आधे रास्ते (चौथी क़िस्त)

1913 तक मैं कनुभाई था– मां-बाप का, नाते-रिश्तेदारों का, जाति का, गांव में मुझे जो पहचानते थे उनका, मास्टरों का, बड़ौदा कालेज के सहपठियों तथा प्रोफेसरों का. कितनी ही बार घर के लाड में मुझे ‘भाई’ कहते और माताजी तथा पिताजी गुस्से में ‘कनु’ कहते, लेकिन यह अपवाद था.

आज मुझे इसका भी विचार करना पड़ता है कि यह कनुभाई कौन है. आज तक बहुतों को मेरे पूरे नाम की भी खबर नहीं है. कई बार पत्र आते- ‘कनुभाई, भड़ौच’ के पते पर. शेक्सपियर भले ही यह कहे कि नाम में क्या है? मैं कनुभाई न होता तो और क्या होता? कुछ नहीं.

में अपने पिताजी के साथ रहता था. मेरी माताज़ी भड़ौच रहतीं, परंतु इसकी मुझे अधिक चिंता नहीं थी. पिताजी से मुझे बहुत डर लगता था तो भी वे मुझे बहुत प्रिय थे. रात को हम साथ-साथ सोते थे और जब रात को डर लगता था तो मुझे उनसे चिपटकर सोने से हिम्मत आती थी.

मेरा यह विश्वास था कि वे सबसे बड़े और प्रतापी व्यक्ति थे और वे ऐसे हैं, यह अनुभव करके मुझे बड़ा गर्व होता था. हम साथ उठकर चाय पीते थे. जब चाय पीते थे तब मैं अपने को बड़ी उम्र का आदमी समझकर उनकी ही तरह चाय पीता था.

1866-67 में सूरत में हाउसटैक्स के सम्बंध में बड़ी उथल-पुथल मची थी. कलक्टर फ्रेडरिक लेली, स्वर्गीय नंदशंकर तुलजाशंकर और पिताजी इन तीन व्यक्तियों पर म्युनिसिपैलिटी का कार्यभार था. जहां तक मुझे याद है, पिताजी मैनेजिंग कमेटी के अध्यक्ष थे और घरों की जांच-पड़ताल करके आंकड़े लेने का काम उनका ही था. सवेरे नक्शा और फीता लेकर मुन्शी आते और हम- मैं भी अपने को हाउसटैक्स के लिए उत्तरदायी समझता था– घरों की पैमायश करने जाते.

हम जाते तो घर के मालिक हमारे आगे चाय और पान रखते. अपने घर की खराबी का रोना रोते, हिसाब बताते और इस बात का विश्वास दिलाते कि हबक से रंगी हुई दीवारें कच्ची हैं. मुन्शी घर की पैमायश करते, पिताजी हिसाब करते और हम गाड़ी में बैठकर दूसरे घर जाते.

लोग गरीबी की बातें करते और कभी-कभी आंखों में आंसू भरकर अनुनय-विनय भी करते. यह देखकर मेरी आंखों में भी आंसू आ जाते. कभी-कभी मैं गाड़ी में डरते-डरते पिताजी से कहता– “इसे जाने दो; यह बेचार बड़ा भला है.”

पिताजी हंसते हुए जवाब देते– “तू क्या जाने? यह तो यों ही ढोंग करता है.” उस समय मुझे यह ख्याल आ जाता कि पिताजी बड़े कठोर हृदय के हैं.

इसके बाद हम घर आकर खाना खाते; पिताजी कचहरी में जाते और घेलो नायक मुझे सुला देता. इस आदमी में बालकों को बहलाने की त्रियों-जैसी शक्ति थी और इसे मैं अपनी मल्कियत समझता था. वह कहानियां भी अच्छी कहता था.

दोपहर को मास्टर आता. मुझे गिनती-पहाड़े तो अच्छे नहीं लगते थे पर लिखने-पढ़ने का शौक था. इसलिए पढ़ने में मैं बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहा था. शाम को नायक के साथ मैं पिताजी को बुलाने जाता. किले में नदी की ओर के एक खंड में वे बैठते थे. मैं भी उनके पास ही एक कुरसी पर जा बैठता और ऐसा मस्त हो जाता जैसे सब-कुछ मेरे ही कहने से हो रहा हो.

शाम को हम साथ-साथ घर आते और पिताजी मुझे ‘रीडिंग विदाउट टीयर्स’ नाम की पुस्तक में से अंग्रेज़ी पढ़ाते. पुत्र को सिविलियन बनाने की उनकी इच्छा थी, इसलिए बचपन से ही उसे तैयार कर रहे थे. कभी-कभी पिताजी खाने के बाद रात को तबला बजाते और धीमे स्वर से गाते. बहनों के वैधव्य के बाद उन्होंने वह छोड़ दिया और तबलों का धनी मैं बना. तबले के साथ रटे हुए ‘बत्तीस एकम बत्तीस’ मुझे अब तक याद हैं.

यदि मैं यह कहूं कि मैं खेला ही नहीं तो ठीक रहेगा, क्योंकि न तो मेरे साथ कोई खेलनेवाला था और न मेरा स्वभाव ही खिलाड़ी था. एक पड़ोसी की समवयस्क लड़की कभी-कभी आती थी पर खेलने की जगह हम बातें किया करते थे.

मैं ‘फनी लिटिल ब्वाय’ था. मैं सारे दिन अरेबियन नाइट्स पढ़ा करता और बोलती मछली, पर्वत में पड़े हीरे तथा उड़ते घोड़े का विचार किया करता. मैं इस बात की प्रतीक्षा किया करता था कि गरुड़ मुझे डमास्कम के द्वारा पर ले जाय, उसकी किवाड़ें खुलें और पहला होने के कारण मुझे ही सुलतान बनाकर शहजादी के साथ मेरी शादी कर दी जाय.

पिताजी ने मुझे रेल के गार्ड की-सी छोटी लालटेन दिला दी थी. एक दिन मैंने सपना देखा कि यह लालटेन तिलिस्मी है. पिताजी कचहरी चले गये तो मैं चुपचाप एक कमरे में घुसकर अपनी अंगुली की माणिक की अंगूठी को लालटेन पर घिसने लगा. मुझे विश्वास था देव आवेगा और मैं उससे हीरे-मोती मांगूगा; शाम को पिताजी के आने पर मैं सब-कुछ उन्हें दे दूंगा. फिर उन्हें नौकरी करने नहीं जाना पड़ेगा. और फिर सूरत के सारे घरों को मैं खरीद लूंगा. घिसते-घिसते रिबट टूट गयी और माणिक निकल गया. शाम को जब पिताजी को पता चला तो गुस्सा होने के बदले वे हंसे. मुझे वह अपना अपमान लगा था.

