उसने किसी नेता को नहीं देखा  –  बल्लभ डोभाल

आयाम

हिमालय की ऊंची सघन घाटियों में अचानक उससे मुलाकात हो गयी. तब वह अपनी भेड़-बकरियों के साथ एक ऊंचे टीले पर बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था. बातचीत में उसने बताया कि नाम तो छांगाराम है, पर लोग मुझे नेता भी कहते हैं. ‘ठीक कहते हैं. नेता जैसे तुम लगते भी हो.’ मैंने चुटकी लेते हुए कहा. यह सुनकर छांगाराम गद्गद हो गया. ‘पीते हो?’ हुक्का मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोला, ‘लोग कहते तो हैं, पर मुझे इतना भी पता नहीं कि नेता होता क्या है, वह क्या करता है. अब तक किसी नेता को देखा भी नहीं.’

मैंने उसके हाथ से हुक्का थाम लिया. सोचा, लोग छांगाराम को नेता क्यों कहते हैं. अब इसे क्या बताऊं कि नेता क्या होता है. छांगाराम ने फिर वही प्रश्न दोहराया तो लगा कि नेता की असलियत जानने को वह ज़्यादा ही उत्सुक है. मैंने कहा, ‘छांगाराम जी, नेता भी तुम्हारी तरह आदमी जैसा ही होता है. उसके आसपास भी हर वक्त भीड़ जमा रहती है. जनता को जो जमा कर ले, वही नेता है. अब देखो, तुम्हारे आसपास कितनी भीड़ लगी है, इसीलिए लोग तुम्हें नेता कहने लगे हैं.’

‘पर ये तो भेड़-बकरियां हैं, आदमी तो नहीं हैं.’ उसने अपना तर्क रखा.

‘तुम नहीं समझे. नेता को भीड़ से मतलब है, तब चाहे वह भेड़-बकरियां हों या आदमी हों, समझ में आया कि नेता क्या होता है.’

‘तो अब बताओ कि नेतागिरी का यह धंधा कब से कर रहे हो?’

‘मेरे पुरखे यही करते आये हैं, बचपन से मैं भी कर रहा हूं.’

‘इसका मतलब तुम खानदानी नेता हो और पुश्तों से ये भेड़-बकरियां तुम्हारी जनता बनी चली आ रही हैं. जनता बहुत भोली होती है. छांगाराम जिधर हांक दे, चल पड़ती है.’

‘हां, ऐसा तो है. पर एक ही खराबी है इनकी आदतों में… जो एक किसी खाई में छलांग लगा दे तो सब उसके पीछे कूद पड़ेगी. इसलिए बराबर नज़र रखनी पड़ती है. हर वक्त पीछे चलना पड़ता है. जंगल में कभी घनी-झाड़ियों के बीच दूर-दूर तक फैल जाती हैं तो फिर एक जगह लाना मुश्किल हो जाता है. दिन भर चुगने के बाद शाम को जहां ये बैठ जाती हैं, वहीं हम भी डेरा डाल देते हैं. बहुत परेशानी का काम है.’

‘जनता परेशान तो करेगी, लेकिन गांव-शहरों से दूर जंगलों में तुम रहते हो, तो क्या जंगली जानवरों का डर नहीं होता?’

‘होता है, बाघ, भालू-भेड़िए. कई तरह के जानवर घूमते दिख जाते हैं, पर वे किसी तरह का नुकसान नहीं करते. जंगली जानवर भी आदमी जैसी समझ रखता है. कई बार जंगली बकरे, हिरण, पीज… हमारी बकरियों के साथ दिनभर चुगते हैं और शाम होते ही छिटक कर अलग हो जाते हैं. पड़ाव पर रातभर आग जलती रहे तो जंगली जानवर पास नहीं आता. वह बात अलग कि चोरी-छिपे जाता है. वैसे हमारे पास पूरा इंतजाम रहता है.’ नेता के इशारे पर मैंने देखा कि दो काले कुत्ते झाड़ियों की तरफ मुंह टिकाये बैठे हैं. देखकर मैं सहम गया.

