पत्र-कथा
– सूर्यबाला
मेरी अपनी बहुत अच्छी मां!
पता नहीं अब के पहले किसी बेटे ने अपनी मां को इस तरह का पत्र लिखा या नहीं, लिखेगा भी या नहीं. पर कभी न कभी हर बड़ा हुआ, उद्विग्न, और कई तूफानी लहरों के बीच फंसा हुआ बेटा, अपनी मां को एक ऐसा खत लिखने के लिए छटपटाया ज़रूर होगा, इतना मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं. एक बात और भी समझ लो मां! …कि आम तौर पर लड़के, लड़कियों को शर्मीली, संकोची और दब्बू कहकर चाहे जितना चिढ़ाया करें, लेकिन अपना दुख-दर्द खुलेआम कहने, बांटने, अपने अंदर का सब कुछ जग-जाहिर करने में जितने दब्बू, जितने संकोची लड़के होते हैं, लड़कियां नहीं.
नन्ही बच्चियों से लेकर दादियां, नानियां तक हंसते-रोते बड़ी सहजता से अपना आत्म-पुराण बखान ले जाती हैं, जबकि मर्द-मानुष बच्चे से लेकर वयोवृद्ध तक, अपने अहसासों की पोटली समेटे ताउम्र अनकहा खड़ा रह जाता है.
मैं स्वयं भी, इस समय जो कुछ जितना महसूस कर रहा हूं, उसे सहमा, सकुचाया, अटक-अटककर ही तुम तक पहुंचा पा रहा हूं, क्योंकि कहा न, तुम्हारे पास बैठकर, गले में बांहें डाल, सब कुछ कह पाने की पात्रता नहीं मुझमें. जानता हूं, इस संकोच की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है मुझे. क्योंकि तुम सोचती हो कि तुम्हारे इस बेटे के पास तुमसे कहने-सुनने के लिए कुछ है ही नहीं. कारण, अब उसके पास एक अदद पत्नी जो है.
यों, कहता-सुनता तो यह बेटा पहले भी नहीं था तुमसे. पर तब यह अकेला था. अक्खड़, उद्दंड और खिलंदड़ा. बोले या न बोले. कहे या न कहे. था तो स्मिार्फ़ अपनी मां का बेटा ही. लेकिन अब? अब उसके पास एक अदद पत्नी है. अब वह मन का सब कुछ नवोढ़ा पत्नी से ही बांटता होगा, इसलिए मां से नहीं बांटता, यह अंदेशा, सच-सच कहो मां, क्या तुम्हें अंदर-अंदर विकल नहीं किये रहता.
नहीं, जाहिर नहीं किया तुमने कभी, कुछ भी. मुझसे बहुत छुपाकर रखी है अपनी यह बेचैनी, यह बेकली. शायद अपने आप में स्वीकारोगी भी नहीं कि कहीं बेटे की मधूलिका वधू से अति अंतरंगता तुम्हें एक खालीपन के अहसास से, कुछ हाथ से सरक जाने के अंदेशे से, एक विचित्र किस्म की विकलता सौंप गयी है. मुझे मालूम है, इस अहसास-मात्र से तुम खुद अपनी दृष्टि में लज्जित और शर्मिंदा महसूस करोगी. कभी पूरे होशोहवास में स्वीकारोगी भी नहीं.
लेकिन मेरा मन कर रहा है कि एकदम तुम्हारे सामने, तुम्हारी खाट पर बैठकर, तुम्हें समझाकर कहूं कि अगर तुम इस तरह की असहजता या बेचैनी महसूस कर रही हो तो इसमें लज्जित होने जैसा कुछ भी नहीं. एकदम स्वाभाविक प्रतिक्रिया है यह, तुम्हारे जीवन में आये ज़बरदस्त उलट-फेर की.
उलट-फेर? बेटे की शादी? एक मां का सबसे मोहक, लाड़-भरा सपना. लेकिन अनादिकाल से इस मोहक सपने के साथ जुड़ी विडम्बना जाने कितनी माओं ने चुपचाप सही होगी, तथा किसी और के सामने स्वीकारोक्ति की लज़्जा और पीड़ा से बचे रहने की यथासम्भव कोशिशें की होंगी.