मुझे तो विश्वास था कि देव आता तो मैं पैसे लाकर पिताजी को देता. अलाउद्दीन के काम में लगा होने से देव नहीं आया था. पिताजी के हंसने से नाराज होकर लौट गया- केवल इतना संशय बना रहा.

सन् 1896 या 97 में अधुभाई काका की चिट्ठी लेकर बींकानेरी साफा तथा विचित्र उच्चारण द्वारा आकर्षण बने हुए तीन काठियावाड़ी गृहस्थ हमारे यहां मेहमान के रूप में आये. बाद में इनमें दो ‘बड़े’ त्र्यंबक और एक ‘छोटे’ त्र्यंबक के नाम से विख्यात हुए थे. ‘मोरबी आर्य सुबोध नाटक मंडली’  से अलग होकर दोनों त्र्यंबकों ने ‘बांकानेर आर्य-हितवर्द्धक मंडली’ की स्थापना की थी. इस मंडली को सूरत आना था इसलिए ये तीनों तहसीलदार की मदद लेने के लिए सूरत आये थे.

इससे पहले मेरा नाटक का अनुभव नहीं के बराबर था. दो-तीन वर्ष पहले भड़ौच में एक नाटक मंडली आयी थी. इस मंडली ने अधुभाई काका के यहां से सोफा और कुरसी लेकर और रंगीन धोतियों के पर्दे डालकर पंचायती धर्मशाला में ‘ललिता दुःखदर्शक’ नाटक खेला था, इसकी मुझे धुंधली-सी याद थी. वर्ष भर पहले मैं भड़ौंच में मोरबी के नाटक देखने गया था. काठियावाड़ी ढंग के राजवंशीय जीवन को रंगभूमि पर उतारकर उसके मालिक मूलजी आशाराम ने गुजराती रंगमंच की नींव डाली थी. गांव-गांव में लड़के ‘डर मां तुं दिल साथ, छोकरा, डर मां तुं दिल साथ’ (तू दिल में मत डर लड़के तू दिल में मत डर) गाते फिरते थे. बहुत-से युवकों को ‘यथा छोरे पति तेज प्याकी तनना डर हसी वरी आजे’ (जिसने तुम्हें हंस कर हृदय से वरण किया था उसी के तन के तुम आज स्वामी हुए हो) में आनंद की पराकाष्ठा दिखाई देती थी. मैंने पहला खेल इस मंडली का जो देखा वह था ‘रा खेंगार और राणक देवी.’ इस खेल में जब सिद्धराज राणकदेवी के दो लड़कों को मार डालता है तब के दृश्य को देखकर मैं अपनी कुरसी पर पीछे को मुंह करके रोता था, यह मुझे अब तक याद है. यह कमज़ोरी आज तक बनी है. रंगमंच पर या चलचित्र में जब मैं कोई भावमय दृश्य देखता हूं या साहित्य में किसी मार्मिक प्रंसग का चित्रण करने बैठता हूं, तो मेरी आंखों से आंसू निकल पड़ते हैं.

बांकानेरी मंडली रस की गंगा घर ले आयी. त्र्यंबकों से जान-पहचान हुई. उसके बाद कई दिन तक मैं अपने को भूला रहा.

त्र्यंबक तो चले गये पर तीसरा गृहस्थ घर रह गया. चौक बाज़ार की सड़क पर एक जगह ली गयी; टीन की नाटकशाला बनायी गयी. काम किस प्रकार चलता है, यह देखने के लिए मैं रोज़ जाता और हर्षित होता.

मंडली आयी, पर्दे टांगे गये, दीवारें रंगवायी गयी. सुबह-शाम मैं नाटकशाला से घर और घर से नाटकशाला दौड़ता. बड़े त्र्यंबक का मेरी उम्र का लड़का शंकरलाल मेरा मित्र हो गया. वह लगभग रोज़ घर आता था. वह कम्पनी का पार्ट करने वाला था, इसलिए पाउडर कैसे लगाया जाय, लहंगा कैसे पहना जाय, बनावटी बाल कैसे बांधे जाएं, ये सब बातें मुझे सिखाता था. जिस समय कोई नहीं होता था उस समय कमरे में घुसकर शीशे के सामने कमर पर हाथ रखकर मैं कुछ-कुछ नाचने भी लगा था.

अंत में सब कुछ तैयार हुआ और ‘सीता-स्वयंवर’ का नया खेल आरम्भ हुआ. हम बाप-बेटे प्रेक्षक वर्ग के बीच में बैठे. मेरा मन अंदर जाने के लिए बहुत हुआ, पर पिताजी जाने देते तब न?

नाटक का पर्दा उठा और मैं पहली बार नाटक देखने में ऐसा तन्मय हो गया जैसे नरसी मेहता राधा-कृष्ण का नाच देखने में तन्मय हो गये थे.

जनक राजा की कचहरी आयी. ‘छोटो’ त्र्यंबक पशुराम के रूप में आया. उसने जटा धारण की थी; कंधे पर और हाथ में परशु था और वह पीताम्बर पहने था.

त्र्यंबक संग ले घूमता, जपता प्रभु का नाम।

मन में आया आज मैं चलूं जनक के धाम

मेरी मां ने पुराणों की कथाओं से मेरा मस्तिष्क भर दिया था, इसलिए भृगु पूर्वजों के पराक्रम मन के आगे घूमते रहते थे. इस समय तो मैंने भगवान जमदग्नि को साक्षात देखा.

उसके पश्चात विश्वामित्र आये; राम, लक्ष्मण और जानकी आये. विदूषक विद्या प्रवीण बड़ा त्र्यंबक देखा. कल्पना के आनंद में लीन मैं घर आया. दूसरे दिन से मैंने पढ़ना छोड़ दिया और अरेबियन नाइट्स को उठाकर रख दिया. मेरे पास क्रिकेट का एक छोटा-सा बल्ला था. उस पर बरक चिपटाकर परशु तैयार किया गया. पिताजी जमदग्नि के समान थे और मां रेणुका के समान. और सब भी मौजूद थे. बिस्तर से उठते ही मैं इस बात की तलाश करता कि पैरों की ओर कर्ण बैठा है अथवा भीष्म; और उससे मैं चाय लेने के लिए कहता. नहाने का पानी रखने वाले नौकर को भी मैं एक शिष्य ही समझता था. मेरी बूआ का लड़का ओच्छव भाई घर में रहता था. वह भी मानो मेरा एक बड़ा शिष्य था. मज़ा यह था कि यह सब मैं अकेला ही समझता था, किसी से कहता नहीं था.