‘तो ये हैं तुम्हारे कमांडो… यानी असली पहरेदार!’

‘हां, ये ही सबकी देखभाल करते हैं, इनके रहते क्या मजाल कि कोई इधर झांक ले. जिसके पीछे लगे फिर उसे
छोड़ेंगे नहीं.’

‘अच्छा… तो अब ये बताओ कि जंगल में तुम्हारे खाने-पीने का कैसे चलता है. कभी अचानक राशन-पानी खत्म हो जाए तो?…’

‘हम लोग महीने भर का राशन लेकर चलते हैं. खत्म हो जाए और शहर जाना न हुआ तो अपनी जनता ही काम आती है. इसी को दुहते हैं, कुछ दिन दूध से ही काम चल जाता है. कुत्तों को भी वही पिलाते हैं. जंगल में कई तरह की घास और जड़ी-बूटियों वाला दूध… नमक डालकर दो लोटा पी लिया तो भूख नहीं लगती, बदन में ताकत भी बनी रहती है. इस बीच कभी कोई मर गया तो दो-चार दिन के लिए वही हमारा खाना हो जाता है.’

‘वाह! उसी को दुहते हो और उसी को खा भी जाते हो, तुम कैसे नेता हो?’

अपनी लाचारी जाहिर करता छांगाराम बोला, ‘फिर तुम्हीं बताओ, क्या करें. दुहें नहीं तो जनता को भी चैन नहीं पड़ता. थनों में दूध जमा हो जाने से कई तरह की बीमारियां लग जाती हैं, इसलिए दूध निकाल कर फेंकना पड़ता है. सब तरह से देखभाल रखनी पड़ती है. साल में दो-एक बार इन्हें मूंड लेना भी ज़रूरी है.’

‘लेकिन इतनी सारी जनता को तुम अकेले कैसे मूंड जाते हो?’

‘हम खुद नहीं मूंडते. दूसरों से यह काम करवाते हैं. शहरों से व्यापारी लोग यहां आकर मूंडकर ले जाते हैं. हमें तो पैसे से मतलब है.’

‘इसीलिए लोग तुम्हें नेता कहते हैं. नेता भी अपने आप कुछ नहीं करता, सारे काम दूसरों से करवाता है.’

‘क्या करें जी. इनकी देखभाल से ही फुर्सत नहीं मिलती.’ कहते हुए छांगाराम ने कम्बल उठाकर कंधे पर चढ़ा लिया. उसकी जनता आगे निकल चुकी थी. चलते-चलते मैंने पूछ लिया, ‘तुम्हारे अलावा दूसरे नेता भी यहां आगे होंगे?’

‘हां, और भी कई टोले हैं. गर्मियों में पूरा पहाड़ भरा रहता है.’

‘लेकिन जनता तो जनता है, वह आपस में मिलना चाहती है, मिल जाए तब क्या करते हो?’

‘देखो जी! पहले तो हम मिलने देना ही नहीं चाहते. मिल जाए तो अलग कर लिया जाता है. ऐसी बात नहीं कि हम इन्हें पहचानते नहीं. एक-एक का चेहरा हमें याद रहता है. मरने-जीने का साथ है तो क्या इतनी पहचान भी न होगी?’ कहकर छांगाराम ने हुक्के से चिलम उतार ली और चल पड़ा.

मन में आया, छांगाराम से कह दूं कि तू नेता नहीं. तू नेता हो ही नहीं सकता. जनता के साथ नेता के सम्बंध ऐसे नहीं हुआ करते. नेता सिर्फ नेता है, वह किसी को नहीं जानता. पहचान कर भी किसी चेहरे को नहीं पहचानता.   

अप्रैल 2016

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