ओ वसंत! तुम्हें मनुहारता कचनार – डॉ. श्रीराम परिहार

ललित निबंध

मैं जिस महाविद्यालय में पढ़ाता हूं, उसके बगीचे में कचनार का पेड़ है- बूढ़ा और खखराया हुआ. वह ऊपर-ऊपर से सूख गया है, लेकिन छाती के पास अभी भी हरा है. कुछ टहनियां बरसात में सहज भाव से फूट निकलती हैं और अपनी जड़ों की ऊर्जा को डलिये भर फूलों में तब्दील करके वसंत को खुशी-खुशी दे देती हैं. कचनार अपने नाम में जितना कोमल है, उतना ही अपनी कद-काठी और रंग-ढंग में लुभावना भी. फूल बहुत सुंदर होते हैं. नजदीक से गुजरें और निगाह पड़ जाये तथा एक क्षण के लिए भी मन इसकी रिझावन पर लट्टू ना हो तो समझ लीजिए मन में कहीं खोट है. मन की प्रकृति पर या तो पाला पड़ गया है, या उसके पल्लवित होने की सारी सम्भावनाएं चुक गयी हैं. यह जब खिलता है, तो नीचे-नीचे के भाग में एकाध टोकरी पत्ते बचे रहते हैं, बाकी पूरे पेड़ पर फूल-फूल निकल आते हैं. वसंत के मतपेटी में एक अपना भी महत्त्वपूर्ण मत यह डाल देता है. फिर घोषणा होते देर नहीं लगती है. वसंत ऋतुराज बन जाता है.

कक्षा में मैं विद्यापति का वसंत वर्णन पढ़ा रहा हूं. छात्रों से वसंत की प्रकृति और गुण-धर्म पूछता हूं. वे मौन हैं. भारतीय बारह महीनों के नाम पूछता हूं. ऋतुएं पूछता हूं. उनसे जुड़े महीने पूछता हूं. छात्र मेरी तरफ एकदम अजनबी की तरह देखते हैं. यह कैसा प्रोफेसर है, 21वीं सदी के ड्राइंग रूम में घिसी-पीटी चीज़ें रख रहा है. ये वसंत-फसंत क्या होता है? यहां तो दो दिन लगातार बरसात होती है, तो घर में मूड खराब हो जाता है, बहुत गर्मी होती है, तो पार्क में टल्ले-बाजी करते शाम कट जाती है और सुबह-सुबह हाफ स्वेटर में ठंड को ठेंगा दिखाते जब महाविद्यालय आना पड़ता है, तो इन धूल भरे और फूटे कांच की खिड़कियों वाले कमरों में हवा कुछ ज़्यादा ही परेशान करती है. बस इतने ही तो मौसम होते हैं. ये वसंत, शरद और हेमंत कौन है जो मौसम के बीच-बीच में सेंध लगा देते हैं. अरे साहब हम तो समाचार पत्र या डॉक्टर की टेबल पर रखे कैलेण्डर में किसी महीने की तारीखों के बाजू में खिलते फूलों को देखकर जानते हैं कि कहीं कोई मौसम फूलों का भी होता है. मैं छात्रों के मौन एवं उनकी आंखों की हिकारत की भाषा को पढ़कर खून का घूंट निगल जाता हूं और इतने में कचनार की डाल पर कोयल बोल उठती है- ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो.’

एक बेजान शिक्षा पद्धति नयी पीढ़ी की ज़मीन पर रोपी जाती रही. विद्यालयों और महाविद्यालयों में जो कुछ पढ़ाया जा रहा, उसका पढ़-लिख जाने के बाद जीवन और व्यवहार से कितना सरोकार शेष रहता है, यह छुपा नहीं है. गांवों का देश कहे जाने वाले भारत की शिक्षा में उन संस्कारों का कहीं अता-पता नहीं है, जिनमें यह राष्ट्र ज़िंदा है. किताबी शिक्षा ने पीढ़ियों के दिमागों में डामर की सड़कें बना दी हैं, जिससे उस पीढ़ी को ज़मीन की धूल मिट्टी का अहसास ही नहीं होता. मशीनों के कल-पुर्जों और अर्थव्यवस्था के उपादानों के बीच पुस्तकों और व्यवहार से चरित्र और मनुष्य गायब हो गया है. ज्ञान जिज्ञासु पीढ़ी को कक्षाओं से बाहर निकालकर राजनीति की धजा पकड़ायी जाती है और हड़ताल, तोड़फोड़ और नारेबाजी में इस्तेमाल किया जाता है. पढ़ाई-लिखाई के बारे में आरम्भ से ही नौकरी पाने की धारणा जोड़ दी गयी. परिणाम में चैत-बैसाख की गर्म सड़कों पर यह पीढ़ी नंगे पांव चलती रोज़गार दफ्तर का पता पूछ रही है.