पीड़ा क्यों नहीं होगी मां? धुर बचपन से पूरे छब्बीस सालों तक जिस बेटे पर तुम्हारा एकाधिपत्य रहा, जो एकमात्र तुम्हारी मिल्कियत रहा, वह एकदम, स़िर्फ दो-चार दिनों के हेर-फेर में तुमसे छिटककर कहीं और जा पड़ा. तुम्हारे देखते-देखते किसी और का अंतरंग हो गया. और यह जगह भी किसी और ने नहीं, बल्कि एक लड़की यानी एक अन्य स्त्राr ने ही ली. ली क्या, तुम्हारे समूचे भावनात्मक हक पर चुटकी बजाते आसन जमा के बैठ गयी- तो ‘लुटी-पिटी’ तो तुम महसूस करोगी ही. नहीं मां, मेरी समझ से यह ज़रा भी अस्वाभाविक नहीं.
जानता हूं, मेरे द्वारा प्रयोग में लाये इस ‘लुटे-पिटे’ शब्द पर तुम्हें आपत्ति होगी. कहोगी, ‘क्या? मैं मधूलिका के आने से लुटी-पिटी महसूस करूंगी? तुझे क्या पता, कैसा छोह उमड़ता है बेटे-बहू को साथ-साथ देखकर! जब मेरी उम्र का होगा तब पता चलेगा. मां की ममता में डूबते-उतराते मार्मिक गीतों का एक अक्षय भंडार है अपनी लोक-संस्कृति में- इसका साक्ष्य रूप…’
जानता हूं मां! मैंने इस सच से कब इनकार किया? यह एक पूरा सच है!
‘सिर्फ एक पूरा सच नहीं’- तुम तड़पकर, छटपटाकर कहोगी- ‘ऐसे असंख्य, अनंत सच हैं- तुझे मालूम है, पूरे तीस सालों से, अनारदाने जैसे माणिकों से सजा सतलड़ा सहेजकर रखा था, पुत्रवधू का घूंघट उठा उसके गले में पहनाने की साध से. लेकिन जैसे ही पता चला कि मधूलिका को जयपुरी कंगनों का शौक है, वह एकमात्र सतलड़ा तुड़ाकर कंगन गढ़वा दिये- सिर्फ इसलिए कि मुझे मधूलिका वधू की आंखों में छलकती उस खुशी की विकल प्रतीक्षा थी जो उसके अनचाहे कंगनों को ‘सरप्राइज’ में पाने पर होती- मधूलिका की हंसी, मधूलिका की खुशी, मधूलिका की सुख-सुविधा मेरे जीवन की एकमात्र आकांक्षा बन गयी थी- इस रंग की साड़ी, ऐसा घाघरा-कांचली पर जरी का काम- ओढ़नी पर तिल्ले का- वधू को ऐसे सजाऊं, संवारूं- ऐसे पहनाऊं- ऐसे उढ़ाऊं.’
हां-हां, मां… यह एक पूरा सत्य है. लेकिन इसके साथ एक सच यह भी कि अपने इस हद से गुज़रते जुनून में तुम कहीं बिल्कुल भूल गयीं कि मधूलिका तुम्हारी बहू के सिवा कुछ और भी है. एक पत्नी, एक लड़की, एक परिपक्व व्यक्ति और एक मां की बेटी भी- उसकी अपनी रुचि, अपने शौक, अपनी इच्छा, अपनी स्वाधीनता…
‘मैं कहां बाधक थी इस सब में- मैंने तो उसकी बेटी से बढ़कर चाहना की थी- सास का नहीं, मां का लाड़ लुटाना चाहती थी उस पर.’
बस, यही तो तुम्हारी सबसे बड़ी भूल थी मां! एक मां होकर भी तुम इतना नहीं समझ पायीं कि मां हमेशा एक ही होती है. मांएं कई नहीं हुआ करतीं. तुम चाहे जितना लाड़ लुटा डालो, बीस-बाईस वर्षों तक जन्मदायिनी मां के साथ रही बेटी, हफ्तों-महीनों के अंदर किसी अन्य स्त्राr को अपनी मां कैसे मान बैठेगी? सुनो और समझो मां! तुम किसी बहू के लिए दुनिया की सबसे अच्छी ‘सास’ भले हो सकती हो, मां से बढ़कर हो सकती हो, लेकिन ‘मां’ नहीं. इसी बात को उलटकर कहूं तो ‘बहू’ को भी तुम, बेटी से बढ़कर भले मान लो लेकिन ‘बेटी’ नहीं हो सकती वह तुम्हारी.
