आधे रास्ते (नौवीं क़िस्त)

‘भाई’-सम्बंधी एक भारी चिंता खड़ी होती जा रही थी. उसकी बहू बारह वर्ष की हो गयी थी, इसलिए उस समय के रिवाज़ के अनुसार थोड़े ही दिनों में उसे ससुराल बुलाने की ज़रूरत आ पड़ी थी. बहू के मां-बाप का घर सामने के ही मुहल्ले में था, इसलिए तापीबा रोज़ बहू को देखती और उसकी चिंता बढ़ जाती. बहू थी तो सुंदर, लेकिन कद बहुत छोटा था और उसके पढ़ाने की तो किसी को चिंता ही न थी. संस्कारी ससुराल  में जिस प्रकार की रीति-नीति चलती थी उस प्रकार की रीति-नीति उसे कोई सिखाता नहीं था. ‘भाई’ बड़ी-बड़ी विद्वान त्रियों की बातें करता था और बहू की ओर से उसे अधिकाधिक अरुचि होती जाती थी. क्या होगा? क्या यह बहू घर सम्भाल सकेगी? ‘भाई’ का क्या होगा?

मां ने बहू को घर रखकर पढ़ाने का निश्चय किया, जिससे कि ‘भाई’ को वह पसंद आ जाय. लेकिन यह बात जानकर उसके पीहरवाले गुस्सा हो गये. ‘बहू’ ससुराल में अपने पति के साथ रहने तो अवश्य आ सकती है, पर सास की गुलामी सहने के लिए कौन आकर रह सकता है? पढ़ी-लिखी बहू चाहिए थी तो लेने क्यों आये थे?’ उन्होंने जवाब दिया.

पीहरवालों को रुखीबा उकसाती- ‘इस चिमन मुनशी की लड़की को मैं जानती हूं. तुम्हारी लड़की की ज़िंदगी ज़रूर खराब करेगी.’

इस कारण तापीबा के लिए ‘भाई’ को मनाने का काम बड़ा मुश्किल हो गया. बहू के विषय में ‘भाई’ के विचार नाटकीय थे. उसे तो ऐसी बहू चाहिए थी, जो साथ गाती, बजाती और अंग्रेज़ी में बातें करती. उसे मिली उससे बिलकुल दूसरे ढंग की बहू, इसलिए ‘भाई’ बहुत ही व्यथित रहता. ‘बहू अपढ़ है, मूर्ख है, उसकी मां ने उसके दांतों में मिस्सी लगा दी है, इसलिए मैं उसे नहीं बुलाऊंगा.’ इस प्रकार की बातें वह करता. बहुत बार तो ‘भाई’ बेचारा दुखी होकर आंसू तक बहाता. इस संकट का सामना करने के लिए तापीबा दृढ़ता से तैयार हुई. उसने बहू को बुलाया और अपने पास रखा. पीहरवाले तीन-पांच करने लगे. उसने उसका वहां जाना बंद कर दिया. रुखीबा उसे फुसलाकर उससे घर की बातें निकलवाने का प्रयास करने लगी तो मां ने रुखीबा के साथ भी उसका बोलना-चालना बंद कर दिया.

अंजता के स्रष्टा किसी बौद्ध भिक्षु की-सी कला-कुशलता से वह कठिन और बेड़ौल पत्थर में से सजीव और संस्कारी बहू की मूर्ति गढ़ने लगीं- ऐसी मूर्ति जिसे वह स्वयं अपने बालमुकुंद को गर्व से भेंट कर सके.

अपनी बुद्धि के गर्व में चूर और अपनी विकसित उमंगों और कल्पनाओं से घिरा हुआ बेटा मां को बराबर दोष देता रहा.

अप्रैल 1904 से एक वर्ष तक तापीबा ने अथक प्रयास किया. तापीबा छोटी-सी बहू को बोलना और बैठना, चोटी करना और मांग भरना, खाना बनाना और बर्तन मांजना, पढ़ना और लिखना, ये सभी कलाएं सिखाने लगी. लेकिन बचपन के संस्कारों का बदलना पत्थर की मूर्ति बनाने से भी अधिक कठिन हो गया. जब उस बेचारी नासमझ लड़की के मुख से कोई असंस्कारी बात निकल जाती तो मां को घोर दुख होता, बुरा लगता और उसकी हिम्मत टूट जाती. उसके बाद वह ‘तारा’ का नाम लेकर रोती और ‘भाई’ के जीवन का क्या होगा इस विचार से फिर बहू को गढ़ने बैठती.

‘भाई’ भी बड़ा जिद्दी था. वह संसारी होने के लिए तैयार ही नहीं था. इस प्रकार तो वह प्रतिष्ठा खो देगा, दुखी होगा और दुराचारी बनेगा. बेटे को बचाने की ज़रूरत थी. तापीबा ने इसके लिए अपनी समस्त समझाने की शक्ति और अगाध प्रेम के दबाव का उपयोग किया.

परिणामस्वरूप 6-2-1905 को पुत्र डायरी में अपने हृदय की बात लिखता है-

‘त्री का घर आना ज़रूरी है, लेकिन मेरा जीवन कैसे चलेगा? इसका परिणाम  क्या होगा? मेरी त्री कैसी निकलेगी? मेरे विचार विचित्र हैं, फिर मैं कैसे अपने जीवन को सुख से बिता सकूंगा?’

उसके बाद डायरी में संकल्प का उल्लेख होता है-

‘जिस लड़की को मैं स्वीकार करने जा रहा हूं वह यदि तनिक भी मेरी धारणा के अनुकूल न निकली तो मैं अपने ऊपर अत्याचार करके भी अपने जीवन को सीधी तरह चला ले जाऊंगा.’

इस प्रकार तापीबा ने अपने लाड़ले बेटे पर विजय पायी.

यह संक्रांति काल की कथा है.  यदि वर्षों तक इसका शिकार न बना होता तो इसको और भी अच्छी तरह लिख सकता. इस समय लक्ष्मी के- मैं अतिलक्ष्मी को लक्ष्मी कहता था- पिता के घर को नये संस्कारों ने तनिक स्पर्श नहीं किया था. लक्ष्मी का कद बहुत छोटा था, इसलिए सब उसे निर्जीव समझते थे. तेरह वर्ष की होने पर भी वह केवल आठ वर्ष की लगती थी. जब वह तीन-चार वर्ष की थी तब उसकी सगाई हुई और आठवें वर्ष में उसका ब्याह हो गया. वह ऊंचे कुल की थी और टीले के मुनशी के साथ उसका सम्बंध हुआ था. जिसे सब ‘कनु भाई’ कहते थे वह उसका पति था और बड़ौदे में पढ़ता था.

पति जब भड़ौंच आता तो वह उसे किवाड़ों की ओट से, दावत में या ससुराल जाने पर जी भरकर देखती. ससुराल में पति जिस थाली में खाता उसी में पीछे स्वयं खाती और उसकी पत्नी होने के लिए सदा तैयार रहती. उसकी सहेलियां उससे ईर्ष्या करती थीं, क्योंकि उसका पति जाति में बहुत ही अच्छा समझा जाता था.

