इंद्रधनुष

♦   निर्मला ठाकुर     

      … अपनी पत्नी… शिवेन का जन्म… शिवेन के जन्म के कुछ ही दिनों बाद पत्नी की मृत्यु… गौरी बाबू ने एक बकरी खरीद ली थी और एक नौकरानी घर में रख ली थी… गुनिया… एक सुंदर स्री… उसके लिए गौरी बाबू को कितना अपवाद सहना पड़ा था… अध्यापक थे… ब्राह्मण थे… कर्मकांडी… भर्त्सना का सामिष ग्रास उनके गले में अटक-अटक जाता था और घृणा से उनका मन छटपटा उठता था… लेकिन दिवंगत पत्नी को दिया गया वचन… बेटे के लालन-पालन की प्रतिज्ञा… गंगाजल के घूंट की तरह शांति देनेवाली वह प्रतिज्ञा उनके आत्मबल को अक्षुण्ण रखती रही… नहीं तो गौरी बाबू अपवाद से बचकर बेटे का मोह छोड़कर कहीं निकल जाते… संन्यास ले लेते… लेकिन उनकी प्रतिज्ञा सफल हुई… शिवेन फल-फूल रहा है…

     बेटी के विवाह में व्यस्त शिवेन को देखकर गौरी बाबू का मन उल्लसित हो उठा. कैसा लगता है. शिवेन के मुंह पर जितनी व्यग्रता है, उतना ही संतोष है, जितना संतोष है, उतनी ही चिंता है, जितनी चिंता है, उतनी ही प्रसन्नता… और उसकी पत्नी माया को देखो… उसके आगे-पीछे सहायता करते हुए सम्बंधियों और परिजनों के हाथ हैं, खुशी से मुस्कराते हुए चेहरे हैं और उत्तरदायित्व से भरे हुए उदास हृदय हैं…

     माया की अपनी कोई देवरानी नहीं, लेकिन शिवेन के मित्र जोशी की पत्नी सरला स्नेह से उसके इतने निकट आ गयी है कि सगी देवरानी ही हो. और सरला की बेटी….

     ‘चाची, मीनू के पैरों में आलता लगा दें ना?’ सरला की बेटी कुसुम ने आकर पूछा. माया कुसुम की ओर ममता से देखकर बोली- ‘हां-हां, लगा दो.’ वह अकेली सम्भाले भी क्या-क्या! फिर, खुशी तो बांटने लायक चीज है- जैसे सुगंध. फिर भी कितनी व्यस्तता! सरला बार-बार आती है- दीदी, दीपक में बाती चाहिए… दीदी, कोई नया कपड़ा दे दो… दीदी, रंगी हुई पांच सुपारियां चाहिए, पंडितजी मांगते हैं… कभी-कभी मज़ाक भी कर जाती है- दीदी, इस साड़ी से काम नहीं चलेगा. जमाई सबसे पहले तुम्हें ही तो देखेंगे. अच्छी रेशमी साड़ी पहन लो..

     ‘चुप छोटी!’ वह सरला को प्यार से छोटी ही कहा करती है.

     इतने में ही कोई भंडार का इतजाम जानने आ जाता है- औरतों के लिए नाश्ते की कितनी तश्तरियां चाहिए?… आंगन और बरामदे में दरिया बिछ गयीं या नहीं?… माया चारों तरफ देखती है. सबकी सुनती है… गौरी बाबू घर में फिरकी-सी नाचती पुत्रवधू को देखते हैं. फिर बाहर-भीतर आते-जाते पुत्र पर निगाह पड़ती है. धोती-कुर्ते में कितना सुंदर लग रहा है शिवेन! चमकता हुआ माथा, मीठी स्वच्छ मुस्कान…

     गौरी बाबू ने मीनू के होने वाले पति को अभी नहीं देखा. शिवेन ने ही रिश्ता तय कर लिया है. वे मन-ही-मन प्रार्थना करने लगते हैं कि मीनू का वर भी ऐसा ही हो. सुंदर, स्वच्छ प्रतिभाशाली… जैसा उनका शिवेन है… शिवेन ने सोच-समझकर ही सम्बंध किया होगा… आगे मीनू का भाग्य. गौरी बाबू चिंतित हो जाते हैं. लेकिन तभी कोई काम याद आ जाता है या कोई बुलाने आ जाता है बारात आने का समय हो गया है, चिंता का समय नहीं है.