ताबड़तोड़ हरियाली लाने के लिए वानस्पतिक संसार के दावेदारों ने पोची हरीतिमा वाली जड़ों का पोषण शुरू कर दिया है. दो चार साल में बड़े होकर खत्म हो जाने वाले पेड़ों को लगाया जा रहा है. आंकड़ों में हरियाली लायी जा रही है और महीनों में सूख रही है. बरस-बरस बढ़कर युगों तक छाया और फल देने वाले झाड़ लगना-लगाना बंद हो गये हैं. आस्था और मर्यादा से जुड़े पेड़ों की दुनिया अब नहीं रही, पर कचनार की पुरानी पीढ़ी अपनी मुट्ठी में शाश्वत प्रकाश छुपाये हुए है. हमारी दुनिया का गुनगुनाता हुआ वसंत न जाने कहां चला गया? कब चला गया? क्यों चला गया? ऐसे मूल्य शिक्षा और व्यवहार में घूंटी के साथ पिलाये जा रहे हैं, जिनसे धनवान, विद्वान, वैज्ञानिक, नेता, अफसर और चंट तो बना जा सकता है, परंतु आदमी और नागरिक नहीं बना जा सकता है. पिछले वर्षों में उपाधिधारियों की भीड़ तो पैदा हुई, लेकिन नागरिकों की कतार नहीं पैदा हो सकी. शिक्षा का रिश्ता कभी भी इस देश में धन से नहीं रहा है. गुरु और शिष्य के बीच ज्ञान ही सेतु बनता था, ताकि पीढ़ियों को भविष्य तक ले जाया जा सके. अब गुरुकुल की परम्परा पर शिक्षक का घर ही सुबह से शाम तक कोचिंग क्लास के मंत्रोच्चार करता है. गुरु को शिष्य चंद्रगुप्त, अर्जुन और एकलव्य न दिखकर लक्ष्मीपुत्र नज़र आने लगे, तब कचनार का संसार तो नष्ट होगा ही. सुबबूलों की जमात खड़ी होगी ही.

गांव का घासीराम दाजी बहुत पढ़ा-लिखा नहीं था. शायद उसे अक्षर ज्ञान भर था. वह हम स्कूल जाने वाले छोरों से पूछता- ‘एक मकान, जिसमें नौ चस्मा, एक-एक चस्मा में नौ-नौ मरियाल, (जिसकी जगह आज गर्डर रखी जाती है.) एक-एक मरियाल में नौ-नौ छीके, एक-एक छीके में नौ-नौ मटकी और एक-एक मटकी में नौ-नौ सेर घी; बताओ कुल कितने सेर घी होगा.’ हम पचते रहते थे. हमारी गिनती और पहाड़े चुक जाते थे. उस समय यदि वहां से भागीरथ कुम्हार या पून्या कहार या मुंशी लुहार निकलता तो फट से गुणा-भाग, अद्धा-पौन्या करके गणित बता देता. मैं हर दर्जे में गणित की पुस्तकों में उस सवाल की तरकीब ढूंढ़ता और अनुत्तरित हर दर्जा पास होकर बढ़ता चला जाता. एक दिन बहुत परेशान होकर पिताजी से पूछा- घासीराम दाजी के सवाल का जवाब मेरी पढ़ाई की किताब में क्यों नहीं है. वहां न घर है. न छीके हैं. न मटकियां हैं. न घी हैं. इन किताबें में जो कुछ है, वह मेरे आसपास नहीं है. पिताजी ने एक दिन शाम को कंदील के प्रकाश में बताया कि ये कागज़ की किताबों में नहीं, जीवन की किताब में मिलते हैं और व्यवहार की स्लेट पर हल होते हैं. आधे से ज़्यादा सवाल तो राम-कथा को समझ कर पढ़ने से हल हो जाते हैं और शेष उन संस्कारों को सीखकर-जानकर जिनसे हम बारह महीनों की क्रियाओं और उत्सवों में बदलते हैं. तब से मैं रामचरितमानस पढ़-पढ़कर पिताजी को सुनाने लगा और ऋतुएं, उत्सव, मास तथा तिथियां वे पुस्तकें बनीं, जिनसे मैंने इस देश के संस्कारों की भाषा सीखी. उसके व्यक्तित्व को सही मायने में देखने की दृष्टि पैदा हुई. वसंत के प्रकृति और जीवन में होने के अर्थ समझ में आने लगे.

पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में जो फासले बढ़े, वे तो बहुत खतरनाक हैं. शिक्षा से पूरी तरह व्यवहार का गीत और संस्कारों की भाषा हटा दी गयी है. हर चीज़ जनवरी-फरवरी और तारीखों में तय होने लगी है. ये तारीख गांव की उचित मूल्य की दुकानों पर शक्कर-घासलेट मिलने के दिन और चुनाव की तारीख तय होने के ऐलान के साथ आंगन-आंगन रोपी जाने लगी. सरपंच तारीखों में बात करने लगे और पंच तारीखों का तिथियों से मिलान कर दुभाषिये का काम करने लगे. विकास अंग्रेज़ियत का चोला पहनकर आया और पूरे सांस्कृतिक सोच पर पतझड़ की तरह बिफरने लगा. डालियों से संस्कारों के पत्ते टप-टप झड़ने लगे. नये मूल्यों की कोंपलें जहां-तहां झांकने लगीं. वसंत कहीं खो गया है. लेकिन इन सबको ऊर्जा देने वाली ज़मीन तो वही है. उसका सलोनापन और अपनी मरजाद में बंधी धार तो वही है, जिसने बरसों चलते रहने वाले संक्रमण के बीच उन जड़ों को सींचा, जिनमें इस देश के कद को पहचाना गया.

शास्त्र, वेद, पुराण की बात न भी करें. व्यवहार की सच्चाई की छाया में खड़े होकर दुनिया को देखें. इस देश के भूगोल को देखें. इस देश की भाषा के भीतर की भाषा को सुनें. इसके किनारे के समंदर की लहरों का स्वर सुनें. इस पर धमनियों-शिराओं की तरह फैली नदियों की गति में चलें. इसके श्रम में टपकती बूंद में ईमान से बात करें. इसके सूखा, अकाल, बाढ़ और भूकम्प के बाद के सन्नाटे में करुणा की सिसकियों को छुएं, इसके पशुओं के गले की घंटियों की टुनटुन से फसलों को आंकड़ों के बीच बैठा देखें. नारियल, केला और चीड़, देवदारु के वृक्षों की हरियाली में एक ही मुसकान को बिखरता पायें. इसके उत्सवों में स्त्रियों को चौक पूरता पायें. इसकी ऋतुओं में जीवन को निखार देने की कूवत महसूसें. ऋतुओं के हरकारों के स्वर सुन निहाल हो जायें. हिमालय की दुर्लंघ्य ऊंचाई में इस देश की ऊंचाई और सांस्कृतिक अचलता नज़र आने लगे, तब ज़रूरी लगने लगता है कि आंखों में बेतरतीब बढ़ती-चढ़ती इस पीढ़ी को झरोखे में से ही सही, दूर तक फैले देश के ज़मीन-आसमान को दिखायें. धान का पेड़ नहीं, पौधा होता है यह बतायें. जिस गेहूं की वे रोटी खाते हैं, वह संसद, गोडाउन और राशन की दुकान में नहीं, इस देश के मरियल बैल की कांध और उघाड़े बदन वाले किसान की टिटकारियों से पैदा होता है. पर्यावरण पर गरम बहस और लम्बी गोष्ठी करने के बाद ही सही, यह बतायें कि हंस, चातक और पपीहा इसी देश के पक्षी हैं, जिनसे मौसम बदलते हैं और तालाबों का पानी इतराता है. काक कृष्ण पिक कृष्ण श्लोक में ही नहीं होते, वास्तव में कोयल काली होती है और इसका परिचय वसंत में मिलता है. वसंत में कोयल कचनार की डाल पर बैठकर कूकती है, क्योंकि कचनार इस देश की ज़मीन पर संस्कृति की तरह खिल रहा है. वसंत प्रकृति का शृंगार है.