उसे सास का बड़ा डर लगता. तापी बाई मुन्शिन को जाति के कितने ही मखौल उड़ाने वाले ‘मर्द’ कहते. कारण, वह चश्मा लगाती और पुरुषों की भांति हिसाब रखती. ‘तेल-मिर्च खाने से तुझे हमेशा खांसी हो जाती है,’ कहकर वह चटपटी चीज़ें भी न खाने देती. बिना तेल-मिर्च के खाना कैसे अच्छा लगे? सास नहाते वक्त साबुन भी न लगाने दे. साबुन लगाने से क्या कोई गोरा हुआ है? उसके सामने कुछ बोला भी न जाता. जब वह बोलती तो हम उसके सामने मूर्ख लगते. सब तू-तू मैं-मैं करते, खींचातानी करते, हल्ला-गुल्ला करते. इसमें बुरा भी क्या है? लेकिन सास कभी उंचे स्वर से बोलती नहीं और यदि हमसे वैसा हो जाता तो वह चुप हो जाती और झट उसे बुरा लग जाता.

भार्गवों की सभी लड़कियां बारहवें वर्ष ससुराल जाती हैं, लेकिन सास ने उसे तो बहुत दिन तक बुलाया ही नहीं. इससे सहेलियों के सामने उसे बुरा लगने लगा.

एक बार सास ने कहा- ‘दांतों में मिस्सी मत लगाना. तेरे पति को अच्छा नहीं लगता.’

‘ऐसा कहीं होता है,’ कहकर उसकी मां ने दांतों में मिस्सी लगवा दी.

दूसरे दिन उसे ससुराल बुलाया गया. सास ने कहा- ‘तीसरी मंजिल पर जा, ‘भाई’ बुलाता है.’ बहू के होश उड़ गये. ऊपर गयी तो देखा कि बड़े पलंग के पास वे खड़े हैं. उनके मुख से प्रकट था कि वे बहुत गुस्से में हैं.

‘तुझसे मां ने कहा था कि दांतों में मिस्सी मत लगाना?’

बहू से जवाब न दिया गया. ‘तो क्यों लगायी?’ उन्होंने भयंकर आवाज़ से पूछा. बहू कांपने लगी.

‘मेरी मां ने कहा था.’ बहू बोली.

‘तुझे इस घर में रहना है तो मेरा कहना मानना पड़ेगा,’ ‘उन्होंने’ गर्जना की. ‘जा, और कल से यहीं मां के पास रह. जा, दांत अभी साफ़ कर डाल और खबरदार, मां के बिना कहे पीहर में पैर रखा तो! जा.’

बहू आज्ञा सुनकर सास के पास लौटी. न दांतों में मिस्सी लगवानी न पीहर जाना! नीचे सास के पास पहुंची तो उसकी आंखों से टप-टप आंसू गिर रहे थे.

सास ने उसे बहुत सांत्वना दी. ससुराल में रहने के कायदे बताये और कहा- ‘देख, कल से स्लेट और पेन्सिल मंगा दूंगी. दांत भी साफ़ करा दूंगी. तू थोड़े ही दिन में खूब होशियार हो जायगी.’

छोटी-सी नासमझ बहू के दिमाग में भी एक बात शीशे की तरह साफ़ थी और वह यह कि- ‘उसका ‘पति’ जो कुछ कहता है सो सही है.’

दूसरे दिन से वह सास के पास आकर रही. मां-बाप का घर छोड़ा. रुखीबा के साथ बात न करने की कसम खायी और हाथ में स्लेट-पेन्सिल ली.

बारह महीने तक वह दिन-रात सास के पास रही. उन्होंने जो कुछ कहा उसे उसने आंखों से आंसू बहाते हुए भी बराबर किया. उसे इस सास के प्रति आकर्षण होने लगा. वह उसके आकर्षण में फंस गयी. उसने अपने समस्त जीवन में इतना प्रेम करनेवाला और अपनी इतनी चिंता रखनेवाला व्यक्ति नहीं देखा था. सास ने बहू को सब-कुछ सिखा दिया- ‘भाई, क्या खाता है, उसकी व्यवस्था कैसे करनी चाहिए, उसे क्या-क्या चीज़ें पसंद हैं, उसका बिस्तर कैसे बिछाना चाहिए.  बहुत दिन तक सास घंटों ‘भाई’ की बातें करती और बहू उनको ध्यानपूर्वक सुनती.

लक्ष्मी में आर्य त्री की जो विशेषताएं अस्पष्ट थीं उनको सास ने स्पष्ट कर दिया. इस अनुभवी सास ने एक अपनी इस बहू के लिए एक मंत्र लिखा-

पतिव्रता का धर्म पालकर आज्ञा शीश चढ़ाना।

प्रेम पूर्ण कर ससुरालय को, करके काम दिखाना।।

मनसा, वाचा और कर्मणा जीवन शुद्ध बनाना।

अध्यवसाय वृत्ति धारण कर, निज उत्साह बढ़ाना।।

सभी सद्गुणों का संग्रह कर, हर्ष हृदय में भरना।

अर्द्ध अंग पति का शोभित कर, कुल को दीपित करना।।

बन विशालहृदया तुम अपना शुभ प्रभाव दिखलाना।

पिला और पी स्वयं प्रेमरस, शोभित जगत बनाना।।

लोभ, मोह को त्याग हृदय से तुम अभिमान हटाना।

विनयशीलता से सुंदरतम ऊंचे पद को पाना।।

पहले पचास वर्ष में तापीबा का जीवन-मंत्र यही था.

सरदी गयी और गरमी आयी. ‘वे’ कॉलेज से घर आये. आज वह अपने पति से मिलने वाली थी. वे क्या कहेंगे? नाराज होंगे? उसकी बहुत-सी सहेलियों पर मार पड़ती थी; क्या वे मारेंगे?

21 अप्रैल की रात थी. आखिरकार उसके पति उससे मिलेंगे. उसका हृदय हर्षित था, साथ ही भय से कांप भी रहा था. वह धीरे-धीरे तीसरी मंजिल पर गयी. ‘वे’ झूले पर बैठे थे.

‘आ, बैठ.’ उन्होंने बिना हंसे ही कहा.

वह घबराती हुई उनके पास जाकर बैठी.

‘तुझे पढ़ना आता है?’

‘जी. दूसरी पुस्तक पढ़ती हूं.’ और उसका नन्हा-सा दिल घबरा गया. क्या उसने अपमान किया था? उसके पति के होठ कांप रहे थे. यह क्या? वे एकदम रो पड़े. हाय भगवान, क्या हुआ? ‘घबरा मत, मेरी तबीयत ठीक नहीं है.’ उन्होंने रोते-रोते कहा और उसके कंधे पर सिर रख दिया.

उसकी किसी सहेली ने तो उसे यह बात नहीं बतायी थी कि पति मिलते समय रो देता है.

जीजी मां सदैव मेरे लिए जान देने को तैयार रहतीं. फरवरी से मैंने उनकी आज्ञा-पालन करने का निश्चय किया था. मां और जिस लड़की के जीवन का मैं आधार था उसे दुखी करने में मुझे पाप दिखाई देने लगा. दिन-रात मेरा जीव उचाट रहने लगा. मन को स्वस्थ करने के लिए मैं पढ़ा या लिखा करता, लेकिन मन को किसी प्रकार भी शांति न मिलती.

शृंगार के  गीतों द्वारा मैं एक विचित्र प्रकार के काल्पनिक जीवन के प्रति आकर्षित हो गया था. नायिका के गीत को मैं इस प्रकार गाता जैसे देवी मुझे ही लक्ष्य करके गा रही है और नायक के गीत को मैं इस प्रकार गाता जैसे मैं अपनी देवी को सुना रहा होऊं. दुनिया समझती थी कि मैं केवल गीत गा रहा हूं, लेकिन वास्तव में देखा जाय तो मैं अपनी प्रियतमा के साथ बातचीत करता था. वह देवी थी- वर्षों पहले साथ खेली हुई लड़की पर अपूर्व रूप और गुण का आरोप कर मेरी कल्पना ने उसे सलज्ज और सुकुमार नवोढ़ा बना दिया था. कितनी ही अपनी प्रिय अंग्रेज़ी कहानियों की नायिकाओं को तो मैंने उस सुंदरी की तस्वीर-भर माना था. कितने ही वर्ष तक मेरी दशा मीरा-जैसी हो गयी थी, इसलिए रसिक और शृंगारी होते हुए भी मुझमें वास्तविक त्री के प्रति आकर्षण नहीं था.

