उजालों का प्रेम बांटने वाला अंधेरा

♦  सुरेंद्र बांसल   >

परमाणु ऊर्जा के कबाड़ को लेकर एक डर सारे विश्व में पसरता जा रहा है. अब तो विश्व की महाशक्ति का डर भी सामने आ गया है. अमेरिका ने अब तक जितना परमाणु कबाड़, कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसको लेकर इस तथाकथित महाशक्ति के वैज्ञानिक भी सकते में हैं. इन वैज्ञानिकों को अब डर सताने लगा है कि हजारों टन इकट्ठे हो चुके इस कचरे को ठिकाने कैसे लगाएं? उससे लगातार निकलती रेडियो तरंगों का नुकसान बराबर सामने आ रहा है. महाप्रयोगों के द्वारा ब्रड्मांड की गुत्थी सुलझाने वाले वैज्ञानिकों की चिंता के कई पहलू हैं. एक बड़ा पहलू तो इस विराट कचरे को खपाना है, दूसरा यह कि इस कचरे तक कोई पहुंचे न, तीसरा यह कि जहां इस कचरे को दफनाया जाए, वहां खतरा बताने वाले कुछ ऐसे शब्दों की तख्तियां टांगी जाएं, जिन्हें देखकर भविष्य की पीढ़ियों को अंदाज़ा लग सके कि यह कचरा कितना भयावह है.

वैज्ञानिकों की चिंता मात्र इतनी नहीं कि परमाणु कचरा कहां रखा जाएगा. उनकी चिंता यह भी है कि आने वाली पांच-हजार या पचास हजार साल बाद की पीढ़ी किस लिपि में इस खतरे को समझ पाएगी.

आज से पांच हजार साल या पचास हजार साल बाद इन खतरों को कैसे लिखा या समझाया जाएगा यह सवाल आज के आदमी के लिए फिजूल हो सकता है, लेकिन अमेरिका के परमाणु कबाड़ को समेटने में दुबले हो रहे अमेरिकी वैज्ञानिकों के मन में इन प्रश्न को लेकर बहुत चिंता है. परमाणु तकनीक के अत्यधिक इस्तेमाल के कारण विकसित माने गये और अंगुली से दूसरे देशों को चांद दिखाने वाले चंद देशों के पास हजारों टन परमाणु कचरा जमा हो चुका है. इसे दफनाने के लिए वहां के वैज्ञानिक ऐसे भूमिगत भवनों, भंडारगृहों के निर्माण में लगे हैं जहां उजाले का भ्रम बांटने वाले इस अंधेरे को गर्क किया जा सके. हरेक ऊर्जा, ईंधन जल चुकने के बाद कुछ अंश छोड़ जाता है. इसका सबसे सरल उदाहरण है हमारे चूल्हे में जलने वाली लकड़ियां या कंडे. इनका कुछ भाग कोयले की तरह बच जाता है तो कुछ पूरा जला भाग राख की तरह. यह राख हमारे लिए समस्या नहीं होती. ईंधन शुद्ध है, इसलिए उसका बचा अंश भी शुद्ध ही होता है. यह राख हाथ धोने के काम आती है. खाने-पीने के बतन साफ किये जाते हैं. खुद भगवान की मूर्तियां चमकाई जा सकती हैं इससे. दंतमंजन में राख का उपयोग होता है. खाद की तरह भी यह नयी पौध का संरक्षण और संवर्धन करती है. कीटनाशक के रूप में भी यह काम आती है.

पर परमाणु ऊर्जा की राख! तौबा-तौबा! हाथ भी नहीं लगा सकते. सो भी दो-चार दिन नहीं, सैकड़ों हजारों बरसों तक इस राख का बुरा असर, रेडिएशन बना रहता है. हाथ लगाना तो दूर, इस कचरे से, राख से बहुत दूर रहने वाले पर भी इसकी विकिरण का, ज़हरीली किरणों का बुरा असर पड़ता है.

इन वैज्ञानिकों की चिंता के कई पहलू हैं. सबसे बड़ा प्रश्न ऐसे मज़बूत ठोस गोदामों का, अति आधुनिक कचराघरों का निर्माण है, जहां परमाणु कचरा बंद कर रखा जा सके. ऐसे गोदाम ज़मीन के ऊपर नहीं, कई फुट नीचे बनाने पड़ेंगे. ठोस ज़मीन, ठोस दीवार ठोस छत. न दरवाजा, न खिड़की, न रोशनदान. इन्हें ऐसे इलाकों में बनाना होगा, जहां भूकंप, बाढ़ आदि की आशंका हो ही नहीं.

फिर इस सारी प्रक्रिया का एक पहलू ऐसा भी है, जो इन तमाम चतुर-सुजान वैज्ञानिकों का सिर-दर्द बना हुआ है. वह है ऐसे शब्दों, बल्कि खतरनाक शब्दों, की तलाश जिन्हें भविष्य की पीढ़ियां पढ़कर इस कचरे की ओर मुंह न करें. परमाणु कचरे जैसे ही भयावह शब्दों की तलाश है, जिन्हें पढ़कर आगत पीढ़ियां उन गोदामों को न खोलें.

