कविता
शहर की सड़कों पर
दौड़ती-भागती गाड़ियों के शोर में
सुनाई नहीं पड़ती सिसकियां
बोझ से दबे आदमी की
जो हर बार फंस जाता है
मुखौटों के भ्रम जाल में
जानते हुए भी कि उसकी पदचाप
रह जायेगी अनचीन्ही
नहीं आयेगा उसके हिस्से
समंदर की रेत में पड़ा सीपी का मोती
लहरें नहीं धोयेंगी पांव
हवाएं भी निकल जायेंगी
अजनबी बनकर
फिर भी वह देखता है
टकटकी लगाये
भीड़ के सैलाब को
मुश्किल होता है
चेहरों को पहचान लेना
घोषणा होती है
अंतर्राष्ट्रीय मंच से-
‘नस्ल और जाति का प्रश्न हल करना है
मानव विकास के लिए’
चुप्पी साध लेती है दिल्ली
खामोश हो जाते हैं गलियारे
संसद के गलियारे
राष्ट्रपति भवन की दीवारें
और धार्मिक पंडे
आवाज़ें फुसफुसाती हैं-
‘नस्ल और जाति जैसा
कोई कंसेप्ट नहीं है
हमारी महान संस्कृति में’
चारों ओर खामोशियों का घना अरण्य
उग आता है
खड़ी हो जाती है
रास्ता रोककर कंटीली बाड़
महान सभ्यता की चिंता में
शामिल हो जाते हैं
पेड़-पौधे, पशु-पक्षी
पर्यावरण पर बोलना और सोचना
कितना आसान होता है
नहीं रहता कोई खतरा
न धर्म-विरोधी होने का डर
न साप्रदायिकता का भय
नहीं आयेगा डराने-धमकाने
कोई दल
आदि देवता का अस्त्र हाथ में लेकर
संस्कृति भी बची रह जायेगी
वैसे भी संस्कृति अक्सर चुप ही रहती है
उस वक्त जब चीखते हैं
बेलछी, कफल्टा, पारस बिगहा,
नारायणपुर, सांढूपुर,
मिनाक्षीपुरम, झज्जर-दुलीना
और गोधरा-गुजरात…
संस्कृति और धर्म जश्न मनाते हैं
जब सिसकता है आदमी
आग में झुलसकर
सड़क पर बिखरी लाशें
सड़ने लगती हैं
जिनकी शिनाख्त करने
कोई नहीं आता
जो भी आयेगा
फोड़ दी जायेंगी उसकी आंखें
या फिर कर दिया जायेगा घोषित
राष्ट्र विरोधी
घोषणा होती है-
खिड़की दरवाज़े बंद कर लो
महाराजा विक्रमादित्य की सवारी
आने वाली है
सड़कों पर सुनाई पड़ती है
कदमताल करते बूटों की ध्वनि
हवा में तैरती है बारूदी गंध
चुनाव होते हैं हर बार
सभ्य नागरिक निकल पड़ते हैं
संसद और विधानसभाओं की ओर
बिना असलाह के
भूख और मौत से भयभीत आदमी
नहीं जानता
यह सब क्यों होता है
इतनी जल्दी-जल्दी
क्यों गिने जाते हैं
जातियों के सिर
चुनाव के दिनों में
बड़े से बड़ा नेता खड़ा होता है
जाति की जनगणना के बाद ही
यह अलग बात है
सब मौन रहते हैं
‘डरबन’ की घोषणा पर
पड़ोसी देश का राजा
परिक्रमा करता है मंदिर की
चढ़ाता है बलि भैंसे की
और,
पशु-पक्षियों के हितैषी
निकल जाते हैं टूर पर
देश से बाहर
या फिर किसी तहखाने में बैठकर
देख-सुन रहे होते हैं प्रवचन
लखटकिया संतों का
सवाल रहते हैं स़िर्फ सवाल
जिनके उत्तर ढूंढ़ना ज़रूरी नहीं है
सभ्य नागरिकों के लिए
‘कहीं’ कोई खतरा नहीं है
मामला धर्म का है
चुप रहने में ही भला है’-
सलाह देकर निकल जाता है
राष्ट्रीय अखबार का सम्पादक
चमचमाती गाड़ी में
मैं देख रहा हूं वह सब जिसे देखना जुर्म है
फिर भी करता हूं गुस्ताखी
चाहो तो मुझे भी मार डालो
वैसे ही जैसे मार डाला एक प्यासे को
जिसने कोशिश की थी
एक अंजुली जल पीने की
उस तालाब का पानी
जिसे पी सकते हैं कुत्ते-बिल्ली
गाय-भैंसे
नहीं पी सकता एक दलित
दलित होना अपराध है उनके लिए
जिन्हें गर्व है संस्कृति पर
वह उतना ही बड़ा सच है
जितना उसे नकराते हैं
एक साजिश है
जो तब्दील हो रही है
स्याह रंग में
जिसे अंधेरा कहकर
आंख मूंद लेना काफी नहीं है!
अप्रैल 2016