चलो लोकशाला चलें! –  रमेश थानवी

विद्यालय के लिए एक प्रचलित शब्द है ‘पाठशाला’ और दूसरा प्रचलित शब्द है ‘विद्याशाला’.

दोनों शब्दों का स्थान लगभग सभी प्रदेशों में स्कूल ने ही ले लिया है. स्कूल से आशय ऐसे स्थान से है जहां अपनी विद्या आरम्भ करने वाले बालक-बालिकाएं प्रवेश पाते हैं और उस स्कूल में उन्हें शिक्षित करने वाला एक अध्यापक-समुदाय नियुक्त होता है. स्कूल की इस अवधारणा ने यह स्पष्ट कर दिया था कि थोड़ी-सी पढ़ाई कर लेने और शिक्षण का प्रशिक्षण पा लेने के बाद कोई भी व्यक्ति शिक्षक बन सकता है और वह सबको पढ़ा सकता है. इस अवधारणा में यह भी निहित था कि स्कूल का एक अहाता होता है और उसकी एक कच्ची-पक्की इमारत होती है. यह अलग बात है कि यह इमारत बालकों के निवास से बहुत दूर है कि करीब, इसकी ओर ध्यान देना सरकारी व्यवस्था में कतई ज़रूरी नहीं समझा गया था. मौसम चाहे कैसा भी हो बच्चे बस्ता लेकर दूर-दूर तक पैदल चलते आज भी देखे जा सकते हैं. उनके कंधों पर लटके बस्ते खुद ही बोल जाते हैं कि वे स्कूल जा रहे हैं.  

जब से स्कूलों का प्रचलन बढ़ा है तब से हम सब लोग स्कूलों को ही शिक्षा का केंद्र मानते रहे हैं. स्कूलों से कॉलेज हो गये और कॉलेजों से विश्वविद्यालय हो गये और दूसरी कई बड़ी-बड़ी शिक्षण संस्थाएं हो गयीं जहां हज़ारों लोग एक भरोसे के साथ शिक्षित होने की आशा लिये प्रवेश पाते रहे हैं और किसी योग्यता-विशेष को पा लेने के प्रति आश्वस्त रहे हैं. यह विश्वास दिन-ब-दिन हम सबके मन में जड़ होता गया है कि शिक्षण संस्थाएं अथवा पाठशालाएं ही विद्या पाने का स्थान हैं. ऐसी स्थिति में हम भूल गये हैं कि शिक्षण की सबसे बड़ी संस्था ‘लोकशाला’ है. 

हम यह बुनियादी बात भूल गये हैं कि ‘लोक’ शिक्षा का सबसे बड़ा साधन है. लोक में लोक के जीवनानुभव भी समाहित हैं और लोक-मेधा एवं लोक-मनीषा की सदियों पुरानी थाती भी समाहित है. लोक शिल्प और लोक के हाथ का हुनर या कौशल भी इसमें समाहित है. आज भी शायद ही कोई ऐसी शाला हो जो सुनार का काम सिखाती हो या मोची की तरह जूते बनाना सिखाती हो.

हम भूल गये कि लोग उन दिनों भी जीते रहे हैं जब स्कूल नहीं थे. उन दिनों हर साधारण आदमी अपने हुनर में भी निष्णात रहा है और विभिन्न विधाओं का भी विद्वान रहा है. सामान्य लोग भी तब स्थापत्य और अन्य कारीगरी में बहुत आगे रहे हैं और साथ ही साहित्य सृजन के क्षेत्र में भी काफी आगे रहे हैं. प्राचीन भारतीय समाज के इतिहास में ज़रा-सा भी झांक कर देखें तो हम पायेंगे कि वहां अमूमन सभी लोगों के पास एक समर्थ और जीवंत भाषा भी रही है, चिंतन की परम्परा भी रही है. जब मैं यह कह रहा हूं तो उसका आशय यह है कि हमारा वह समाज कभी भी विचार-शून्य नहीं रहा है. विचारशून्यता की बात तो छोड़िए, हम अपने विभिन्न मत-मतांतरों के पोषक और प्रबोधक रहे हैं. अपने मत एवं मान्यताओं के प्रति हम इतने आस्थावान भी रहे हैं कि जब तक पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो गये तब तक हमने दूसरे मत अथवा मान्यता को न तो स्वीकारा है और न ही उसके साथ कोई समझौता किया है. पूरा काशी शहर इस बात का जीता-जागता सबूत था कि वहां लगातार वाद-विवाद होता था. लोग अपने विचारों के लिए जीते थे और उनको मनवाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते थे. जाहिर है कि लोक-जीवन की अपने विचारों के प्रति एक आस्था थी और विश्वास भी था. 