‘सीता स्वयंवर’ के प्रत्येक खेल में मैं जाता और परशुराम को देखकर वापस लौटता. एक दिन पिताजी को शक हुआ कि इस लड़के को नाटक का चस्का लग गया है. शंकरलाल का घर आना बंद हुआ. हुक्म हुआ कि मैं शनिवार को छोड़कर और किसी दिन नाटकशाला में नहीं जा सकता. बहुत-कुछ कहने पर भी मुझे भूले-भटके भी चौक बाज़ार की ओर कोई नहीं ले जाता था.

दूसरा नाटक ‘प्रेमचंद्रिका’ खेला गया. उस समय नायक बारह वर्ष का लड़का था और नायिका थी आठ वर्ष की लड़की. वे प्रेम का ऐसा संवाद–

“विजयसिंह– प्रिये प्राण तुम्हारे ऊपर वारी!

प्रभा– शोभित है मुख कांति तुम्हारी सुंदर प्यारी.

विजयसिंह– प्रभा! मुझे तुमसे मिली, सुखद विजय इस बार.

प्रभा-उमड़ रहा आनंद उर मेरे जीवन हार!”

प्रेम, अभिनय और संवाद के इस प्रथम पाठ से मेरा हृदय उमंगपूर्ण हो गया. कुछ  समय के लिए परशुराम दूर चले गये. एक प्रभा ने मेरे हृदय में घर किया. पिताजी कोर्ट में जाते अथवा बैठक में होते तो मैं और मेरी  प्रभा दोपहरी-भर आनंद का अनुभव करते रहते. शाम को वह मेरे साथ घूमने आती. प्रभा के बोल भी मुझे ही बोलने पड़ते थे, लेकिन इसका मुझे कोई ख्याल न था. इस काल्पनिक सहचरी के आने से मैंने अपने एक सच्चे मित्र को भी भुला दिया.

बचपन के देखे हुए ये दो दृश्य और सुनी हुई ये पंक्तियां जीवन के तार-तार से लिपट गयी हैं और हज़ारों सजीव प्रसंगों के गर्भ में व्याप्त हैं. आज भी उनकी प्रेरणा आती हुई वृद्धावस्था की छायाओं को नष्ट कर देती है.

तब से मुझे नाटक खेलने का शौक लगा. भड़ौंच पहुंचते ही मेरी नाटक मंडली तैयार हो जाती थी.

एक काका को लकवा मार गया था. वे उठने में असमर्थ थे और खाट पर ही पड़े रहते थे. उनका पुत्र मोती भाई बड़े उत्साह से मेरी नाटक-मंडली में सम्मिलित हो गया. वृद्ध काका क्रोध-से चिल्लाते- ‘कनुड़िया! नाटकी! मेरे लड़के को भगाने बैठा है!”

मोती भाई और मैं अपनी नाटक-मंडली के पहले खिलाड़ी थे. हमारा रंगमंच दो दरवाज़ों के बीच का दालान था. पोशाक के लिए बेकार पड़े कपड़े और शत्रों के लिए बैट-स्टम्प्स और लकड़ी का प्रयोग होता था. प्रेक्षकगण थे नाते-रिश्तेदार और मेरा मुख्य नाटक, जो मैंने ही जोड़-जाड़ लिया था, ‘परशुराम का क्षत्रिय-हनन’ था. मैं बैट को कंधे पर रखकर रोज रात ‘क्षत्रिय-हनन’ करता रहता था.

इस बीच में हम भड़ौंच गये थे, इसकी मुझे कुछ-कुछ याद है.

पिताजी और माताजी बैठे होते और कोई रिश्तेदार छोटी-सी लड़की ले आता. वह जाता और लड़की के रूप-गुण की चर्चा शुरू हो जाती. मैं सुनता रहता- रस के साथ या और किसी प्रकार, यह नहीं कहा जा सकता. मेरे लिए बहू की तलाश हो रही थी.

एक की आंखें बड़ी, दूसरी का रंग काला, तीसरी की दादी के चरित्र में दोष और चौथी का कुल नीचा. ऐसे करते-करते अंत में मेरे लिए चार वर्ष की बहू आयी. गुड़िया-सी बहू को थोड़े दिन के लिए सूरत भी ले आया गया. यह तो याद नहीं है कि मेरा मन हर्षित हुआ था या नहीं, परंतु यह अवश्य है कि एक बार मैं गन्ने के टुकड़े करके बहू को दे आया था. मेरे बड़े होने पर भी सब लोग इस बात का मज़ाक उड़ाते थे.

मेरे यज्ञोपवीत का समय आया और मां मुझे भड़ौंच ले आयी. बड़ी दौड़-धूप के बाद उसने बेटे के लिए मल्कियत का हिस्सा दिलाया था. लड़कियों के वैधव्य के दुःख के कारण उसके हृदय में होली दहकती थी, परंतु मां उनको अनेक प्रकार के कामों में लगाकर सांत्वना देने का प्रयत्न करती थी. अब एक ऐसा प्रसंग आया था, जिसकी अनेक वर्षों से आशा लगी हुई थी. वह अपने घर में अपने एकमात्र पुत्र के यज्ञोपवीत की तैयारी कर रही थी.

हिस्से में आये दस्तावेजों को सम्भाल लेना था, हिसाब तैयार करना था, नये घर के लिए सामान जुटाना था, कोठे-अटारी के हिस्से होने थे और यज्ञोपवीत संस्कार पर होने वाले कार्यों का निश्चय करना था.

इन सब कामों से मां की व्यवस्था-शक्ति को विकास का अवसर मिला. जब से पिताजी बारह रुपये की नौकरी करने गये थे तब से उसने स्वयं बनायी हुई छोटी-छोटी कापियों में पेंसिल से रोजनामचा और खाता-बही तैयार किये थे. वह प्रतिमास और प्रतिवर्ष आय-व्यय का हिसाब लगाती रहती थी. दस्तावेजों तथा कपड़ों और जन्म-पत्रियों के दफ्तर अलग-अलग थे. रोज़ का दफ्तर और पानदान- ये दो तो सदा ही साथ रहते थे.