न, मेरी तरफ विस्फारित और फटी-फटी आंखों से मत देखो मां! न यह तुम्हारी अवमानना है, न तुम्हारी भावनाओं का अस्वीकार.
सिर्फ एक अनुरोध- एक याचना-जीवन हमेशा भावनाओं से नहीं चला करता, रिश्तों के स्वरूप भी उम्र के साथ थोड़े-बहुत बदलते जाते हैं. इस ठोस वास्तविकता को समझो मां! कुछ बेहद मधुर सत्य कभी-कभी क्रमशः अत्यंत करुण बल्कि कडुवे सचों में बदलते चले जाते हैं, हमारे देखते-देखते और हम लाचार, अवश खड़े रह जाते हैं- मैं खुद भी तो-
पूछोगी क्यों?
हां, मैं चाहता था, तुम पूछो मत, क्यों? जिससे मैं उत्तर में कह सकूं कि तुम्हारा यह मोहपाश, तुम्हारी ममता और देख-रेख का यह बढ़ता हुआ दबाव मुझसे ज़्यादा तुम्हारी मधूलिका वधू के लिए एक बोझ बनता जा रहा है. मैं एक अपराध-बोध और आत्मधिक्कार के बीच जीने के लिए बाध्य होता जा रहा हूं. सोचने में कैसे विपरीत, विलोमार्थक-से शब्द लगते हैं न मां-ममता और आतंक? लेकिन एक उम्र में आकर यह भी सच हो जाता है. तुम पूछोगी, कैसे?
तो सुनो, अपनी मधूलिका वधू को भरपूर समेट पाने के लिए जैसे-जैसे तुम्हारी ममता की उत्ताल तरंगें हरहराती आतीं, मधूलिका वैसे-वैसे कतराती जाती. जितना तुम देना चाहती, मधूलिका उतना ले पाने का उत्साह बिल्कुल न दिखाती.
लेकिन तुम्हारी उमंग का ओर-छोर न था. तुम हर शर्त पर जल्दी से जल्दी मधूलिका पर मेरे समान ही ममता की गागर उलट देने को उतावली थीं, लेकिन मधूलिका को तुम्हारी भरी गागर का आभास ही जैसे जुकाम के अंदेशे से बिदका देता.
मैं मूक दर्शक बना देखा किया. तुमने हम दोनों को सुबह की चाय तक दरवाज़ा खटखटा कर देनी शुरू कर दी. मधूलिका बिल्कुल न पसीजी. बल्कि उलटे उसे लगा, तुम ज़रा सब्र से काम लेतीं तो वह खुद थोड़ी देर में तुम्हें चाय का कप थमा सकती थी. यह तो उसे शर्मिंदा-सा करना हुआ.
तुमने धुलकर सूखे मेरे कपड़ों के साथ-साथ मधूलिका के कपड़े भी तहाने शुरू कर दिये. यह मिसाल पेश करते हुए कि भला बेटे और बहू में फर्क कैसा? देखने-सुनने वालों ने अवश्य तुम्हें मानवी के आसन से उठाकर देवी के आसन पर ला बिठाया होगा, लेकिन क्या तुम विश्वास करोगी मां! एक दिन मधूलिका ने मुझसे कहा कि उसका मन करता है, कभी वह मेरे सूखे कपड़े तहाए और अलमारी में रखे.
विस्मित कर देने वाली हैं न, मानव मन की ये तिलिस्मी जटिलताएं!
तुम विकल थीं, आहत भी. मधूलिका की बर्फीली तटस्थता तुमसे छुपी नहीं थी. लेकिन उन बर्फीली दरारों को पाटने का जो तरीका तुमने अपनाया उसने तो हिमनदों को फोड़कर महाजलप्लावन की विभीषिका ही उपस्थित कर दी.
इस तरह कि एक दिन यूनिवर्सिटी से लौटकर मधूलिका ने देखा- उसकी अलमारी के थोड़े अस्त-व्यस्त कपड़े बड़े करीने से दुबारा सजाकर रखे गये हैं. उसका माथा ठनका. उसने मुझसे पूछा कि क्या मैंने उसकी अलमारी ठीक की है? मेरे ‘ना’ कहने पर उसका चेहरा खिंचता चला गया. पता चला, बहू रोज़-रोज़ जल्दबाजी में यूनिवर्सिटी भागती है, सारी अलमारी गुड़मुड़ी, अव्यवस्थित ‘आज अधखुली अलमारी से आधा पेटीकोट बाहर झूलता देख तुमने सोचा, क्यों न बहू के कपड़े आज करीने से रख दूं. कुछ मन में यह भी रहा ही होगा कि इसी बहाने उसे कपड़े ढंग से रखने-तहाने का सलीका भी सिखा दूं. अब न सिखाऊंगी तो कब? और मैं न सिखाऊंगी तो कौन?’