हम सभी जानते हैं कि हमारी भाषाएं तेज़ी से बदलती हैं. अपनी ही आज की हिंदी में अभी कुछ ही सौ बरस पहले लिखे गये सरल दोहों, चौपाइयों का अर्थ समझाने के लिए हमें शिक्षक की, अध्यापक की ज़रूरत पड़ती है. अंग्रेज़ी वाले तो कुछ ही बरस पहले के शेक्सपीयर को समझ नहीं पाते. यों तो यह भी कहा जा सकता है कि आज लिखी जा रही सरकारी हिंदी आज भी नहीं समझ आती!

फिर भाषा के बाद लिपि का प्रश्न है. सम्राट अशोक के जन कल्याणकारी शिलालेख पढ़ने के लिए भी पुरातत्त्वविदों को मालूम नहीं, महान विशेषज्ञों की ज़रूरत पड़ती ही है. ब्राह्मी लिपि, खरोष्ठी लिपि, देवनागरी तो है ही. रोमन है. पर सब भाषाएं सब नहीं जानते और सब लिपियां सब नहीं पढ़ पाते. इसलिए इन वैज्ञानिकों का डर स्वाभाविक है. उन्हें लगता है कि कहीं वर्तमान की तरह आने वाली पीढ़ियों को भी परमाणु कचरे के अंधेरे में न रखा जाए. इसलिए आने वाली पीढ़ियों को साफ़-साफ़ बताना है कि यहां खतरा है. सो कैसे बताएं?

अब अमेरिका ने ही एक दौर में परमाणु ऊर्जा से खूब बिजली बनायी. फिर बंद भी की. और अब उसके पास ही शायद सबसे गगज्यादा कचरा एकत्र है. इसे ठिकाने लगाना है. अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा ऐजेन्सी इस चुनौती से निपटने के लिए भाषा, इतिहास, मानव-विज्ञान आदि की जानकारी का इस्तेमाल कर रही है. आज खतरे का संकेत देने वाला चिह्न हैः एक डरावनी खोपड़ी और उसके नीचे हड्डियों के दो टुकड़े, जो अंग्रेज़ी वर्णमाला के एक्स अक्षर की तरह रखे जाते हैं. ज़रूरी नहीं कि यह चिह्न सौ पचास वर्ष से ज्यादा चले. परमाणु विकिरण के खतरे का अंदाज़ देने वाला आज प्रचलित चिह्न तो और भी कमज़ोर है. इसमें छोटे-छोटे तीन त्रिकोण बने रहते हैं. हो सकता है कि कोई इसे ज्यामिती का चिह्न मान बैठे.

इसलिए भयानक खतरा बताने वाले शब्द भी खोजने हैं, निशान भी खोजने हैं और ये दोनों चीज़ें जिस पर उकेरी जाएंगी, वह आधार भी खोजा जाना बाकी है. कुछ वैज्ञानिकों ने पत्थर के बड़े शिलाखंडों पर हज़ारों साल रहने वाले खतरे के निशान खोदने की बात भी सुझायी है. ऐसी जानकारी कई भाषाओं तथा कई संचार विधाओं का इस्तेमाल करके दी जा सकती है. सभी को लगता है कि यह खतरनाक कचरा आज की आबादी से बहुत दूर निर्जन में, वनों में कहीं दफना कर रखा जाना चाहिए. पर इसमें भी एक खतरा है. आज जिस तेज़ी से शहर फैल रहे हैं, उद्योग पसर रहे हैं, क्या ऐसी जगह बची रह पायेगी? इसलिए एक राय यह भी सामने आ रही है कि नहीं, ऐसा कचरा तो बड़े शहरों के बीच ही गाड़ कर रखो ताकि हर पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को सीधे बताती चले कि यहां पिछली पीढ़ियों की भयानक भूल, भयानक गलतियां दफन की गयी हैं.

विज्ञान जगत के इन बुद्धिजीवियों की समस्या परमाणु कचरे के बजाय वे खतरनाक शब्द बन चुके हैं, जो अभी खोजे  जाने शेष हैं. आज विश्व-परिस्थितियों तथा अपने देश को मृत्यु देने वाले जीवित प्रश्नों या संकटों पर गौर करें तो इन तमाम खतरनाक संकटों के पीछे खतनाक योजनाओं का ही हाथ है.

खतरनाक परमाणु ऊर्जा कुछ दिन तो उजाला दे ही सकती है, लेकिन उसके बाद पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानसिक विकलांगता बढ़ती चलेगी. समाज को जगाने के नाम पर भी जो ‘खतरनाक शब्द’ तलाशे जा रहे हैं, वे शब्द कुछ दिन तो अहंकार का प्रकाश कर सकते हैं, लेकिन यह उजाला ज्यादा दिन चलता नहीं.

आज के वैज्ञानिक आज की पीढ़ी पीछे- छोड़ भविष्य की पीढ़ियों के प्रति आत्मीयता दिखाने का छलावा कर रहे हैं. हमारी राजनीति तो छलावों से ही भरी है.

शायद ही कोई राजनेता कभी कहेगा कि हमने अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक ऐसे खतरे में धकेल दिया है, जिसका वर्णन कर सकने वाला खतनाक शब्द अभी खोजा ही नहीं जा सका है!

(फ़रवरी, 2014)

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