एक अजेय चेतना – सी.वी. रामन्

यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे आज से पचास साल पहले सितंबर 1921 में लंदन में सी.वी. रामन् से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था. वे ध्वनि के विषय में कुछ परीक्षण करने लंदन आये थे और मैं तब लंदन स्कूल आफ इकोनामिक्स का विद्यार्थी था. हम दोनों एक ही बोर्डिंन हाउस (24 आक्सफोर्ड स्ट्रीट पुट्नी) में रहते थे, जो शाकाहारियों की जगह थी.

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    रोज वे सेंट पाल गिरजे के गुंबद की गूंजभरी गैलरियों में काम करके लौटते. एक शाम को वे जब खाना खाने लौटे, तो बड़े उल्लास से हाथ मलते हुए, मकान-मालकिन से बोले- ’मैं अपने प्रयोग में सफल हो गया. मगर बहुत भूखा हूं. कुछ खाने को दीजिए.“ कुछ बातों में वे बच्चों की तरह थे, फिर भी कुछ अलग- अलग से थे, अपने परिवेश के प्रति बेखबर; और आस- पास के लोग अगर दिलचस्प न लगें, तो वे उनकी सर्वथा उपेक्षा कर देते थे.

    उनका एक कथन मुझे तब भी बड़ा मजेदार लगा था. एक दिन सवेरे जब हम लोग नाश्ता करने बैठे, तो वे बोले- ’बड़ी ठंड है आज. मक्खन कितना गाढ़ा हो गया है.“ हम तो ठंडी का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे थे, जबकि वे मक्खन के गाढ़ेपन से उसका अनुमान कर रहे थे.

    रात के भोजन के बाद, सोने से पहले, वे मकान- मालकिन की नन्हीं बिटिया से ईसप की नीतिकथाएं या बालकथाओं की पुस्तक लेते और उसे पढ़ते. स्पष्ट ही वे गंभीर चीज पढ़ना उनके लिए संभव न होता. मैंने यह भी पाया कि वे संगीत प्रेमी हैं और वायलिन और वीणा जैसे वाद्यों का सैद्धांतिक अध्ययन कर रहे हैं.

    वैसे मैंने 1927 में रंगून में उनके दो अत्यंत ज्ञानवर्धक भाषण सुने थे, मगर उन्हें अधिक निकट से जानने का अवसर तो मुझे अगले वर्षों में कलकत्ता में मिला. वे तब कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के पालित-प्राध्यापक थे. कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति सर आशुतोष मुखर्जी ने रामन् और राधाकृष्णन् जैसे व्यक्तियों को बुलाकर उसे भारत का अग्रगण्य विश्वविद्यालय बना दिया था. रामन् का कलकत्ता की ‘इंडियन एसोसियेशन फार दि कल्टिवेशन आफ सायंस’ से भी संबंध था.

    उनके भुलक्कड़पन के बहुत-से किस्से मशहूर थे. कहते हैं, एक बार वे दोनों पैरों में अलग-अलग किस्म के जूते अटकाकर कहीं चले आये थे. देखनेवाले खूब मजा लूटते रहे; मगर वे अपने ही ख्यालों में खोये रहे.

    उनकी पत्नी श्रीमती लोकसुंदरी मेरी पत्नी की निजी मित्र थीं. वे वीणा बजाती थी और अपने विख्यात पति की खूब देख-भाल करती थी. पति का अटपटापन कई बार उनके लिए परेशानी का कारण बन जाता.

    जब डॉ. रामन् को 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला, उनके सब परिचतों ने अपार हर्ष और गर्व अनुभव किया, और हममें से कुछ ने उनके सम्मान में पार्टी दी. सदा की तरह उनका भाषण विनोद पूर्ण था. शायद यह सब लोग नहीं जानते कि डॉ. रामन् देश के सर्वोत्तम भाषणकर्ताओं में से थे.