मां सदा कुछ-न-कुछ लिखा करती. उसने प्रेमानंद के काव्यों को स्वयं अपने हाथ से लिखा. नहाने के समय बोले जानेवाले ‘रामस्तव-राजस्तोत्र’ और दूसरे अष्टक भी लिखे. याददाश्त नुस्खे और हिसाब तो चलते ही रहते थे. पेंसिलों से चित्र भी बनाती थी. उमंग आने पर कविता भी लिखती थी. पिताजी अंग्रेज़ी कहते और मां उन्हें पहले पेंसिल से और फिर स्याही से लिख डालती. लेखनी- फिर वह पेंसिल हो, कलम हो या रंगीन पेंसिल- ही उसकी सहचरी थी. उसी सहचरी को- सदा की आश्वासनदायिनी और प्रेरणादायिनी सहचरी को- वह मुझे दे गयी.

इन सभी दफ्तरों का ‘अंतिम दफ्तर’ मेरे हाथ में तब आया जब जीजी मां 1936 में चल बसीं. उसमें उन्होंने अपने जीवन के प्रमुख प्रसंगों का संग्रह कर रखा था. आज भी इस ‘अंतिम दफ्तर’ के कागज़ों को फाइल में लगाते समय मां का जीवन सामने आ जाता है. उसके दुःख-सुख, उसका आत्ममंथन और लेखनी द्वारा आत्मा पर प्राप्त की हुई विजय, विशुद्ध बुद्धि और कर्तव्य-प्रेरणा से उत्पन्न अस्सी वर्ष की सहिष्णुता, क्षमा, औदार्य और संस्कार ये उसके जीवन की प्रमुख विशेषताएं थीं.

समाज में आने के बाद मां के साथ अकेले रहने का यह मेरा पहला प्रसंग था. प्रत्येक वस्तु की सावधानी से व्यवस्था करना उसके जीवन का आनंद था. यह व्यवस्था वह हुक्म, क्रोध, खलने वाले चिड़चिड़ेपन और ठप्पे से नहीं करती थी, वरन् सद्भावना के साथ समझाकर करती थी. उसकी देख-रेख में सबको काम करना अच्छा लगता था. कारण, उसमें काम लेने के अधिकार का अंशमात्र भी नहीं दिखाई देता था. ज़ोर की आवाज़ से किसी-से बोलना तो उसे आता ही नहीं था.

जिस समय घर रंगा गया उस समय अम्बा नाम की एक काठियावाड़ की मजदूरिन मजदूरी करने आती थी. उसकी होशियारी से मां खुश हो गयी और अम्बा को घर का सारा काम सौंप दिया. धीरे-धीरे अम्बा और उसका पति सूखा मजदूर न रहकर घर का अंग हो गये. अम्बा, मां के पैर पूजती थी. उससे मां ने मजदूरी की अपेक्षा खेती करने की बात कही और उसने हमारे भाग में आनेवाली ज़मीन जोत डाली.

1897 से सूखा ने हमारी ज़मीन जोतना आरम्भ किया; परंतु वह किसान न था, घर का आदमी था. जब चाहता, सहायता ले लेता; जब फसल होती तब देता, न होती तो रो देता. त्री गयी, लड़का गया; पचहत्तर-अस्सी वर्ष का पुत्रहीन और झुकी हुई कमर का वृद्ध सूखा 1940 तक हमारे घर का आदमी है.

मां के पास कुटुम्ब बढ़ाने की रसायन थी. जो उसके सम्पर्क में आता वही परजन न रहकर स्वजन हो जाता. शांत, हृदयद्रावक और सर्वग्राही स्नेह-ममता से मां उसे लपेट लेती.

यदि कोई मां का अपमान करता तो ऐसा लगता जैसे उसकी गर्दन काट दी गयी हो. उस समय मुंशियों की भांति अपमान करने वाले से बदला लेने की उसकी भावना नहीं होती थी. उसकी आंख से केवल आंसू निकल पड़ते थे. साधारणतः उसका गौरव ऐसा था कि उसके सामने उसका अपमान करना कठिन होता था. रूखीबा ने मां को अनेक बार ‘मिठबोली’ का जो प्रमाण-पत्र दिया था उसमें अधूरा सत्य था, क्योंकि माधुर्य केवल मां की वाणी की ही विशेषता न थी, वरन् वह तो उसके स्वभाव का ही एक अंग था.

मां का यह मिठबोलापन उनकी व्यावहारिक चतुराई के कारण नहीं था, प्रत्युत उसने अपने हृदय के स्वाभाविक माधुर्य को सतत अभ्यास से जो सर्वग्राही बना दिया था उसका यह परिणाम था. बंटवारे के समय जो झगड़े हुए थे उनमें मुशियों की चित्रात्मक वाणी चारों ओर फूल बिखेरती थी. उस समय की एक घटना मां ने ‘अंतिम दफ्तर’ में संग्रहीत कर रखी थी–

‘चतुर आदमी वह है जो यदि ऐसा देखे कि किसी की भी हानि नहीं है तो अपने आदमी को डांट-डपटकर लड़ाई बंद करावे और विपक्षी के मन को प्रसन्न करे. इतने पर भी वह न माने तो हल्का-सा उपाय करे. अभिमानी मनुष्य को उसकी प्रशंसा करके प्रसन्न करे. मूर्ख मनुष्य को तो उसकी हां-में-हां मिलाकर ही खुश कर ले. विद्वान व्यक्ति को तो जैसे हो वैसे सत्य बात कहकर प्रसन्न करने का नियम है, लेकिन फिर भी कभी-कभी वक्त देखकर बात करनी पड़ती है. ऐसा करते समय यह देखना चाहिए कि किसी को वैसा करने से कोई हानि तो नहीं है, क्योंकि ऐसा करना पाप समझा जाता है.”

मां ने ये सूत्र किसी से सीखकर नहीं लिखे थे. अपने जीवन में उसने यह कागज़ किसी को दिखाया हो, यह मैं नहीं जानता. ये तो उसके हृदय से निकले हुए थे. ये तो वाणी की तप-साधना वाले वे सूत्र हैं, जो उसने अपने लिए लिखे थे और जिनके आधार पर उसने अपना चरित्र गढ़ा था.

मुंशियों के गौरवपूर्ण, वाचाल और क्षिप्रकोपी स्वभाव को ऐसे माधुर्य के बिना कौन वश में कर सकता था! उसकी प्रेमदर्शी पुत्रवधू ने एक बार लिखा था– “जिस प्रकार चंद्रमा सूर्य के प्रखर तेज़ को ग्रहण कर उसे अपने हृदय में रख लेता है और पृथ्वी पर अपनी शांत ज्योत्स्ना प्रसारित करता है उसी प्रकार जीजी मां मुंशियों की उग्रता को स्वयं लेकर परिवार को शांति देनेवाली मिठास ही देती थीं.”

