धर्म, नीति या शिक्षा के क्षेत्र में साधन या नियमन के जो कुछ प्रयास होते हैं, उनमें अधिकांश यह वस्तु भुला दी जाती है कि मनुष्य का विशिष्ट स्वभाव ही व्यक्तित्व की एकमात्र नींव या आधार है. मैं जवानी में वैराग्य की ओर आकर्षित हुआ, इसलिए मैंने रूप, रस, घ्राण, स्पर्श और शब्द के प्रति रहनेवाले राग पर अंकुश रखने का निश्चय किया. इन सब विषयों का उपभोग न करने की हेतु दृष्टि से मैंने जप, तप, संयम का कठिन क्रम बनाया, परंतु थोड़े ही समय में मुझे पता लग गया कि मेरा व्यक्तिगत स्वभाव किस ओर दौड़ता है. सुंदर, सुखस्वरूप आकृतियां मेरी दृष्टि में नाचती रहतीं, उन्हें मैंने साहित्य-सृष्टि में जन्म दिया है. मैं कड़ी ज़मीन पर सो रहता, परंतु मेरा मन कमनीय केश और कोमल कलियों का स्पर्श करने को तरसता था. पत्तों की खड़खड़ाहट से उत्पन्न झझर-ध्वनि या दूर से सुनाई पड़ रहे बांसुरी के मधुर, सुश्राव्य स्वर सुनते ही मेरा चित्त हर्ष से नाच उठता और मुझे रोमांच हो आता था. आत्मनिग्रह का नकारात्मक नियमन स्वीकृत करने को मेरा स्वभाव इनकार कर रहा था. वर्षों तक निष्फल प्रयत्न करने के बाद मेरी समझ में आया कि अपने स्वभाव को किनारे रखकर, मुझसे ऊंचे न चढ़ा जायगा. तब, मुझे श्रीकृष्ण के इस उपदेश का मर्म समझ में आया-पराये उत्तम धर्म से अपना गुणहीन धर्म भी अच्छा है.
(कुलपति के. एम. मुनशी भारतीय विद्या भवन के संस्थापक थे)
(फ़रवरी, 2014)