एक परम्परा थी जो सत्य का अन्वेषण व उस पर आचरण सिखाती थी. वह परम्परा आत्म-पोषक भी थी जो हज़ारों वर्षों तक ज़िंदा रही. उस परम्परा के स्वपोषण में स्वावलंबन था. आत्मावलोकन या स्वात्मानुसंधान उसका सहारा था. आधार था. इस परम्परा में इतना दम-खम था कि इसने हज़ारों वर्षों तक भारतीय शास्त्राsं की हज़ारों-लाखों किताबों को केवल कंठ में ज़िंदा रखा. विचार ध्यान का हिस्सा था और ध्यान में तर्क-वितर्क और चिंतन के लिए शक्ति अर्जित करने की गजब सामर्थ्य थी. उसी सामर्थ्य के सहारे अपनी याददाश्त को लोग सान पर चढ़ाते थे और कंठ को ऐसा कौशल देते थे कि वह हज़ारों किताबों को याद रख सके. 

दरअसल थोड़ा-सा विचार करें तो हम पायेंगे कि यह बात केवल कंठ के कौशल की नहीं थी. इस बात में पुस्तकों, विचारों एवं तर्क-वितर्कों को जिस भाषा में लिखा गया था उस भाषा और उस विधा के छंद-ताल के अनुरूप अपने गले की मांसपेशियों को प्रशिक्षित करना था. अपने ही स्वर यंत्र को इस तरह से प्रशिक्षित कर देना था कि वह उस ध्वनि को आत्मसात करके सदा के लिए अपना अंग बना ले. इस तरह से अंगीकार ध्वनियों को जीवन भर खाद पानी की ज़रूरत भी रहती थी. यह खाद पानी उस खास तरह की भारतीय जीवन शैली से मिलता था जो अपने जीने के तरीके को कुदरत के साथ जोड़ कर रखती थी. कुदरत के साथ कदम मिलाना और उस ताल-लय को निरंतर जीना तभी सम्भव था. 

बात केवल प्राचीन लोक-जीवन की नहीं है, आज के लोक-जीवन में भी गांव-गांव के लोग अपनी भाषा और साहित्य को इतने ही प्रेम से देखते हैं. अपने जीवन के सभी कामों को भी वे ऐसे ही आत्म-विश्वास के साथ अंजाम देते हैं. खेती और पशुपालन तो अब तक उनके भरोसे रहा ही है मगर दूसरे धंधों में भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुछ सीखते रहने और दक्षता प्राप्त करने की परम्परागत व्यवस्था बनी रही है. 

सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे लोक-जीवन ने अपने अत्यंत प्रामाणिक जीवनानुभवों को बहुत जतन के साथ सदा सहेजा है और उसे दूसरी पीढ़ी तक सुरक्षित रखने का निरंतर संघर्ष किया है. यह संघर्ष उनकी गरीबी और दूसरी कई तरह की बाधाओं के बावजूद चलता रहा है. ज्ञान बांटने में हमने कभी कोई कोताही नहीं की मगर ज्ञान की तिजारत करने भी हम कभी नहीं बैठे. हमारा पहला फर्ज यह रहा है कि हम अगली पीढ़ी के लिए अपने ज्ञान, अपने अनुभव और अपने हुनर को सुरक्षित रख लें. ऐसी आस्था ने लोक-जीवन को सदा विद्या का एक बड़ा स्रोत बनाये रखा है. मगर दुर्घटना यह हुई कि आधुनिक शिक्षा व्यवस्था और स्कूलों के प्रचलन ने इसी लोक-जीवन की खासी उपेक्षा की और उसे दरकिनार करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. ऐसे में हमारी नयी पीढ़ियां न केवल लोकज्ञान एवं लोकानुभवों के ज्ञान स्रोतों का लाभ लेने से वंचित रही हैं बल्कि लोक की प्रामाणिकता और लोकानुभवों के खरेपन को भी संदेह की दृष्टि से देखने लगी हैं. 

