‘असंयत प्रवृत्ति हमें भ्रष्ट कर रही है’

(जगदीशचंद्र बसु के नाम रवींद्रनाथ ठाकुर का पत्र)

ओम्
अगस्त, 1901

बंधु,

तुम्हारा चित्र पाकर बहुत खुश हुआ. कैसी सुंदर छबि अंकित हुई है? यह तस्वीर मेरे लेखन-गृह की शोभा बढ़ायेगी. कुछ दिन पहले ‘साहित्य’ में प्रकाशित करने के लिए समाजपति ने तुम्हारे चित्र की पुरजोर मांग की थी. शिलाईदह ग्रुप-फोटो को छोड़कर मेरे पास तुम्हारा कोई चित्र नहीं है. और वह चित्र उतना अच्छा भी कहां है; फिर भी मजबूरी में वही चित्र समाजपति को देना पड़ा. तुम्हारा यह चित्र मांगने पर तुम्हें भी नहीं मिलता. चोरी करने से तो अधिकांश सज्जन कतराते हैं, किंतु उधार लेकर नहीं लौटाना, अपहरण का ही दूसरा नाम है, वे केवल यही नहीं जानते. तुम्हारे द्वारा भेजी गयी आशा की तस्वीर काफी भाव-पूर्ण है. भारतीय आशा की सप्ततंत्री वीणा का कौन-सा तार बचा हुआ है? धर्म या कर्म, ध्यान या ज्ञान; विद्या या उद्यम?

शांतिनिकेतन में एक विद्यालय खोलने के लिए विशेष प्रयत्नशील हूं. वहां प्राचीन समय के गुरुकुल जैसा ही नियम-तंत्र होगा. विलासिता की कहीं गंध-मात्र भी नहीं होगी. अमीर-गरीब सबको कठिन ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा. उपयुक्त अध्यापक लाख ढूंढ़ने पर भी नहीं मिल पाते. इस युग की विद्या और उस युग की प्रकृति- दोनों का एक जगह मिलन सम्भव नहीं. किसी महान कार्य से स्वार्थ और आडम्बर को बचाकर रखना किसे भी अच्छा नहीं लगता. अब तक अंग्रेज़ी-शिक्षा हमें यथार्थ कर्मयोगी क्यों नहीं बना सकी? महाराष्ट्र में तिलक व परांजपे हैं, लेकिन हमारे यहां वैसे कर्मठ त्यागी क्यों नहीं हैं? बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्य न धारण करके हम लोग सच्चे अर्थ में प्रकृत हिंदू नहीं बन सकते. असंयत प्रवृत्ति और विलासिता हमें भ्रष्ट कर रही है. दारिद्र्य को हम सहज भाव से ग्रहण नहीं कर पा रहे हैं. इसीलिए हर प्रकार का दैन्य हमें पराभूत कर रहा है. इस बीच एक बार तुम यहां आओ, तुम्हारे साथ जुड़कर इस काम की बुनियाद रखनी होगी.

‘विंश शताब्दी’ पत्रिका में ‘नैवेद्य’ की जो समालोचन निकली है, तुम्हारे पास भेज रहा हूं. अपनी अन्य पुस्तकों को जिस दृष्टि से देखता हूं, नैवेद्य को उस तरह नहीं देखता. लोग यदि कहें कि कुछ भी समझ में नहीं आता या कहें कि कृति अच्छी नहीं है तो ये बातें मुझे तनिक भी प्रभावित नहीं करती. नैवेद्य जिन्हें अर्पित की है, यदि वे उसे सार्थक करें, तभी वह सार्थक होगी. उस पर केंद्रित किसी भी लोक-स्तुति या लोक-निंदा को ग्रहण करने का मैं अधिकारी नहीं हूं.

उस दिन ‘सरस्वती’ नामक एक हिंदी पत्रिका में देखा कि मेरी छोटी कहानी ‘मुक्ति का उपाय’ प्रकाशित हुई है. हिंदी में पढ़ना मुझे अच्छा लगा. कहीं भी रस भंग नहीं हुआ.

एक खबर तुम्हें दे नहीं पाया. अचानक मेरी मंझली बेटी रेणुका की शादी हो गयी. एक डॉक्टर ने आकर मुझसे कहा- ‘मैं शादी करूंगा.’ मैंने कहा- ‘करो.’ जिस दिन यह बात हुई, उसके तीसरे दिन ही ब्याह हो गया. अब लड़का अपनी एलोपेथी डिग्री पर होम्योपेथी का मुकुट लगाने के लिए अमेरिका रवाना हो रहा है. वहां ज़्यादा दिन रहना नहीं होगा. लड़का अच्छा है, विनयी और कुशल है.

डरो नहीं- तुम्हारी बांधवी को तुम्हारी प्रतीक्षा करने के लिए रोक रखूंगा. जल्दबाजी में उसे हस्तांतरित नहीं करूंगा.