उफनाती, अकुलाती, तपाती उमंगों के इस अभाव को मैं बचपन में प्रेम की न्यूनता समझता था. उमंगों से पूर्ण वाक्पटुता के बिना मुझे चैन नहीं पड़ता था. यह ख्याल कितना मूर्खतापूर्ण था, इसे मैं तब समझा जबकि मैं बड़ा हो गया.

मां के स्वभाव का यह माधुर्य स्वभाव की कोरी सरलता से पैदा नहीं हुआ था. सामने वाले की अशक्ति और कठिनाई को सहृदयता से समझने की जो शक्ति उसमें थी उसी में इस सुमधुरता का मूल था.

मां ने देखते-देखते नयी सृष्टि रच दी.

हवेली का अगला भाग बंटवारे में हमारे हिस्से में आया था. उसकी मरम्मत हो रही थी. अस्सी वर्ष पहले के रंगों के परतों को खुरचकर हबक के भभकते रंग किये जा रहे थे. गलीचों, तकियों और हंडों के पार्सल सूरत से आ रहे थे. पंडित और ज्योतिषी आते, मज़दूर दौड़-धूप करते, निमंत्रण का चिट्ठा तैयार होता और चारों ओर हलचल दिखाई देती.

माणिकलाल मुंशी अपने एकमात्र पुत्र का यज्ञोपवीत करा रहे थे.

अभी महीने-भर की देर थी, इसलिए गुजराती की पांचवीं कक्षा में पाठशाला भेजा गया. उसके मेहताजी तो मुझे अब तक याद हैं. वे दमा के मरीज़ थे और अच्छी-खासी अफीम खाते थे. मुझे उनकी एक बात अच्छी तरह याद है. शाम होने को आयी, पर मास्टर साहब की अफीम नहीं उतरी और मास्टर साहब को लड़कों को पढ़ाने की फुरसत नहीं मिली. पांच बजने को हुए और वे चौंककर उठे. लड़कों का नम्बर कैसे पूरा हो? उन्हें एकदम प्रेरणा हुई–

“लड़को!” वे गरजे, “खड़े हो जाओ.”

हम खड़े हो गये.

“बैठ जाओ.”

हम बैठ गये.

“तुममें से जो विवाहित हों वे खड़े हो जाएं.”

एक लड़का खड़ा हो गया.

“चल,” उस लड़के को लक्ष्य कर गुरुवर्य ने कहा– “तू पहले आ.”

वह लड़का पहले नम्बर पर बैठा.

“अब,” मास्टर ने कहा– “जिनकी सगाई हो गयी हो वे खड़े हो जाएं.”

हममें से कुछ लड़के खड़े हो गये.

“चलो, तुम ऊपर आओ.” और बाकी बचे हुओं की ओर लाल-पीली आंखें करते हुए वे बोले– “और तुम– दुष्टो! नीचे जाओ, बस आखिर में जाओ. उल्लुओं-जैसे इतने बड़े हो गये तो भी कोई लड़की देने वाला न मिला! नाम बोलो! आखिर में जाओ.”

बिना सगाईवाले लड़के सिर नीचा करके आखिर में गये और लड़कियां पाने की साखवाले भाग्यशाली हम उनकी ओर तिरस्कार से देखने लगे.

इन तीन महीनों में नये मंदिर के चबूतरे पर एक कथावाचक पंडितजी महाभारत की कथा बांचने बैठे.

आठ या नौ बजे नये मंदिर के चूबतरे पर दो शिष्य आकर गद्दी और तकिया रखते और मंजीरा बजाकर गाने लगते. धीरे-धीरे लोग इकट्ठे होने लगते. टीले और नये मंदिर के रास्ते के बीच भीड़ इकट्ठी हो जाती, खिड़कियां नाटय़गृह के ‘बॉक्स’ बन जातीं और वहां बड़े आदमियों के घर वाले आकर बैठते. टीले के आगे वाले घर में हम आकर बैठते.

बाद में पंडितजी आते, ‘जै-जै’ होती और आदितराम पंडित अंगूठी वाली अंगुली से नांदी आरम्भ करते–

नमो गणेश नमो हनुमंता,

एक मांगता धोती जोड़ा,

और दूसरा जब कछोटा,

एक चाहता लड्डू भारी,

और दूसरा गुड़ की गाड़ी.

श्रोतागण एकाग्रचित्त से महाभारत की कथा सुनते, अर्जुन के पराक्रम से उल्लसित होते, भीम के पागलपन पर हंसते, द्रौपदी के दुःख पर आंसू बहाते. बीच-बीच में पंडितजी चुटकुले कहते; अधबीच में रुकते और दूसरे दिन का न्यौता ठीक करते; खिलानेवाले, न्योता देनेवाले और भोजन के विषय में भी कुछ जोड़ देते.

इन कथाओं में मैं इतना मस्त हो जाता कि रस-प्रवाह में तनिक भी स्खलन होते देख मैं बिगड़ पड़ता. लेकिन नये मंदिर के आगे बैठने वाले भार्गव और मूर्ख लड़के मेरे नाराज़ होने की चिंता किये बिना अपने कर्तव्य में लीन रहते.

इन दिनों भड़ौंच के कुम्हार शाम के वक्त अपने गधों को शहरियों के अवशिष्ट अन्न का स्वाद लेने के लिए गलियों में घूमने भेज देते थे. बहुत-से युवक बड़ी सरलता से दो-चार गधों को किसी के तबेले में या किसी तंग गली में बंद कर सकते थे. रात के ग्यारह-बारह बजे जब कथा पूरे ज़ोर पर होती और लोग तन्मय होते तब ये गधे छोड़े जाते और लोगों को होश आने से पहले ही ये चारों पैरों से भीड़ में उछलते नज़र आते. लोग उठकर दौड़ते, गालियों की बौछार होती, कथा में विघ्न पड़ता और जब पाव या आध घंटे में लोग निर्भय हो जाते तब कथा फिर आरम्भ होती.

इस पराक्रम को करनेवाले महारथियों को महाभारत की चिंता न थी और न बड़ों के क्रोध का भय था. कथा में गधे छोड़ना पराक्रम समझा जाता था– जनरल बिल्व के अमेरिका में विमान दल ले जाने से भी बड़ा. स्कूल में मैं ऐसे पराक्रमों के प्रति अरुचि प्रकट करता था, इस कारण मेरी कक्षा के लड़के मुझे तुच्छ और तिरस्करणीय समझने लगे थे, यह बात मुझे अब भी याद है.

पंडित आदितराम अच्छे कथावाचक थे. बात कहने का उनका ढंग अद्भुत था. जब वे चुटकुले कहते तब हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाते. जब वे आलाप लेते तो मेरी नसों में अंगारे दहकने लगते. मां की कहानियों ने मुझे जिस पौराणिक सृष्टि का परिचय कराया था उसमें पंडित आदितराम मुझे रोज़ ले जाते.