     गौरी बाबू उठकर बाहर आ गये. शामियाने में टेबल-कुर्सियां लग गयी थीं. पान के वर्क लगे बीड़े से लेकर अल्पाहार और गद्दी-मसनद का इंतजाम देखते-देखते संध्या गहराने लगी. शहनाई की मीठी करुण ध्वनि इक्के-दुक्के संध्या-तारे को अपनी मोहिनी से धरती की ओर खींचने लगी. आमंत्रित मेहमान आने लगे. सजी-संवरी स्त्रियों से घर का आंगन भर गया. बातचीत का शोर समुद्र की लहरों की तरह उठने-गिरने लगा. हंसी की सुरीली घंटियां समुद्र-तट पर बने किसी देव-मंदिर की याद दिलाने लगीं. अंदर की व्यवस्था माया देख रही थी, बाहर मेहमानों का स्वागत गौरी बाबू कर रहे थे और शिवेन कामकाज की दौड़धूप में कभी बाहर आते, कभी भीतर जाते.

      बारात आने का समय कब का हो गया. बारात अभी तक आयी क्यों नहीं? गौरी बाबू के मन में आशंका की पहली लहर कांप गयी. आये हुए मेहमानों ने जैसे अपनी आवाज में जोर से गौरी बाबू का प्रश्न दोहराया- ‘भई, वक्त तो हो गया, बारात क्यों नहीं आयी?’

     ‘आती ही होगी.’ शिवेन ने उत्तर दिया. लेकिन मन उसका भी डोल गया. शादी का मुहूर्त टला जा रहा था. बात क्या हुई? सभ्य और शालीन लोग हैं वे. अकारण आना स्थगित तो कर नहीं सकते. फिर क्या बात है? शायद रास्ते में कार खराब हो गयी हो या और कुछ…

     गौरी बाबू की बेचैनी प्रतिपल बढ़ती जा रही थी. सबसे अधिक उन्हीं का मन आशंकित था. कहीं ऐसा तो नहीं कि… वे सोचते-सोचते सहम गये.  

     आत्मीय मित्र और आमंत्रित अतिथि तरह-तरह के तर्क करने लगे- कार खराब हो गयी होगी… आज गर्मी बहुत थी, हो सकता है, बारात के किसी व्यक्ति की तबीयत खराब हो गयी हो… आ जायेंगे, लम्बी यात्रा में देर हो ही जाती है…

     आंगन में भी हास-परिहास के बीच शंका की नोक चुभने लगी. स्त्रियों को वस्राभूषणों की चर्चा में रस नहीं रहा. पिछले विवाहों की घटनाओं के वर्णन में उत्साह नहीं रहा. फिर भी समय काटने के लिए जैसे जबर्दस्ती बातें करतीं रहीं. माया के मन में तो आंधी उठ रही थी. वह आंगन के एक एकांत और अपेक्षाकृत अंधेरे कोने में बैठ गयी थी अगर आज रात बारात नहीं आयी, तो उसकी निर्दोष बेटी कल से सबकी आंखों में संदिग्ध हो जायेगी. लोग तमाम तरह की बातें बनायेंगे. किस-किस का मुंह पकड़ा जायेगा? और आगे कोई दूसरा रिश्ता ढूंढ़ना पड़ा तो…?

     धीरे-धीरे कानाफूसी भढ़ने लगी. जितने मुंह, उतनी बातें-शायद रुपये-पैसे के किसी झंझट के कारण लड़की वालों ने शिवेन को नीचा दिखाया है… कहीं लड़की में तो कोई अवगुण नहीं… आजकल क्या ठिकाना है… भले घरों की लड़कियां भी आजकल तो… तिथि-मुहूर्त ठीक करके बारात नहीं लाने का कुछ कारण तो अवश्य ही होगा…

     गौरी बाबू सब सुन रहे थे और इधर से उधर चक्कर काट रहे थे अचानक उनके पांव रुक गये. एक फुसफुसाहट शामियाने की कनात के उस पार सुनायी दी- कहीं ऐसा तो नहीं कि गुनिया वाले प्रसंग ने यह गुल खिलाया हो?

     गौरी बाबू जैसे आसमान से गिरे. लड़खड़ा गये. बड़ी कठिनाई से स्वयं को सम्भाल पाये. उन्हें ऐसा लगा, जैसे यह फुसफुसाहट उन पर सैकड़ों कोड़े बरसा गयी हो. बालक शिवेन को पालने के लिए रखी गयी नौकरानी गुनिया के कारण उन्हें क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा था- लेकिन आज? और इस समय? हे ईश्वर! वे अंधेरे में हो गये अपराधियों कि तरह बचते हुए ऊपर छत पर चले गये. उनका कमरा अंधेरा था. अंधेरे में ही अपने बिस्तर पर जा पड़े और जीवन में पहली बार धैर्य खोकर फूट-फूटकर राये.

