कितना विश्व, कैसा विद्यालय  –  शरद जोशी

व्यंग्य

वर्ष 2016 स्वर्गीय शरद जोशी की 85वीं सालगिरह का वर्ष है. वे आज होते तो मुस्कराते हुए अवश्य कहते, देखो, मैं अभी भी सार्थक लिख रहा हूं. यह अपने आप में कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि अर्सा पहले जो वे लिख गये, वह आज की स्थितियों पर मार्मिक टिप्पणी लगता है. शरदजी के पाठक-प्रशंसक इस वर्ष को उन्हें लगातार याद करते हुए मना रहे हैं.

विश्वविद्यालय शब्द पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है. न करो बात दूसरी है. ऐसी कई बातें हैं जो की जानी चाहिए और हम नहीं करते.

यह ‘विश्व’ उस ‘यूनिवर्स’ के लिए है जो यूनिवर्सिटी में लगा रहता है. पर जिस किस्म के महाप्रांतीय और स्थानीय विश्वविद्यालय प्रति पौने दो सौ किलोमीटर पर खुल रहे हैं क्या उसके आगे विश्व लगाना ठीक होगा? उसके आगे घासीराम या जीवाजीराव लगाने का औचित्य है. आगरा या पटना लगाना भी गलत नहीं है पर विश्व शब्द पर पुनः विचार ज़रूरी है. उसमें कोई ऐसा गुण नहीं कि आप उसे विश्वस्तरीय संस्थान कहें. ज़माने भर की बुराइयों के अतिरिक्त उसमें ऐसा कुछ भी नहीं जो ज़माने भर का हो.

विश्व शब्दांश यदि विश्वसनीयता के अर्थ में लिया जाये तो अधिकांश विश्वविद्यालय उसे खो चुके और बहुतेरों ने कभी अर्जित ही नहीं की.

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि हमें विश्वविद्यालयों के लिए विश्वविद्यालय के अतिरिक्त कोई शब्द खोजना या बनाना चाहिए. सुझाव आमंत्रित किये जायें. जब शब्द अपना अर्थ खो दे तब अर्थ के हिसाब से प्रयोग के लिए नया शब्द बना लेना हितकर होता है.

विश्व हटा देने के बाद केवल विद्यालय बच रहता है. समस्या यह है विद्यालय ही कितने विद्यालय हैं जो यह होगा. मतलब यह कि बहस इस शब्द के हर हिस्से पर की जा सकती है.

पहले यह होता था कि भारत के विश्वविद्यालय से एक छात्र डिग्री लेता था और उसके सहारे उसे भारत के कई भागों में नौकरी न मिले मगर विश्व के अन्य देशों में मिल जाती थी. इसलिए कि विश्वविद्यालय का अर्थ विश्वविद्यालय होता था और उनसे प्राप्त डिग्री की विश्व-भर में साख होती थी. फिर देश आज़ाद हुआ और सवाल आया कि शिक्षा के क्षेत्र में भारत कैसे प्रगति करे. और विश्वविद्यालय खुले, नकल करने की सुविधाएं बढ़ीं, मार्क्स बढ़ाकर फेल को पास और पास को फर्स्ट क्लास किया जाने लगा. डाक्टरेट खैरात की तरह बंटने लगी. देश शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ा.

अब शिक्षा में प्रगति का यह रहस्य विश्वविद्यालय के अंदर ही बना रहता तो ठीक था. बाहर भी निकलता तो कम से कम देश के बाहर तो न जाता. मगर जाने कैसे देशद्रोहियों ने यह समाचार विदेश में फैला दिये कि हमारे यहां एम.ए., बी.ए. या डाक्टरेट किस सरलता से प्राप्त होती है. विदेश के मूढ़ छात्र डिग्री लेने के लिए भारत की ओर आकृष्ट होने लगे. भारत के पुनः जगतगुरु होने की सम्भावनाएं लौट आयीं. चूंकि विदेशी छात्रों से विदेशी मुद्रा मिल सकती थी इसलिए सरकार ने भी रुपया लेकर डिग्री दिलाने का भरोसा दिलानेवाले महाविद्यालयों को बढ़ावा दिया.

विदेशियों ने जब देखा कि उनके यहां के मूढ़ भारत जाकर डिग्री लेकर लौट रहे हैं तो उन्हें भारत के डिग्रीधारियों की वास्तविकता समझते देर न लगी. मतलब यह कि भारतीय विश्वविद्यालयों की पोल विश्व-भर में फैल गयी. सबको यह पता लगते भी देर न लगी कि खुद भारत के संस्थान इन विश्वविद्यालयों के स्नातकों पर भरोसा नहीं करते. वे अपनी ज़रूरतों के लिए अपनी अलग परीक्षाएं लेते हैं.

अमेरिका, जर्मनी, कनाडा, इंग्लैण्ड जैसे पढ़े-लिखे उन्नत देशों में भारतीय डिग्रीधारियों की वह इज़्ज़त नहीं होती जो कभी होती थी. ‘कदर मोरी ना जानी रे’ का हीनभाव लिये वे वहां से उखड़ रहे हैं. राष्ट्र की सेवा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया है. भारतीय डिग्री और प्रमाणपत्रों का महत्त्व समझाने पर भी कोई समझ नहीं रहा है.

पर इसके बावजूद भारत के विश्वविद्यालय निराश नहीं हैं और न सुधार के पक्ष में हैं. वे जानते हैं कि भविष्य की नौकरियां खाड़ी के देशों में हैं. पैसा वहीं है. हमारे छात्र तथाकथित डिग्रियां ले आगामी कई वर्षों तक उन पिछड़े अविकसित देशों में बौद्धिक बादशाही कर रुपया कमा सकते हैं. विश्व में वे जगहें शेष हैं जहां भारतीय विश्वविद्यालयों की विश्वसनीयता बकाया है. अर्थात सही खबर अभी वहां पहुंची नहीं है.

इसलिए हमारे शिक्षाशास्त्रियों का ख्याल है कि बीस-पच्चीस वर्ष और हम अपनी इन संस्थाओं को विश्वविद्यालय कहते रहें तो हर्ज नहीं है.

मार्च 2016

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