मैं भटकता हुआ भीम के साथ धृतराष्ट्र को पानी से डुबोकर वरदान लेता. लाख-गृह से सब निकल जाते परंतु मैं अकेला वहां फंस जाता– अग्नि की लपटों में झुलसता हुआ. द्रुपदतनया कर्ण को दासी-पुत्र कहकर जब उससे विवाह करने से इन्कार करती तब उसे आश्वासन देने के लिए अकेला मैं ही खड़ा रहता था. लेकिन सबसे छोटे त्र्यंबक के वेश में परशुराम तो बुलाये-बिना बुलाये, उपस्थित ही रहता था. इस प्रकार इस कथावाचक पंडित के बाजे के साथ मैं अपने रक्त में व्याप्त ब्राह्मणत्व को सजीव करने लगा.

जैसे-जैसे यज्ञोपवीत का दिन पास आने लगा वैसे-वैसे मैं ब्राह्मणत्व की महत्ता में निमग्न होने लगा. मुझे ऐसा क्षोभ होता, जैसे मैं किसी महासागर को तरने के लिए कटिबद्ध किनारे पर खड़ा होऊं. क्या मैं भृगु, परशुराम, वशिष्ठ, विश्वामित्र और व्यास की कोटि में आकर वैसा बन सकूंगा? यह भयंकर संशय मेरे छोटे-से हृदय को दिन-रात कंपाने लगा.

अंत में पिताजी आये; अधुभाई काका भी आये; द्वार पर नौबत बजने लगी; मुन्शी के टीले पर चंदोवा ताना गया; बैठक में हंडे जलाये गये; गणेश की स्थापना हुई; गृहशांति हुई; संध्या और प्रभाती गाये जाने लगे.

यज्ञोपवीत धारण करके मैं पूर्णरूप से दैवी बन जाऊंगा, इस विषय में मुझे तनिक भी संदेह नहीं था. कहीं ऐसा न हो कि किसी विधि में कोई कमी रह जाय, इसलिए मैं पंडितजी से सब कुछ विस्तार से पूछता और जैसे करता. भरते समय रखता हूं उतना भी वे यज्ञोपवीत देते समय रखते होंगे, इसमें मुझे संदेह है. लेकिन उन्हें भी साठ वर्ष की उम्र में मेरे जैसा दीक्षाभिलाषी शिष्य न मिला होगा.

मैं हाथ में यज्ञोपवीत लेकर बड़ों की आज्ञा लेने उठा तो मेरी आंखों में आंसू थे और हाथ में कम्प.

“पिताजी, यज्ञोपवीत पहनूं.”

“हां बेटा.”

मैंने यज्ञोपवीत पहना, नौबत बजी, गीत गाये गये और मैं ब्रह्मचारी हो गया. सात दिन ‘भवति भिक्षां देहि’ कहकर मैं सगे-सम्बंधियों के यहां से बर्तन और चावल ले आया. मेरे साथ ब्रह्मचारी बनने वाले एक दूसरे को ‘भैंसचारी’ कहकर सम्बोधित करते और सभी नियमों को तोड़ने में आनंद लेते. लेकिन मैं तो अपनी गम्भीता में डूबा हुआ त्रिकाल संध्या में लगा था. मुझे तो ऋषि-मुनियों की श्रेणी में पहुंचना था.

विधियां मानसिक संस्कारों का पोषण करके भूतकाल को सजीव करती हुई किस प्रकार संस्कृति को सुदृढ़ करती हैं, इसका मैं जीवित उदाहरण बन गया.

मैं गृहस्थी बना. बारात का जुलूस निकला. मैं हाथ में नारियल ले झंगा-टोपी पहनकर घोड़े पर बैठा और भार्गवों के सर्वश्रेष्ठ कुल के मुखिया की भांति घोड़ी पर पीछे बिठाकर बहू ले आया. बड़ा भारी जुलूस निकला और चार घंटे घूमा. बिना कमर की स्थिति का विचार किये मेरी भावी धर्मपत्नी को घोड़ी पर पीछे जैसे-तैसे करके बिठाकर रखा जाता, मां, बाप और मामा उसे घोड़ी से उतारते, रोती हुई को चुप कराते और फिर बिठा देते.

अंत में बारात चढ़ी और ज्यौनार हुई.

रात को वेश्या का नाच हुआ; उसके बिना समारम्भ अधूरा समझा जाता. हीरों से जगमगाती और सुगंध से महकती दो अपरिचित त्रियों को सबके बीच नाचती देखकर मुझे आघात लगा. मेरे हृदय में तपश्चर्या की लगन लग रही थी. यह त्री-दर्शन मुझे पाप की विजय जान पड़ा. मैं अकेला तीसरी मंजिल पर चला गया और गायत्री मंत्र बोलने लगा.

बहुत-से अंग्रेज़ अफसरों के साथ पिताजी का गहरा सम्बंध था. उनमें भी एफ. एस. पी. (बाद के सर फेडरिक) लेली के साथ उनकी खूब पटती थी. यह कहा जा सकता है कि लेली और पिताजी में मित्रता थी– वैसी ही जैसी कि काले हाकिम और गोरे मालिक के बीच हो सकती है. लेली की मेज़ पर एक आदर्श वाक्य लिखा रखा रहता था– ‘Fear of God is the beginning of wisdom.’ यह वाक्य पिताजी को प्रिय था.

जब मेरा यज्ञोपवीत हुआ उस समय पिताजी सचीन के दीवान नियुक्त हुए थे. दीवान तो केवल नाम था. नवाब की अस्वस्थ मनोदशा के कारण सचीन में ‘एडमिनिस्ट्रेशन’ बैठा था और ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में उसका सारा काम पिताजी के हाथ में था.

1899 के बाद मैं सचीन नहीं गया. लेकिन आज भी दिन की गाड़ी से गुजरात जाते समय जब सचीन का स्टेशन आता है तब कुछ-कुछ बाल-सुलभ चपलता से गर्दन खिड़की के बाहर निकल जाती है.