     नीचे शहनाई की गूंज क्रमशः मंद होते-होते चुप लगा बैठी. शिवेन का कोई हितैषी सुझाव दे रहा था- ‘खबर लाने के लिए कार लेकर किसी को भेजिए, शायद रास्ते में कोई दुर्घटना हो गयी हो…’

     आकाश में बड़ा-सा उजला चंद्रमा निकल आया. चांदनी ठंडी होकर नीचे उतर आयी. बेले के फूल पूरी तरह खिल गये. उनकी सुगंध चारों ओर फैल गयी- लेकिन अब उस शोभा और सुगंध की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा था.

     बच्चे ऊधम मचाकर, थककर सोने लगे थे. वयस्कों के चिंतातुर चेहरे उनके उल्लास में बाधक बन गये थे.

     ‘सभी तो जा रही हैं.’ सरला ने माया के पास आकर चिंतातुर स्वर में कहा. महिलाओं को विरक्त, खिन्न मन से उठते देखकर माया अपनी जगह से उठ आयी उन्हें रोकने, बिठा लेने का रत्ती-भर भी उत्साह उसके मन में नहीं बचा था. उसका शरीर डोल रहा था. हृदय की धड़कनें अस्वाभाविक रूप से बढ़ गयी थीं. चेहरा सफेद हो रहा था. हाथ पकड़ लिया- ‘छोटी, मीनू?’

     सरला ने चौंकर उसे थाम लिया- ‘दीदी! कैसी लग रही हो? लोग खबर लाने गये हैं. कुछ ही देर में कोई खबर आ जायेगी. सब ठीक होगा. चलो, तुम आराम करो.’

     माया ने फिर एक स्वर में पूछा- ‘मीनू?’

     ‘मीनू को क्या होगा? अच्छी-भली बैठी है. उसकी सब सहेलियां बैठी हुई हैं. तुम तो बेकार इतनी परेशान हो रही हो. रात अभी बीत तो नहीं गयी? पंडितजी कहते हैं कि बारह बजे के बाद फिर मुहूर्त है. मेरा मन कहता है कि सब ठीक होगा. रास्ते में कोई बात हो गयी होगी. चलो, चलो तुम…’

     सरला ने माया को छोटी बच्ची की तरह यत्न से बिस्तर पर लिटा दिया और बोली- ‘लेटी रहो. तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही है. तुम थक गयी हो. बारात आयेगी. तो तुम्हें उठा दूंगी.’ कहकर सरला ने बत्ती बुझा दी, माया की आंखों से आंसू बहने लगे. अंधेरे में तकिये में मुंह गड़ाकर वह रोने लगी.

     बाहर शिवेन के एक मित्र कह रहे थे- ‘मेहमान उठने लगे हैं, उनका कुछ स्वागत-सत्कार हो जाता, तो…’

     शिवेन ने अपने मित्र की ओर इस तरह देखा, जैसे पहचान नहीं पा रहे हों. दिमाग सुन्न हो रहा था. अपमान, दुख और लज्जा से उनका चित्त ठिकाने नहीं था. बोले- ‘किसका स्वागत-सत्कार? किस खुशी में?’

     मित्र मुंह देखने लगे. लेकिन तभी कोई दौड़ता हुआ आया- ‘आ गये! आ गये! बारात आ गयी.’

     जैसे जादू-सा हो गया. क्षण-भर पहले जो घर-बाहर मानो किसी के शाप के पथरा गया था, जीवंत हो उठा. जाते-जाते लोग ठिठक गये. लौट पड़े. खामोशी टूट गयी. स्त्रियां जो चुप थीं, फिर बोलने लगीं. शहनाई जो बजते-बजते बंद हो गयी थी, फिर बज उठी. चांदनी जो काटने लगी थी, फिर शीतलता बरसाने लगी. हवा जो रुक गयी थी, फिर चल पड़ी. सुगंध, जो मर गयी थी, फिर जी उठी.

     सरला ने माया को जगाया- ‘दीदी…दीदी…उठो… बारात आ गयी. उठो, मैं कहती थी ना?’

     ‘कितने बज गये?’ माया ने अविश्वास के स्वर में पूछा. सरला झुंझला गयी, पागल हुई हो? उठो ना. मीनू की बारात आ गयी. अभी तो बारह

भी नहीं बजे, उठो. सुनो, शहनाई बज रही है.’

     माया ने सुना. शहनाई सचमुच बज रही थी.

     ऊपर गौरी बाबू ने सुना कि सचमुच शहनाई ऊंचे स्वर में बज रही है. कोलाहल जाग उठा है- भीतर-बाहर. अव्यक्त प्रसन्नता से उनका हृदय जड़ हो गया. नीचे आते हुए उन्होंने पूछा- ‘क्या हुआ था? इतनी देर क्यों हुई?’

