स्वाभाविक कर्म
यदि मुझे अपने सत्य की रक्षा करनी हो तो उस पर अटल रहना हो तो मुझे मन, वाणी और कर्म की एकता साधनी चाहिए. प्रत्येक मनुष्य के सत्य की नींव या मूल आधार उसका स्वभाव है. अभिरुचि, उसकी पसंदगी, उसका आवेश और उसके अवचेतन चित्र में बसे सर्वतत्त्वों का समावेश ‘स्वभाव’ में होता है. व्यक्ति को मिली जन्मजात शक्तियां उत्तराधिकार में मिले हुए आनुवंशिक संस्कार, सामाजिक संयोग, शिक्षा, उसके अपनाये हुए संयम, इन सबके योग से मनुष्य का स्वभाव बनता है. जैसा स्वभाव, वैसा मनुष्य. यह स्वभाव मेरे व्यक्तित्व की नींव या मूल आधार है. मैं जैसा हूं मुझे वैसा बनाने वाला कारण मेरा स्वभाव है. इसलिए, मेरे स्वभाव से प्रेरित कर्म में असत्य और पाप कभी घुस नहीं सकते. गीता में कहा है अपना स्वाभाविक कर्म करने से मनुष्य को पाप नहीं लगता. अपने स्वाभाविक कर्म में कुछ दोष हो तो भी उसे नहीं छोड़ना चाहिए. जिस प्रकार आग में धुआं है, उसी प्रकार सभी कर्मों में दोष है. धर्म, नीति या शिक्षा के क्षेत्र में साधन या नियमन के जो प्रयास होते हैं, उनमें अधिकांश यह भुला दिया जाता है कि मनुष्य का विशिष्ट स्वभाव ही व्यक्तित्व की नींव है, अतः अपने स्वभाव को किनारे रखकर व्यक्ति ऊंचा नहीं उठ सकता.
(कुलपति के.एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे.)