बुद्धि में बड़े होने का मेरा अभिमान कम न था. सोलहवें वर्ष में तो मैंने तत्वज्ञान पढ़ना शुरू कर दिया था. सत्रहवें वर्ष की समाप्ति पर तो मैं जर्मन तत्त्ववेत्ता कान्ट का ‘शुद्ध प्रमाण का पृथक्करण’ समझने की कोशिश कर रहा था. जो लोग मंद बुद्धि थे उन्हें मैं उपेक्षा की दृष्टि से देखता था. पाश्चात्य विचारों के प्रभाव से मैं पूर्ण रूप से आत्मकेंद्रित बन गया था. मुझे किसकी परवाह थी? मुझे कहां किसी के साथ शंका समाधान करना था? किसलिए करता? मुझे तो केवल अपने बुद्धिबल द्वारा ही जगत को जीतना शेष था. उमंग, लगन और अभिमान में खोया हुआ मैं उस समय त्री के सम्बंध में कुछ निर्णय करने योग्य न था. लेकिन जीजी मां के अद्भुत प्रेम के वश होकर मैंने इस निर्णय को स्वीकार किया था.

इस प्रतिज्ञा को पालन करते हुए मेरे प्राण घुटे जाते थे, लेकिन इसमें किसी का दोष न था. यह बात समझने की मुझमें शक्ति न थी कि हम सब संक्रांति काल के शिकार हैं. मैं कल्पनाशील और साथ ही ‘को।़न्योस्ति सदृशो मया’ के गर्ववाला था. मैं तो ऐसी सहचरी के लिए बेचैन था जो मेरे साथ प्रेम-प्रसंग पर वाद-विवाद कर सके और कान्ट तथा स्पेन्सर पढ़ सके. …और मुझे मिली थी लक्ष्मी. जो बिल्कुल बालक थी- शरीर में, बुद्धि में और विकास में.

मै हताश हो गया. मेरा हृदय सदैव रोता रहने लगा. मैंने मरने का निश्चय किया. 22 अप्रैल के पहले की तारीख की डायरी में मैंने अपना हृदय उंड़ेल दिया. पीछे बुद्धिमानी करके उसके कुछ पन्ने फाड़ दिये. 21-4-1905 की डायरी में से केवल ये पंक्तियां रहने दीं-

‘कल वह यहां रहने आयी. मां ने अपनी बात की. मैं अब अपनी बात करूंगा. …वह तो बहुत ही, बहुत ही बच्चा है. मुझे लगता है जैसे मैं किसी छोटे बच्चे के साथ बंधा हुआ हूं.’

लक्ष्मी निर्दोष, अज्ञानी और श्रद्धालु थी. उसकी आंखों में सदा ही भक्ति तैरती रहती थी. वह तो केवल मेरी कृपा की दीन भिखारिन थी. उसके साथ क्रूरता का व्यवहार करना मेरे लिए कठिन हो गया. इसलिए मैं अपने ही प्रति कठोर हो गया.

जब लक्ष्मी पास न होती तो मैं अकेला क्रंदन करता रहता और कागज़ पर तड़पते शब्दों में अपनी क्षुद्रता और अपना दुःख व्यक्त किया करता. इस प्रकार क्रंदन करते-करते मेरी नींद जाती रही.

पंद्रह दिन तक डायरी भी न लिखी जा सकी. इस पक्ष की वेदना मैंने 6-5-1905 को लिखी-

‘…मैं सतत वेदना और प्राणघातक दुःख का अनुभव करता हूं. मेरे अध्ययन, मेरी विशेषताओं और मेरे रंगमंच के प्रति प्रेम ने मुझे बिगाड़ दिया है. मैंने बड़े ऊंचे आदर्श स्थिर किये. मैंने अपनी आशाओं को ‘एवरेस्ट’ तक पहुंचाया. मैं स्वप्न ही देखता रहा- ऐसे जो किसी ने न देखे हों. ‘जगतसिंह’ और ‘संसारी’ सावित्री नामक नाटकों की नायिकाएं. तिलोत्तमा और सावित्री मेरे आदर्श थे. मैंने तो सुंदर बातें करने वाली और साथ-ही-साथ गम्भीर विचारशील और संस्कारी पत्नी चाही थी, लेकिन वह आशा पूरी न हुई. सदा को कुचल गयी…’

बाद में लिखे पन्ने फाड़ डाले और अंत में लिखा-

‘मैं कैसा मूर्ख और दुर्बल हो गया हूं. मैं दुःखी होकर घर आया. मां और बहन के आगे रो पड़ा- उसी प्रकार जैसे रोज एकांत में रोता था. मेरे भग्न-हृदय को कौन जानेगा?

‘और किसी के लिए नहीं तो मुझे अपनी मां के लिए तो जीवित रहना ही है.’

9 जून को गरमी की छुट्टियां समाप्त हुयी और कॉलेज जाने को तैयार हुआ. उस समय मैंने डायरी में लिखा-

‘ऐसी बुरी छुट्टियां मैंने कभी नहीं बितायी. मेरा तो दिल टूट गया है. मेरा सुख नष्ट हो गया है. आनंदमय संसार पर अंधकार छा गया है. मैं कब सुखी हूंगा- कब? रात-दिन की यह दारुण वेदना कब शांत होगी?’

और कॉलेज में आने पर भी यह दुःख कम नहीं हुआ.

मेरे छोटे और सुकुमार शरीर में भारी चिंता व्याप्त थी. इस अशांति से मैंने मरने का निश्चय किया. परंतु यह भी संकल्प कर लिया कि यदि मरूंगा तो परिश्रम करके ही मरूंगा. मानसिक अशांति के कारण मुझे रात को नींद नहीं आती थी, इसलिए मैं निरंतर पढ़ता ही रहता था.

1905 में प्रोफेसर और सहपाठी सब मेरा महत्त्व स्वीकार करने लगे. वादविवाद सभा में भी मेरा स्थान सबसे पहले आता था.

इस साल तत्त्वज्ञान के अध्ययन के बाद मैंने ‘फ्रांस की राज्यक्रांति’ का गम्भीरता से मनन किया. उस समय जो सिद्धांत प्रचलित थे उन्होंने मुझे मुग्ध कर लिया. ह्यूगो की रचनाएं भी मैंने पढ़ डालीं. ड्यूमा की तो एक-एक रचना कई-कई बार पढ़ी. उस समय की मेरी डायरी में यह भी लिखा है कि मैं वर्ड्सवर्थ, बायरन, शेली और टेनीसन के सभी काव्य-ग्रंथों को पढ़ गया.