     ‘कितनी गर्मी थी दिन में. दोपहर में ये लोग रास्ते के उस बंगले में रुक गये थे. फिर दिन ढलने पर चले तो कार खराब हो गयी. अब सभी पहुंच चुके हैं. जनवासे से नहा-धोकर आ ही रहे होंगे.’ किसी ने उत्तर दिया.

     धीरे-धीरे लोग जुटने लगे. वातावरण फिर हास-परिहास से मुखरित होने लगा. थोड़ी देर पहले हठात जो नाटक में व्यवधान हो गया था, वह मानो किसी कुशल संकेत से हट गया. दृश्य फिर जीवित हो उठे. ब्याह के मधुर गीतों ने अर्धरात्रि के नीरव स्वच्छ आकाश को गुंजा दिया.

     ‘जो भी हो, दामाद है आपका सोने का टुकड़ा. जैसी योग्यता, वैसी ही शिष्टता. सुंदर व्यक्तित्व. इकलौती बेटी के लिए उपयुक्त वर ढूंढ़ा है आपने.’ सुन-सुनकर शिवेन बाबू मुस्करा देते.

     सभी अनुष्ठान शीघ्रता से सम्पन्न होने लगे. समय कम था. गौरी बाबू जब कन्या-दान करने लगे तो उनके हृदय में प्रसन्नता भरी थी और आंखों में आंसू.

     सरला ने माया से परिहास लिया- ‘जमाई इतना सुंदर है तो समधी भी सुदर्शन होंगे ही. समधी को देखा या नहीं दीदी? ज़रूर पसंद करोगी.’ माया ने उसे आंखों से धमकाया कि ससुर सामने बैठे हुए हैं.

     सभी अनुष्ठान समाप्त होते-होते सुबह हो गयी. जब विधिवत विवाह समाप्त होने पर वर-वधू पैर छूने आये तो गौरी बाबू को लगा कि वे पूर्णकाम हो गये हैं.

     बारात लौट गयी थी. स्वागत-सत्कार से समधी संतुष्ट थे, बारात के अन्य बंधु-बांधव भी प्रसन्न थे.

     तीसरे पहर घर के सभी लोग थके-मांदे विश्राम करने लगे. गौरी बाबू बाहर वाले कमरे में बिछी हुई दरी पर ही लेट गये थे. बादल घिरे आ रहे थे. ठंडी-ठंडी हवा के झोंके लगे तो नींद गहरी हो गयी. बहुत देर बाद संजू ने आकर उन्हें जगाया- ‘दादा जी उठिये. आइये, आपको एक चीज दिखायें.’

     उठकर बाहर आ गये. अनोखी ताजगी लग रही थी. इस बीच मूसलाधार वर्षा हो चुकी थी. एक दिन पहले की उमस का नामोनिशान नहीं था. पेड़-पौधे धुलकर निखर गये थे. आकाश में अभी भी बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े उड़ रहे थे. ठंडी हवा के झोंकों से शरीर में सजगता आ रही थी पूरब में इंद्रधनुष निकल आया था.

     ‘देखिये, कितना अच्छा इंद्रधनुष निकला है. है ना?’

     खूब प्रसन्न होते हुए उन्होंने पोते को चूम लिया- ‘जरूर. बहुत सुंदर है! अब तुम इसके रंगों को गिनो. देखो कितने हैं. गिनकर बताओ तो?’

     संजू रंग गिनने लगा- ‘बैगनी, आसमानी… आसमानी ही है ना, दादाजी?’ नहीं फिर?…नीला? अच्छा, नीला के बाद आसमानी… उसके बाद हरा…फिर पीला…ओह! दादाजी, देखिये ना, वह तो मिटने लगा. कितना खराब है!’

     उन्होंने उत्सुकता से पूछा- ‘नहीं तो खराब क्यों होगा?’

     ‘अभी था, अभी खत्म! इंद्रधनुष बहुत खराब है. दो मिनट में खत्म!’ संजू ने मुंह बिसूरकर कहा.

     ‘नहीं मुन्ने,’ उन्होंने अपने पोते के कंधे को थपथपा दिया- ‘चांद-सूरज भी तो हमेशा हमारे सामने नहीं रहते. वे क्या खराब हैं. इंद्रधनुष मिट गया तो फिर उगेगा, कितने सुंदर रंग थे इसके… देखा?’

     लेकिन पोते के कंधे को जकड़ती हुई उनकी उंगलियां एकाएक कांपने लगीं. रात के सभी दृश्य एक-एक करके सामने आने लगे. लगा कि रात संजू-सा ही कोई उनके मन में हाहाकार कर रहा था.   

(अप्रैल 1971) 

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