    कम ही वैज्ञानिक उनके जैसे भाषाण प्रेमी होते हैं. वे निरर्गल और चुस्त वक्ता थे और उनके भाषणों में जगह-जगह हास्य और चुभता व्यंग्य भी रहता था. निजी बातचीत में भी जब ‘मूड’ में हों, वे बड़े ही आह्लादक और वाग्विदग्ध संभाषाणकर्ता थे.

    याद आता है कि एक बारö या तो विज्ञान  कांग्रेस के अधिवेशन में, या जमशेदपुर की राष्ट्रीय धातुविद्या प्रयोगशाला के उद्घाटन के अवसर पर- उन्होंने स्वर्गीय डॉ.शांति स्वरूप भटनागर की ओर संकेत करते हुए यह कहा था, कि ‘भटनागर प्रभाव’ ‘रामन् प्रभाव’ से ज्यादा जोरदार है. उनका अभिप्राय यह था कि जब भी डॉ. भटनागर प्रयोगशालाएं या संस्थाएं बनाने के लिए पैसा मांगते हैं, जवाहरलाल नेहरू तुरंत पैसा दे देते हैं.

    अभी कुछ ही महीने पूर्व उन्होंने कहा था कि राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं वैज्ञानिक उपकरण दफनाने के लिए बनायी गयी हैं, जैसे कि शाहजहां द्वारा निर्मित ताजमहल उसकी औरतों में से एक को दफनाने के लिए बनाया था. वे कहा करते थे कि जिस आविष्कार के कारण उन्हें प्रसिद्धि मिली, उसके लिए शानदार इमारतों या खर्चीले उपकरणों की जरूरत नहीं पड़ी थी. वे निहायत मामूली साधनों से काम करते थे. मगर जबर्दस्त लगन, उत्साह और अपार सृजनात्मक शक्ति के साथ.

    जो लोग उन्हें ठीक न लगे, उनकी आलोचना वे बेलाग होकर करते और कोई कितना ही बड़ा सार्वजनिक नेता- या सरकारी पदाधिकरी क्यों न हो, उसका वे तनिक भी लिहाज न करते.

    सात साल पूर्व जब मैं बेंगलूर में उनके प्रतिष्ठान में अंतिम बार उनसे मिला था, उन्होंने मुझसे कहा था कि भाषा के प्रश्न पर दुरंगी नीति और अंग्रेजी के प्रति बेतुके रवैये से वे इतने खीझ उठे थे कि उन्होंने ‘भारत-रत्न’ पदक उठाकर फेंक दिया था.

    उन्होंने कहा कि हमारे देश में किसी को असहमत होने का अधिकार नहीं है. वे व्यंग्य पूर्वक मुझसे बोले थे-‘हर एक को हमारे यहां जवाहरलाल नेहरू से सहमत होना ही पड़ता है. देखते नहीं हैं आप?’ मगर वैज्ञानिक विषयों के बाहर, अन्य बहुत से वैज्ञानिकों की भांति, उनका भी रुख और दृष्टिकोण सदा ‘वैज्ञानिक’ नहीं होता था.

    जिस प्रभाव की खोज के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला और जो उनके नाम से ‘रामन् प्रभाव’ कहलाता है, उस दशक के सबसे महत्तपूर्ण प्रयोगों में से था. उन्होंने पता लगाया कि कुछ पदार्थों द्वारा प्रतिक्षिप्त प्रकाश मूल प्रकाश-रश्मि से तनिक भिन्न रंग का हो सकता है. उन्नीसवीं सदी की भौतिकी के अनुसार इसकी संतोषजनक व्याख्या नहीं हो पाती थी; जबकि रामन् की खोज से नये क्वांटम सिद्धांत की प्रायोगिक पुष्टि होती थी.

    बाद के वर्षों में डॉ. रामन् की हीरों से दिलचस्पी हो गयी थी- उनके कीमतीपन के कारण नहीं, वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से उनकी रचनागत विशेषता के कारण. बेंगलूर में अपने प्रतिष्ठान में उन्होंने वर्णक्रमदर्शी (स्पेक्ट्रोस्कोप) के नीचे फूल रखकर मुझे दिखाया कि फूलों का जो रंग हमें दिखाई देता है, वह उनका असली रंग नहीं होता.