मैं 1904 से नये छात्रालय के बीसवें कमरे में रहता था. प्राणलाल भाई और एक मित्र उन्नीसवें कमरे में रहते थे. 1905 के जून के महीने में गणित का फेलो सुपरिन्टेन्डेन्ट बना. उसने मुझे बीसवें कमरे से दूसरे में जाने के लिए कहा. उसे स्वयं इसमें रहना था. मैंने मना कर दिया. उसने मेरा सामान बाहर रखवा दिया. मैंने दूसरे कमरे में जाने के लिए मना कर दिया. तीन दिन सामान बाहर के चबूतरे पर ही पड़ा रहा. प्रोफेसर आते बीच में पड़े और उन्होंने निर्णय किया कि इस वर्ष बीसवें कमरे में छह महीने तक फेलो रहेगा और शेष बचे हुए कमरों में से जो मुझे पसंद हो, उसमें मैं रह सकता हूं. साथ ही यह भी तय हुआ कि 1906 में मुझे मेरा कमरा वापस मिल जायगा. विवश होकर मैंने इसी मंज़िल का चौदहवां कमरा ले लिया. लेकिन न मैंने उसमें सामान रखा और न पढ़ने या सोने गया. अपना सामान और कपड़े मैंने प्राणलाल भाई के कमरे में रख दिये. सोने की खाट भी इस कमरे के बरामदे में रखी और जहां मन आया पढ़ता रहा. उन्नीसवें कमरे में रह कर मैंने उसे खूब परेशान किया. वह एल. एल. बी. प्रीवियस में पढ़ता था. मैंने उसके पढ़ने में बड़ी बाधाएं डालीं. उसे बीसवां कमरा फला नहीं.

1906 में अपने कमरे के वापस मिलने तक न तो मैं ही छात्रालय में चैन से बैठा और न फेलो को ही बैठने दिया.

हम 17 दिसम्बर 1905 को बड़ौदा कैम्प में दराशा के यहां एकत्रित हुए थे. उस समय हमने जिन-जिन विषयों की चर्चा की उसका उल्लेख मैंने डायरी में किया था. वे विषय थे- पारसियों की सामाजिक स्थिति, गायकवाड़ी शासन में किसानों की स्थिति, बहिष्कार नीति, भारत की विशिष्टता, ईश्वर और त्री-समानता. हमारी चर्चाएं रात-दिन चलती रहतीं और उनमें गरमा-गरमी भी खूब होती.

‘ईश्वर’ मेरा प्रिय विषय बन गया था. कारण, मैं नास्तिकता और भौतिकवाद में विश्वास करने लगा था. फ्रांस की राज्यक्रांति  के समय की विचारधारा ने मुझे मुग्ध बना रखा था. मैं मिराबो, रोब्सपियर, दांते और नेपोलियन- इन चारों के पराक्रमों का चिंतन और मनन करता रहता था. पहले मैं जितना धार्मिक था उतना ही अब पाश्चात्य विचारों का विश्वासी हो गया था. इन विचारों की धुन में मैंने जनेऊ और चोटी भी त्याग दिये थे.

1905 में अपनी जन्म तिथि के समय मैंने इस समय की अपनी स्थिति के सम्बंध में लिखा था-

‘मैं अठारह वर्ष का हो गया. उनमें छः महीने तो मैं शोक से ही पीछा न छुड़ा सका. अब तक मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे मुझे कलंक लगे. भविष्य में भी मैं इसी ढंग से रहना चाहता हूं. यद्यपि मेरे भाग्य में बहुत थोड़े दिन जीना लिखा है फिर भी इस थोड़े समय में मैं अपने लिए, अपने देश के लिए और अपने देशवासियों के लिए कोई ऐसा कार्य कर जाना चाहता हूं जो युग-युग तक अमर रहे.’ …materialist, ultra-reformist, ardent congressman in my eighteenth year.

Materialist- भौतिकवादी! संशय जिनका प्राण है, ऐसे पाश्चात्य विचारों में मैं फंस गया. राष्ट्रीयता की तो टूटी-फूटी तूंबड़ी ही मेरे हाथ में थी.

उद्वेग, अशांति और इस मान्यता के होते हुए भी कि मैं मर जाने वाला हूं, मेरे भीतर से जीने और विजयी होने का आत्म-विश्वास नहीं गया था.

1906 में मैंने एलफिन्स्टन कॉलेज में जाने का विचार किया लेकिन किसी भी प्रकार से मेरे लिए बीस रुपया मासिक से अधिक की व्यवस्था नहीं हो सकती थी, इसलिए मैं खिन्न हृदय से सीनियर अंतिम वर्ष पूरा करने के लिए बड़ौदा आया.

इस समय मुझे जो दुःख होता था, उसकी अग्नि में जलते-जलते मैंने अनेक प्रकार की नयी-नयी बातें करना शुरू किया. रोज रात को बेचैनी के कारण दरी पर सोना शुरू किया. थकान लाने के लिए यथाशक्ति टेनिस खेला. नींद न आने पर घास में पड़े-पड़े ग्रह और तारे देखने लगा. मैं क्लास में केवल हाज़िरी देने जाता था; बाकी के वक्त में पढ़ता रहता था. मैं अपने दर्शन के अध्यापक पुरोहित की क्लास में नहीं जाता था तो भी दार्शनिक गुत्थियां सुलझाने के लिए उनके घर जाता था. इस बीच मैंने ‘अंग्रेज़ी साहित्य का दिग्दर्शन’ का भी अध्ययन किया.

जनवरी में रानाडे की कृतियां पढ़ीं. तारीख 21 को मैंने लिखा-

‘रानाडे अपने युग के प्रतिनिधि थे. वह  युग संक्रांति का था. नये भारत को उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मार्ग बताया. आज भी भारत उसी पथ पर चला जा रहा है. यह रानाडे की महत्ता का सूचक है.’

भारत में राजनीतिक परिवर्तन हो रहा था. उस समय की परिस्थिति और घटनाओं का मेरे ऊपर क्या प्रभाव पड़ा, इसका चित्रण मैंने ‘स्वप्नद्रष्टा’ में किया है. इस समय की एक-दो घटनाएं ऐसी हैं, जो भुलायी नहीं जा सकतीं.

मोहनलाल पंडय़ा पर अरविंद घोष का अत्यधिक प्रभाव था. इसके परिणामस्वरूप उसने मुझसे एक क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होने की बात कही. हम इटली के दृष्टांत के आधार पर यह मानने लग गये थे कि ‘कार्बानारी’ जैसे गुप्त दलों के बिना स्वतंत्रता नहीं मिल सकती. एक बार अरविंद घोष के भाई से भी मिला और उनके ज्वलंत व्यक्तित्व का मेरे ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा. बम बनाने की योजना का विवरण भी मैंने देखा.

एक छुट्टी के दिन हमें कर्जन कॉलेज के रसायन-विभाग के कमरे में मिलना था. एक मित्र चाहे जब इस कमरे का ताला खोल सकता था. उस दिन वहां बम बनाने का प्रयोग होनेवाला था.

गुप्त रूप से मिलना, बिना ताली के ताला खोलना, चोरी से छिपकर बम बनाना- ये सब बातें मुझे अच्छी नहीं लगीं. हो सकता है, इन बातों के लिए वांछित साहस मुझमें न हो. हो सकता है, किसी भी बात को गुप्त न रखने की स्वाभाविक कमज़ोरी मुझमें हो. उस दिन मैं प्रयोगशाला में देर से गया, इसलिए वह बंद थी. बाद में मुझे पता चला कि प्रयोग के आरम्भ में ही शीशे की किसी वस्तु के टूटने से एक मित्र को सख्त चोट आयी और प्रयोग स्थगित रहा.

इसके बाद मोहन पंड्या ने मुझे एक-दो बार व्यक्तिगत रूप से मिलने को बुलाया. लेकिन मैं गया नहीं. मुझे लगा कि मुझमें सशत्र क्रांतिकारी होने की शक्ति नहीं है.