तुम्हारा रवि

‘दो शत्रुओं से बचकर रहना होगा’

(जगदीशचंद्र बसु का पत्र रवींद्रनाथ ठाकुर के नाम)

लंदन     15 अक्टूबर, 1901

बंधु,

तुमने लिखा कि मेरी मित्रता तुम्हें इस घनिष्ठ रूप में आकृष्ट करेगी, एक वर्ष पहले नहीं जानते थे. शायद मेरी भी यही स्थिति है. मैं क्यों आकृष्ट हुआ, बताऊं- हृदय की जो महत आकांक्षाएं हैं, वे सम्भवतया मन में ही रह जातीं, यदि उन्हें तुम्हारी बातों में, तुम्हारी रचनाओं में प्रस्फुटित होते नहीं देख पाता. निराशा के दौरान कौन मन को बांधे रख सकता है? फिर भी एक विश्वास है कि हम एक दिन प्रकाश का पता लगाकर ही रहेंगे. तुम्हारे भीतर उसी आशा को लक्ष्य करके विश्वस्त हुआ हूं. दो आभ्यंतरिक शत्रुओं से हमें बचकर रहना होगा. स्वजाति वत्सल मिथ्या अभिमानी से और स्वार्थरत स्वजाति द्रोही से. मुझे ऐसा लगता है कि इस समय विनयी, विश्वस्त, धैर्यवान स्वजाति प्रेमियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है. तुम इन सबको आकृष्ट करो और इन्हें एक सूत्र में पिरो डालो. तुमने जो नया आश्रम खोला है, उससे मुझे खुशी हुई. साल भर में यदि दो-चार युवक भी इस कोटि के प्रणोदित हुए तो हम कभी विनष्ट नहीं होंगे. तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पत्र पाकर मैं कितना आश्वस्त महसूस करता हूं. मेरे लिए कदम-कदम पर कितनी विघ्न-बाधाएं हैं, तुम आसानी से नहीं जान पाओगे. मैं कई बार बिल्कुल हताश हो जाता हूं. तुम्हें इस बाबत पहले ही बता चुका हूं कि मेरे कार्य में जितना नवीन तत्त्व रहेगा, उस परिमाण में मेरे सामने अवरोध उपस्थित होंगे. जिस प्रचलित सिद्धांत की भित्ति पर समस्त इलेक्ट्रो-फिजियोलोजी प्रस्थापित है, उसके ऊपर हाथ धरना कई प्रख्यात वैज्ञानिकों के सुचारू काम में अचीता हस्तक्षेप है. और यदि मैं सत्य को झुठला कर चुप रहूं तो किसी भी दिन सत्य प्रतिष्ठापित नहीं होगा. सचमुच, मेरा कार्य इतना दुसाध्य है कि इंग्लैण्ड में दो-तीन व्यक्तियों को छोड़कर मेरी बात सुनने वाला कोई नहीं है. और जो हैं, वे भी पुरातन मत के मानने वाले हैं. फिजिसिस्ट और फिजियोलॉजिस्ट के बीच कई वर्षों से संग्राम छिड़ा हुआ है, इस कारण अब कोई भी एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता.

अतएव मुझे पूर्णतया अकेले ही सारा काम करना होगा. और काम भी इतना फैला हुआ है कि उसे करने में समय लगेगा. कितना समय लगेगा, अभी उसका अनुमान लगा सकना मुश्किल है. स़ाफ खुलासा करूं कि प्रत्येक विषय को नये सिरे से स्थापित करना होगा.

तुम्हें बता चुका हूं कि मेरी थ्योरी के समर्थन में कई आश्चर्यजनक प्रमाण प्राप्त हो रहे हैं. निबिड़ अंधकार में धीरे-धीरे आलोक-पुंज देख रहा हूं. यदि तुम यहां होते तो तुम्हें भी यह दिखाकर बहुत खुश होता. थोड़े ही प्रयास से तुम समझ जाते और निश्चय ही मेरी तरह उत्साहित होते.

जिसे प्रमाण द्वारा एक मुहूर्त में प्रत्यक्ष दिखा सकता हूं, उसे लिखकर व्यक्त करना बहुत ही कठिन है. फिर भी सोच रहा हूं कि इस पर एक पुस्तक लिखूंगा, जिस में पुष्पानुरूप से समस्त एक्सपेरिमेण्ट्स का विवरण रहेगा. इसके लिए भी काफी समय अपेक्षित है.

उस दिन प्रिंस क्रोपोटकिन ने विशेष रूप से मेरा तमाम एक्सपेरिमेण्ट देखा. उनकी टक्कर का मनस्वी यूरोप में दुर्लभ है. वे भी दुर्लभ हैं. उन्होंने सब-कुछ देखकर कहा- ‘आपके एक्सपेरिमेण्ट और आर्गुमेण्ट में सूई की नोक घुसने जैसा भी कोई छिद्र नहीं है. आप अवध्य हैं, कोई आपका बाल तक बांका नहीं कर सकता. आपने आवरण नष्ट कर दिया है, फलस्वरूप आपको बेशुमार प्रतिवाद का सामना करना पड़ेगा.’

तुम्हारा जगदीश

 (जनवरी 2016)

 

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