    उनका बगीचा विशाल और सुंदर था. उसे वन समझिये, जिसमें वे वानप्रस्थ की तरह रहते थे. उन्होंने मुझे बगीचा दिखाया. मैं उनकी चुस्त चाल और बोलों का मुश्किल से ही साथ दे पा रहा था. वे स्कूली बच्चे की तरह उत्साह से छलक रहे और बता रहे थे कि वे क्या- क्या कर रहे हैं और आगे क्या करने वाले हैं.

    रामन् बेंगलूर के इंडियन इंस्टिट्युट आफ सायंस से संबंधित रहे थे और कुछ साल उसके निदेशक थे. मगर अनेक वैज्ञानिकों और कलाकारों की तरह वे प्रशासन में कच्चे थे. साथ ही वे एक ढंग से ‘इक्कड़’ थे. नितांत व्यक्तिवादी, जो न समूह में काम कर सकते थे, न समूह को अपने साथ लेकर चल सकते थे.

    उन्होंने विज्ञान कांग्रेस में भाग लेना बंद कर दिया था और इंडियन एकेडमी आफ सायंस की स्थापना की. उन्होंने अनेक युवकों को प्रशिक्षित, प्रभावित और प्रोत्साहित किया. डॉ. विक्रम साराभाई भी उन्हीं में से हैं. लेकिन किसी प्रतिस्पर्धी को वे नहीं सह सकते थे और आलोचना के प्रति असहिष्णु थे.

    1950 वाले दशक के आरंभ में जब मैं योजना आयोग का सदस्य था, तो उनके साथ नफील्ड छात्रवृत्तियों की सलाहकार समिति में था. जब एक सदस्य ने डॉ. रामन् से कहा कि आप बहुत कठिन सवाल पूछ रहे हैं, तो वे एकदम आपे से बाहर हो गये और उस सदस्य की क्षमा याचना को स्वीकार करने के लिए उन्हें रजामंद करने में मुझे (अध्यक्ष के नाते) बड़ी दिक्कत हुई. मगर थोड़े देर में वे पहले जैसे हो गये.

    जैसा कि सी.पी.स्नो ने महान परमाणु-विज्ञानी लार्ड रदरफोर्ड के बारे में कहा था, वे ‘गजब के और शानदार ढंग से अहम्मन्य’ थे; मगर इस अहम्मन्यता के साथ निहायत सरलता मिली हुई थी. प्रकृति के प्रति अपनी पैनी अंतदृष्टि में उन्हें बड़ा रस आता था. वे शब्दाडंबर और ढोंग से मुक्त थे. शायद वे इमरसन की इस राय से सहमत थे कि ‘शिष्टाचार का आविष्कार मूर्खों को दूर रखने के लिए हुआ है.’

    वे भारत के महानतम भौतिक विज्ञानी थे और हमारे जमाने के सबसे प्रमुख भौतिक विज्ञानियों में से एक थे. प्रायः उनके शोध एक तरह से भौतिकी के क्षेत्रों में उनकी एकाकी सिद्धियां थीं. अपनी पुस्तक ‘नयी भौतिकी’ (न्यू फिजिक्स) में उन्होंने लिखा था- ‘विज्ञान के अनुशीलन की प्रेरणा-शक्ति मुलतः सृजनेच्छा से प्राप्त होती है. विज्ञानवेत्ता प्रकृति का विद्यार्थी है और वह प्रकृति से प्रेरणा पाता है.’ यही सृजनेच्छा और ज्ञान की खातिर ज्ञान की साधना डॉ. रामन् का असली स्वरूप था और यही वैज्ञानिकों को उनकी देन है.

– गगनविहारी महेता

(‘टाइम्स आफ इंडिया’ से)

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