मैंने संकल्प किया था कि मैं गहरे पानी में न उतरूंगा, तो भी मेरा राष्ट्रीयता का अध्ययन जारी था. जो विद्यार्थी यह समझते थे कि गायकवाड़ सरकार भारतीय स्वतंत्रता के लिए विक्टर इमेन्युअल बनेगी, उनमें से एक मैं भी था. जापान, चीन और भारत तीनों मिलकर एक स्वतंत्र देश कैसे बन सकते हैं, इसकी एक योजना भी मैंने बनायी थी. मैंने उसके लिए जापान का इतिहास पढ़ा था तथा ‘जापान और जापानी’ विषय पर एक विस्तृत निबंध भी लिखा था.

इसके बाद अरविंद घोष छुट्टी लेकर कलकत्ते गये. वहां जाकर वे राष्ट्रीय-आंदोलन में कूद पड़े, ‘वंदेमातरम्’ के सम्पादक हो गये. इस विषय का उल्लेख मैंने ‘स्वप्नद्रष्टा’ में किया है. ‘वंदेमातरम्’ के  लेख पढ़-पढ़कर मैं बल्लियों उछलता था. अरविंद घोष ने फरवरी 1906 में जो भाषण दिया था, उसकी प्रतिध्वनि मेरे हृदय में बहुत दिनों तक गूंजती रही. अपनी डायरी में मैंने 15-2-1946 को इस विषय में लिखा था-

‘अरविंद घोष का भाषण सुना. भारत का उद्धार अपने ही हाथों में है. आत्म-विश्वास रखो. अपना उद्धार स्वयं ही करो. तुम यदि जीते हो तो भी अपने लिए. जिस क्षण तुम स्वाधीन होने का संकल्प करोगे उसी समय तुम्हारा ध्येय पूर्ण हो जाएगा.’

यह स्वर्गिक संदेश मेरे लिए नया था; वसंत ऋतु की प्रथम मादक लहर की भांति जीवन को नव-किसलय-युक्त कर दिया.

जब अरविंद घोष पहले थोड़े दिन के लिए प्रिंसिपल थे तब मैं उनके सम्पर्क में आया था. लेकिन इस समय मैं और मेरा एक मित्र उनसे मिलने गये. जो प्रश्न मैं पूछना चाहता था उसे मैंने डरते-डरते उनके सामने रखा-‘राष्ट्रीयता कैसे आ सकती है?’

वे मंद और मधुर हंसी हंसे और दीवार पर टंगे भारत के मानचित्र की ओर संकेत करते हुए बोले-

‘वह नक्शा देखा? भारत माता का चित्र इस नक्शे में देखो. उसके शहर और पर्वत, उसकी नदियां और जंगल-यह उसका स्थूल शरीर है. उसके सभी निवासी उसके छोटे बड़े तंतु हैं. उसका साहित्य उसकी स्मृति और वाणी है. उसकी चेतना उसका जीवन है. उसकी सांस्कृतिक भावना उसका प्राण है. उसका स्वातंत्र्य और सुख उसका मोक्ष है. इस प्रकार भारत का जीवित माता के रूप में ध्यान करो और उसे नवधा भक्ति से भजो.’

मैं निराश हो गया क्योंकि मैं समझता था कि वे राष्ट्रीयता का अध्ययन करने के लिए पुस्तकों के नाम लिखायेंगे.

‘लेकिन उसका ध्यान कैसे किया जाए?’

‘तूने विवेकानंद की कृतियां पढ़ी हैं?’ उन्होंने प्रश्न किया. मैंने नकारात्मक उत्तर दिया.

‘उन्होंने योग पर लिखा है, उसे पढ़ना, ध्यान से, समझ में आ जाएगा.’

इस बात से मुझे असंतोष रहा फिर भी मैं विवेकानंद दी कृतियां पढ़ने लगा.

इन कृतियों को पढ़ते समय मुझे प्रथम बार भगवान पातंजलि का परिचय मिला. मैंने बड़ी मुश्किल से स्वर्गीय मणिलाल नथुभाई द्वारा पांतजलि के कुछ सूत्रों पर लिखी हुई पुस्तक प्राप्त की और उससे सर मारने लगा.

मेरे पास का वह ‘योगसूत्र’ आज पुराना हो गया है. मैंने उसके ऊपर पट्ठे-पर-पट्ठे चढ़ाये हैं. मैंने उसे सैकड़ों बार बिना समझे या उलटा समझे पढ़ा है. आज भी मैं उसके तीसरे और चौथे पद को समझने में असमर्थ हूं. इतना होने पर भी मैंने उसे बड़ौदा कॉलेज की छत पर पढ़ा, बम्बई में कांदेवाडी से रिज रोड तक पढ़ा और नासिक तथा बीजापुर जेल में पढ़ा. यरवदा जेल में एक वृक्ष के नीचे योग की अर्वाचीन मूर्ति के समान जिन गांधीजी ने 1932 में अपने योगबल से हिंदू धर्म और समाज की एकता का विधान किया था उन्हीं के सामने जब मैं यह लिख रहा हूं तो भी वह सामने पड़ा है. इस प्रकार पातंजलि मेरे जीवन का साथी है- दुःख में, सुख में, अकेले बन में और समूह में, मेरी रक्षा करता हुआ, मुझे डूबने से बचाता हुआ, मुझे प्रेरणा देता हुआ और ऊंचा उठाता हुआ.

जबकि उसका मुझे प्रथम परिचय हुआ उस समय शायद मैंने उसमें से कुछ समझा हो, लेकिन मेरे लिए तो वह पर्याप्त था. भगवान पातंजलि के सम्पर्क से मेरे पाश्चात्य संस्कारों के आवरण का हटना शुरू हो गया.

नानाभाई 1906 में छात्रालय में आया. हम लोगों की उम्र में गगज्यादा फ़र्क न था.

इस बीच मेरी उद्विग्नता अधिक बढ़ गयी थी. मुझे लगा जैसे मैंने संसार बसाकर ‘देवी’ के प्रति विश्वासघात किया है. मैंने डाह्याभाई घोलशाजी का ‘उदयभान’ नाटक अनेक बार देखा था और उसके गीत मेरी जिह्वा पर थे-

स्वर्ण जटित अति सुंदरयान, ऊंचे-ऊंचे भवन महान,

फिर भी सुखी नहीं संसार!

नीड़ बना है किंतु नहीं है उसका विहग निवासी।

मोर बिना इस हरे आम पर छाई घोर उदासी।।

ऐसे नीड़ और आमों पर रहना क्या रहना है?

ये मेरे ही मन के प्रश्न थे. जीऊं? किसलिए? किसके लिए? दिन में कालेज की छत पर और रात को घास पर टहलते हुए मैं ये प्रश्न अपने आपसे पूछा करता था.

डुमस और सचीन की स्मृतियां मुझे नये रूप में घेरने लगीं. ‘देवी’ कल्पना में सजीव, होकर मुझे मेरी आवाज़ में कहने लगी-

मुझे तड़पती छोड़ न जाना ओ मेरे निर्मोही।

ओ पागल, अलबेले मेरे मन के मीत बटोही।

इस अलबेले के कोमल प्राणों के तुम आधार हो।

मैं सदा इस गीत को गाया करता और अपने को विश्वासघाती प्रेमी के रूप में धिक्कारता रहता.

इसी नाटक का एक दूसरा गीत था. उसे भी मैं दयनीय होकर गाया करता और मेरी आंखों से आंसुओं की झड़ी लगी रहती-

पंथ न सूझे प्रियतम प्यारे

बरसे आंसू धारा रे.