लेकिन हुआ इसका उलटा. यह पता चलते ही कि तुमने उसकी पूरी अलमारी खंगाल डाली है, खुश या कृतज्ञ महसूस करने के बदले मधूलिका का चेहरा उत्तेजना से खिंचता चला गया. क्रमशः अपनी खिंचती नसों को नियंत्रित करने में असमर्थ, वह तेज़ी से भागती हुई बिस्तर पर ढह पड़ी. मैंने बिस्तर के करीब जाकर कुछ कहने की कोशिश की ही थी कि मधूलिका वहशियों-सी चीख पड़ी- जैसे मैं पास आया नहीं कि भूचाल आ जायेगा और वह कहीं से भी कूद, फलांग जायेगी. जैसे मेरा स्पर्श मात्र, बिच्छू के डंक-सा ज़हरीहाला हो.
हतबुद्धि, अवाक् मैं चुपचाप खड़ा रहा, मधूलिका के अनजाने, एक निश्चित दूरी पर. अचानक जैसे कई ज्वालामुखियों के बीच कोई सैलाब आया हो, इस तरह विक्षिप्त हो वह फफक-फफककर रो उठी- बदहवास शब्दों में सिर्फ एक ही वाक्य दुहराती कि… मुझे मुक्ति चाहिए. मैं छुटकारा चाहती हूं- छुटकारा- इस घुटन से- सब कुछ से- सब कुछ से.
मैं लज्जित हूं मां! नतमस्तक भी. मधूलिका द्वारा तुम्हारी माया-ममता और शिक्षा-दीक्षा की चाहना के इस निर्मम अस्वीकार पर.
तुम्हारी फटी-फटी-सी, शून्य में निहारती विस्फारित आंखों का सामना कर पाने का साहस नहीं मुझमें. इसीलिए तो जीवन में पहली बार तुमसे बात कर पाने के लिए इस कलम और अक्षरों का सहारा लिया.
विश्वास करो मां! मधूलिका को समझाने की मैंने जब-जब कोशिश की, उसे और ज़्यादा अनुदार और असहिष्णु ही पाया. कारण सिर्फ एक. मधूलिका मुझ पर अपना समूचा एकाधिकार चाहती है. उसके सपनों का सम्पूर्ण साम्राज्य सिर्फ मेरी धुरी पर टिका है. वह भूल जाती है कि मेरी धुरी तुम हो! मेरी मां!
मधूलिका गलत है, लेकिन कुछ गलतियां सुधरने के लिए ज़्यादा समय मांगती हैं. अतः हमें सब्र से काम लेना होगा और हमेशा की तरह तुम्हें ही उदार होना होगा.
वह इस तरह कि प्रकृति के कठोर नियमों के हवाले से तुम्हें खुद को समझाना होगा मां कि जैसे पेड़-पौधे, कीट-पतंग और पशु-पक्षी अपने शिशु-शावकों को दाना-चुग्गा दे, उन्हें पंखों पे सहेजकर उड़ा देते हैं, उड़ाकर विमोह हो जाते हैं, ऐसा ही कुछ एक मानवी मां को भी होना पड़ेगा. जीवन के उत्तरार्द्ध में क्रमशः छिटकते, दूर जाते बच्चों को अपने से हिलकाए रखने की करुण, दयनीय कोशिशों को संयमित करना होगा. माया-मोह की अपनी पिटारी चुपचाप समेट लेनी होगी.
कैसा लगता है! आज मैं तुम्हें जग की रीत सिखा रहा हूं. पूरे छब्बीस सालों तक तुम्हारी महामोही गोद में पलने-पुसने के बाद, तुम्हें विमोह हो जाने की शिक्षा दे रहा हूं- एक चिड़िया जैसी हो जाने की- मुझे क्षमा करना मां- लेकिन मेरी कही बात पर एक बार सोचना अवश्य! एक चिड़िया जैसी हो पाने वाली बात.
(जनवरी 2016)