जब न हम तन में रहेंगे…

♦   परितोष शर्मा    >

सामान्यतः अभिव्यक्ति, विशेषकर काव्यभिव्यक्ति एवं साहित्यिक अभिव्यक्ति, व्यक्तित्व और व्यक्ति के अव्यक्त को व्यक्त करती है. कवि नरेंद्र शर्मा के व्यक्तित्व के अनुरूप उनकी काव्याभिव्यक्ति का मूल-तत्त्व है ‘राष्ट्र प्रेम’. स्वजन और जन-जन के प्रिय कवि नरेंद्र शर्मा का प्रियतम था- स्वदेश भारत. यह तथ्य मैं, उनका पुत्र होने के नाते, साधिकार कह सकता हूं!

बालक नरेंद्र शर्मा के घर साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘प्रताप’ आया करता था. इसलिए उन्हें बचपन से ही देश-भक्ति का यह प्रेरक मंत्र मिल गया था-

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान
वह नर नहीं, नर पशु निरा है, है मृतक समान.

आठ वर्ष के हुए, तब 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन का बालक नरेंद्र शर्मा पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे एक जुलूस लेकर पुलिस की चौकी तक पहुंच गये. उसमें तीन लड़के थे, एक पुलिस चौकी के पास जाने से पहले हट गया, फिर थोड़ी देर के बाद दूसरा हट गया, लेकिन बालक नरेंद्र शर्मा हाथ में पैमाइश की झंडी लिये उसे ही देश का झंडा समझ कर गांव के बाहर पुलिस चौकी को ललकार आया था!

नरेंद्र शर्मा ने विद्यार्थी काल में ही प्रण किया था कि वे स्वदेशी का ही उपयोग करेंगे और अपने देश के प्रति जितना भी हो सकेगा, अपनी सेवा, योगदान भरसक देंगे. उस समय ‘नौजवान भारत सभा’ की जिला कमेटी के नरेंद्र शर्मा प्रधानमंत्री थे. उन्होंने उन दिनों उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर सर मालकम हेली का बहिष्कार करने के लिए एक बहुत बड़ा जुलूस जिले के सदर मुकाम बुलंदशहर में निकाला. उस जुलूस पर लाठी चार्ज भी हुआ. वहां पर काली नदी के पुल पर कुछ लोग लेट गये, क्योंकि उधर से सर मालकम हेली की सवारी निकलने वाली थी. जुलूस में शामिल लोग उस सवारी में अवरोध पैदा करना चाहते थे. जुलूस के लोगों को उठा-उठा कर नदी में पटका गया. इसका उनके मन में बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा जो उनकी राजनीतिक चेतना का मूल आधार बना. ‘नौजवान भारत-सभा’ द्वारा यू. पी. असेंबली के चुनावों का भी बहिष्कार नरेंद्र शर्मा ने नेतृत्व में ही हुआ था.

नरेंद्र शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में एक गांव जहांगीरपुर में हुआ उनकी शिक्षा-दीक्षा पहले घर पर ही हुई. किठकिन्ना और किंडर गार्डन के सेट के सहारे प्रथम अक्षर-ज्ञान पंडित जसराम जी ने दिया. सबसे पहली पुस्तक ‘बाल सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ी. 1921 में, गांव के विद्यालय में, तीसरी क्लास में दाखिला हुआ. चौथी क्लास अर्थात लोअर प्राइमरी वहीं से पास की और छुट्टियों में श्री मुरलीधर से अंग्रेज़ी सीखना शुरू किया. 1929 में, ‘जानकी प्रसाद एंग्लो-संस्कृत हाईस्कूल’, खुर्जा से हाईस्कूल पास किया. सन् 1931 में इंटर पास किया, जहां अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे, श्री महेश प्रसाद शुक्ल, जिनसे कविता की प्रेरणा ग्रहण की. वहीं दूसरे प्राध्यापक थे श्री विद्याधर चतुर्वेदी. उनके प्रभाव में उग्र राजनीति में रुचि अमंद रही. प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ चुके, उपरोक्त, दोनों प्राध्यापकों की परोक्ष प्रेरणा से इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1931 में प्रवेश पाया. पिता, पूर्णलाल मोहनलाल शर्मा का निधन 1917 में ही हो गया था. तब बालक नरेंद्र केवल चार वर्ष के थे.

नरेंद्र शर्मा ने बीसवीं शती का तीसरा दशक प्रयाग में बिताया. वह दशक उनके काव्य-जीवन का, उनके मतानुसार, स्वर्णिम दशक था. उन्होंने पंत जी की ‘वीणा’ और महादेवी जी की पुस्तक ‘नीहार’ से प्रेरणा प्राप्त की.