भरे विश्व में नाथ अकेली

आज मृत्यु ही एक सहेली

मन की मन में ही ही रह जाती

बिना खिले कलिका मुरझाती

आशा के पूरे होने का

कोई नहीं सहारा रे।

भग्न हृदय और कंपित स्वर में मैं डुमस की स्मृतियों को सजीव कर उठता-

वन-उपवन में भूल पड़ा मैं,

पिया सुधा का प्याला रे।

पिया, लिया सब सार सृष्टि का,

कठिन अमर प्रण पाला रे।।

करता है उपहास जगत सब,

मुझे समझता पागल रे।

मैं पागल या यह जग पागल,

मेरे मन में हलचल रे।

उमंगों के आवेश से उत्तेजित कल्पना में सजीव होकर ‘देवी’ मेरी प्रतीक्षा में व्याकुल रहने लगी और मुझे दिन-रात बुलाने लगी.

इस असह्य वेदना के कारण मैंने अपनी जीवन-लीला समाप्त करने का निश्चय किया. मैं बाज़ार से आयोडीन की शीशी ले आया और छिपाकर रख ली. अंतिम पत्र भी लिख लिया. इतने में ही मुझे ज़ोर का बुखार आ गया और मैंने बुखार की तेज़ी में मन में घुमड़ती अनेक बातें बक डालीं. नानाभाई मेरी तीमारदारी करता था. उसे शक हुआ. मेरा अंतिम पत्र और आयोडीन की शीशी उसके हाथ पड़ गये. उसने शीशी फेंक दी. बुखार उतरने के बाद उसने मुझसे बातें की और मुझसे वचन ले लिया कि अब कभी मैं अपनी जान को खतरे में न डालूंगा. मैं व्यथित था, इसलिए मैंने आरम्भ से लेकर अंत तक अपनी पूरी दुःख-गाथा उसे सुना डाली. दुःख-गाथा ही नहीं, अपनी स्मृतियां, मनोरथ और मन में उठने वाली उमंगों को भी कह डाला.

नानाभाई की मां मर गयी थी और उसका वियोग उसे छोटे बच्चे की तरह दुःख देता था. उसने भी अपना दुःख मुझसे कहा. हम दोनों दुखी प्राणी आंसू बहाते हुए एक-दूसरे को आश्वासन देने लगे.

मैंने उसे वचन दे दिया था कि मैं अब फिर कभी आत्महत्या करने का प्रयत्न नहीं करूंगा. मेरे दुःख को बंटानेवाला एक साथी मिल गया था, इसलिए मेरी उद्विग्नता कम हो गयी. तब से मेरी अतृप्त कामना काल्पनिक सहचरी को लेकर ही संतुष्ट रहने लगी. इस प्रकार मैं काल्पनिक कृष्णा को वरनेवाली मीरा जैसा हो गया. उस समय की डायरी मेरी मानसिक वेदना और उसे दूर करने के लिए मेरे द्वारा किये गये- प्रयत्नों का आभास देती है-

‘मैं उदास हूं… स्वस्थ होने का मार्ग यह है कि परिस्थिति और रिश्तेदारों से अधिक आशा न रखनी चाहिए.’

फरवरी या मार्च में मैंने डुमस के अनुभवों को कहानी का रूप दिया. उसका नाम मैंने ‘बाल प्रणयी, रखा था.

मैंने इस वर्ष की छुट्टियों में भड़ौंच जाकर अपनी डायरी में विस्तार से अपने विचार लिखे थे. उनमें मेरे हृदय में व्याप्त व्यथा का यथातथ्य चित्र मिलता है-

‘जिस समय मेरी कामनाएं विकसित हो रही थीं, उस समय मुझे एक ऐसा अनुभव हुआ, जिससे कि मेरा उत्साह भंग हो गया. परिणामस्वरूप सुखमय जीवन बिताने की मेरी सभी आशाएं नष्ट हो गयीं. बाद में दूसरी घटना घटी और मेरी तीव्र भावनाओं को ठेस लगी. मेरी रही सही चेतना भी व्यथा से टकराकर चूर हो गयी है. मैं भग्न-हृदय हूं. एक वर्ष होने को आया, पर अभी तक मुझमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ. अब मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा गया हुआ उत्साह फिर लौटेगा. इस समय तो मैं केवल असफलता और निराशा का ही अनुभव कर रहा हूं. अन्य सब भावनाएं तो हृदय में उसी प्रकार उठती हैं जैसे भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के कपड़े पहने जाते हैं. इस प्रकार के दुखद अभिनय और सदा के लिए स्वीकार किये हुए ढोंग से मेरा जीवन पिछले बाहर महीनों से ध्येय-हीन-अर्थहीन-हो गया है. ऐसी स्थिति में सुख असम्भव है. अब वह दाम्पत्य-जीवन भी दुर्लभ है, जिसमें मेरी भावनाएं और कोमल स्वभाव विहार कर सकें.

‘लेकिन जो कुछ होना था सो हो गया. उसके लिए रोना मर्द को शोभा नहीं देता. जितने कुछ दिन अब मुझे जीना है उतने दिन इस प्रकार निराशा में, बिना ध्येय और बिना कीर्ति के बिताना क्या कोई अच्छी बात है? मेरी महत्त्वाकांक्षा भी मेरी सुकुमार भावनाओं के खंडहर के नीचे दब गयी है. अपने देवालय के देवाधिदेव नेपोलियन को भी मैं भूल गया हूं. अपने प्रयत्नों से महान बननेवाले फ्रेंकलिन जैसे देवदूत को भी मैं भुला चुका हूं.’

इतना लिखने के बाद आत्म-निरीक्षण और भविष्य का कार्यक्रम विस्तार के साथ दिया है.

मेरे हृदय मे व्याप्त हलचल की चिंता किये बिना ही मां ने जादू करना शुरू कर दिया था. यही नहीं कि लक्ष्मी ने पढ़ने में ही प्रगति की थी, यह मेरे लिए सुविधाएं जुटाने में भी कुशल होती जा रही थी.

मेरे रहन-सहन का ढंग बड़ा ही खराब था. मैं पिताजी की पुरानी कमीजों को कटाकर पहना करता था. मैं अपने लम्बे कोट और टोपी को बाहर से आकर खूंटी पर फेंकता और यदि वे नीचे ज़मीन में गिर जाते तो दूसरे दिन बाहर जाते समय वहीं से उठाकर उन्हें पहन जाता था. जूतों पर पॉलिश कराने की चिंता भी नहीं करता था. रात को दरी पर पड़ा रहता. बाल मैं शायद ही कभी सम्भालता था. मेरी मेज़ पर बेहद धूल जमी रहती थी. पुस्तकें और कागज-पत्र भी यों ही अस्त-व्यस्त बिखरे रहते थे. इस प्रकार मैं अव्यवस्थित और बिल्कुल लापरवाह था.

मां ने बहू को पति को वश में करने की नयी तरकीब बतायी. मेरे कपड़े, टोपी और जूते ठीक रहने लगे. मेज स्वच्छ और व्यवस्थित होती गयी. मुझे मेरे मन के अनुकूल दातुन, पानी और चाय मिलने लगे. भोजन करने की व्यवस्था सुंदरता से होने लगी. मैं जिस ओर चलूं उसी ओर पता न चल सके इस ढंग से सब प्रकार की सुविधा होने लगी. लक्ष्मी न कुछ कहती, न कुछ मांगती. वह आज्ञा देने से पहले ही समय पर सब-कुछ तैयार रखती. मुझे यह सूझता ही नहीं था कि मैं कैसे उसका दिल दुखाऊं और कैसे उससे गुस्सा होऊं. मेरे मन ने समझौता न करने का निश्चय किया, परंतु उसकी परिचर्या में मेरा जीवन जकड़ने लगा.