पिताजी ने सूरत का घर भी रखा था और सप्ताह में दो-तीन दिन वे स्वयं सूरत आते थे. कई बार मैं भी उनके साथ बग्घी में बैठकर सचीन जाता था. सूरत से रवाना होकर हम उघना जाते. वहां एक अच्छे-खासे घर में एक स्वामीजी रहते थे, जो हमारा सत्कार करते थे. इन स्वामीजी के लिए मेरे मन में भारी आदर था. कारण, जिस गद्दी पर वे बैठे थे उसकी बगल में एक शर-शैया पड़ी रहती थी. खाट-जैसे तख्त पर थोड़ी-थोड़ी दूर पर कीलें ठुकी हुई थीं. स्वामी हर-एक को यह सूचना देते थे कि वे रात को इसी के ऊपर सोते हैं. कई बार मुझे भी ऐसी शर-शैया पर सोकर ईश्वर-प्राप्ति का विचार आता था.

उघना से चलकर दोनों तरफ के पेड़ों की सघनता से शोभित रास्ते पर हमारी गाड़ी आगे बढ़ती थी. जाने का समय सामान्यतः रात का ही होता था. पवन से हिलते हुए पेड़ नाचते हुए राक्षसों के समान दिखाई देते थे. उन पर चमकते हुए जुगनू ऐसे लगते थे मानो राक्षसियों के अंगों पर माणियां लटक रही हों. तेज़ जाती हुई गाड़ी की चाल के साथ-साथ मेरी कल्पना भी आगे बढ़ती थी. मेरी शिराएं ऐसे हर्ष से नाचती थीं मानो मैं राक्षसों का नाश करने निकला हूं. ऐसा करने का कारण किसी प्रणय-विह्वल बालिका की रक्षा करना ही था.

सचीन में मेरी बाल-कल्पना को अद्भुत रंगों की अनेक सामग्रियां थीं. पहले तो पुस्तकालय में मंगाई जानेवाली सभी पुस्तकें दीवान साहब के घर आती थीं. इसलिए नारायण हेमचंद्र और जहांगीर तारापोरवाला उपन्यासों को मैं बिना भूख-प्यास की चिंता किये पढ़ जाता था. लेकिन इस बीच दो पुस्तकों ने मेरे हृदय पर अधिकार जमाया. एक ‘हातिमताई के पराक्रम’ नामक पुस्तक थी. बोलते हुए पर्वत, उदार पक्षी, दयालु सिंह आदि अद्भुत वस्तुओं से भरे हुए जंगलों में मैं उनके साथ विहार करता था. दूसरी पुस्तक का नाम ‘कुलीन और मुद्रा’ था. तारापोरवाला का यह उपन्यास मेरे बाल-कल्पना के विलास को ऐतिहासिक उपन्यास का मार्ग बता रहा था.

सचीन के जीवन में मुहम्मद नाम के एक सिपाही का भी बड़ा भाग था. वह हर रोज़ शाम को मुझे गांव के बाहर खेतों में घुमाने ले जाता और लम्बी, रसमयी तथा अद्भुत कहानियां सुनाता. मुझे आज तक याद है कि इनमें से कितनी ही कहानियों ने मेरी कल्पना पर गहरा प्रभाव डाला था.

सचीन का मध्यकालीन वातावरण भी ऐसी कल्पित कहानियों के अनुकूल था. नवाब  साहब का दरबार लगता था; वेश्याओं का नृत्य होता था; बाहर पहरेदार पहरा देते थे. पहली बार जब मैं पिताजी के साथ दरबार में गया तो नवाब साहब मुझे अपने अंतःपुर में ले गये. वहां बेगम साहब ने मुझे प्रेम से बुलाया, मेरा नाम पूछा और मेरे हाथ में एक सुंदर रेशमी रूमाल में बंधी गिन्नियों की पोटली रख दी. मैंने न तो कभी ऐसा सुंदर रूमाल देखा था और न इतनी सारी गिन्नियों को ही हाथ में लिया था. मैं अत्यधिक प्रसन्नता से उछलता हुआ पिताजी के पास आया. उन्होंने यह भेंट देखी और उनकी भौहों में बल पड़ गये. उनकी आंखों में झलकनेवाले क्रोध को देखकर मैं थर-थर कांपने लगा. रूमाल और गिन्नियां लेकर वे नवाब साहब के पास गये और उन्होंने वे गिन्नियां वापस कर दीं. हाथ से जानेवाले रूमाल के सौंदर्य का स्मरण करता हुआ मैं भग्न-हृदय से अपनी मल्कियत के लिए आह भरने लगा.

नवाब और दीवान के बीच भारी अंतर था. विधानानुसार किये प्रत्येक कार्य से नवाब चिढ़ जाता था. एक दिन बात बढ़ गयी. नवाब साहब ने गुस्से में दीवान का खून करने की इच्छा प्रकट की.

ईद आ पहुंची. एडमिनिस्ट्रेशन की इच्छा थी कि अस्वस्थ मस्तिष्क के नवाब को भी खुश रखना चाहिए. इसलिए दीवान ने ईद की सवारी, नमाज और दरबार के अनुकूल बंदोबस्त किया. नवाब के महल, मस्जिद और हमारे घर के आगे पुलिस की टुकड़ियां तैनात की गयीं.

नवाब साहब की सवारी निकली. हमारे घर खबर आयी कि नवाब साहब ने आज ही दुष्ट दीवान का खून करने का निश्चय किया है. सवारी हमारे घर के आगे से ही जानेवाली थी, इसलिए घर के सब दरवाज़े और खिड़कियां बंद कर दिये गये. घर के आगे पुलिस की टुकड़ी पड़ी थी, जिससे ऐसा मालूम होता था मानो गढ़ का घेरा डाला गया हो.

मेरे हृदय की धड़कन मेरे कान में सुनाई देती. मां की आंखों में आंसू भरे थे; पिताजी की आंखें क्रोध से पूर्ण थीं और मैं दोनों की ओर घबराकर देख रहा था.

पिताजी सदा एक रिवाल्वर रखते थे. उसे निकालकर उन्होंने अपने हाथ से साफ़ किया और उसे धीरे-से सात बार भरा.

इस विचार से कि क्या होगा, मेरी बाल-कथा थर-थर कांप रही थी. फिर भी मैं खिड़की की संघ में से देखता रहा.

सवारी आयी. दो-चार बग्घियां आगे थीं. पीछे नवाब साहब अस्वस्थ दशा में घोड़े पर बैठे थे. सवारी हमारे घर के आगे आकर रुकी. पिताजी ने सिर पर पगड़ी रखी. मां आंखें नीची किये, जाने के लिए मना करने लगी, परंतु पिताजी की मुख मुद्रा इतनी भयंकर थी कि उसकी हिम्मत एक शब्द कहने की भी न हुई. उन्होंने रिवाल्वर भी साथ लिया. मेरा हृदय रोने-सा लगा. मुझे विश्वास था कि पिताजी को नवाब साहब ज़रूर मार डालेंगे.

