्य है, सस्ती लोकप्रियता है क्योंकि उनके आदरणीय बाप ने मरते वक्त कहा था कि बेटा, गरिमा बनाये रखनी है तो हास्य-व्यंग से दूर रहना. अफसोस यह है कि कतिपय कांप्लेक्सेस से ग्रस्त हिंदी साहित्य ने अपना मिजाज तय कर लिया और चंद संकीर्णताओं को सम्मान की मुद्रा बना लिया. यह अंदाज़ एकदम टूटना मुश्किल है. जिसे कायम रखने में अनेक लोग, विश्वविद्यालय और संस्थान जुटे हों उसे मुट्ठी भर व्यंगकार क्या तोड़ पाएंगे. मुझे तो लगता है एक भय व्याप्त है. एक शख्स जो कविता के किसी मूड़ में तोता होता, तो तो तो तो, ता ता ता ता करके थिरकने लगे और उसकी यह क्रिया देख समीक्षक को गम्भीरता से महसूस हो कि छायावाद में छेद हो रहा है, वही शख्स उसके फौरन बाद पुरानी नकली खोल में घुसने लगे तो जाहिर है कि एक भय व्याप्त है. सबको डर लगता है कि लिखने का मिजाज सहज सरल हो गया तो हमारी प्रतिष्ठा, अमरता, श्रेष्ठता वगैरा का क्या होगा? व्यंगकार कबीर ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा था कि जो अपना घर फूंक सकता हो वही हमारे साथ चल सकता है. यह घर भी बरसों से बना है, पुराना है. गण्यमान्य समीक्षकों ने इसका नक्शा बनाया, बाद में कई क्रेक आये, आने थे, मगर हवेली की प्रतिष्ठा जस की तस है. जनसंख्या बढ़ गयी है मगर पुराना कबूतरखाना छोड़ने को कोई राजी नहीं. हर उदीयमान इसी के आंगन में खेलता है और इसी में घुसने की कोशिश में रहता है. उनकी लाश यहीं से उठ अमरता के श्मशान में जो फुंकनी है. व्यंग के इशार और सीटियों को समझकर भी घर फूंकना तो दूर वे कुछ देर, को भी घर छोड़ने को तैयार नहीं. भय व्याप्त है. यह जगह छोड़ देंगे तो क्या होगा? ऐसी-तैसी तुम्हारी, हम तो चले.

पिछले वर्षों व्यंग ने अपनी सार्थक भूमिका निभायी है. जब आम पाठक को गुलशननंदाओं के भरोसे छोड़ हिंदी का साहित्यकार अपना खूबसूरत चेहरा छोटी पत्रिकाओं से ढांके था तब वह बदशकल कमज़ोर व्यंग सफलता-असफलता, सार्थकता-निरर्थकता, यश-अपयश की सारी जोखम में खेलता, जूझता, गिरता, उठता खुद को और अपनी दुनिया को समझने की कोशिश में अपने को दुरुस्त और बेहतर करने में लगा था. अभी भी है. क्षणभंगुर रचनाओं का अम्बार खड़ा करने का विचित्र  साहस है व्यंगकारों में. अमरता का लोभ इन्हें नहीं डिगा पाता. साहित्य और ज़िंदगी की हमारी परिभाषाएं भिन्न हैं. आपकी आपको मुबारक. हमारा ज्यादा नाता ज़िंदगी से है.

(मार्च 2014)

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