दो त्रियां- एक अनुभवी और दूसरी उत्साही-एक जंगली भेड़िये को वश में कर रही थीं.

1906 की छुट्टियों में डायरी मौन हो जाती है. कालेज में जाने से पहले फिर खिन्नता आती है, लेकिन विषाद के रूप में नहीं, रोग के रूप में. साथ ही उसके दूर करने की दवा भी हाथ लग जाती है.

‘मैं कितने अस्थिर निश्चयवाला मूर्ख हूं! खिन्नता ने मुझे अपने जाल में फंसा लिया है.’

‘गत वर्ष के अनुभव ने मेरी धारणा को असंगत ठहरा दिया है. जिस ‘देवी’ के विषय में मैंने मौन धारण कर लिया था और जिसके प्रेम को भुलाने के लिए मैंने पर्याप्त प्रयत्न किया था वह कुछ दिनों से फिर मेरे मन में आने लगी है. जिसने उसका स्थान लिया है वह निर्बल और अज्ञानी बालिका है. उसके प्रति मेरी अरुचि बढ़ती ही जाती है. मैं अपने उल्लासमय जीवन को नष्ट होने से बचा नहीं सकता. ‘देवी’ मिलेगी नहीं और इसे निभा न सकूंगा. मुझे तो अब यंत्र बनकर ही रहना पड़ेगा.

‘इस वर्ष देवी तीन बार स्वप्न में आयी- कल, पावागढ़ पर और उससे पहले.

‘मन बेहद परेशान है.’

‘उद्विग्नता हुई. कौन जाने कब शांति मिलेगी? हो सकता है कि कभी न मिले.’

आवश्यकता पड़ने पर मैं अपनी आत्मा को पत्र लिखता. 6 सितम्बर 1906 का लिखा हुआ एक ऐसा पत्र है-

“प्यारी आत्मा,

तू कहां गयी? तेरी शक्ति फिर क्यों नहीं प्रकट होती? कभी तू बड़ी शक्तिशाली थी. आज जब तेरी तीव्र आवश्यकता है तब तू आकर सहायता क्यों नहीं करती? क्या एक बार हार जाने के कारण ही तू युद्धस्थल छोड़ देगी? भले ही तेरे सांसारिक सुख नष्ट हो गये हों, भले ही तेरा हृदय असंतुष्ट हो, फिर भी तुझे युद्ध करते रहने के लिए कमर कसनी चाहिए. तेरे हृदय की इच्छा पूर्ण न हुई तो क्या बात है? कायर! क्या तू युद्ध में पीठ दिखाएगी? साहस रख, प्रयत्न कर, नहीं तो तुझे गुलाम होना पड़ेगा. तू बता दे कि तू अपनी मानसिक उथल-पुथल को शांत करने में समर्थ है.

“समय और शक्ति का अपव्यय छोड़ दे. त्री की भांति रोता क्यों है? परिश्रम कर, परिश्रम! कर्तव्य ही वर्तमान का दृढ़ नियम है.

“उद्विग्नता हुई. मूर्ख, आलसी, तू जाग. क्या तुझे असफल होना है? इस वर्ष नाम बोलते हुए मुझे शर्म नहीं लगती?”

15 सितम्बर को कालेज छोड़ते समय मैंने लिखा-

‘आज कालेज में मेरा अंतिम दिन है. जहां मैंने सबसे अधिक सुख के दिन बिताये हैं, उस स्थान को छोड़ते हुए मुझे बहुत ही दुःख होता है. हो सकता है कि ये दिन फिर देखने को न मिलें.’

इस प्रकार मैंने बड़ौदा कालेज को प्रणाम किया.

कुछ महीने हुए, मैं एक मुकदमे के सिलसिले में बड़ौदा गया था. शाम को अकेला था, इसलिए कालेज की ओर निकल गया.

मैंने मोटर बाहर खड़ी कर दी. कारण इस अर्वाचीन राक्षस से मुझे अपनी स्मरण-शक्ति भ्रष्ट नहीं करनी थी. मैं अंदर गया. धीरे-धीरे मैं दरवाज़ा पार करके वहां जा खड़ा हुआ जहां कालमापक यंत्र का टावर (घंटा-घर) था. मैं बदल गया था परंतु मेरा यह पुराना मित्र तो जहां-का-तहां खड़ा था.

वहां से महराव में होकर मैंने बंद हॉल में नज़र डाली. वहां अंधेरा था. मैंने उसके प्लेटफॉर्म पर एक सोलह वर्ष के बालक को देखा- लटकती हुई धोती, बिना संवारे बाल… चेधाम, शेरिडन और सुरेंद्रनाथ के भाषणों को दुहराता हुआ…

वहां से मैंने बाग की ओर रुख किया. उसके वृक्षों के नीचे बैठकर शेली के ‘एपीप्साई-कीडियन’ को हृदयंगम कर प्रणय-विह्ववता का अनुभव किया था. उसके उत्तराधिकारी असुरक्षित दशा में खड़े थे. यहां मैंने फूल चुने थे और सूर्य किरणों द्वारा निर्मित छींट की चादर पर पड़े-पड़े “I am not thine, but a part of thee” के मंत्र द्वारा मैंने देवी के दर्शन किये थे.

उसके बाद मैं महादेवजी के पुराने मंदिर में गया. यहीं बैठकर मैंने उनकी पूजा में अंधविश्वास देखा था; मूर्ति-पूजा का मज़ाक उड़ाया था; नास्तिकवाद का विचार और प्रचार किया था; धर्मांध भारतीयों को धिक्कारा था. वे उसी स्थान पर बैठे थे- पार्वती के पति- मानो मेरी प्रतीक्षा कर रहे हों. मैंने घंटा बजाया; उनके सम्मुख उपहार रखा.

धीरे-धीरे आनंद से पुरानी स्मृतियों का रस लेता हुआ मैं स्क्वायर ब्लॉक की ओर गया. वहां कोई नहीं था. मुझे लगा जैसे वह मकान मेरे बिना सूना हो और मेरी प्रतीक्षा करता हुआ खड़ा हो.

जिस जीने पर मैं हजारों बार चढ़ा-उतरा था, उस पर होकर मैं बीसवें कमरे के सामने गया. कमरा बंद था, लेकिन मेरा हृदय उसका मानसिक आलिंगन कर रहा था- मानो वह मेरा चोला हो और मैंने किसी दूसरे की काया में काया-प्रवेश कर लिया हो. एक दीवार पर के. एम. ये दो अक्षर ऐसे लग रहे थे जैसे वे सबेरे ही खोदे गये हों.

मैं कुछ देर वहां खड़ा रहा- कल्पना द्वारा उस विनष्ट सृष्टि को पुनर्जीवित करता हुआ. मैंने पी. के. आचार्य और नानाभाई की आवाज़ें सुनीं. मैंने स्वयं अपने को प्रणय-गीत गाते सुना. …जैसे कोई महायोगी परलोक से किसी आत्मा को सशरीर बुलाता है वैसा ही प्रयोग मैंने भी किया लेकिन वह नहीं आयी. वह वास्तविकता प्रतिमा में समा गयी थी. वास्तविकता के स्पर्श से समस्त आकर्षण जाता रहा. स्मरण-शक्ति संकुचित हो गयी. मैं अपनी मूर्खता पर हंसता हुआ पीछे लौटा.

मैं धीरे-धीरे नीचे उतरा तो देखा कि चबूतरे के आगे एक वृद्ध कहार बैठा है और कमज़ोर आंखों से लालटेन साफ़ कर रहा है. मैंने उसे पहचान लिया और प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ उसकी ओर बढ़ा.