1937 से 40 तक, नरेंद्र शर्मा ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के केंद्रीय कार्यालय ‘स्वराज भवन’ में हिंदी विभाग का काम-काज देखा तब वे पंडित जवाहरलाल नेहरू के हिंदी-सचिव का काम भी करते थे. गिरफ्तारी के ढाई वर्ष बाद, जब नरेंद्र शर्मा जेल से रिहा हुए, तब स्वराज भवन पर ताला लगा हुआ था. काशी विद्यापीठ पर भी ताला लगा था. कुछ करने के जो दो विकल्प हो सकते थे, वह दोनों उनके सामने नहीं थे. फरवरी 1943 में वे कवि और उपन्यासकार भगवतीचरण वर्मा के साथ बम्बई चले आये. फिल्मों में गीत लिखते हुए उन्होंने जिन चलचित्रों के लिये गीत लेखन किया उनमें ‘ज्वार-भाटा’ भी एक है. यह दिलीप कुमार की पहली फिल्म थी. ‘दिलीप कुमार’ नाम भी नरेंद्र शर्मा का ही सुझाया हुआ है. दरअसल उन्होंने तीन नाम सुझाये थे– एक जहांगीर, दूसरा वासुदेव और तीसरा दिलीप कुमार. तीसरा पसंद किया गया.

आकाशवाणी की शाखा ‘विविध भारती’ की परिकल्पना, परियोजना और स्थापना में भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा. राष्ट्रीय भावना से प्रेरित, ‘विविध भारती’ की परिकल्पना, परियोजना और स्थापना में उनके योगदान को मैं कविकर्म ही मानता हूं. न केवल ‘विविध भारती’ की परिकल्पना, परियोजना और नामकरण का सौभाग्य, वरन ‘विविध भारती’ के अन्य कार्यक्रमों जैसे ‘हवामहल’, ‘मधुमालती’, ‘जयमाला’, ‘बेला के फूल’, ‘चौबारा’, ‘पत्रावली’, ‘रसवंती’, ‘मधुबन’, ‘रसरंग’, ‘वंदनवार’, ‘मूंजषा’, ‘स्वर संगम’, ‘रत्नाकर’, ‘छायागीत’, ‘चित्रशाला’, ‘अपना घर’ इत्यादि के नामकरण का सौभाग्य भी मेरे पिता को ही प्राप्त हुआ. उन दिनों भारत के नागरिक भारतीय संचार माध्यमों द्वारा प्रसारित रेडियो कार्यक्रम सुनने कि जगह रेडियो सीलोन सुना करते थे. ‘विविध भारती’ के शुभारम्भ ने भारत की इस व्यथा का और विदेशी रेडियो सुनने की प्रथा का अंत कर दिया. उन दिनों जगदीशचंद्र माथुर ‘आकाशवाणी’ के महानिदेशक थे. वे नरेंद्र शर्मा के बाल मित्र थे. बाल्यकाल में दोनों ने मिलकर ‘विद्यार्थी’ नामक हस्तलिखित पत्रिका निकाली थी. बड़े होकर दोनों ने देश को ‘विविध भारती’ दी.

दद्दा अर्थात द्विवेदी-युग के अन्यतम प्रतिनिधि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के दर्शन का सौभाग्य मुझे बचपन में तब मिला जब पापा का दिल्ली में तबादला हुआ था. मकान मिला नहीं था और बम्बई में हम बच्चों की गर्मी की छुट्टियां हो चुकी थीं. शायद यह बात दद्दा को किसी से ज्ञात हो गयी थी कि हम सब कुछ दिनों के लिए दिल्ली आना चाहते हैं. दद्दा ने हमें अपने घर नॉर्थ एवेन्यू में बुलवा लिया. वहां दद्दा मेरे साथ ताश खेलते थे.

1962-63 की बात है, जब हम दिल्ली में रहते थे, तब एक बार बच्चनजी के घर रात को पापा के साथ हम सबको भोजन के लिए बुलाया गया था. वहां सुमित्रानंदन पंत, दिनकर जी, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर और पापा सब बैठे थे. सब एक-दूसरे को अपनी कविता सुना रहे थे. मैं वहां अम्मा के साथ बैठकर सब सुन रहा था. मुझ पर इस साहित्यिक वातावरण का ऐसा प्रभाव पड़ा कि मैं भी उत्साहित हो कर ज़ोर से बोल पड़ा- ‘मैं भी एक कविता सुनाऊंगा.’ तब मैं चौथी ही कक्षा में था. और मैंने अपने पाठय़क्रम की एक कविता सुना दी–

खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आंधी पानी से,
डिगे रहो तुम अपने पथ पर, कठिनाई तूफानी में

उस समय जो हंसी का ठहाका सुना और भई वाह वाह! की गूंज-प्रतिगूंज सुनी ऐसी शायद ही किसी कवि सम्मेलन में किसी ने सुनी हो. पापा को कविता लिखते देख कर मुझे कई बार कविता लिखने का मन हो जाता. मैं भी पापा की ही तरह आंख बंद करके, मुंह में एक छोटा-सा पान रख कर लिखने की कोशिश करता. मुझे उस समय पता न था कि आंखें बंद करने और पान मुंह में दबाने से ही कविता नहीं होती. किसी तरह दो पंक्तियां लिखने में सफल हुआ-

बहुत दिनों से बिछड़ा बछड़ा
खोज न पाया माता को.

मैं इन पंक्तियों को लेकर दौड़ा-दौड़ा पापा के पास पहुंचा और कहा, ‘पापा मैंने कविता लिखी है, पर वह बहुत छोटी है, आप इसे लम्बी करके दीजिए.’ पापा ने इस पर हंसने के बजाय प्रोत्साहित किया और आगे कुछ और पंक्तियां लिखा दीं–

छोड़ दिया तृण चरना उसने
जब देख न सका सुजाता को.

पापा ने जब पचास वर्ष पूरे किये, तब उनके सम्मान में कानपुर में एक समारोह हुआ था. उस समय मैं आठ वर्ष का था. वहां मैं कुछ ज्यादा न समझ पाया. तब तो सम्मान के समय के फूलों के हार और कानपुर का सफर ही महत्त्वपूर्ण प्रतीत हुए. पापा ने मुझे  घर के ही नज़दीक के एक हिंदी-माध्यम स्कूल में भेजा था. उन्हें राष्ट्रभाषा हिंदी से बहुत प्रेम था. उनका कहना था कि दूसरी भाषाएं ज़रूर सीखो, परंतु हिंदी को हमेशा अपनी समझो. बचपन में मैं पापा से रोज़ रात को सोने से पहले कहानी सुनाने का आग्रह किया करता था. पापा मुझे ज्ञानवर्द्धक बातें कहानी के रूप में सुना देते. स्कूल में हर वर्ष, हर कक्षा की एक-एक पत्रिका निकलती थी. वर्ग-शिक्षक जानते थे ‘मैं कवि नरेंद्र शर्मा का बेटा हूं’.  उन्होंने मुझसे भी पत्रिका के लिये कहानी मांगी. मैं जानता था कि यह काम बहुत आसानी से हो सकता है, इसलिए मैंने बड़े विश्वास से हामी भर दी. मैं ने पापा को ऐसी कहानी सुनाने को कहा जो कहीं भी न छपी हो. पापा ने मुझे मन से एक कहानी बना कर सुनायी और मैं वही कहानी कक्षा की पत्रिका के लिए दे आया. इसी तरह जब स्कूल में गृह-कार्य के लिए निबंध लिखने को दिया जाता तो उस विषय पर मैं पापा से बात छेड़ देता और मुझे कुछ ही समय में सारी सामग्री मिल जाती. 1974 में, पापा की षष्ठी-पूर्ति के अवसर पर बम्बई में आयोजित सम्मान-समारोह हुआ था. 58 वर्ष की आयु में व्यक्ति को सरकारी सेवा-निवृत्त कर दिया जाता है. ताकि वह जीवन का शेष भाग सर्जनात्मक गतिविधि कर बिता सके, इस आशय के पीछे एक आर्थिक औचित्य भी छिपा हुआ है कि उस व्यक्ति को सरकारी सेवा से निवृत्ति पर ढेरों रुपये  प्रोविडंट फंड (भविष्य निधि) और ग्रच्युटी से प्राप्त होते हैं और हर माह पेंशन की सुरक्षा. किंतु यह विकल्प कवि नरेंद्र शर्मा के लिए नहीं थे क्योंकि उन्हें केवल 3000/रुपये प्रोविडंट फंड मिला और पेंशन नहीं मिली. क्योंकि वे ‘अनुबंधित वैतनिक मुख्य कार्यक्रम नियोजक, कलाकार कर्मचारी’ थे! पेंशन मिलने का एक और मार्ग था, ‘स्वतंत्रता सेनानी पेंशन योजना’ का, जिसके तहत उन्हें हज़ारों रुपये प्रति माह मिल सकते थे, लेकिन यह उन्हें सर्वथा नागवार था. उनका कहना था- “क्या हमने स्वतंत्रता संग्राम में इसलिए हिस्सा लिया था कि उसकी हुंडी भुनायी जा सके?” यह कहकर उन्होंने एक हितैषी द्वारा प्रस्तुत  आवेदन पत्र फाड़ डाला था.

अपने जीवनकाल की अंतिम रचना उन्होंने 9 फरवरी 1989 वसंत पंचमी के दिवस लिखी, जिसे न जाने क्यों उन्होंने उसे सरस्वती की प्रतिमा के सम्मुख रख देवी को समर्पित किया था. वह दोहा था, ‘शंखनाद ने कर दिया समारोह का अंत, अंत यही ले जायेगा कुरुक्षेत्र पर्यंत.’ यह दोहा भविष्य के घटना चक्र का द्योतक है. इसका अर्थ दूरदर्शन, प्रस्तुति ‘महाभारत’ के परिप्रेक्ष्य तक ही सीमित न रह कर, सांकेतिक है, व्यापक है. पिता ने अपनी जीवन-यात्रा के अंतिम दिन, 11 फरवरी 1989 को, एक पर्चे पर अपनी एक पूर्व रचित कविता को पुनः स्वहस्ते लिपिबद्ध किया था-

जब न हम तन में रहेंगे, रहेंगे मन में तुम्हारे,
भूल कर हर भूल, हमको भूलना मत प्राण प्यारे.
बहुत कुछ ऐसा, समय के साथ जाता, न आता,
किंतु कुछ है, न कुछ जैसा, जो न बिसरेगा बिसारे.

(फ़रवरी, 2014)

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