ऐसा केवल इसार-बिसार के कारण नहीं हुआ है. समाज के कुछ स्वार्थी तत्वों ने हमें गुमराह किया है. हमारी सरल-विरल ज्ञान परम्परा से हमें अलग-विलग कर दिया है. बरसों पहले मैंने एक शोध का काम किया था. हमारी लोकोक्तियों एवं मुहावरों में ज़िंदा रही स्वास्थ्य परम्परा के अन्वेषण का काम. तब मैं चकित था कि रस्ते चलता आदमी उस परम्परा से परिचित था एवं पोषित था. मैंने तब हज़ार से अधिक लोकोक्तियां या लोक-मुहावरे एकत्रित कर लिये थे. मुझे तब लगा था कि यदि कोई इन लोकोक्तियों को ही याद रख लेता है तो अपने लिए सच्चा आरोग्य साध सकता है. 

एक तरफ यह लोक साहित्य एवं लोक विज्ञान की परम्परा है तो दूसरी तरफ लोक-शास्त्र की परम्परा है. हम जानते हैं कि हमारे यहां स्मृतियों और श्रुतियों की परम्परा रही है. उसका आधार हमारी मौखिक शिक्षा परम्परा थी. मौखिक शिक्षा परम्परा हमारे घरों में एवं आश्रमों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी. घर भी गृहस्थ आश्रम ही हुआ करते थे. हर घर की एक शुचिता होती थी, मर्यादा होती थी. कुदरती संसाधनों के उपयोग की मर्यादा. स्वास्थ्य सम्बंधी हमारे सुदीर्घ अनुभवों से उपजी शुचिता. इसे हम जीते थे.

हमारी इस मौखिक-परम्परा में भी शिक्षा न केवल कंठस्थ होती थी, बल्कि वह कंठस्थ के बाद हृदयस्थ होती थी और हृदयस्थ करने के बाद उदरस्थ होती थी. यही वजह थी कि हमारे जेहन में वह रची-पची शिक्षा पीढ़ियों तक ाE़जदा रहती थी. तब पूरा समाज एक-एक शास्त्र को जीता था. किताबों की भी ज़रूरत नहीं थी. हमारा समाज तब सायास और सजग तरीके से इस परम्परा का पोषण करता था. एक-एक ग्रंथ तब एक एक व्यक्ति या परिवार के साथ ज़िंदा रहता था. यही लोकशाला थी. एक स्वावलंबी एवं निशुल्क शिक्षा व्यवस्था. सर्व सुलभ लोकशाला. 

आज भी ज़रूरत इस बात की है कि हम लोकोन्मुखी बनें और लोकजीवन के प्रामाणिक अनुभवों को अपने सीखने का साधन एवं स्रोत बनायें. आज ज़रूरत इस बात की भी है कि हम समाज में जगह-जगह पर लोकशालाओं की स्थापना करें और वहां पर सत्तर बरस से ऊपर के लोगों के एक समुदाय को आमंत्रित कर उनसे सीखने के अलग-अलग उपक्रम एवं आयोजन करें. आवश्यकता इस बात की है कि हम विभिन्न विषयों पर इस अनुभव- सिद्ध समुदाय की बात सुनें और उनके अनुभवों से सीखने का मानस बनायें. लोक-मानस में गहरे अवगाहन के बिना हम छोटे-छोटे एवं बारीक-बारीक मगर साथ ही बेशकीमती अनुभवों की थाह नहीं पा सकेंगे. आवश्यकता है धैर्य और विश्वास की. बिना धीरज धरे हम लोकशालाओं का पूरा लाभ नहीं ले सकेंगे. यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जिस अनुभव-सिद्ध समुदाय का मैं ज़िक्र कर रहा हूं उसमें माताएं तथा बहनें भी हैं तथा हमारे वयोवृद्ध कृषक, पशुपालक एवं कारीगर भाई लोग भी हैं. सभी जातियों और समुदायों के प्रति भी बराबरी का आस्था-भाव आवश्यक है और यह विश्वास भी ज़रूरी है कि सिखाने वाला सदा बड़ा होता है. यदि ऐसी आस्था के साथ हम लोकशालाओं में प्रवेश करते हैं तो हमें ऐसी कई बातें सीखने
को मिलेंगी जो आज तक विश्व की किसी भी पुस्तक का हिस्सा नहीं बन सकी हैं. तो फिर आइए, हम लोकशाला चलें.   

मई 2016

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