‘हरि!’

वही हरि, जो फेलो के साथ डाइसेक्शन हॉल के दरवाज़े को तोड़ने आया था.

वृद्ध हरि ने धीरे से इस अपरिचित-से प्रतीत होते व्यक्ति की ओर देखा. उसकी आंखों में परिचय का प्रकाश न था.

मैंने उसे इनाम दिया. उसने नोट हाथ में लिया और मुंह फाड़ा. इनामों से भी वह अपरिचित था.

‘आप कौन?’ उसकी आवाज़ ज्यों की-त्यों थी.

‘शहर में प्राणलाल मुन्शी वकील हैं, उन्हें जानता है?’ मैंने पूछा.

‘हां, हां,.’

‘तुझे याद है कि उसके साथ उसका भाई भी यहां पढ़ता था?’

हरि ने गरदन घुमायी.

‘बहुत वर्ष हो गये. ठीक पता नहीं.’

यह नयी दुनिया थी, जिसमें मेरी किसीको स्मृति तक न थी. मैं खेद का अनुभव करता हुआ लौटा और मेरे मुंह से एक अर्द्धस्मृत गीत की ये पंक्तियां निकल गयी-

इस व्रज में मैंने किया

विट्ठल संग विहार;

पांव रखते इस भूमि में

आती उसकी याद रे.

सितम्बर-अक्तूबर में मैंने खूब पढ़ा. मैं कितने घंटे पढ़ा, इसका हिसाब मैं अपनी डायरी में रखता था. उसके अनुसार मैं दस से बाहर घंटे तक लगा रहता और मेरी अस्वस्थता कम होती जाती.

मैं बी. ए. में सैकंड डिवीजन में पास हुआ. अंग्रेज़ी में 60 प्रतिशत अंक मिले और मैंने ‘इलियट पुरस्कार’ भी प्राप्त किया. संस्कृत में फेल होते-होते बचा. परीक्षा-फल जानकर मां का हृदय हर्षित हुआ. उसे  अपने तप की सिद्धि निकट जान पड़ने लगी.

लेकिन यह सुख दो दिन रहा. तीसरे दिन पुत्र को तेज़ बुखार आ गया. अठ्ठाईस दिन तक मां के प्राण कंठ में रहे. कारण, बुखार उतरा ही नहीं. महादेवजी का नाम लेकर उसने दिन रात तीमारदारी की. बड़ी बहन पीहर आ गयी थी. उसने घर का कुछ बोझ सम्भाल लिया. बहू ने भी मूक-भाव से खूब मेहनत की.

बेटे का हृदय विचित्र था. बहू को देखता कि उसे कंपकंपी आ जाती और उसका बुखार बढ़ जाता. बहुधा वह सिसकी भरकर रोने लग जाता. मां उसे छाती से लगाकर सान्त्वना देती. उसके क्रंदन का एक ही विषय था- मेरा जीवन नष्ट हो गया. मुझे ऐसी त्री क्यों मिली? मैं क्यों जीऊं? किसके लिए जीऊं?

बहू का भी क्या दोष था? वह अपनी बुद्धि के अनुसार योग्य बनने की चेष्टा करती थी. सेवा करने में भी कभी पीछे नहीं रहती थी. उसे कभी-कभी यह खयाल भी आता था कि वह पति को अच्छी नहीं लगती. लेकिन संतोष की बात यह थी कि उसका हृदय बालकों-जैसा था, इसलिए वह उस दुःख का अनुभव नहीं करती थी.

मां की अत्यंत परिश्रम द्वारा तैयारी की हुई रचना नष्ट होती जान पड़ने लगी. बहुधा वह महादेवजी के सम्मुख जाकर आंसू बहाती और कहती ‘चंद्रशेखर महाराज! क्या मेरे लिए इतना सुख भी न रहने दोगे?’

मेरी इस पूरी बीमारी में डाक्टर कामाकाका ने बड़ी सहायता दी थी. उनकी मेहनत और सौम्य स्वभाव से मां को बड़ी हिम्मत बंधती थी.

मेरा बुखार अभी उतरा ही था कि मेरा कान सूज गया और मुझे फिर बुखार आ गया. विवश होकर कान का ऑपरेशन कराना पड़ा. यों मैं तीन महीने तक खाट में पड़ा रहा. बीमारी में भी मैंने खूब पढ़ा. विशेष रूप से कार्लाइल के प्रति मेरी अधिक रुचि हुई और उसकी रचनाओं से मैंने पर्याप्त प्रोत्साहन भी पाया.

‘अंत में मैं ग्रेजुएट हुआ. पांच वर्ष तक कालेज में पढ़कर मैंने अपने ध्येय को प्राप्त किया. जीवन का एक अध्याय पूरा हुआ और अब मैं दूसरे में प्रविष्ट हूंगा. …कालेज में भी आलसी होने के कारण मैंने अनेक सुअवसरों से पूरा लाभ नहीं उठाया.

‘आज थोड़ी-सी अंग्रेज़ी को छोड़कर मुझे कुछ नहीं आता. निर्धनता के कारण मैं बड़ौदा कालेज न छोड़ सका और बाद में मेरे हृदय ने इतने अधिक विघ्न डाले कि मुझसे प्रगति न हो सकी. मुझे एक आवश्यक वस्तु का ज्ञान अवश्य हुआ है. मैं अपने को मंद-बुद्धि समझता था लेकिन ऐसा नहीं है. परंतु मैं अपने शरीर के लिए क्या करूं? वह अत्यंत दुर्बल है. यह समझ में नहीं आता कि इस कठिनाई को कैसे दूर करूं…

‘मेरे जीवन-विधाता आज अपने इस प्रिय पुत्र को देखने के लिए जीवित नहीं हैं. जब तक वे जीते थे तब तक मैंने कोई अच्छा कार्य भी करके नहीं दिखाया. आज पुत्र पर गर्व करने के लिए वे मौजूद नहीं हैं…

‘उनका विचार मुझे सिविल सर्विस के लिए भेजने का था. अब जबकि मैं आयु और बुद्धि में उस परीक्षा के योग्य होने लगा हूं तो मेरे पास उसके लिए साधन नहीं हैं. यदि वे आज जीवित होते तो मेरे जीवन-क्रम में कितना फेर-फार हो जाता? अब तो सॉलिसिटर होने का इरादा है- शरीर ने यदि होने दिया तो.’

इस प्रकार मेरे सामने एक बड़ी भारी कठिनाई आ खड़ी हुई- मेरी शारीरिक दुर्बलता की.

इस बीमारी में मैंने योगसूत्र के साथ गीता भी पढ़ी थी. मुझमें दोनों ग्रंथों को भली प्रकार समझने की शक्ति न थी, लेकिन संयमी होने के लिए मैंने पांच-छह श्लोक और एक-दो सूत्र हृदयंगम कर लिये, जो मुझे स्वस्थ रखने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुए. तनिक-सी भी उद्विगनता होती कि मैं झट उनका मनन करने लग जाता.

चिरकाल तक निरंतर एक ही बात को रटने से मानसिक दशा बिगड़ती भी है और सुधरती भी, इसका मुझे स्वयं अनुभव है. नाटक के गीतों को गा-गाकर प्रणय-विह्वल बनता और देवी का साक्षात्कार करता. साथ ही ‘निराशीर्निर्ममो भूत्वा युद्धस्व विगतज्वरः’ का पाठ कर-करके अपनी अशक्ति को जीतने का बल प्राप्त करने की व्यर्थ चेष्टा भी करता.

(समाप्त)

अक्टूबर   2013 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *