कविता
इधर–उधर उड़ती–फिरती तुम
आती आंगन में, तिरती तुम,
पीसा था जो आटा मां ने
बिखरे जो गेहूं के दाने,
वह सब चुन–चुन खाने आती,
मिनटों में तुम सब चुग जाती
मां गाती थी मैं था बच्चा
सुनता तेरा गाना सच्चा
जब खाने की आयी बारी
मां करती थी तब तैयारी
कहती, खाओ चिड़िया जैसा
मैं बन जाता झटपट वैसा
तुम्हें लौटते देखा करता,
ब़ड़ी घड़ी पर तेरा घर था,
बच्चों को खाना तुम देती
कभी न थकती उड़ती फिरती
हर हफ्ते हम जब मिल जुलकर
घर भर के जाले बुहारते,
ध्यान मगर रखते थे इसका
तेरे घर पर हाथ न जाये.
सालों बाद आज घर आया
कहां गयी तुम समझ न पाया,
सबकुछ बदल गया सा लगता,
तुम्हें देख पाऊंगा फिर क्या?
आओ प्यारी चिड़िया, आओ,
मिलन कराने, लौट के आओ,
तुम मेरी साथी बचपन की
तुमसे बातें की थी मन की
ढूंढूं कहां तुम्हें जगभर में
यह मत कहना चिड़ियाघर में.
मई 2016