पिताजी जब नीचे उतरे तो नवाब साहब का घोड़ा हमारे घर के सामने था. वे होंठ दबाते हुए अस्थिर हाथों से कमर से तलवार   खींचने का प्रयास कर रहे थे और नवाब साहब के सिर पर कलगी रखने का कर्तव्य पालन किया. नवाब ने विवश प्राणी की भांति चारों ओर देखा, तलवार से हाथ हटाया,  घोड़े को एड़ लगायी और आगे बढ़े- सवारी आगे चली.

मुझे नवाब का अदृश्य होता हुआ मुख दिखाई दिया- दांत कटकटाते हुए वे पिताजी की ओर घूंसा तान रहे थे.

बाहर से देखनेवाले को तो दीवान नवाब को फूल देते हुए दिखाई दिये, परंतु इस आधे घंटे में तो हमको भयंकर अनुभव हो गया. पिताजी वैतरणी पार कर वापस आ गये थे.

इस घटना के कुछ ही दिन बाद हम नासिक यात्रा के लिए गये और नवाब साहब ने शरीर छोड़ा.

सचीन में हमारे पास एक महाराष्ट्रीय क्लर्क था. उसके पुत्र के साथ मेरा घनिष्ठ सम्बंध था. उसका और मेरा यज्ञोपवीत एक साथ हुआ था, इसलिए हमें अपनी मित्रता में दैवी सम्बंध दिखाई देता था. हम दोपहर को ताश खेलते और इसमें अधिकांश बार उसी की जीत होती. एक बार उसने मुझे अपने सदैव जीतने का कारण बताया. वह सुबह-शाम गायत्री का जप करता था.

उस समय मैं भी सुबह-शाम संध्या करता था. इसलिए जीतने की आशा से मैंने भी गायत्री जपना आरम्भ किया. लेकिन मेरा मित्र ऐसा न था जो डिग सकता. मैं एक माला जपूं तो वह दो जपता. मैं दो जपता तो वह चार जपता. वह मुझे रोज़ हराता और यह विश्वास दिलाता कि जीतने का कारण गायत्री मंत्र है. अंत में मुझसे जितना हो सका उतना समय गायत्री मंत्र के पीछे लगाया, लेकिन न तो मैं जीत सका और न अपने मित्र के समान जप कर सका.

एक दिन मुझे लगा कि इसकी बात में कुछ गड़बड़ है. यह सोचकर मैंने एक दिन गप्प मारी कि मैंने इतने हजार गायत्री का जप किया है. उसने तुरंत उस असम्भव संख्या में कुछ हजार और मिलाकर मुझे अपनी सदैव की भांति जीत का कारण बता डाला. मैंने कहा कि इतना अधिक जप तो कोई कर ही नहीं सकता. उसने यज्ञोपवीत की शपथ खाई. मैंने उस शपथ में अविश्वास किया और उस पर ब्राह्मण होकर झूठा जप करने का आक्षेप लगाया. हम लड़ पड़े और बोलचाल बंद हो गयी.

मैं ऐसा तेज़ ब्राह्ण था कि इस प्रसंग से मैं यह मानने लगा कि ऐसा झूठा जप करनेवालों के कारण ही पृथ्वी पर मानव की यह गम्भीर अधोगति हुई है. एक दो दिन तक तो इसी विचार में पड़ा रहा कि न जाने इस पाप से पृथ्वी का क्या हो. यही नहीं इस गम्भीर विचार के परिणामस्वरूप ब्राह्मणत्व के उद्धार की शुभ अभिलाषा से मैंने एक पुस्तक लिखना भी आरम्भ किया. उसका नाम था ‘ब्राह्मणों का कर्तव्य.’ इस पुस्तक के आरम्भ में मैंने झूठा जप करने वालों के ऊपर आक्षेप किया था. कुछ दिन बाद इस पुस्तक को अधूरा छोड़कर मैंने डायरी शुरू की. डायरी 1 जनवरी 1897 से शुरू की गयी है, ऐसा इसमें लिखा है. आरम्भ में मैंने भर्तृहरि के प्रसिद्ध श्लोक को दिया है-

प्राणघातान्निवृतिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं

काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।

तृष्णा त्रोतो विभङ्गो च विनयः सर्व भूतकाम्पा

सामान्यः सर्वशात्रेष्वनुपहतविविधः श्रेयसामेष पन्थाः।

सचीन के संस्मरणों का प्रकाशमय केंद्रबिंदु तो एक आठ-नौ वर्ष की बालिका थी- गौरवर्ण और तेजस्वी, स्नेही और चपल. हम दोनों छोटे बच्चों की तरह साथ-साथ खेलते थे, ऊधम मचाते थे, लड़ते थे और कभी-कभी रो भी पड़ते थे. उसमें मेरे प्रति गहरा भक्ति-भाव था. मेरी कल्पना ने उसके आस-पास कितनी ही सृष्टियां रचीं और विनष्ट कीं.

एक मूर्ख कल्पनाशील बालक के तीन-चार महीने के संस्मरणों के मूल में से कितने ही वर्षों तक स्वानुभव और साहित्य की सरिताएं प्रवाहित होती रहीं. इन स्मृतियों के रंगीन चित्र विशेष रूप से ‘वैर का बदला’ में दिये गये हैं. मैं नहीं चाहता कि यथार्थ जीवन के एक अत्यंत साधारण अनुभव के वर्णन से इन चित्रों की मोहकता को नष्ट कर दें.

1897 में पिताजी के साथ मैं नासिक की यात्रा के लिए गया. परेल उतर कर हमने जी. आई. पी. की गाड़ी पकड़ी. बम्बई का यह मेरा प्रथम अनुभव था- धुंआ, गंदगी, बड़े-बड़े मकान और घनी आबादी. मुझे याद है कि यह सब देखकर मेरे हृदय को एक धक्का-सा लगा था.

फिर कुछ धुंधली स्मृतियां हैं. बहियां देखते हुए पंडों का समूह एक नयी चीज़ थी. त्र्यंबकेश्वर में एक पंडे ने आग्रह किया कि हम उसके यजमान बनें. बही देखकर पिताजी ने दूसरे को पंडा बनाया. हम कुंड में नहाने गये तो भी पहले पंडे ने हमारा पीछा न छोड़ा और बाद में तो वह गाली देने लगा. पिताजी ने उसे धमकाकर जब पुलिस को बुलाया तब कहीं वह गया. तीर्थों की पवित्रता यात्रियों के हृदय में ही रहती है, इस बात का अनुभव मुझे पहले-पहल यही हुआ.

(क्रमशः)

मई   2013 

 

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