‘अंधायुग’ की भूमिका में धर्मवीर भारती लिखते हैं- ‘एक नशा होता है अंधकार के गरजते महासागर की चुनौती को स्वीकार करने का, पर्वताकार लहरों से खाली हाथ जूझने का, अनमापी गहराइयों में उतरते जाने का और फिर अपने को सारे खतरों में डालकर आस्था के, प्रकाश के, मर्यादा के कुछ क्षणों को बटोरकर, बचाकर, धरातल तक ले आने का- इसके नशे में इतनी गहरी वेदना और इतना तीखा सुख घुला-मिला रहता है कि उसके आस्वादन के लिए मन बेबस हो उठता है.’ ये पंक्तियां आदमी को अनटूटे परिवेश में ले जाकर चुनौती के लिए तैयार करती हैं. हजारों सालों के संस्कारों को मणियों की तरह सहेजकर लोक ने अपने गीतों और व्यवहार में ढालकर गुफाओं की भटकानों में आलोक पाया है. इन संस्कारों ने मिल-जुलकर एक संस्कृति का निर्माण किया. भूखण्ड विशेष पर रहने वाले लोगों की जीवन पद्धति का इस तरह निर्धारण किया कि वह सारी मनुष्य जाति का अगुआ बन गयी, और फिर इसको जीने वाले लोग अपने ही गुबार में इतने चूर हुए कि खुद से ही बेखबर हो गये. एक दिन ऐसा भी आया कि अंधकार की छाती पर मूंग दलने वाले लोगों के सामने अंधकार का महासागर गरजता हुआ चुनौती देने लगा. उसकी चुनौती को स्वीकार करने का, सत्य के क्षणों को धरातल तक लाने का नशा, अब भी साहित्य और साहित्य सरीखे काव्यात्मनों के पास है. पीढ़ी-दर-पीढ़ी आस्थाओं की कांवर कचनार-संस्कृति के फूलों की सुवास ढोती रहती है और फिर गुफाओं के गर्भ में रोशनी का खरगोश करवट लेने लगता है. निसर्ग की गोद में वसंत की किलकारी गूंज उठती है.

बदलते हुए मानकों के बीच वह सच निर्विकार है कि अभी भी सूर्य की स्थिति, चंद्रमा की दशा, राशियों के स्वभाव, ग्रहों के तेवर, मौसम के मिज़ाज और ऋतुओं के प्रभाव के आधार पर गहरे उथले हमारी क्रियाविधि, पर्व-उत्सव और हास-विलास के सोपान लिखे जाते हैं. जब पूरे देश के रेतीले शरीर के भीतर इनकी अंतसलिला प्रवाहित हो रही है, तब फिर विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाली पीढ़ियों को यह सब बताने और सिखाने में हिचक क्यों? हमारी आस्थाएं और मर्यादाएं नर्मदा में पड़े उन पत्थरों के समान हैं, जो न जाने कब से समय के प्रवाह को देख रहे हैं और धार में घिस-घिसकर शालिग्राम बन रहे हैं. ये जहां हैं, जिस जगह हैं, वहीं जीवन की उत्तमता का परिवेश रच रहे हैं. इसलिए इनसे और इनके परिवेशों की ज़मीन से नयी पीढ़ी को परिचित कराना बहुत ज़रूरी है. हम विदेशी चश्मा लगाकर स्वयं को देखने परखने लगे हैं. यह तो कोई बात नहीं हुई. स्वयं को जानने-पहचानने की दृष्टि तो हमारी अपनी होनी चाहिए. हम दूसरों का कुछ नष्ट न करें, दूसरी संस्कृति की अच्छी बातों को ग्रहण कर लें. नये ज्ञान, वैज्ञानिक विकास और वैज्ञानिक सोच को सतत अपनाते हुए अपनी और अपनी संस्कृति की मूल छवि का रक्षण फूल में सुगंध की तरह करें. फूल कैसी भी ज़मीन कैसे भी वातावरण में खिलेगा, वह अपनी सुगंध की मौलिकता को नहीं त्यागेगा. नयी पीढ़ी हमारा भविष्य है. इसके भीतर वे समीक्षा संस्कार पैदा करने होंगे, जिससे वह स्वयं को ठीक-ठाक पहचानते हुए, नये को अपनाते हुए, अपनी ही भूमि पर खड़े होकर दायरों को तोड़ सके. नयी दिशाओं की खोज करते हुए वसंत को हथेली पर उगा सके. कचनार की डाल पर कोयल फिर बोलती है और विद्यापति गीतों में गा उठते हैं-

कनए केसुआसुति पए लिखिए हलु,
रासि नक्षत्र कए लोला,
कोकिल गणित गुणित भल जानए,
रितु वसंत नाम थोला

‘वसंत का जन्म हुआ. राशि नक्षत्रों को स्थिर कर सुवर्ण रंग के लिए पुष्प पर जनमपत्री लिखी गयी. कोयल जो गणित शास्त्र अच्छी तरह जानती है, ने बालक का नाम वसंत रखा.’ मैं देखता हूं कचनार के बूढ़े झाड़ की छाया में पलाश का छोटा, नया स्वस्थ पौधा अपने आप उग आया है और लहरा रहा है. मैं अपने चेहरे से उदासी को खिराता हुआ उसके जनम और लहकारे पर निहाल हो जाता हूं. वसंत का स्वागत करता हूं.

फरवरी 2016

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